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मुबारक नसब
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अरबी नस्ल के हैं और अरब के इज्ज़तदार क़बीला कुरैश की सबसे ज़्यादा मुकतदिर शाख़ बनी हाशिम हैं। क़ुरआन ने अहले अरब को खिताब करते हुए कई जगहों पर आपके अरबी नस्ल होने का ज़िक्र किया है।
तर्जुमा- (खुदा) वह ज़ात है जिसने उम्मीयीन (अनपढ़ लोगों) में से ही एक रसूल भेज दिया जो उन पर उसकी आयतें पढ़ता और उनका तज्किया करता और उनको अल-किताब (क़ुरआन) और हिकमत सिखाता है।’ (9:128)
तर्जुमा- ‘बेशक तुम्हारे पास तुम ही में से एक रसूल (मुहम्मद सल्ल०) आया। (9:128)
तर्जुमा- ‘जबकि भेज दिया अल्लाह ने उनमें से एक रसूल जो नसब के लिहाज़ से उन्हीं में से है। (3:164)
तर्जुमा- ‘इसी तरह हमने आप पर क़ुरआन को अरबी ज़ुबान में उतारा है, (ऐ मुहम्मद ) तुम मक्का वालों और उनके आस-पास के बसने वालों को (बुराइयों से) डराओ। (42:7)
अरब के नसबों और ख़ानदानों के माहिर इस पर एक राय हैं कि आप सल्ल० हज़रत इस्माईल बिन इब्राहीम (ﷺ) की नस्ल में है, इसलिए कि कुरैश किसी राय के इख्तिलाफ़ के बगैर अदनानी हैं और अदनान के इस्माईली होने में दो राय की गुंजाइश नहीं है।
नसब आदि के उलेमा ने नसबनामे की तफ्सील इस तरह बयान की है –
मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम बिन अब्दमनाफ़ बिन कुसइ बिन किलाब बिन मुर्रा बिन काब बिन लुई बिन गालिब बिन फ़ह बिन मालिक बिन नज्र बिन कनाना बिन खुज़ैमा बिन मुदरका बिन इलियास बिन मुज़र बिन नज़ार बिन माद बिन अदनान
और वालिदा की जानिब से आपका नसबनामा किलाब पर जाकर बाप के नसब-नामे के साथ मिल जाता है यानी आमना बिन्त वहब बिन अब्देमनाफ़ बिन ज़ुहरा बिन किलाब। किलाब को ‘हकीम’ भी कहते हैं।
अलबत्ता अदनान और हज़रत इस्माईल (अलै.) के दर्मियान सिलसिले के नामों से मुताल्लिक़ सनद के माहिरों की रायें अलग-अलग हैं इसलिए नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके बारे में इर्शाद फ़रमा कर ‘क-ज़-बन्नस्साबून‘ (नसब बयान करने वालों ने गलत बयानी की है) कहा और किसी राय की तौसीक़ नहीं फ़रमाई और अपने सनद के सिलसिले से मुताल्लिक़ सिर्फ़ इस क़दर इर्शाद फ़रमाया है
‘अल्लाह तआला ने हज़रत इस्माईल (अलै.) की नस्ल में से कनाना को नुमायां किय और कनाना में से कुरैश को इज़्ज़त व अज़मत बख्शी और कुरैश में बनी हाशिम को इम्तियाज़ अता फरमाया और बनी हाशिम में से मुझको चुन लिया।’ (मुस्लिम)
गोया इस तरह सनद के सिलसिले के उन हिस्सों की तस्दीक़ फ़रमाई जो नसब के माहिरों के दर्मियान बिना इख्तिलाफ़ माने जाते थे।
