Contents
वह्य़ी आने का पहला दौर
नबी अकरम सल्ल० पर सबसे पहले सूरः अलक़ की ये आयतें उतरीं –
तर्जुमा- ‘पढ़ो, अपने परवरदिगार के नाम से, जिसने पैदा किया इंसान को जमे खून से, पढ़ो, और तेरा परवरदिगार जो सबसे ज्यादा बरगज़ीदा है, वह हस्ती है जिसने सिखाया लिखना सिखाया इंसान को वह सब कुछ जो वह नहीं जानता था।’ (8:1-5)
इन आयतों में यह बताया गया है कि अगर इंसान जो ख़ुदा की सबसे बेहतर और कायनात के सिलसिले की सबसे ज़्यादा तरक्की पाई मख्लूक़ है और इसी वजह से वह कायनात में ‘अल्लाह के ख़लीफ़ा’ के मंसब पर दिखाया गया है, उसकी पैदाइशी कमज़ोरियों का यह हाल है कि उसकी पैदाइश गंदे पानी और जमे खून से हुई है। लेकिन अल्लाह ने जब उसको ऊंची जगह बख्शने का इरादा किया और ऊंचे पदों पर बिठाना चाहा तो उसको वह सिफ़ते आला अता फ़रमाई जो अल्लाह की सिफ़तों में बहुत ऊंची है यानी उसके “सिफ़ते इत्म का मज़हर‘ बनाया, उसको ‘कलम के ज़रिए‘ लिखना सिखाया और इल्म व इरफ़ान की धुरी बनाया, फिर इस तरफ़ भी इशारा किया कि इल्म हासिल करने के तीन ही तरीके हैं –
1. ज़हनी, 2. लिसानी (भाषायी), 3. रस्मी।
इल्म ज़हनी लफ़्ज़ों और रस्मों का मुहताज नहीं होता और लिसानी इल्म ज़हनी इल्म का मुहताज है मगर रस्म व नक्श लिखने से बे-नियाज़ है और रस्मी इल्म रस्मुलखत (लिपि) और नक्शों का भी मुहताज है। पस अगर ‘रस्मी इल्म‘ का किसी जगह ज़िक्र हो तो लिसानी और ज़ेहनी इल्मों का ज़िक्र अपने आप हो जाता है क्योंकि यह अपने से बुलन्द हर दो इल्मों के लिए बेहतरीन ताबीर करने वाला है और ज़ाहिर है कि इल्म रस्मी इल्म ‘क़लम‘ का मुहताज है, इसलिए क़ुरआन ने ‘अल्ल-म बिल क़लम’ कह कर बड़े अच्छे ढंग से इस पूरी तहक़ीक़ को वाज़ेह कर दिया।
इसकी और तशरीह ‘अल्ल-मल इंसा न मा लम यालम’ से कर दी और इस बयान का मक़सद यह है कि एक तरफ़ इल्म और नुबूवत का क्या ताल्लुक़ है, वह ज़ाहिर हो जाए दूसरी ओर इंसान को अपनी ज़िंदगी के सही मक़सद का इल्म हो जाए।
वह्य़ उतरने का दूसरा दौर
हिरा ग़ार में नुबूवत के मंसब से सरफ़राज़ किए जाने के वक्त सूरः अलक़ की ये कुछ आयतें उतर कर अल्लाह की वह्य़ी का सिलसिला कट गया। अल्लाह की हिकमत का तकाज़ा यह हुआ कि हिरा में फ़रिश्ते के ज़ाहिर होने और वह्य़ी के नाज़िल होने से फौरी तौर पर नुबूवत व रिसालत की खुसूसियतें और असरात ज़ाते अक़दस पर हुए हैं, वे अच्छी तरह पक जाएं और नुबूवत व रिसालत की सलाहियत व इस्तेदाद की तक्मील हो जाए, ताकि आगे वह्य़ के सिलसिले के मज़बूत मुहर्रिकात और मुअस्सिरात पैग़म्बर (ﷺ) की बशरी ख़ासियतों के लिए अजनबी न रहें, इसलिए कुछ दिनों के लिए वह्य़ के नाज़िल होने का सिलसिला बन्द रहा। इसी को मज़हब के लफ़्ज़ों में ‘फ़तरते वह्य़ी’ (वह्य़ी का बन्द होना) कहते हैं।
