अस्हाबे सब्त (सनीचर वाले)

सब्त और उसकी हुर्मत

      हज़रत इब्राहीम (अलै.) ने अपनी उम्मत में अल्लाह की इबादत के लिए हफ्ते के सात दिनों में से जुमा का दिन मुक़र्रर फ़रमाया था। हज़रत मूसा (अलै.) को ज़माने में यहूदी बनी इसराईल ने अपनी रिवायती टेढ़ की बुनियाद पर हज़रत मूसा (अलै.) से यह इसरार किया कि उनके लिए हफ्ते (सनीचर) का दिन इबादत व बरकत का दिन मुक़र्रर कर दिया जाए।

      हज़रत मूसा (अलै.) ने पहले तो उनको हिदायत फ़रमाई कि वे अपनी ग़लत ढिठाई से बाज़ आ जाएं और इब्राहीमी मिल्लत के इस इम्तियाज़ को जो अल्लाह के नदीक पसन्दीदा और मक्बूल है, हाथ से बर्बाद न होने दें। लेकिन जब उनका इसरार हद से आगे निकल गया तो अल्लाह की वह्य ने ह्ज़रत मूसा (अलै.) को यह इत्तिला दी कि अल्लाह तआला ने उनकी बेजा जिद के नतीजे में जुमा की सआदत व बरकत को उनसे वापस ले लिया और उनकी मांग को मंज़ूर करते हुए उनके लिए हफ्ता (सनीचर) को जुमा का क़ायम-मकाम बनवाए देता है।

      इसलिए आप उनको बता दें कि वे अपने इस मांगे हुए दिन की अज़मत का अदब व एहतराम करें और इसकी हुर्मत कायम रखें। हम इस दिन में इनके लिए खरीदना-बेचना, खेती, तिजारत और शिकार को हराम करते और उसको सिर्फ इबादत के लिए ख़ास किए देते हैं।

      कुरआन ने भी मुख़्तसर लफ्जों में इस इख़्तिलाफ़ का ज़िक्र किया है जो उन्होंने हफ्ते में इबादत के लिए एक दिन ख़ास करने के बारे में अपने पैग़म्बर हज़रत मूसा (अलै.) के साथ किया था –

      तर्जुमा- ‘बेशक सब्त का दिन उन लोगों के लिए (इबादत का दिन मुकर्रर किया गया जो उसके मुताल्लिक झगड़ा करते थे और यकीनन तेरा रब ज़रूर क़यामत के दिन उनके दर्मियान फैसला कर देगा कि जिसके बारे में वे इख़्तिलाफ़ करते थे, उसमें हक़ क्या था, बातिल क्या था। (16:124)

      चुनांचे हज़रत मूसा (अलै.) ने सब्त की तक़र्रूरी के बारे में बनी इसराईत से पक्का अहद लिया

      तर्जुमा-‘और हमने उन (बनी इसराईल) से कहा, सब्त (हफ़्ता) के बारे में हद से न गुज़रना और खिलाफ़वर्ज़ी न करना और हमने उनसे उनके बारे में बहुत सख्त किस्म का वायदा लिया। (4:154)

वाकिया क्या था?

      हज़रत मूसा (अलै.) के मुबारक अहद से एक लम्बे अर्से तक के बाद बनी इसराईल की एक जमाअत लाल सागर के किनारे आबाद हो गई थी। मछली उनका कुदरती शिकार था और महबूब मशाला बनी। वे उसके ख़रीदने-बेचने का कारोबार करते थे। ये लोग हफ्ते के छः दिन मछली का शिकार खेलते और सब्त का दिन अल्लाह की इबादत में लगाते। इसलिए कुदरती तौर पर मछलियां छः दिन जान बचाने के लिए पानी की तह में छिपी रहतीं और सब्त के दिन पानी की सतह पर तैरती नजर आती थीं।

      साथ ही अल्लाह तआला ने इस तरीके से उनको आज़माया और उनकी ईमानी क़ुव्वत का इम्तिहान लिया, यहां तक कि सब्त के अलावा हफ्ते के बाकी दिनों में मछलियों का हासिल होना बहुत मुश्किल हो गया और छः दिन यह कैफ़ियत रहने लगी कि गोया लाल सागर में मछली का नाम व निशान बाक़ी नहीं रहा, मगर सब्त के दिन वे इस बड़ी तायदाद में पानी पर तैरती नज़र आती कि जाल और कांटे के बग़ैर हाथों से आसानी से पकड़ में आ सकती थीं।