इस्लाम ने नसबी तफाखुर और उस पर बने हुए समाजी रस्म व रिवाज को बहुत बड़ा गुनाह और जुर्म करार दिया है। वह कहता है खुदा के यहां फज़ीलत का मेयार ईमान और भले अमल’ हैं और वहां हसब-नसब का कोई पूछने वाला नहीं है, साथ ही ‘नसबी तफ़ाखुर (बड़प्पन, भेद-भाव) इस्लाम के बुनियादी कानून ‘इस्लामी भाईचारा‘ के बिल्कुल ख़िलाफ़ है, इसलिए इस्लाम के इज्तिमाई दस्तूर में उसके लिए कोई जगह नहीं है, फिर भी वाकिए के तौर पर तारीख़ यह पता देती है कि हमेशा नबी और रसूल अपनी क़ौम और अपने मुल्क के इज्ज़तदार खानदानों में से होते रहे है।
अल्लाह की हिकमत का यह फैसला शायद इसलिए हुआ कि क़ौमों और मुल्कों के रस्म व रिवाज नसबी फ़ख्र व गरूर, उनके खिलाफ़ उनकी दावते हक़ और उनकी सदाकन पैगाम कहीं ज़ाती लालच के लिए न समझ लिया जाए और इस तरह उसका अख़्लाक़ी पहलू कहीं कमज़ोर न हो जाए, जैसे किसी समाजी ज़िदंगी में ज़ात-पात की तक़सीम और कास्ट-सिस्टम इस तरह मौजूद है कि उसकी वजह से कुछ इंसान कुछ को हक़ीर व ज़लील समझने लगे हैं।
तो अगर उस क़ौम या मुल्क में कोई पैग़म्बर उस खानदान से ताल्लुक रखता हो जिसको क़ौमी और मुल्की रिवाज ने नीच और पस्त क़ौमों का लक़ब दे रखा है, ऐसी हालत में उस खुले ज़ुल्म और बातिल के खिलाफ़ उस पैगम्बर की हक़ की आवाज़ इतनी तेज़ी के साथ कामयाब न होती जितनी उस हालत में हो सकती है, जबकि यह ख़ुद उस क़ौम व मुल्क के ऊंचे ख़ानदान से ताल्लुक रखता हो और सिर्फ़ इसीलिए ख़ास मसले में नहीं, बल्कि उसके पैगामे हक़ की तमाम इस्लाहों में यह फ़र्क ज़रूर नज़र आएगा !
बहरहाल यह हिकमत हर मक़ाम और हर मौक़े पर फ़ायदेमंद हो या न हो, अरब के हालात व वाक़िआत के लिए निहायत मुनासिब और फायदेमन्द साबित हुई। चुनांचे इस्लाम की आवाज़ ने जब अपनी इंकिलाबी और इस्लाही ग़रज़ से रूहानियत की छिपी कायनात में तहलका पैदा कर दिया तो एक तरफ नबी अकरम (ﷺ) ने अरबों को यह सुनाया कि जहां तक खानदानी इम्तियाज़ का ताल्लुक़ है, तो मैं कुरैश भी हूं और हाशमी भी और यह फ़र्क तुम्हारे हिसाब से बहुत बुलन्द हो, मगर मेरी निगाह में इसकी हैसियत सिर्फ यह है।
यह फ़ख्र करने की कोई चीज़ नहीं है, और ‘दूसरी जानिब नसबी फ़ख्र की बुनियादों के गिर जाने और इंसानी बराबरी की आम दावत के लिए इस ख़ुदाई फ़रमान का एलान करके इंसानी कायनात की तमाम तारीक ज़ेहनियत के खिलाफ़ एक बड़ा इंक़िलाब पैदा कर दिया।
तर्जुमा- लोगो! मैंने तुम सबको एक मर्द और औरत से पैदा किया है।
(यानी इंसानी पैदाइश की शुरूआत आदम और उनकी बीवी हव्वा से हुई है) तुमको खानदानों और क़बीलों में सिर्फ इसलिए बांट दिया है कि आपस में (सिलारहमी यानी रिश्तेदारियों के लिए) पहचान और मारफत का तरीक़ा क़ायम कर लो। [अल-हुजुरात]
तर्जुमा- (और असल यह है कि) बेशक अल्लाह के नज़दीक वही इज़्ज़त वाला है, जो तुममें से परहेज़गारी की ज़िंदगी बसर करने वाला है।’ (48:15)
और हज्जतुल बिदाअ के मौक़े पर जब आप हज़ारों सहाबा की मौजूदगी में विदाई पैगाम सुना रहे थे और इस्लाम के बुनियादी उसूल की मज़बूती के लिए अहम वसीयतें पेश फ़रमा रहे थे, उस हुक्मे खुदावन्दी की ताईद में यह इंकलाबी पैगाम भी इर्शाद फ़रमाया –