लेकिन ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को हिरा में पेश आने वाली कैफियत और सूरतेहाल से जो फ़ितरी तशवीश (स्वाभाविक चिन्ता) पैदा होती थी, जब उसने सुकून और इत्मीनान की शक्ल इख्तियार कर ली तो वह्य़ के नाज़िल होने की रूहानी कैफियतों ने इस दर्जा लुत्फ़ पैदा किया कि आप उस ‘फ़तरत’ को बर्दाश्त न कर सके और लुत्फ़ वाले और गहरे जज़्बों ने इस हद तक बेचैनी की शक्ल इख्तियार कर ली कि कभी-कभी नामूसे अकबर (जिब्रील अमीन) ज़ाहिर हो कर आपको सब्र व तस्कीन की दावत देते और यक़ीन दिलाते थे कि अपनी तमाम नज़ाकतों, खूबियों और हुस्न व कमाल के साथ नुबूवत व रिसालत का यह सिलसिला आपकी ज़ाते अक़दस के साथ जुड़ चुका है और ‘फ़तरत‘ का यह दौर बस थोड़े दिनों का है, इसलिए आप परेशान न हों।
तब आप तस्कीन पाते और वायदे वाले वक्त के इन्तिज़ार में रहते कि कुछ दिनों बाद वह्य़ के आने का सिलसिला दोबारा शुरू हुआ और सबसे पहले सूरः मुद्दस्सिर की ये आयतें उतरी –
तर्जुमा- ‘ऐ कमली पोश उठ, (और लोगों को गुमराही के अंजाम से) डरा और अपने पालनहार की अज़मत व जलाल को बयान कर और लिबास को पाक कर और बुतों से जुदा रह और ज़्यादा हासिल करने की नीयत से अच्छा व्यवहार न कर और अपने पालनहार के मामले में (अज़ीयत व मुसीबत पर) सब्र इख्तियार कर।’ (74:1-7)
इन आयतों ने गोया ज़िंदगी के इंसानी मक़सद की तकमील कर दी, क्योंकि सूरः अलक़ में कहा गया था कि इंसानियते कुबरा के लिए ‘सही इल्म‘ शर्त है। यह नहीं तो कुछ भी नहीं। अब यह बताया जा रहा है कि सही इल्म की ऊंचाई और बड़ाई के मान लेने के बाद भी इंसानियत की तकमील उस वक्त तक नामुमकिन है कि सही इल्म के साथ ‘सही अमल‘ भी मौजूद हो, इसलिए कि अगर इल्म सही है और अमल सही मफ़कूद हो, तो उसका फायदा मुअत्तल और बेकार है और अगर अमल है और सही इल्म नदारद, तो वह अमल नुक़सान की वजह है। रुश्द व हिदायत और सीधे रास्ते के लिए दोनों ही का वुजूद ज़रूरी है और तभी ‘इंसान‘ ‘इंसानियते कुबरा‘ हासिल कर सकता है।
गरज़ जिस तरह सूरः अलक़ की आयतों से ‘इल्मे नाफेअ‘ (लाभप्रद ज्ञान) की ओर इशारे किए, उसी तरह सूरः मुद्दस्सिर ने ‘अमले नाफ़ेअ’ की बुनियादी तफ्सीलें ज़ाहिर की हैं। ख़ुदा की हस्ती और उसका कामिल रब होना दोनों का अमली एतराफ़, बातिनी तहारत व पाकीज़गी का कमाल, ज़ाहिरी तहारत व पाकीज़गी का लाज़िम होना, बेगरज़ और बेलौस अख्लाक़े हमीदा की बुनियाद, ‘एहसान‘ पर जमाव और कुबूले हक़ और नेक अमली के नतीजों पर ‘सब्र‘ इन आयतों का हासिल हैं और यही वे बुनियादी बातें है, जिनमें इल्मे हक़ और अमले सही की तमाम कायनात समा दी गई है।
साथ ही हज़रत मुहम्मद (ﷺ) के लिए सूरः अलक़ और सूरः मुद्दस्सिर का यह खिताब और पैगामे हक़ इशारा है इस तरफ़ कि अमल का यह निज़ाम मंसबे रिसालत के लिए ‘नफ़्स की तकमील‘ और रुश्द व हिंदयत की दावत के लिए पहले दर्जे की हैसियत रखता है और यही क़रीबी मुस्तक़बिल में ‘आम बेसत‘ की वजह साबित होगा।