      कछ दिनों तक तो यहूदी इस हालत को सब करते हुए देखते रहे, आख़िर रह सके और उनमें से कुछ ने तो ख़ुफ़िया तरीके से ऐस-ऐसे हीले ईजाद कर लिए कि जिससे यह भी ज़ाहिर न हो सके कि वे सब्त के हुक्मों की खिलाफ़वर्ज़ी कर रहे हैं और सब्त के दिन मछलियों की कसरत से आने से भी फ़ायदा उठा लें।

      चुनांचे कुछ तो यह करते कि जुमा की शाम को लाल सागर के करीब गढे खोद लेते और नदी से इन गढ़ों तक नहर की तरह एक गोल नहर निकाल लेते और जब सब्त के दिन पानी की सतह पर मछलियां तैरने लगी तो वे दरिया के पानी को खोल देते ताकि पानी गढ़ों में चला जाए और इस तरह मछलियां भी पानी के बहाव से उनमें चली जाएं और जब सब्त का दिन गुज़र जाता तो इतवार की सुबह को इन मछलियों को गढ़े में से निकाल कर काम में लाते।

      और कुछ यह करते कि जुमा के दिन नदी में जाल और कांटे लगा आते, ताकि सब्त के दिन उनमें मछलियां धंस जाएं और इतवार की सुबह को इन जालों और कांटों में गिरफ्तार मछलियों को पकड़ लाते और ये सब अपनी इन चालों पर बेहद खुश नजर आते थे, चुनांचे जब उनके उलेमा-ए-हक़ और उम्मत के मुख्लिस लोगों ने उनको इस हरकत से रोका, तो उन्होंने एतराज़ करने वालों को यह जवाब दिया कि अल्लाह का हुक्म यह है कि सब्त के दिन शिकार न करो, इसलिए हम इसकी तामील में सल के दिन शिकार नहीं करते, बल्कि इतवार के दिन करते हैं, बाक़ी ये तरकीबें मना नहीं हैं और अगरचे उनका दिल और ज़मीर मलामत करता था, मगर उनकी टेढ़ उनको यह जवाब देकर के मुतमइन कर देती थी कि हमारा यह हीला अल्लाह के यहां जरूर चल जाएगा।

      असल बात यह थी कि वे दीन के हुक्मों पर सदाक़त व सच्चाई के साथ अमल नहीं करते थे और इसीलिए शरई हीले निकाल कर उनकी शक्ल से बचना चाहते थे, गोया अपने आप धोखे में पड़े हुए थे और दूसरों को भी गुमराह करते थे, चुनांचे नतीजा यह निकला कि इन कुछ हीला ढूंढने वाले इंसानों की इन हरकतों का इल्म दूसरे हीला ढूंढने वालों को भी हुआ और उन्होंने भी इसकी तकलीद शुरू कर दी और आखिरकार बस्ती की एक बड़ी जमाअत एलानिया इन हीलों की आड़ में सब्त की हुर्मत की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने लगी।

      इस जमाअत की ये ज़लील हरकतें देखकर बस्ती ही में एक सआदतमंद जमाअत ने हिम्मत की और उनके मुकाबले में आकर उनको इस बदअमली से बाज़ रखने की कोशिश की और नेकी फैलाने और बुराई को मिटाने के फ़रीजे को अदा किया, मगर उन्होंने कुछ परवाह नहीं की और अपनी हरकत पर कायम रहे, तब सआदतमंद जमाअत के दो हिस्से हो गए। एक ने दूसरे से कहा कि इन लोगों को नसीहत करना और समझाना बेकार है। ये बाज़ आने वाले नहीं, क्योंकि ये इस काम को अगर गुनाह समझ कर करते, तो यह उम्मीद थी कि शायद किसी वक्त बाज़ आकर तौबा कर लें। लेकिन जबकि ये शरई हीले तलाश कर अपनी बदअमली पर नेकी का पर्दा डालना चाहते हैं, तो हमको यक़ीन होता जाता है कि इस जमाअत पर बहुत जल्द अल्लाह का अज़ाब आने वाला है या ये हलाक कर दिए जाएंगे या किसी सख्त अज़ाब में झल दिए जाएंगे, इसलिए अब इनसे कोई छेड़खानी न करो।