‘अल्लाह तआला ने इर्शाद फ़रमाया है, ऐ इंसानी नस्ल के लोगो! हमने तमको एक औरत और मर्द से पैदा किया है और हमने तुम्हारे दर्मियान खानदान और कबीले बना दिए हैं, ताकि (रिश्तेदारी के लिए) तआरुफ़ पैदा करो। बिला शुबहा तुममें अल्लाह के नज़दीक वहीं बरगुज़ीदा है, जो ज़्यादा मुत्तक़ी (नेक किरदार) है। पस (खूब याद रखो कि) न अरबी को अज़मी पर कोई फज़ीलत है और न अज़मी को अरबी पर कोई बरतरी हासिल है, न काले को गोरे पर कोई फ़ज़ीलत है और न गोरे को काले पर कोई बुजुर्गी, बल्कि इन सब के लिए फज़ीलत का मेयार सिर्फ़ तक़वा (नेक अमली) है। ऐ कुरैश के लोगो! ऐसा न हो कि तुम (खानदानी फ़ख्र के) झूठे घमंड की वजह से क़यामत में दुनिया को कंधे पर लाद लाओ और दूसरे लोग (नेक अमली की बदौलत) आखिरत का सामान लेकर आएं, वाज़ेह रहे कि तुम्हारे सिर्फ कुरैशी होने की वजह से मैं तुमको ख़ुदा के फैसले से क़तई तौर पर बेपरवाह नहीं बना सकता। (खुदा के यहां तो सिर्फ अमल ही काम आएगा।
(मज्मउल फ़वाइद, भाग 1, मोजम तबरानी कबीर से)
और एक बार नसबी फ़ख्र के खिलाफ़ तब्लीगे हक़ करते हुए उसको ‘जाहिली तास्सुब’ फ़रमाया और मुसलमानों को उससे बचने की सख्त ताकीद फ़रमाई, इर्शाद फ़रमाया –
अल्लाह तआला ने (इस्लाम की दावत के ज़रिए तुम्हारे दर्मियान से जाहिलियत के तास्सुब और नसबी फ़ख्र को मिटा दिया है और अब नेक मोमिन है या बदकार पापी, सब इंसान आदम की औलाद हैं और आदम की पैदाइश मिट्टी से हुई है, (फिर फ़ख्र करने का क्या मौका है।) (अबूदाऊद व तिमिजी)
सरवरे दो आलम ने यह फ़रमाया ‘इन्नमा हुव मोमिनुन लकि-य औ फ़ाजिरुन शकि-य’ इस मसले को इस दर्जा साफ़ कर दिया था कि मुसलमान की ज़िंदगी में कभी इसके खिलाफ़ ज़िंदगी का कोई असर पड़ना ही नहीं चाहिए था।
ज़ात-पात तो सिर्फ इसलिए थी कि छोटे-छोटे हलकों में आपसी तआरुफ, सिलारहमी (रिश्तेदारियों का ख्याल) और हुस्ने सुलूक (सदव्यवहार का मामला) एक दूसरे के साथ आसानी से हो सके, वरना कैसी ज़ात? कहां का ख़ानदान? कौन बिरादरी? यहां तो सिर्फ दो ही फ़ितरी और नेचुरल तकसीमे हैं नेक या बद? किसी क़ौम, किसी खानदान और किसी मुल्क का इंसान हो अगर ‘सच्ची खुदापरस्ती’ और नेकी रखता है तो वे सब एक बिरादरी और एक क़ौम हैं और अगर ‘मुशिरक व काफ़िर और बदकार पापी‘ तो ये सब एक गिरोह और एक टोला है।
यतीमी
ख़तामुल अंबिया हज़रत मुहम्मद ﷺ के वालिद का नाम अब्दुल्लाह और वालिदा का नाम आमिना था। अभी हिदायत का सूरज इस दुनिया में निकला नहीं था और हज़रत आमना (रजि) के मुबारक पेट में अमानत के तौर पर मौजूद था कि वालिद का इंतिक़ाल हो गया और सीरत लिखने वाले कहते हैं कि हज़रत अब्दुल्लाह तिजारत के एक क़ाफिले के साथ शाम तशरीफ़ ले गए थे वापसी में जब काफ़िला मदीना (यसरिब) पहुंचा तो यह बीमार हो गए और इसीलिए अपने ननिहाल में बनी नज़्ज़ार में कियाम किए रहे- काफ़िला जब मक्का पहुंचा तो अब्दुल मुत्तलिब ने बेटे के बारे में मालूम किया। काफ़िले ने उनकी बीमारी और मदीना में कियाम का वाकिया कह सुनाया तब अब्दुल मुत्तलिब ने अपने बड़े लड़के हारिस को हालात मालूम करने के लिए मदीना भेजा। हारिस जब मदीना पहुंचे तो मालूम हुआ कि हज़रत अब्दुल्लाह एक महीने कुछ दिन बीमार रहकर इस दुनिया से चल बसे।
