अस्हाबुल फ़ील (570 ई०)

हब्शा और नजाशी

      आज के दौर में कुछ साल पहले तक हब्शा को अबीसीनिया कहा जाता था और आज कल इथोपिया कहा जाता है। अरब,हब्शा के बादशाह को नजाशी का लक़ब देते रहे हैं। अस्हमा बिन अबजर मशहूर नजाशी था जिसने खुश-किस्मती से नबी अकरम के नबी बनाए जाने का ज़माना पाया और उसे इस्लाम की दौलत मिली। हब्शा का मज़हब और उनका रहन-सहन शुरू से ही मिस्र (अरब) के मज़हब ब तमद्दुन का असर अपनाता रहा है जब मिस्र में ईसाई धर्म फैला तो हब्शा भी ईसाई धर्म की ओर चल पड़ा।

      नोट: कुछ साल पहले तक अबीसीनिया का हुक्मरां ईसाई था। यह शख़्सी हुकूमत थी। इस हुक्मरां का दावा था कि उसके पास रिसालत के ज़माने के बहुत से तबर्रुक एक लोहे के संदूक में हिफ़ाज़त से रखे हैं जिनको वह दूसरी जंग में अपने मुल्क पर इटली के कब्जे के वक्त हवाई जहाज़ में इंतिहाई अज़ीज़ समझ कर अपने साथ लन्दन ले गया था। (मुरत्तिब)

अबरहा अल अशरम

      अबरहा शाही खानदान से था और नाककटा था इसलिए अरब वाले  उसको अबरहा अल अशरम कहते हैं। अरबी में अशरम नाक कटे को कहते हैं। उसकी हुकूमत की शुरूआत 525 ई० से होती है। यह ईसाई धर्म में बड़ी जोशीला था उसने बहुत से गिरजा बनवाए। सबसे बड़ा और मशहूर गिरजा राजधानी सना में बनवाया जिसको अब ‘अल-कलीस’ कहते हैं जो यूनानी लफ्ज़ कलीसा का अरबी बनाया हुआ है। यह गिरजा बनावट के एतबार से बेमिसाल है। उसने यह तमन्ना जाहिर की कि अरब वाले जो मक्का में हज करने जमा होते हैं, उन सबका रुख इस कलीसा की तरफ़ मोड़ दिया जाए और यही हज की जगह बन जाए। अरबों ने जब यह सुना तो बहुत बिगड़े। 

अस्हाबे फ़ील (हाथी वाले)

      अरब की तारीख इसकी गवाह है कि तमाम अरब भले ही उनका ताल्लुक किसी भी मज़हब या फ़िरक़े से हो काबे की बहुत ज़्यादा अज़्मत करते और अपने-अपने अकीदे के मुताबिक़ उसका हज करना मुक़द्दस फ़र्ज़ समझते थे और यही वजह थी कि खास काबा के अन्दर अरब के अलग-अलग फ़िरकों के बुत (तीन सौ साठ की तायदाद में) नसब (गड़े हुए) थे।

      बहरहाल जब सना में ठहरे हुए किसी हिजाज़ी ने यह सुना कि अबरहा ने ‘अल क़लीस‘ को इस नीयत से बनाया है तो उसको गुस्सा आया और उसने रात ही में मौका पाकर उस कलीसा को नजिस कर दिया। अबरहा को जब सुबह को यह मालूम हुआ और तहक़ीक़ के बाद पता चला कि यह काम किसी हिजाज़ी का है तो गुस्से से बे-क़ाबू हो गया और गिरजा की बेहुर्मती देखकर गैज़ व ग़ज़ब में पेच व ताब खाने लगा और कसम खायी कि अब काबा को बर्बाद किए बगैर चैन से न बेठुंगा। यह इरादा करके अबरहा भारी फ़ौज़ और हाथियों की एक तायदाद लेकर मक्का की तरफ़ रवाना हुआ। यह ख़बर तमाम अरब कबीलों में हवा पर सवार होकर पहुंच गई और तमाम अरब में इससे बेचैनी पैदा हो गई।

      सबसे पहले यमन के ही एक अमीर जूनल ने यमन से निकल कर अरब के अलग-अलग कबीलों के पास कासिद भेजे कि मैं अबरहा का मुकाबला करना चाहता हूं। आपको चाहिए कि आप इस नेक मक्सद में मेरा साथ दें। चुनांचे वह आगे बढ़कर अबरहा के मुकाबले में आ गया और उससे लड़ा मगर हार का मुंह देखना पड़ा और जूनम गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद कुछ और मुखालफ़तों का मुकाबला करता हुआ मुग़म्मस की घाटी तक पहुंचने में कामियाब हो गया।

      मुगम्मस पहुंच कर अबरहा ने एक हबशी फौजी अफसर को जिसका नाम अस्वद बिन मसूद था हुक्म दिया कि वह मक्का जाकर छापा मारे। अस्वद मक्का के करीब पहुंचा तो कुरैश और दूसरे क़बीलों के ऊंटों और भेड-बकरियों के रेवड़ को जो बड़ी तायदाद में चर रहे थे पकड़ कर अपनी फौज में ले गया। उनमें अब्दुल मुत्तलिब के भी सौ ऊंट शामिल थे।