      यह सुनकर सआदतमंद जमाअत के दूसरे हिस्से ने कहा कि हम इसलिए ऐसा करते हैं कि उनको यह उन पेश कर सकें कि हमने आख़िर वक़्त तक उनको समझाया और बुराई से रोकने का फ़रीज़ा अदा किया, लेकिन उन्होंने किसी तरह नहीं माना, साथ ही हम मायूस नहीं हैं, बल्कि उम्मीद रखते हैं कि अजब नहीं उनको तौफ़ीक़ मिल जाए और ये अपनी बदअमली से बाज़ आ जाएं।

      बहरहाल हीला तलाश करने वाली जमाअत अपने हीलों पर कायम रही और सब्त की हुरमत और उस दिन में शिकार के मना करने का इंकार करके, और हुक्मों से बिल्कुल ग़ाफ़िल और बेपरवाह होकर निडर और बेबाक हो गई, तब अचानक हक़ की गैरत को हरकत हुई और मोहलत के क़ानून ने पकड़ की शक्ल अख्तियार कर. ली, यानी अल्लाह तआला का हुक्म हो गया कि जिस तरह तुमने मेरे कानून की असल शक्ल व-सूरत को हीलों के जरिए मस्ख़ कर दिया, अमल के बदले के कानून के मुताबिक़ उसी तरह तुम्हारी शक्ल व सूरत भी मस्ख़ कर दी जाती है। ताकि ‘पादाशे अमल अज़ जिसे अमल‘ (अमल का बदला अमल के जिंस से है) के मुज़ाहरे से दूसरे लोग भी सबक़ व नसीहत हासिल करें, चुनांचे अल्लाह जल्ल शानुहू ने ‘कुन‘ के इशारे से उनको बन्दरों और सुअरों की शक्ल में मस्ख़ कर दिया और वह इंसानी शरफ़ से महरूम होकर ज़लील व ख़्वार हैवानों में तब्दील हो गए।

      तफ्सीर लिखने वाले कहते हैं कि सआदतमंद जमाअत का जो हिस्सा की का हुक्म और बुराई से रोकने का फ़रीजा अदा करता रहा, उसने जब यह देखा कि ढीठ और सरकश जमाअत किसी तरह हक़ पर कान नहीं धरती तो मजबूर होकर उसने इनकी मदद करना छोड़ दिया और खाना-पीना और लेना-देना, ग़रज हर किस्म का मेल-जोल ख़त्म कर दिया, यहां तक कि अपने मकानों के दरवाजों तक को उन पर बन्द कर दिए, ताकि किसी किस्म का ताल्लुक़ बाक़ी न रहे, चुनांचे जिस दिन बद-किरदारों पर अल्लाह का अज़ाब नाज़िल हुआ, तो उनके मामले की इस जमाअत को घंटों ख़बर न हुई, लेकिन जब काफी वक्त गुज़र गया और इस तरफ़ से किसी इंसान की नकल व हरकत महसूस न हुई, तब उनको ख्याल हुआ कि मामला गड़बड़ है, इसलिए वहां जाकर देखा तो सूरतेहाल इस दर्जा अजीब थी कि जिसे वे सोच भी नहीं सकते थे यानी वहां इंसानों की जगह बंदर और खिंज़ीर थे जो अपने इन रिश्तेदारों को देखकर क़दमों में लोटते और अपनी इस ख़राब हालत को इशारों से ज़ाहिर करते थे।

      सआदतमन्द जमाअत ने हसरत व यास के साथ उनसे कहा कि क्या हम तुमको बार-बार इस ख़ौफ़नाक अलाव से नहीं डराते थे? उन्होंने यह सुना तो हैवानों की तरह सर हिलाकर इक़रार किया और आंखों से आंसू बहाते हुए अपनी ज़िल्लत व रुसवाई का दर्दनाक नज़ारा पेश किया।