वापस आकर जब हारिस ने बाप को इत्तिला दी तो अब्दुल मुत्तलिब और तमाम ख़ानदान को इस बड़े सदमे ने बेहाल कर दिया, क्योंकि अब्दुल्लाह अपने बाप और भाइयों के बड़े चहेते थे।
गरज़ जब आपकी मुबारक पैदाइश हुई तो इससे कब्ल ही आपको यतीमी का शरफ हासिल हो चुका था। चनांचे क़ुरआन में आपकी यतीमी और दुनिया के आसाइशों से महरूमी के बावजूद अल्लाह की रहमत की गोद में परवरिश पाकर दुनिया को हिदायत पर लाने वाला बनने का ज़िक्र थोड़े में सूरः वज्जुहा में हो चुका है –
तर्जुमा – (ऐ पैगम्बर) क्या तुझको खुदा ने यतीम नहीं पाया, फिर अपनी (रहमत की) गोद में जगह दी और क्या तुझंको नावाकिफ़ नहीं पाया फिर तुझको (कायनात की हिदायत के लिए) हिदायत वाला बनाया और क्या तुझको (हर क़िस्म के वसीलों से महरूम) मुहताज नहीं पाया, फिर तुझको (हर क़िस्म की सरवरी देकर) ग़नी बना दिया।’ (93:6-8)
हज़रत अबू क़तादा (रजि) के क़ौल के मुताबिक़ इन आयतों में अजीन व गरीब एजाज़ और बयान करने का ढंग है। साथ नबी अकरम सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम की पाक जिंदगी के दर्जों का ज़िक्र है। तुम समझते हो वि ‘फआवा‘ के मानी यह है कि परवरदिगार ने आपको रहने सहने की शक्ल पैद कर दी या आपको बेयार व मददगार नहीं रहने दिया। यह भी सही है मगर इस कलामे रब्बानी की असल रूह यह है कि उसने ज़ाते अक़दस सल्ल० के हर क़िस्म के माद्दी (मौतिक) असबाब द वसाइल (साधनों) से बेपरवाह रह कर अपनी रहमत के आगोश में ले लिया और आपकी तरक्की व बढ़ौतरी के ख़ालिस अपनी तर्बियत में कामिल व मुकम्मल किया। (तफ्सीर इब्न कसीर और ‘व-व-ज-द-क ज़ाल्लन फ़-हदा०’ की तफ्सीर को ख़ुद क़ुरआन ही ने दूसरी जगह रोशन कर दिया। जैसे सूरः शूरा में है –
तर्जुमा- ‘और इसी तरह हमने तेरी तरफ़ अपने ‘अम्र’ की रूह व तरक्क़ी (हालाँकि इससे पहले) न तू किताब (क़ुरआन) को जानता था औ न ईमान की हक़ीक़त को, लेकिन हमने उसको ‘नूर’ (रोशनी) बना दिया है अपने बन्दो में से जिसको चाहते हैं (उसकी सलाहियत व इस्तैदाद को सामने रखकर) उसके ज़रिए हिदायत देते हैं। (2:25)
और आयत ‘आइलन फ़अग्ना’ में दुनिया की ज़रूरत और गनी का ज़िक्र कलाम की रूह नहीं है बल्कि इस ओर इशारा है कि अल्लाह तआला ने आपके क़रीब होने का वह बड़ा रुतबा अता फरमाया है कि माद्दी और रूहानी हर क़िस्म की ज़रूरत से ऊपर उठकर अच्छी सिफ़त और बेहतरीन अख़्लाक़ की ऊंची मिसाल ‘गनी’ बना दिया, यही वह गनी है जिसका खुद जाते अक़दस ने इस तरह ज़िक्र फरमाया है –
‘गनी मालदारी की बहुतायत का नाम नहीं है, हक़ीकी गनी नफ़्स का अल्लाह के अलावा हर चीज़ से बेनियाज़ हो जाना है।’ (तफ़सीर इब्ने कसीर)