      उस ज़माने में अब्दुल मुत्तलिब कुरैश के सरदार थे। यह हाल देखकर कुरैश, कनाना, हुज़ैल और दूसरे कबीलों ने आपस में मशवरा किया कि अबरहा का मुक़ाबला किस तरह किया जाए? मशवरे के बाद यह तय पाया कि हममें लड़कर जीतने की ताकत नहीं है इसलिए हमको मक्का छोड़कर करीब की पहाड़ी पर चले जाना चाहिए। अभी ये लोग मक्का ही में थे कि अबरहा की ओर से खब्बाता अल-हुमैरी पहुंचा और मालूम किया कि मक्का का सरदार कौन है? लोगों ने अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम की तरफ़ इशारा किया।खब्बता ने कहा कि मैं अबरहा की तरफ़ से आया हूं। हमारे बादशाह का यह हुक्म है कि आप तक यह पैग़ाम पहुंचा दूं कि हमारा इरादा आप लोगों को नुक्सान पहुंचाने का नहीं है और न हम आपसे लड़ने आए हैं।

      पस अगर तुम्हारा इरादा मुकाबला करने और रोकने का हो तो तुम जानो और अगर तुम हमारे इस इरादे में रोक न बनो तो हमारा बादशाह आपसे मुलाकात की ख्वाहिश रखता है।

      अब्दुल मुत्तलिब ने जवाब दिया, हमारा बिल्कुल इरादा नहीं है कि हम तुम्हारे बादशाह से लड़ें और न हममें यह ताक़त है। यह अल्लाह का घर है और उसके बरगजीदा नबी इब्राहीम की यादगार पस अगर अल्लाह इसकी हिफ़ाज़त करना चाहेगा तो वह कर सकता है और अगर उसको इसकी हिफ़ाज़त नहीं चाहिए तो हम मुकाबला करने के काबिल बिल्कुल नहीं है।

      गरज़ इस बातचीत के बाद अब्दुल मुत्तलिब अबरहा की फ़ौज में पहुंचे और एक दरबारी की तरफ़ से सिफ़ारिश और तआरुफ (परिचय) कराने पर उसके सामने पेश हुए। अब्दुल मुत्तलिब बहुत शानदार और बहुत ख़ूबसूरत इंसान थे। अबरहा ने देखा तो उनके साथ इज़्ज़त से पेश आया और अपने बराबर उनको जगह दी।

      बातचीत शुरू हुई तो उनकी बातों और ख़िताब के अन्दाज़ से अबरहा बहुत ज़्यादा मुतास्सिर हुआ। बात-चीत के दौरान जब मामले पर बात आई तो अब्दुल मुत्तलिब ने शिकायत की कि आपके सरदार ने मेरे ऊंट गिरफ्तार कर लिए हैं, इसलिए आप से दरख्वास्त है कि उनको मेरे हवाले कर दीजिए।

      अबरहा ने यह सुना तो कहा, अब्दुल मुत्तलिब! मैं तो तुमको बहुत अक्लमंद और समझदार समझता था, लेकिन इस मांगने पर सख्त ताज्जुब है, तुमको मालूम है कि मै काबा को ढाने के लिए आया हूं, जो तुम्हारी निगाह में सबसे ज़्यादा अज़मत वाला और मुक़द्दस है, लेकिन तुमने उसके बारे में एक जुम्ला भी नहीं कहा और ऐसी छोटी और हक़ीर बात का ज़िक्र कर रहे हो?

      अब्दुल मुत्तलिब ने जवाब दिया, बादशाह! ये ऊंट चूंकि मेरी मिल्कियत हैं, इसलिए मैं ने उनके बारे में दरख्वास्त पेश की और काबा मेरा घर नहीं, ख़ुदा का मुक़द्दस घर है, वह अपने आप इसकी हिफ़ाज़त करने वाला है। मैं कौन हूं जो उसके लिए सिफारिश करूं?

      अबरहा कहने लगा, अब इसको मेरे हाथ से कोई नहीं बचा सकता।

      अब्दुल मुत्तलिब ने जवाब दिया, आप जानें, रब्बुल-बैत (घर का रब) जाने।

      यहां पहुंच कर बात-चीत का सिलसिला ख़त्म हो गया और अबरहा ने अपने फौजियों का हुक्म दिया कि अब्दुल मुत्तलिब के ऊंट वापस कर दिए जाएं।

      इब्ने इसहाक़ कहते हैं कि अब्दुल मुत्तलिब के साथ बनी बक्र का सरदार यामर बिन नफ़ासा और बनी हुजैल का सरदार खुवैलद बिन ख़ासला भी थे। रवाना होने से पहले उन्होंने अबरहा के सामने यह पेशकश की कि अगर काबा के गिराने से बाज़ आ जाएं, तो हम जज़िया का एक तिहाई माल आपकी ख़िदमत में हाज़िर कर देंगे, मगर अबरहा ने अपनी ताक़त के नशे में इस पेशकश को ठुकरा दिया और अपने इरादे पर अड़ा रहा, तब ये लोग नाकाम वापस आ गए।