      तर्जुमा-‘और (ऐ यहूदियो!) तुम बेशक (अपने आगे चलने वालों में से) उन लोगों को अच्छी तरह जानते हो जो सब्त के बारे में अल्लाह के हुक्मों की हदें पार कर गए थे और हमने उनके लिए कह दिया, तुम ज़लील बन्दर हो जाओ, पस हमने उस बस्ती के उन बदबख्त लोगों को गिर्द व पेश के लोगों के लिए सबक और खुदा से डरने वालों के लिए नसीहत बना दिया। (2:65-66)

      तर्जुमा- ‘और (ऐ पैग़म्बर!) बनी इसराईल से उस शहर के बारे में पूछो जो समुन्दर के किनारे वाले था और जहां सब्त के दिन लोग खुदा की ठहराई हुई हद से बाहर हो जाते थे। सब्त के दिन उनकी चाही मछलियां पानी पर तैरती हुई उनके पास आ जातीं, मगर जिस दिन सब्त न मनाते, न आती, इस तरह हम उन्हें आज़माइश में डालते थे।

      नाफ़रमानी की वजह से जो वे किया करते थे और जब उस शहर के बाशिंदों में से एक गिरोह ने उन लोगों से जो नाफ़रमानों को वाज़ व नसीहत करते थे) कहा, तुम ऐसे लोगों को (बेकार) नसीहतें क्यों करते हो, जिन्हें (उनकी शकावत की वजह से) या तो अल्लाह हलाक’ कर देगा या निहायत सख़्त अजाब में मुब्तला करेगा। उन्होंने कहा, इसलिए करते हैं ताकि तुम्हारे परवरदिगार के हुजूर माज़रत कर सकें (कि हमने अपना फ़र्ज़ अदा कर दिया) और इसलिए भी कि शायद ये लोग बाज़ आ जाएं। फिर जब ऐसा हुआ कि उन लोगों ने वे तमाम नसीहतें भुला दी जो उन्होंने कही थी, तो हमारी पकड़ ज़ाहिर हो गई।

      हमने उन लोगों को तो बचा लिया जो बुराई से रोकते थे मगर शरास्त करने वालों को एक ऐसे अज़ाब में डाला कि जो महरूमी और नामुरादी में मुब्तिला करने वाला अज़ाब था, उन नाफ़रमानियों की वजह से, जो वे किया करते थे। फिर जब वे इस बात में हद से ज़्यादा सरकश हो गए, जिससे उन्हें रोका गया था, तो हमने कहा बन्दर हो जाओ ज़िल्लत व ख़्वारी से ठुकराए हुए।’ (7:168-165)

      तर्जुमा- (ऐ पैगम्बर!) कह दीजिए, क्या मैं तुमको बताऊ कि क़यामत के दिन अल्लाह के नज़दीक जज्ञा (बदले) के एतबार से कौन सबसे बुरा होगा? वह आदमी होगा जिस पर अल्लाह ने लानत की और उस पर ग़ज़बनाक हुआ और वे जिनमें से उसने बन्दर और खिंजीर की शक्ल में मस्ख़ कर दिए और जिसने उनमें से शैतान (या बुत) की पूजा की। यही हैं सबसे बुरे दर्जे वाले और सीधे रास्ते से बहुत दूर भटके हुए (यानी ऐ बनी इसराईल! हम सबसे बुरी जज़ा के हक़दार नहीं है, बल्कि तुम हो जिनके ये कुछ आमाल व अतवार हैं।

      तर्जुमा- ऐ अहले किताब! तुम उस किताब पर ईमान ले आओ जो हमने तुम पर उतारी है, जो उसकी तस्दीक़ करने वाली है जो तुम्हारे पास है (यानी तौरात, इससे पहले ईमान लाओ कि हम चेहरों को मिटा डालें और उनकी पीठ पर उनको लगा दें या हम उन पर लानत करें जिस तरह हमने सब्त वालों पर लानत की और अल्लाह का हुक्म पूरा होकर रहने वाला है। (4:47)