मुबारक उम्र अभी छः साल की ही थी कि आपकी वालिदा बीबी आमिना का भी इन्तिक़ाल हो गया। बीबी अमिना आपको आपके ननिहाल (मदीना) में लेकर गई थीं, वापसी में मुक़ाम अबवा में बीमार हो गई और कुछ दिन बीमार रहकर वहीं इंतिकाल फरमाया और उम्र की अभी आठ मंज़िलें ही तै हो पाई थीं कि दादा अब्दुल मुत्तलिब ने भी मुंह मोड़ लिया और इस तरह बचपन ही में तर्बियत के वसीले और दुनिया की किफ़ालत के सामान से महरूमी ने गोया अल्लाह की मशीयत की ओर से यह एलान कर दिया कि ज़ाते क़ुदसी सिफ़ात को एक खुदा ने ख़ालिस अपनी तर्बियत के लिए चुन लिया है फिर यह कैसे मुमकिन है कि उसको तर्बियत के दुनियावी असबाब व वसाइल का मुहताज बनाए।
अल्लाह तआला ने एक यतीम व यसीर और मादी वसीलों से महरूम हस्ती को अपने लिए चुनकर किस तरह अपने कामिल रब का मज़हर बनाया।
सूरः इन्शिराह में इस हक़ीक़त को अछूते अन्दाज़ में बयान फ़रमाया है –
तर्जुमा- ‘क्या हमने (हक़ और सच्चाई कुबूल करने के लिए) तेरा सीना नहीं खोल दिया और (मारफते इलाही की हक़ीकी तलब और क़ौम और (इंसानी कायनात की बेराहरवी पर उनकी हिदायत की तड़प का) वह बोझ हमने तुझसे दूर कर दिया जिसने तेरी कमर तोड़ रखी थी और हमने तेरे ज़िक्र को कायनात में बुलन्द कर दिया।’ (14:1-3)
‘शरहे सद्र‘, (सीना खोल देना) यह कि अब सीखने-सिखाने के साधनों के ज़रिए हासिल होने वाले तमाम उलूम व मआरिफ़ अल्लाह की उस अता और देन के सामने नाचीज़ होकर रह गए हैं, जिसकी समाई के लिए हमने तेरे सीने को खोल दिया है, अब उलूम व मआरिफ़ के अपार समुन्दर भी हो, तो सीने के फैले हुए दामन के लिए काफ़ी है और इसी ‘शरहेसद्र ने अल्लाह की मारफ़त के तमाम छिपे खज़ाने तुझ पर खोल दिए और सारा बोझ तेरे सीने पर से हट गया, जिसने तेरी कमर को इसलिए तोड़ रखा था कि दिल से तलाश और दिली तड़प के बावजूद तू इससे पहले नहीं जानता था कि अल्लाह की मारफ़त का सीधा रास्ता कौन-सा है और जिनकी राहें गुम हो चुकी हैं, उनकी रहनुमाई का रास्ता क्या है? मगर अब यह सब कुछ रोशन हो जाने के बाद हमने दुनिया में तेरे ज़िक्र को वह बुलन्दी और ऊंचाई अता फ़रमाई कि तेरा मक़ाम’
‘ख़ुदा के बाद, मुख्तसर यह कि तू ही बुज़ुर्ग है।’
चुनांचे नाम ‘अहमद‘ व ‘मुहम्मद‘ है और मक़ाम ‘मुक़ामे महमूद‘, सूरः हम्द ज़िंदगी का वज़ीफा है और क़यामत में हम्द का झंडा ही नुमायां –
हुस्ने यूसुफ़, दमे ईसा, यदे बैज़ादारी
आंचे खूबां हमा दारंद तू तंहा दारी।
यही नहीं, बल्कि क़ुरआनी दावत के नए सिरे से बुलंद करने वाली तेरी हक़ की सदा ने एतक़ाद व अमल और ईमान व किरदार की राह से तमाम दुनिया के इन्तिमाई व समाजी निज़ामों में जो शानदार इंकिलाब पैदा कर दिया और सोसाइटी के हर शोबे की पुरानी और फटी चादर बिछा दी, उसने तेरे ज़िक्र को वह बुलन्दी दी कि कोई क़ौम, कोई मज़हब और कोई जमात किसी-न-किसी शक्ल में उससे मुतास्सिर हुए बगैर न रह सके।