दावत व इर्शाद के एलान की पहली मंज़िल
क़ुरआन के इस हुक्म के बाद जो कि तब्लीग और हक़ की दावत का पहला पैगाम था, दावत व इर्शाद ने एक क़दम और आगे बढ़ाया और अब ज़ाते हक़ ने सूरः शोअरा की आयतें नाज़िल फ़रमा कर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह फैसला सुनाया कि सबसे पहले रिश्तेदारों और करीब के लोगों को हक़ की दावत दीजिए, ताकि दूसरों पर भी उसका असर पड़े और यों भी कुरैश और बनी हाशिम के वह्य़ी कुबूल करने का असर तमाम अरब क़बीलों पर पड़ना लाज़िमी है, इसलिए वे सब क़बीलों के सरखेल और सर गिरोह हैं और हरम के रहने वाले होने की वजह से तमाम अरब पर उनका दीनी और दुनियावी असर है। सूरः शोअरा में है –
तर्जुमा- ‘और (ऐ पैग़म्बर!) अपने क़रीबी नातेदारों को (गुमराही से) डरा और जो मुसलमान आपकी पैरवी करने वाले हैं, उनके लिए अपने बाज़ुओं को पस्त रखो (यानी नर्मी और तवाज़ो से पेश आओ) अगर वे नाफरमानी करें तब तो उनसे कह दो मैं, तुम्हारे इन (बुरे कामों से बरी हूं और ग़ालिब रहम करने वाली ज़ात पर भरोसा करो जो तुमको उस वक्त भी देखती है, जब तु उसके दरबार में खड़ा होता है और उस वक्त भी, जबकि तू सज्दा करने वालों में मिलकर उसके सामने सज्दा रेज़ होता है। बेशक वह सुनने वाला और जानने वाला है।’ (26:214-220)
गोया यह इल्म व अमल की तकमील और रुश्द व हिदायत के ‘मंसबे फैज़ान‘ के बाद दूसरा दर्जा था, जिसमें हक़ का एलान और इस्लाम की दावत की अमली सूरत इख्तियार करने के लिए तहरीक़ की गई। चुनांचे सही रिवायतें गवाह हैं कि आप (ﷺ) ने सफ़ा की चोटी पर खड़े होकर उस ज़माने में राइज एलान के तरीक़े के मुताबिक़ ‘या सबाहा’ कहकर कुरैश के खानदानों पुकारा और जब सब जमा हो गए तो एक मिसाल देकर समझाया कि मैं खुदा का पैग़म्बर, रसूल और सीधे रास्ते के लिए सच्चा हिदायत करने वाला हूं। इर्शाद फ़रमाया –
‘लोगो! अगर मैं तुमसे यह कहूं कि इस पहाड़ के पीछे एक भारी फौज जमा है और तुम पर हमले के लिए तैयार, तो क्या तुम मुझको सच्चा समझोगे? ‘ओ मुसद्दिकी! लोगों ने कहा हमने आपको ‘अस्सादिकुल अमीन’ पाया है, आप जो कुछ कहे हक़ और सदाक़त पर टिका होगा, तब आपने फ़रमाया, तो लोगो! मैं तुमको एक अल्लाह की ओर बुलाता हूं और मूर्ति-पूजा की गन्दगी से बचाना चाहता हूं। तुम उस दिन से डरो, जब खुदा के सामने हाज़िर होकर अपने आमाल व किरदार का हिसाब देना है।’ (तारीखे इब्ने कसीर)
यह सच्ची आवाज़ जब कुरैश के कानों में पहुंची, तो वे हैरान रह गए और बाप-दादा के दीन ‘बुतपरस्ती‘ के खिलाफ़ आवाज़ सुनकर ख़फ़ा होने लगे, गोया सब में एक आग दौड़ गई और सबसे ज़्यादा आपके हक़ीक़ी चचा अबूलहब को तैश आया और ग़ज़बनाक हो कर कहने लगा, ‘तू हमेशा हलाक़त और रुसवाई का मुंह देखे, क्या तूने इस ग़रज़ से हमको बुलाया था?’