      अब्दुल मुत्तलिब ने वापस आकर कुरैश और अरब के दूसरे क़बीलों को जमा किया और उनको पूरी बातें सुना कर यह मश्विरा दिया कि अब हम सबको करीब ही किसी पहाड़ी पर जमा हो जाना चाहिए, ताकि इस मंज़र को अपनी आंख से न देख सकें। जब अहले मक्का पहाड़ पर जाने लगे, तो अब्दुल मुत्तलिब की क़ियादत में काबतुल्लाह में हाज़िर हुए और उसकी ज़ंजीर पकड कर दरबारे इलाही में यह दुआ की

      ऐ अल्लाह! हम इस बारे में ग़मगीन नहीं हैं कि जब हम अपनी चीज़ों की हिफाज़त कर सकते हैं तो अपनी चीज़ (काबे) की तुझको ज़रूर हिफाज़त करनी चाहिए और तेरी तदबीर पर न सलीब की ताक़त गालिब आ सकती है और न सलीब वालों की कोई तदबीर। हां, अगर तू ही यह चाहता है कि इनको अपने मुक़द्दस घर को ख़राब करने दे, तो फिर हम कौन? जो तेरा जी चाहे सो कर।’ 

      इसके बाद अब्दुल मुत्तलिब और तमाम कुरैश मक्का को खाली करके करीब के पहाड़ों पर चले गए और घाटियों में पनाह ले कर हालात का इन्तिज़ार करने लगे।

      अगली सुबह को अबरहा ने अपनी फ़ौज मक्का की ओर बढ़ाई। अगली कतारों में हाथी थे और उसके पीछे भारी फ़ौज। अभी यह फ़ौज मक्का तक नहीं पहुंची थी कि राह ही में अचानक परिंदों के गोल के गोल (झुण्ड के झुण्ड) नमूदार हुए और फ़ौज के सर पर फ़िज़ा में छा गए, उनकी चोंच और उनके पंजों में कंकड़ियां थीं। परिंदों ने इन कंकड़ियों को फ़ौज पर फेंकना शुरू किया। जिस आदमी को कंकड़ियां लगती थी बदन फोड़ कर बाहर निकल आती थीं और तुरन्त ही अंग गलने-सड़ने लगते थे। नतीजा यह निकला कि थोड़ी देर में सारी फौज तहस-नहस होकर रह गई। 

      मुहम्मद बिन इसहाक़ कहते हैं कि कुछ लोग इसी हाल में फ़ौज से भाग कर यमन और हबशा पहुंचे और उन्होंने अबरहा और उसकी फ़ोज की तबाही का हाल सुनाया।

      मशहूर महद्दिस इब्ने अबी हातिम, उबैद बिन उमैर की रिवायत से नक़ल करते हैं कि जब अबरहा की फौज मक्का की ओर बढ़ी तो तेज़ हवा चली और समुन्दर की ओर से परिंदों का ज़बरदस्त लश्कर (फ़ौज) परे के परे बांधे हुए है, उनके मुंह और उनके दोनों पंजों में कंकड़ियों थीं। उन्होंने पहले तो आवाज़ की और फिर फ़ौज पर कंकड़ियां मारने लगे, साथ ही तुंद व तेज़ हवा चलने लगी, जिसने पत्थर की इस बारिश को फ़ौज के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बना दिया। चुनांचे जिस आदमी पर ये कंकड़ियां गिरी, बदन फोड़ कर बाहर निकल आई और फिर बदन गलने और सड़ने लगा और इस तरह पत्थर के इन टुकड़ों ने सारी फ़ौज को छलनी कर डाला।

      कहते हैं कि अबरहा ने फ़ौज को हुक्म दिया कि वह मक्का की तरफ़ बढ़े, जब वह मक्का के करीब पहुंची तो हाथियों की क़तार में सबसे पहले उस हाथी ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया, जिस पर अबरहा सवार था। फीलबान अगरचे उसको आंकस पर आंकस लगा रहा था और जुबानी डांट-डपट रहा था, मगर वह किसी तरह आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता था, लेकिन जब उसको यमन की ओर चलाते थे तो वह तेज़ी के साथ चलने लगता था। इस हालत में अचानक परिन्दों के गोल (झुण्ड) ने आ घेरा।

      गोया कुदरत की तरफ़ से यह अबरहा के लिए आखिरी तंबीह थी कि वह अब भी समझ जाए कि उसका यह इरादा बातिल और नापाक है और यह हिम्मत असल में अल्लाह की ताक़त को चैलेंज है, इसलिए उसको इससे बाज़ आ जाना चाहिए, लेकिन उस बदबख्त ने इसकी कोई परवाह नहीं की और अपने किरदार के नतीजे को पहुंच गया।

      कुछ रिवायतों में यह भी है कि जब परिन्दों के पत्थरों की बारिश से अबरहा की फ़ौज बर्बाद हो गई तो उसमें कुछ आदमी जो बदहाली के साथ फ़रार हो कर यमन पहुंचे थे, उनमें से खुद अबरहा भी इस हालत में पहुंचा कि उसके तमाम अंग गल सड़कर गिर चुके थे और वह सिर्फ एक गोश्त का लोथड़ा नज़र आता था।