बुत-परस्ती से नफ़रत, तन्हाई पसन्दी और अल्लाह की इबादत का ज़ौक
बचपन से इज्दिवाज़ी ज़िंदगी (ग्रहस्थ जीवन) के शुरू के मरहलों तक के हालात व वाकियात तफसील के साथ सीरत और हदीस की किताबों में नकल किए गए हैं, इसलिए वहीं उनसे रुजू किया जा सकता है।
मुख्तसर यह कि दादा अब्दुल मुत्तलिब के इन्तिकाल के बाद आपके चाचा अबू तालिब आपके साथ बड़ा उन्स और अपनापन रखते थे और ज़िंदगी भर आपका साथ देने का हक़ अदा करते रहे। नबियों और रसूलों की सुन्नत के मुताबिक़ आपने अपनी रोज़ी का बोझ किसी पर नहीं डाला और दुनिया के कामों में आपने बकरियां भी चराई और तिजारत भी की। शाम (सीरिया) के मशहूर तिजारती शहर बसरा में भी इस ग़रज़ से तशरीफ़ ले गए और पचीस साल की उम्र में यही सफ़र हज़रत ख़दीजतुल कुबरा से निकाह की वजह बना। आप हज़रत ख़दीजा (रजि) का माल साझे की तिजारत की बुनियाद पर बसरा की
मंडी में ले गए। हज़रत ख़दीजा (रजि) का गुलाम मैसरा भी सफ़र का साथी था। इस दर्मियान आप (ﷺ) की सदाक़त व अमानत, एक यहूदी राहिब की बशारत और तिजारत के कीमती मुनाफ़ा का जो तजुर्बा किया था और जो कुछ देखा था, मैसरा ने वह सब हज़रत ख़दीजा (रजि) से कह सुनाया। चुनांचे यह तास्तुर मियां-बीवी के रिश्ते की वजह बना।
अब जिंदगी में एक और इंक़िलाब हुआ कि आप तंहाई में रहना पसन्द करने लगे और हिरा नामी गुफ़ा में दिन व रात गुज़ारने लगे। बुतपरस्ती से शुरू ही से नफ़रत थी, इसलिए भी न किसी मूर्ति के आगे सर झुकाया और न किसी ऐसी मज्लिस में शिर्कत फ़रमाई जो बुत-परस्ती के मेले कहलाते थे। अब अकेलेपन में सलीम फ़ितरत जिस तरह रहनुमाई करती, एक अल्लाह की इबादत करते, मगर एक चुभन सीने में ऐसी थी जो इस हालत में भी बेचैन ही रखती। अक्सर यह सोच कर तड़प जाते थे कि मेरी क़ौम ख़ास तौर से और इसांनी दुनिया आम तौर से किस तरह एक अल्लाह को छोड़कर मूर्तिपूजा और प्रकृति-पूजा (मुज़ाहिर परस्ती) में पड़ी हुई है और यह कि अख़्लाक़ की दुनिया किस तरह उलट गई है। आखिर वह कौन-सा कामयाब नुस्खा है जो इस हालत में इंकिलाब पैदा कर दे और सच्ची खुदापरस्ती और नेक अमली फिर एक बार अपनी शक्ल दिखला दे।
यही जज़्बात व तास्सुरात थे जो बेचैन दिल में करवटें ले रहे थे और हिरा की तन्हाई में इन्हीं कैफियतों के साथ ज़ाते अक़दस, अल्लाह की याद में लगी रहती और जब कई-कई दिन इस तरह गुज़र जाते तो कभी हज़रत ख़दीजा हाज़िर होकर खाने-पीने का सामान दे जातीं और कभी खुद अपने आप जाकर कुछ दिनों का खाने-पीने का सामान ले आते और हिरा में फिर इबादत में लग जाते।
चुनांचे चौदह सदियां गुज़रने के बाद आज भी हिरा, ज़ुबान से ख़ास मंज़र की गवाही दे रही है जिसका लुत्फ़ उसने सालों उठाया है और यही इबादत के लिए वह तंहाई की जगह थी जहां ज़ाते अक़दस पर सबसे पहले अल्लाह की वह्य आई और तर्तीब के साथ सूरः इक़रा और सूरः मुद्दस्सिर की कुछ आयतें सुनाने के लिए बशीर (बशारत देने वाला) व नज़ीर (डराने वाला) बना दिया।