अजब मंज़र है कि कुछ घड़ियां पहले जिस मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह (ﷺ) की सदाक़त व अमानत और अच्छी आदतों से सारी क़ौम मुतास्सिर रहकर उसकी अज़मत व इज़्ज़त करती और उनके साथ बालिहाना मुहब्बत ज़ाहिर करती थी, वही आज इस एलान पर कि ‘मैं मुहम्मद रसूलुल्लाह हूं’ एक साथ पराएपन और नफ़रत रखने वाली और खून की प्यासी बन गई।
दावत व इर्शाद की दूसरी मंज़िल
सीरत की किताबों में पढ़ आए हो कि नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने खानदान और बिरादरी के लोगों को राहे हक़ दिखाने और उनकी ईमानी और अख़्लाक़ी हालत ठीक करने की ख़ातिर क्या कुछ नहीं किया, मगर कुरैश के कुछ लोगों के सिवा किसी ने आपकी दावत पर लब्बैक न कहा और अदावत व बुग्ज़ को अपना शेवा बनाए रखा। तब दावत व इर्शाद ने तरक्क़ी के तीसरे ज़ीने पर कदम रखा और अल्लाह की तरफ से हुक्म हुआ, ऐ हक़ की दावत देने वाले! खानदान और बिरादरी के इंकार और सरकशी से बद-दिल और ग़मगीन न हो और अपनी ज़िम्मेदारी पर जमकर डटे रहो, क्योंकि सआदत (सौभाग्य) और शकावत (दुर्भाग्य) तुम्हारे क़ब्ज़े में नहीं हैं, तुम्हारा काम तो सिर्फ इब्लाग (पहुंचाना) है अलबत्ता अब खानदान के दायरे से आगे बढ़कर मक्का और उसके चारों तरफ के क़बीलों और क़ौमों को भी हक़ का यह पैगाम सुनाओ और दावत व इर्शाद का यह तोहफ़ा उनके सामने भी रखो, ताकि जो सईद रूहें ‘पैगामे हक़‘ के लिए बेचैन और परेशान हैं, वे इस पर लब्बैक कह कर तस्कीन पाएं और प्यासी रूह को ज़िंदगी के पानी से सींचें।’
तर्जुमा- ‘और (देखो) यह किताब (क़ुरआन) है जिसे हमने (तौरात की तरह) नाज़िल किया, बरकत वाली और जो किताब इससे पहले नाज़िल हो चुकी है, इसकी तस्दीक़ करने वाली और इसलिए नाज़िल की, ताकि तुम उम्मुल क़ुरा (यानी शहर मक्का) के बाशिंदों को और उसको जो उसके चारों तरफ़ हैं (गुमराहियों के नतीजों से) डराओ।’ (6:92)
तर्जुमा- ‘और इसी तरह हमने तुम पर क़ुरआन नाज़िल किया अरबी ज़ुबान में, ताकि (गुमराहियों के नतीजों से) डराओ मक्का शहर के बाशिंदों को और उनको जो उसके आसपास हैं।’ (42:7)
चुनांचे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हक़ की तब्लीग को मक्का की हदबन्दियों से आज़ाद करके मक्का के आस-पास के लोगों के लिए आम कर दिया और ताइफ़, हुनैन और यसरिब (मदीना) तक हक़ की अपनी आवाज़ को पहुंचाया, बल्कि मुहाजिरों के ज़रिए हब्शा के ईसाई बादशाह असहमा तक हक़ के कलमे को पहुंचाया।
आम बेसत
इसके बाद दावत व इर्शाद की वह तीसरी मंज़िल पेश आई जो मुहम्मद ﷺ के नबी बनाए जाने का नस्बुलऐन और एक ही मक़सद था और तमाम नबियों और रसूलों के मुक़ाबले में ज़ाते अक़दस मुहम्मद ﷺ के नबी बनाए जाने में ख़ास बात थी, यानी अल्लाह ने आपके नबी बनाए जाने को ‘आम बे सत‘ करार दिया और हुक्म हुआ कि आप न सिर्फ कुरैश के लिए, न सिर्फ उम्मुलकुरा (मक्का) और मक्का के पास-पड़ोस के लिए न सिर्फ अरब के लिए नबी व रसूल बनाकर भेजे गए हैं बल्कि आपकी बे सत (नबी बनाया जाना) तमाम इंसानी कायनात के लिए हुई है और आप अरब व अजम और काले-गोरे सब के लिए पैगम्बर और ख़ुदा के एलची हैं। इर्शाद होता है –