      यानी क़ुदरत ने जिस तरह फ़िरऔन को गर्क़ कर देने के बाद उसकी लाश को इसलिए किनारों पर फेंक दिया था कि वह मिस्र के किब्तियों और बनी इसराईल दोनों के लिए सबक़ बने, इसी तरह यमन और हब्श के बाशिंदों के सबक़ के लिए अबरहा को इस हालत में यमन पहुंचाया कि वे यह गौर करें कि जिस आदमी ने अपनी माद्दी ताकत के घमंड पर अल्लाह की ताकत को चैलेंज किया था, आज कुदरत के ज़बरदस्त हाथ ने उसका यह हाल कर दिया कि –‘फ़-हल अन्तुम मुन्तहून’

क़ुरआन और असहाबे फील

      क़ुरआन ने इस वाक़िया के सूरः फ़ील में बयान को अपने मोजज़ो भरे तरीक़े के साथ इस तरह ज़िक्र किया है गोया ज़ाते अक़दस मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर अल्लाह तआला का बहुत बड़ा एहसान और उनके एजाज़ व इकराम का शानदार ‘निशान‘ है।

      तर्जुमा- (ऐ मुहम्मद.) क्या तुमने नहीं देखा, तुमको मालूम नहीं कि तुम्हारे परवरदिगार ने हाथियों वालों के साथ क्या मामला किया? क्या उनके फ़रेब को नाकारा नहीं बना दिया और भेज दिए उन पर परिदों के झुंड के झुंड, वे फेंक रह थे उन पर ककड़ियां, पस कर दिया उनको खाए हुए भूसे की तरह।    (105:1-5) 

      अस्हाबे फ़ील का यह अजीब व गरीब वाक़िया मुहर्रम के महीने में हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैदाइश से चालीस या पचास दिन पहले पेश आया, अरबों में यह वाकिया इस दर्जा अहमियत व शोहरत रखता था कि उन्होंने इस साल का नाम ‘आमुलफ़ील’ (हाथियों वाला साल) रख दिया और उसके बाद तारीखी वाकियों को उसी के हिसाब से गिनने लगे जो ईस्वी सन् के हिसाब से 591 ई० और रूमी सन् के हिसाब से 896 सिकन्दरी के मुताबिक़ होता है। 

वाक़िये की हक़ीक़त 

      हैरत होती है कि इस वाक़िये से मुताल्लिक़ बहुत से लोग अजीब-अजीब किस्म की तावील पेश करते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि अगर इस अल्लाह ने एक बहुत ही कमज़ोर और छोटे परिंदे और बहुत ही छोटी और हक़ीर चीज़ से ऐसा काम न लिया होता जिसके के लिए एक भारी फौज और लड़ाई का बेपनाह सामान चाहिए था, तो फिर इसके बयान की ज़रूरत क्या थी।

      अरब की दूसरी रिवायतों में और अरब तारिखदानों में यह वाकिया इतना ज़्यादा मशहूर व मारूफ़ था कि जब नबी अकरम सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम पर मक्के की मुबारक ज़िंदगी में सूरः फ़ील नाज़िल हुई तो मुशरिको, यहूदियों और ईसाइयों को इस दुश्मनी के बावजूद जो आपकी मुबारक ज़ात से उनको थी, किसी तरफ़ से भी इस सूरः में बयान किए गए वाकिए के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ न उठी कि यह वाकिया ग़लत है या इसकी असल हकीक़त यह नहीं है, बल्कि दूसरी है।

      यह भी नहीं कहा जा सकता कि चूंकि यह वाकिया सिर्फ़ ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ही नहीं बल्कि तमाम अरब ख़ासतौर से क़ुरैश की अज़मत व इज़्ज़त बढ़ाता था, इसलिए किसी ने उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द नहीं की, यह बात इसलिए ग़लत है कि जिस वक्त यह सूरः नाज़िल हुई है, उस वक्त अरब में मज़हबी फ़िरकाबन्दी के एतबार से अरब के अलग-अलग हिस्सों में आमतौर से और नज़रान के मशहूर शहर में ख़ासतौर से ईसाई धर्म, मक्का के मुशिरकों और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दोनों का हरीफ़ व रक़ीब था।

      इसलिए वे अरबी नज़ाद होने को नज़रअंदाज कर सकते थे, मगर ईसाई धर्म की इस तौहीन को, जो उनके ख्याल से मक्का के कुरैश की इज़्ज़त बढ़ाती थी या मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अज़्मत को एक लम्हे के लिए भी बरदाश्त नहीं कर सकते थे, बल्कि वे और यहूदी दोनों ऐसे वाकिए का सुनना भी गवारा न करते, जो उनके किबला “सखरा बैतुल मक्दिस‘ के अलावा ऐसी जगह ‘काबा’ की हज़ारों गुना अज़मत ज़ाहिर करता है, जिसके क़िबला बनने को वह नफ़रत की निगाह से देखते और एलानिया उसको झुठलाते थे।

      बहरहाल तारीख की साफ़ और बे-मिलावट गवाही यह साबित कर रही है कि आज के एक ईसाई ने भी इस वाकिए के ख़िलाफ़ जुबान खोलने की जुर्रत नहीं की और हिजरत के बाद जब आपकी खिदमते अक़दस में नजरान का वफ्द आया तो वह अपने ख्याल में इस्लाम के खिलाफ़ जिस किस्म की नुक्ताचीनियां कर सकता था और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और क़ुरआन के झुठलाने में जो दलीलें दे सकता था, वे सब उसने पेश किए, लेकिन वाकिए के खिलाफ़ एक हर्फ भी ज़ुबान से नहीं निकाला और अगर ऐसा हुआ होता तो जिस तारीख़ ने साढ़े तेरह सौ साल से इन तमाम एतराजों को अपने दामन में महफूज़ रखा है, जो मुखालिफ़ों की ओर से नबी अकरम मल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, क़ुरआन और इस्लाम पर किए गए हैं, यह कैसे इस एतराज़ को भुला सकती थी।