पैग़म्बर बनाए गए
गरज़ ख़ातमुल अंबिया मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पाक ज़िंदगी के इंफिरादी और इज्तिमाई दोनों पहलुओं का यह हाल था कि एक तरफ़ तन्हाइयों में अल्लाह की मारफ़त हासिल करने में लगे हुए सीधे रास्ते की तालाश, इंसानों के सुधार के लिए तड़प और तलब थी और दूसरी तरफ क़ौम व मुल्क के लोगों के साथ, सच अपनाने, सच बोलने, सच का जामा अमली ज़िंदगी में पहनने, सही मामले और सच्ची सोच जैसे बेहतरीन अख़्लाक और पाक-साफ़ खूबियों के साथ समाजी ज़िंदगी को सामने लाना था और इन फ़र्कों की वजह से हर आदमी की निगाह में आपकी यह क़द्र और इज़्ज़त थी कि आप (ﷺ) सबकी मुत्तफका राय से ‘अस-सादिक़ वल अमीन’ के लक़ब से याद किए जाते थे और कल जो दुश्मनी उनको मुहम्मद-अल्लाह के रसूल से नुबूवत के दावे पर हुई, वह आज मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह के साथ क़तई तौर पर नहीं थी और सब ही उनकी इज़्ज़त व एहतराम के क़ायल थे।
यही हालात व वाकियात थे, जबकि मुबारक उम्र चालीस मंजिलें तय कर चुकी थी, रमज़ान का महीना था और आप हिरा ग़ार में इबादत में लगे हुए थे कि अचानक आपके सामने जिब्रील (अलै.) (फ़रिश्ते) ज़ाहिर हुआ और उन्होंने बशारत दी कि अल्लाह ने आपको लोगों की रुश्द व हिदायत के लिए चुन लिया और रिसालत व पैगम्बरी के ऊंचे मंसब पर बिठाया।
यह वाकिया चूंकि मानव-जाति की तारीख में हैरत और इंकिलाब की वजह साबित हुआ और उसने ज़ाते अक़दस को बुलन्दी की इस हद पर पहुंचा दिया, जहां मज़हबों और मिल्लतों में सुधार व इंक़िलाब उस हस्ती की रहमत का फ़ैज नज़र आते हैं, इसलिए तारीख व हदीस के रोशन सफ़हों ने इस वाकिए को तमाम तफ्सील से सही सनद के साथ अपने सीने में हिफ़ाजत से रखा है, चुनांचे हदीस-फन और इस्लामी तारीख के इमाम बुखारी रह०ने अपनी मशहूर व मकबूल ‘अल-जामेअ-अस्सहीह’ में हज़रत आइशा सिद्दीका रज़ि० की सनद से इस वाक़िये को जिन लफ़्ज़ों में नक़ल किया है, उसका तर्जुमा नीचे दिया जाता है। हज़रत आइशा सिद्दीका (रजि) फ़रमाती हैं–
नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर शुरू में सच्चे ख्वाबों का सिलसिला जारी रहा। कोई ख़्वाब आप नहीं देखते थे, मगर अपनी ताबीर (स्वप्नफल) में इतना रोशन और सही साबित होता था, जैसे कि सुबह की सफ़ेदी नमूदार होती है। फिर आपको अकेले रहना महबूब हो गया और हिरा में इबादत में मश्गूल रहने लगे। कभी-कभी आप घर वालों के पास भी तशरीफ़ ले जाते। हज़रत खदीजा (रजि) आपके खाने का कुछ सामान तैयार करतीं और आप उसको लेकर फिर ग़ार में वापस तशरीफ़ ले जाते, इसी तरह हिरा में इबादत में मश्गूल रहते कि अचानक एक दिन आप पर ख़ुदा का फ़रिश्ता नमूदार हुआ और कहने लगा, ‘इक़रा‘ (पढ़िये)। नबी उम्मी ने कहा, “मैं पढ़ना नहीं जानता”