तर्जुमा- ‘और हमने तुमको इंसानी कायनात के लिए पैग़ाम देकर भेजा है, (नेक आमाल पर) खुशखबरी सुनाने और (बुरे आमाल पर) लोगों को डराने के लिए, अक्सर (जाहिल) लोग इस हक़ीक़त को नहीं समझते।’ (34:28)
तर्जुमा- ‘पाक और बरतर है वह ज़ात जिसने हक़ व बातिल के दर्मियान तमीज़ देने वाली किताब नाज़िल फ़रमाई अपने बन्दे (मुहम्मद ﷺ) पर ताकि वह तमाम जहान वालों को (बुरे अंजाम से) डराए।’ (25:9)
इस्लाम की दावत का मुख़्तसर खाका और हज़रत जाफ़र (रजि) की तक़रीर
नबी अकरम ﷺ अरब की धरती पर नबी बना कर भेजे गए। इस फ़ितरी काम के तरीके को सामने रखकर सबसे पहले कौम अब ही उनकी दावत व इर्शाद का मुखातब करार पाई ताकि जो कौम कल चौपायों का गल्लाबान थी, नुबूवत के नूर से रोशन होकर इंसानी कायनात की गल्लाबान बन जाए और अल्लाह के सबसे बुजुर्ग पैग़म्बर व रसूल की रहमत के साए में तबियत पाकर पूरी कायनात के लिए ‘खैरे उम्मत‘ का लक़ब पाए तो अब देखना यह है कि अरब जैसी सरकश, जाहिल और तहज़ीब से कोरी क़ौम और अख़्लाकी व फ़िक्री जज़्बात व एहसासात से बिल्कुल ही हटी हुई क़ौम पर इस्लाम की दावत ने फौरी तौर पर क्या असर किया ताकि हम आसानी से यह अन्दाज़ा कर सकें कि जिस मज़हब के बुनियादी उसूल और अकीदे और सोच-ख्याल ने ऐसी कौम की जिंदगी के शोबों में हैरत में डालने वाला और शानदार इंकिलाब पैदा करके उससे रूहानी दुनिया का इंसान बना दिया उस मज़हब के सच्चे होने के लिए अकेले यह एक कारनामा ही रोशन दलील बन सकता है।
मक्का के मुशरिकों की लगातार मुखालफत, ईज़ा पहुंचाने और अज़ाब देने के हौलनाक तरीकों ने जब मुसलमानों की एक मुख्तसर जमाअत को अफ्रीका के मशहूर मुल्क हब्शा की जानिब हिजरत करने पर मजबूर कर दिया और वे ईसाई हुकूमत असहमा की हुकूमत में शरणार्थी हो गए तो कुरैश इसको भी सहन न कर सके और असहमा के दरबार में बड़ों का एक वफ्द भेजकर यह मांग की कि वह मुसलमानों को इसलिए उनके हवाले कर दे कि यह बद-दीन होकर और बाप-दादा के दीन को छोड़कर कौम में तफरका पैदा करने की वजह बने और यहां रहकर भी हुक्मरां के दीन के मुखालिफ हैं।
असहमा के वफ्द की मांग सुनकर मुसलमानों को जवाबदेही के लिए दरबार में तलब किया और इस्लाम के बारे में पूरी बात मालूम की, तब हज़रत जाफर (रजि) ने इस्लाम के बारे में तकरीर फ़रमाई और उसकी मुकद्दस तालीम का मुख्तसर और जामे नक्शा खींचकर अस्हमा को सही सुरतेहाल से आगाह किया। यही वह तकरीर है जो असल में अरब-जाहलियत के दौर और इस्लाम कुबूल करने के दौर की इन्किलाबी कैफीयत का मुख़तसर मगर बेहतरीन ख़ाका है।