      नोट : मौलाना हिफजुर्रहमान साहब स्योहारवी रह० ने यूरोपीय लिखने वालों के अलावा रोशन ख्याल मुसलमानों की तावीलों के भरपूर जवाब दिए, शौक रखने वाले असल किताब से रुजू कर सकते हैं। (मुरत्तिब)

      इसलिए तास्सुब से पाक हक़ीक़त पर नज़र रखने वाली निगाह को यह फैसला करना पड़ेगा कि यह वाकिया अपनी तफ्सील के साथ जिस तरह अरब रिवायतों और अरब के तारीखदानों के यहां महफूज़ और मशहूर है, वह क़तई तौर पर सही है और सही न होने की आखिर कौन-सी वजह है कि सूरः फ़ील के उतरते वक़्त इस वाक़िये को गुज़रे हुए सिर्फ़ 42-49 साल हुए थे और वतनी रिवायतों से सुनने वाले लाखों की तायदाद में तमाम अरब के इलाकों में मौजूद थे और किसी ने भी इसकी तावील में ज़ुबान नहीं खोली।

सबक और नसीहत

      1. मज़हब की तारीख पढ़ने से यह मालूम होता है कि अल्लाह की ‘कौमों और उम्मतों में अज़ाब देने वाला कानून‘ हिक्मत के तकाज़े के तहत दो दौर में बंटा रहा है –

      (क) जब तक दीने हक़ की पैरवी करने वाले और अल्लाह के पैगम्बरों की इत्तिबा करने वालों की तायदाद दुश्मनों और मुखालिफ़ों के मुकाबले में इतनी थोड़ी रही है कि आम हालात में वे दुश्मन के मुकाबले से मार रहे हैं, तो इस पूरे दौर में अल्लाह तआला की तरफ़ से ज़मीन व आसमान यानी चांद-सितारों और ज़मीन व आसमान की चीज़ो के ज़रिए उनकी मदद और हिमायत का सामान होता रहा है और हक़ और सच्चाई से सरकश कौमों पर क़ुदरत, बगैर वास्ते के सीधे सीधे ज़मीनी व आसमानी अज़ाब नाज़िल करती रही है, चुनांचे कौमे नूह, आद, अस्हाबे ऐका, फ़िरऔन और कौमे फ़िरऔन वगैरह क़ौमें, उम्मतें सब इसी क़िस्म के अज़ाब से हलाक व बर्बाद की गई, यह दौर हज़रत मूसा (अलै.) पर ख़त्म हो जाता है।

      (ख) अब हक़ व सदाकत के जानिसारों की तायदाद इस दर्जे पर पहुंच गई कि वे अगरचे दुश्मनों के मुक़ाबले में थोड़े भी रहे हों, तब भी अपनी तायदाद की अक्सरियत के लिहाज़ से दुश्मन के खिलाफ़ सीना तान कर खड़े होने के क़ाबिल हैं, तो फिर अल्लाह की सुन्नत यह रही है कि खुद हक़ के फ़िदाकारों और मुसलमानों को यह हुक्म दिया गया कि लड़ाई के मैदान में निकल कर अल्लाह के दुश्मनों का मुक़ाबला करें और अपनी जान की बाज़ी लगाकर मिल्लते बैज़ा और दीने हक़ की हिमायत के लिए सीने को ढाल बनाएं और साथ ही सच्चे रसूलों के ज़रिए यह वायदा भी दिया जाता रहा कि नतीजे के तौर पर जीत और मदद तुम्हारा ही हिस्सा है, “वअन्तुमुल आलौ-न इन कुन्तुम मोमिनीन’ और वह नुसरत और फतह कभी अल्लाह के फ़रिश्तों को जिहाद में साथ देने से पूरी की जाती है और कभी इसकी ज़रूरत नहीं समझी जाती।

      ग़रज़ जिन क़ौमो ने भी हक़ व सदाकत के ज़ाहिर हो जाने और अल्लाह के सच्चे पैगम्बरों की सच्चाई को जान लेने के बाद अदायस व ग़रूर के रास्ते से, हक़ की तालीम से न सिर्फ मुंह मोड़ा, बल्कि उसको मिटाने की नाकाम, कोशिश की, तो अल्लाह तआला ने हमेशा उनको ‘अमल के बदले‘ के आसमान पर खींच कर और अलग-अलग़ क़िस्म के अज़ाब चखा कर ज़िंदगी की किताब से मिटा दिया और अगरचे उनके अज़ाब देने का कानून आमतौर से उन्हीं दो दौरों के अन्दर टिका रहा, फिर भी अल्लाह की हिकमत किसी खास तरीके के दायरे में महदूद नहीं है।