पैगम्बर इर्शाद फरमाते थे कि जब मैंने फरिश्ते से यह कहा तो उसने मुझको पकड़ में ले लिया, जिसकी शिद्दत से मुझको तकलीफ़ होने लगी और फिर छोड़कर मुझसे दोबारा कहा, ‘पढ़िए’ मैंने वही जवाब फिर दिया, ‘मैं पढ़ना नहीं जानता’। तब उसने फिर वही अमल किया और गिरफ्त छोड़कर तीसरी बार फिर जुम्ला दोहरा दिया और मैंने भी वहीं पिछला जवाब दिया। गरज तीन बार यही बात-चीत और यही अमल होते रहने के बाद चौथी बार फरिश्ते ने (सूरः इक़रा) की ये कुछ आयतें तिलावत की –
तर्जुमा- ‘अपने उस परवदिगार के नाम से पढ़ जिसने पैदा किया, उसने इंसान को जमे खून से पैदा किया, पढ़ और तेरा परवरदिगार बहुत करम करने वाला है, जिसने कलम (लेख) के ज़रिए (इंसान को) इल्म सिखाया, इंसान को वह सब कुछ सिखाया, जिसे वह नहीं जानता था।’
गरज़ नबी अकरम (ﷺ) ने इन आयतों को दोहराया और ये आपके ज़ेहन में बैठ गई। इसके बाद जब हिरा मे फ़ारिग हुए तो यह हालत थी कि दिल (वह्य की शिद्दत से) कांप रहा था। आपने मकान में दाखिल होते ही फरमाया, “मुझको कपड़ा ओढ़ाओ।” हज़रत ख़दीजा रज़ि० ने फौरन कपड़ा ओढ़ा दिया। जब आपको सुकून हुआ तो हज़रत ख़दीजा (रजि) को तमाम वाकिया कह सुनाए और फिर फ़रमाया, ‘मुझे जान का डर है (यानी मुझे यह ख़ौफ़ है कि शायद में वह्य के बोझ को बरदाश्त न कर सकू)।
हज़रत ख़दीजा (रजि) ने सुनकर अर्ज़ किया, ख़ुदा की क़सम! ख़ुदा आपको हरगिज़ रुसवा नहीं करेगा, क्योंकि आप रिश्तों को जोड़ते हैं, मेहमानों की मेहमानदारी, बेचारों की चारागरी फ़रमाते और गरीब के लिए मआश का ज़रिया मुहैया करते हैं और हक़ पहुंचाने की कड़ी से कड़ी मुसीबत में मददगार बनते हैं।
इस बात-चीत के बाद हज़रत ख़दीजा रज़ि० नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहिम व सल्लम को अपने चचेरे भाई वरका बिन नौफ़ल के पास ले गईं। वरक़ा बिन नौफ़ल जाहिलियत के ज़माने में उन लोगों में से थे जिन्होंने सच्चे ईसाई धर्म को कुबूल कर लिया था, इबरानी ज़ुबान से वाकिफ़ और इंजील की किताबत किया करते थे और बहुत बूढ़े और आंख के अंधे भी थे।
हज़रत ख़दीजा (रजि) ने वरका से कहा, “मेरे भाई! आप अपने भतीजे का वाकिया तो सुनिए।” वरक़ा ने हालात मालूम किए तब नबी अकरम सल्ल० ने गुज़रा हुआ वाकिया सुनाया। वरक़ा ने सुना तो कहा, ‘यह वह फ़रिश्ता ( जिब्रील अलै. ) है जो हज़रत मूसा (अलै.) पर अल्लाह की वहय ले आया करता था, काश! कि मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रहूं। जब तेरी क़ौम तुझको तेरे वतन (मक्का) से निकालेगी।’
आपने मालूम किया, क्या मेरी क़ौम मुझको वतन से बेवतन कर देगी?
वरक़ा ने कहा, बेशक ऐसा होगा और जिस पैगाम के लिए खुदा ने आपको पैगम्बर बनाया है, उस खिदमत पर जो भी लगाया गया, उसके साथ यही शक्ल पेश आई है। पस अगर वह वक्त मेरी ज़िंदगी में आया, तो मैं पूरी ताक़त के साथ तेरी हिमायत करूंगा।’ मगर वरक़ा को यह वक़्त नहीं मिला, उससे पहले उनका इंतिकाल हो गया।
To be continued …