हज़रत जाफर बिन अबी तालिब ने बादशाह और दरबारियों को मुखातब करके इर्शाद फ़रमाया –
‘बादशाह! हम पर एक लम्बा अंधा ज़माना गुज़रा है उस वक्त हमारी जिहालत का यह हाल था कि एक ख़ुदा को छोड़कर बुतों की परस्तिश करते थे और खुद के गढ़े पत्थरों की पूजा हमारा शेवा था। मुरदार खाना, ज़िनाकारी, लूटमार, रिश्तों का तोड़ना सुबह व शाम का हमारा मशगला था, पड़ोसियों के हकों से बेगाना, रहम व इंसाफ से नावाकिफ़ और हक़ व बातिल के इम्तियाज़ से नावाकिफ़, गरज़ हमारी ज़िन्दगी पूरी की पूरी दरिंदों की तरह थी। मज़बूत कमज़ोर को कुचलने और मज़बूत कमज़ोर को हज़म कर लेने को अपने लिए फ़ख्र और इम्तियाज़ी बात समझता था।
अल्लाह की रहमत का करिश्मा देखिए कि उसने हमारे अन्दर एक बुज़ुर्ग भेजा जिसके नसब को हम जानते थे जिसकी सच्चाई, अमानतदारी पर दोस्त-दुश्मन दोनों गवाह, जिसकी क़ौम ने उसको ‘मुहम्मद अल अमीन’ का लक़ब दिया, वह आया और उसने बतलाया कि खुदा का कोई शरीक नही, वह शिर्क से पाक है, बुतपरस्ती जिहालत का शेवा है इसलिए छोड़ देने के क़ाबिल है और सिर्फ एक ख़ुदा ही की इबादत बन्दे का हक है। उसने हमको हक़ कहने, सच बोलने की हिदायत की और रिश्तों को जोड़ने का हुक्म दिया।
पड़ोसियों और कमज़ोरों के साथ अच्छा व्यवहार करना सिखाया, क़त्ल व ग़ारत की बुरी रस्म को मिटाया। ज़िनाकारी को हराम और फ़हश कह कर उस गन्दे इंसानी काम से हमको नजात दिलाई, निकाह में महरमभौर महरम का फर्क बताया। झूठ बोलने, नाहक यतीम के माल खाने को हराम फ़रमाया। नमाज़ और खैरात व सदक़ात की तालीम दी और हर हैसियत में हमको हैवानियत (पशुता) के गहरे गढ़े से निकाल कर इंसानियत के बड़े दर्जे तक पहुंचाया।
बादशाह! हमने उस मुक़द्दस तालीम को कुबूल किया और उस पर सच्चे दिल से ईमान लाए। यह है हमारा वह कुसूर जिसकी वजह से मुश्रिकों का वफ्द (प्रतिनिधि-मंडल) तुझसे मांग करता है कि तू हमको उनके हवाले कर दे।’ [सीरत इब्ने हिशाम]
हज़रत जाफ़र (रजि) ने इस्लाम के साफ़ और सादा, मगर रोशन उसूल को जब असहमा के सामने सच्ची हिम्मत के साथ पेश किया तो हब्शा के हुक्मरां ने मुसलमानों को अपनी पनाह से निकाल कर क़ुफ्र के हवाले करने से इंकार कर दिया। और फिर हज़रत जाफ़र (रजि) ने बड़ी अच्छी आवाज़ में सूरः मरयम की कुछ आयतें तिलावत की तो हबशा का नजाशी बेहद मुतास्सिर हुआ।
यह है इस्लाम की दावत का मुख्तसर ख़ाका जिसने दुनिया के सबसे तारीक इंसानी ख़ित्ते को एक बड़ी ही थोड़ी मुद्दत में सूरज की तरह रोशन और ताबनाक बना दिया। इस खाके में एतकादात, अख़्लाक़ और भले आमाल का वह तमाम इल्म मौजूद है, जिससे कुरआन ने अलग-अलग सूरतों में हस्बे हाल और मुनासिब मुक़ाम पर ज़्यादा-से-ज़्यादा बयान किया है बल्कि पूरा कुरआन इन्हीं रोशन हक़ीक़तों का रास्ता दिखाने वाला और रहनुमाई करने वाला है।
To be continued …