      2. अल्लाह के काबे के खिलाफ़ अस्हाबे फ़ील की लस्करकशी अगरचे उम्मतों के अज़ाब के कानून के दूसरे दौर में पेश आई, लेकिन ऐसे हालात और ऐसे ज़माने में पेश आई, जो पहले दौर से मेल खाते हैं, यानी ‘फ़तरते वह्य़ी‘ (वह्य़ी के कट जाने) का ज़माना जिसमें न कोई रसूल है और न कोई नबी और न वक्त के सच्चे दीन के हामिल ही नज़र आते हैं, और हैं भी तो बिखरे लोग है न कि असरदार जमाअत कि वह काबतुल्लाह की हिफाज़त के लिए सीना तान ले, बल्कि एक दीन की दावत देने वाले मसीही ही इब्राहीमी काबे और तौहीद के मरकज़ को बर्बाद करने पर उतारू नज़र आता है।”

      और मक्का के मुशरिक शिर्क व कुफ़्र के बावजूद अगरचे बैतुल्लाह की अज़मत के क़ायल हैं, मगर ऐसी भारी फ़ौज के मुक़ाबले में ठहरने की ताब नहीं रखते, जिसके साथ भारी भरकम हाथी भी हैं और काबे को रब्बे काबा के भरोसे छोड़कर पहाड़ की घाटियों में पनाह ले लेते हैं, तो ऐसी हालत में दो ही शक्लें हो सकती थीं।

      एक यह कि अबरहा और उसकी फ़ौज (हाथी वालों) को उम्मतों के अज़ाब देने के क़ानून के पहले दौर के मुताबिक़ हलाक व बर्बाद कर दे, ताकि वाकिया इंसानी क़ानून के लिए सबक़ हासिल करने की वजह बने। चुनांचे हज़रते हक़ की जानिब से यही दूसरी सूरत सामने आई और क़ुदरत के एजाज़ ने ‘असहाबे फील‘ (हाथी वालों) पर जो आसमानी अज़ाब नाज़िल किया था. सूरः फील में उसी को बयान किया गया है- ‘ज़ालि-क हुवल हक्क’ (यह हक़ है) ‘व मा ज़ालि-क अलल्लाहि बिअज़ीज़० (और वे अल्लाह पर हावी होने वाले नहीं ।)

      3. यह वाकिया हज़रत मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि व सल्लम की पैदाइश से कुछ दिन पहले पेश आया। यह वह वक्त था, जबकि कायनात का गोशा-गोशा खुदा-परस्ती और एक अल्लाह होने (तौहीद) के नामों से महरूम हो चुका था। ख़ुदा की भेजी हुई सच्ची तालीम के दावेदार हर जगह मौजूद थे, मगर सच्ची तालीम गुम हो चुकी थी और दीन और मिल्लतों की असल रूप-रेखा और उनकी हक़ीक़ी शक्ल व सूरत को बिगाड़ने और बदलने के मर्ज़ ने तबाह कर दिया था।

      हर जगह शिर्क व कुफ़्र का दौर-दौरा था, कहीं बुत परस्ती हो रही थी, तो किसी जगह तारों की पूजा का शोर था, कहीं आग पूजा इबादत का मक़सद थी, तो किसी जगह अनासिर परस्ती (तत्व पूजा) दीन का नस्वुलऐन बन चुकी थी, कहीं तसलीस (ईसाइयत) ने जगह पाकर हज़रत ईसा (अलै.) को ‘मसीह इब्नुल्लाह‘ बनाया था, तो किसी गिरोह ने ‘उज़ैरुनुल्लाह‘ कह कर मज़हब के नाम का सहारा लिया था तो गरज़ सारी कायनात में या ख़ुदा का इंकार काम कर रहा था और या फिर अस्नाम परस्ती, अनासिर परस्ती, कवाकब परस्ती, जीव-पूजा ने फ़लसफ़ों वाले विचार की आड़ लेकर शिर्क व कुफ़्र को नुमायां किया, इसलिए यहां खुदा परस्ती के अलावा और सब कुछ मौजूद या। अगर कोई चीज़ गुम थी, तो वह सिर्फ एक अल्लाह की परस्तिश ही थी।

      इन हालात को देखते हुए हक़ की.गैरत का यह फैसला हुआ कि अब वह हिदायत के नूर को रोशन करे और रिसालत का वह सूरज चमके जो किसी ख़ास दुनिया के एक इलाके को ही नहीं, बल्कि तमाम दुनिया और सारी कायनात को सीधा रास्ता दिखाए और कायनात परस्ती से हटाकर खुदा परस्ती सिखाए, वह खोए हुए लोगों को सीधा रास्ता दिखाए और भटके हुए गुलामों को हक़ीक़ी मालिक व आक़ा से मिलाए, टूटे हुओं का रिश्ता जोड़े और जाहिलियत की ज़ंजीरो को तोड़े, वह ख़लील (अलै.) की दुआ और मसीह (अलै.) के नवेद का हासिल हो और इस तौहीद के मरकज़ ‘काबा‘ को हक़ीकी अज़मत व हुर्मत की दावत देने वाला, जो खुदा-परस्ती के लिए सबसे पुराना और मुक़द्दस घर है और जिसके बनाने और नया करने का शरफ़ इब्राहीम व इस्माईल (अलैहिमस्लाम) जैसे पैगम्बरों को बख्शा गया।

      आज इसराईल (अलै.) के खानदान से दावते हक़ की अमानत वापस ले ली गई, क्योंकि उन्होंने खियानत की और अपने बुजुर्गों की नसीहत को भुला दिया। ‘नाबुदु इला-ह-क व इला-ह आबाइ-क इब्राही-म व इस्माई-ल व इस्हाक (2:133) आज इस्माईल (अलै.) का खानदान नवाज़ा गया और ख़ुदा की पाक अमानत ‘सलालतु इस्माईली‘ को अता कर दी गई। वक़्त आ रहा है कि रिसालत व नुबूवत का यह चांद बहुत जल्द हिरा के ग़ार से निकले और हकीक़त का सूरज बनकर दुनिया पर चमके, उसकी मिल्लत मिल्लते इब्राहीमी कहलाए और दुनिया में ख़ुदा का सबसे पहला घर ‘काबा’ फिर दुनिया का क़िबला और कायनात का मरकज़ बने।

      4. सूरः फ़ील के पढ़ने से दो बातें साफ़ तौर पर समझ में आ जाती हैं –

      एक यह कि इस वाक़िये से अल्लाह की तरफ़ से काबत्तुल्लाह की हुरमत व अज़मत की हिफाज़त का सोचा-समझा नतीजा निकलता है।

      अब रहा यह मामला कि इस वाक़िये को बयान करने का जो मक़सद है यह अपने अन्दर क्या राज़ रखे हुये है, तो अगरचे ख़ुदा की हिकमतों का एहाता करना, फानी इंसान की सलाहियत से बाहर की चीज़ है, फिर भी अगर ध्यान दिया जाए तो दो हिकमते नुमायां नज़र आती हैं –

      1. यह वाकिया आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पैदाइश के लिए एक ज़बरदस्त ‘निशान‘ की हैसियत रखता है, इसलिए कि क़ुदरत के निज़ाम के उभरे हुए निशान हमें यह पता देते हैं कि इस दुनिया में जब भी कोई बड़ा इंकलाब बरपा होता है, तो उसके आने से पहले ज़रूर ऐसी निशानियां ज़ाहिर होती हैं कि जिनको देखकर हक़ीक़त समझने वाले और सबक़ लेने वाले इंसान की निगाह आने वाले इंकलाब का अन्दाज़ा कर लेती है और इंसान ही नहीं बल्कि हज़रते हक़ ने जानदारों तक में छोटी-छोटी बातों के एहसास को भी सलाहियत दी है, वह आंधी-पानी के तूफ़ान और भूचाल जैसे वाकियों का पता सिर्फ़ निशानियों में पा लेते और वक्त से पहले ही अपनी बेचैनी और तकलीफ़ के एहसास के ज़रिए दूर तक पहुंच रखने वाले इंसानों को इन हक़ीक़तों का इल्म करा देते हैं।

      2. इस वाक़िये का ज़िक्र करके अल्लाह ने कुरैश को अपना बहुत बड़ा एहसान याद दिलाया है कि वे यह न भूल जाएं कि जिस वक़्त ‘काबा’ की अज़मत के क़ायल होने के बावजूद अबरहा (हाथी वाले) के उस मुक़ाबले से आजिज़ रहे थे, जिसमें उसने ‘काबा‘ की बर्बादी का बेड़ा उठाया था, उस वक़्त हमने अपनी कामिल क़ुदरत के एजाज़ वाले निशान से वह कर दिखाया कि दुश्मन की शरारत भरी तदबीर और उसका बुरा इरादा दोनों ख़ाक में मिल कर रह गए।

      क्या तुमने इस सबक़ भरे वाक़िये से यह सबक़ हासिल नहीं किया कि यह सब कुछ तुम्हारी ख़ुशनूदी के लिए नहीं था, जबकि तुम शिर्क की अंधेरियों में डूबे हुए और कुफ़्र की गन्दगियों में लत-पत थे, बल्कि काबे की उस अज़मत को बाक़ी रखने के लिए था, जिसकी तामीर बूढ़े पैगम्बर हज़रत इब्राहीम (अलै.) और जवां हज़रत इस्माईल (अलै.) के मुक़द्दस हाथों से हुई और जिसके बारे में उन्होंने यह फ़रमाया –

      तर्जुमा- ऐ मेरे परवरदिगार! मैने बसाया है अपनी कुछ औलाद को बिन खेती की सरज़मीन में,तेरे बाइज़्ज़त और बाहुरमत घर के पास। (14:37)

      समझो और मामले की हक़ीक़त पर गौर करो और अल्लाह के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मुखालफ़त से बाज़ आ जाओ।

      इस बात की ताईद सूरः फील से मिली हुई सूरः कुरैश से भी होती है, इसलिए कि इस सूरः में कुरैश को यह तवज्जोह दिलाई गई है या इन पर अपने उस एहसान को ज़ाहिर किया गया है कि अरब क़बीलों की आपसी बात-बात पर लड़ाइयों और मामूली-मामूली मामले पर झगड़ों के बावजूद वे हरमे मक्का में किस तरह मामून व महफूज़ (सुरक्षित) हैं और न सिर्फ यह बल्कि उसकी खिदमत से मुताल्लिक़ होने की वजह से हरम से बाहर सर्दी और गर्मी, दो मौसमों में अपने महबूब तिजारती सफ़रों में शाम और यमन तक बिना कोई खौफ़ और खतरा महसूस किए आते जाते है और कोई आंख उठाकर भी उनकी ओर देखने नहीं पाता।

      तो क्या वे इस एहसान के शुक्रगुज़ार नहीं होते और हरम और काबा की सभी अज़मत को सरबुलन्द करने के लिए अल्लाह का आखिरी पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तुमको जिस सच्चाई की ओर बुलाते है, उस पर लपक पड़ने को तैयार नहीं होते, उनको यह बात हरगिज़ ज़ेब (शोभा) नहीं देती।

      तर्जुमा – पस उनको चाहिए कि वे उसके घर के परवरदिगार की सच्ची परस्तिश करें कि जिसने उनकी भूख के लिए रोज़ी का सामान जुटाया और उनको खौफ और खतरे से मामून व महफूज़ कर दिया। (106:3-4)

      5. अबरहा मज़हबी तौर पर ईसाई था और इसलिए वह बैतुल्लाह (काबा) की अज़मत को किसी तरह बरदाश्त नहीं कर सकता था और उसका वजूद गोया एक ख़ार था जो कांटे की तरह उसके दिल में चुभ रहा था। उसने सोचा हि काबा मामूली पत्थरों की एक सादा इमारत है, अगर इसके मुक़ाबले में एक ऐसी खुबसूरत और बेनज़ीर इमारत कलीसा (गिरजा) की शक्ल में तैयार की जाए जो कीमती पत्थरों और मोती-जवाहरात से सजी हो, तो इस तरह मैं सारे अरब की तवज्जोह ‘काबा’ से हटा सकूँगा और नयी इबादतगाह को पूरी दुनिया की तवज्जोह की जगह बना सकूँगा। 

      यह सोच कर एक तरफ उसने यमन की राजधानी सनआ में एक बेनज़ीर गिरजा ‘अल-कलीस‘ बनवाया और दूसरी तरफ़ एक मामूली वाक़िये को हीला बना कर काबा की बर्बादी का तहैया किया। नतीजा जो कुछ हुआ, तफ़सील से ज़िक्र किया गया, लेकिन इस वाक़िये में इस ओर इशारा मालूम होता है कि दुनिया की तमाम कौमों में सबसे ज़्यादा ईसाइयों को ही इस बैतुल्लाह ‘काबा‘ के साथ अदावत रहेगी और वे अपने सभ्य या असभ्य हर दौर में उसके खिलाफ़ अपनी अदावत ज़ाहिर करते रहेंगे और हमेशा तौहीद के इस मरकज़ के पीछे पड़े रहेंगे।

      चुनांचे माज़ी (भूतकाल) की तारीख इस पर गवाह है कि जब कभी ईसाइयों को इसका मौक़ा मिला उन्होंने अमली तौर पर अपनी अदावत ज़ाहिर किए बगैर न छोड़ा और अगरचे अल्लाह तआला ने इस सिलसिले में हमेशा उनके इरादों को नाकाम रखा, मगर वे बहरहाल अपने दिली बुग्ज़ व अदावत का सबूत दिए बिना न रहे।

      6. काबा ‘बैतुल्लाह‘ यानी ‘खुदा का घर‘ कहलाता है, इसका यह मतलब नहीं कि अल-आयाज़ुबिल्लाह (खुदा की पनाह) अल्लाह किसी घर में रहता है या वह घर का मुहताज है, बल्कि सच तो यह है कि उसने अपनी ख़ालिस इबादत की गरज़ से, दूरदूर के इलाके तक के मुसलमानों और सच्चे इबादत गुज़ारों के लिए काबा को मरकज़ व महवर बनाया है और यह इसलिए कि अल्लाह दिशाओं से परे और पाक है और इंसान अपने काम में दिशाओं में से किसी दिशा का मुहताज, तो बहुत ज़रूरी था कि तमाम कायनात के तौहीद की पैरवी करने वाले और इबादत करने वाले रब्बुल आलमीन की इबादत और उनकी मिल्ली और दीनी ज़िदंगी के लिए एक मरकज़ हो, ताकि वे बिखराव और टूट-फूट से बचे रहें और इज्तिमाई एका का सबक सीखें।

      इसलिए उसके लिए वह मुकद्दस इमारत ‘शआइरुल्लाह‘ क़रार दे दी गई, जिसको बुज़ुर्ग नबी हज़रत इब्राहीम (अलै.) और उनके मुक़द्दस बेटे इस्माईल (अलै.) ने दुनिया में सबसे पहले सिर्फ एक अल्लाह की परस्तिश के लिए बनाया था और जो तौहीद के एलान की सबसे पुरानी यादगार थी।

      पस किसी मुसलमान के लिए यह जायज़ नहीं कि वह काबा की इसलिए अज़मत करे कि वह ‘सनम‘ (मूर्ति) है या अपने आप में पूजनीय है, इसलिए कि जो ऐसा समझेगा वह मुसलमान नहीं बल्कि मुशरिक कहलाएगा बल्कि उसकी ज़ियारत इसलिए है कि वह ‘शआइसल्लाह‘ (अल्लाह की निशानी) में से है और है तौहीद का मरकज़।

‘’फातबिरू या उलिल अब्सार’’

To be continued …