वह जगह 

      जिस बस्ती पर यह हादसा गुज़रा, उसका नाम क्या है? कुरआन सूरःआराफ़ में सिर्फ यह बयान करता है कि वह समुन्दर के साहिल पर वाक़े थी-‘अल-करयतुल्लती कानत हाज़िरतल बह’, मगर तफसीर लिखने वालों ने उसके तय करने में कई नाम लिए हैं। एक क़ौल यह है कि उस बस्ती का नाम ऐला था और यह लाल सागर के साहिल पर वाक़े थी।

      अरब जुग़राफ़िया (Geography) के माहिर करते हैं कि जब कोई आदमी तूरे सीना से गुज़रकर मिस्र को रवाना हो तो तूरे सीना की तरफ़ समुन्दर के साहिल पर यह बस्ती मिलती थी या यूँ कह लीजिए कि मिस्र का बाशिंदा अगर मक्का का सफर करे तो रास्ते में यह शहर पड़ता था।

(मौलाना मुहम्मद हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह० ने इसी क़ौल को तर्जीह दी है) 

हादसे का ज़माना

      कुरआन के बयान के अन्दाज़ और महान तफ़्सीर लिखने वालों की शरह व तपसील से यह साबित होता है कि अस्हाबे सब्त का यह वाक़िया हज़रत मूसा (अलै.) और हज़रत दाऊद (अलै.) के दर्मियानी ज़माने (लगभग 1100 क़ब्ल मसीह) में किसी ऐसे वक़्त पेश आया कि अब ऐला में कोई नबी मौजूद नहीं थे। इसलिए कुरआन ने सिर्फ उन्हीं का ज़िक्र किया और किसी नबी या पैग़म्बर का जिक्र नहीं किया और मारूफ़ का हुक्म देने और बुराई से रोकने का फ़रीजा वहां के उलेमा के सुपुर्द था। 

कुछ अहम तफ़्सीरी हक़ीक़तें 

      सूरःबकर: में ‘सब्त‘ वालों के तज़्कीरे में आयत 2:60 में गिर्द व पेश के लोगों से क्या मुराद है? इसके जवाब में तफ़्सीर लिखने वालों के का क़ौल हैं –

      1. बेहतर क्रौल हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) से नक़ल किया गया है, यानी इनसे वे बस्तियां मुराद हैं जो ऐला के आस-पास आबाद थीं।

      2. सूरःमाइदा में आयत 5:60 में ‘बन्दर और खिंजीर की शक्ल में मस्ख़ कर दिए।‘ हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) फ़रमाते हैं कि जिस गिरोह पर अज़ाब मुसल्लत हुआ, उसके नौजवान बन्दर की शक्ल में बिगाड़ दिए गए और बूढ़े खिंजीर की शक्ल में बिगाड़ दिए गए।

बिगाड़ने की हक़ीक़त

      इंसान के बन्दर और खिंजीर हो जाने के क्या मानी हैं? जम्हूर की राय यह है कि इससे मस्ख हकीक़ी मुराद है यानी वे लोग जिन पर अज़ाब मुसल्लत हुआ सूरत-शक्ल के एतबार से बन्दर और खिंजीर बना दिए गए। 

मस्ख़ की गई क़ौमों का अंजाम

      चुनांचे यही वजह है कि सही हदीसों (मुस्नद अहमद) में खोल कर लिखा गया है कि जो कौमें जानवरों की शक्ल में मस्ख हुई हैं, वे तीन दिन से ज़्यादा ज़िंदा  नहीं रहीं, यानी मस्ख़ का अज़ाब उनके अन्दर और ज़ाहिर को इस दर्जा फ़ासिद और गन्दा कर देता है कि वे फिर ज़िंदा नहीं हो सकतीं और जल्द ही मौत की गोद में चली जाती हैं। 

नतीजे और सबक़

      1.नेकियों का हुक्म देना और बुराई से रोकना शानदार फ़रीज़ा (ज़िम्मेदारी) है नबियों की बेसत का बड़ा मक्सद भी इस फ़र्ज़ को पूरा करना है जब किसी क़ौम और उम्मत में कोई नबी या रसूल मौजूद न हो तो फिर उम्मत के उलेमा के ज़िम्मे वाजिब है कि वे इस फ़र्ज़ को अंजाम दें, चुनांचे कुरआन और सहीह हदीसों ने इस फ़र्ज की तरफ़ बहुत ज़्यादा अहमियत के साथ तवज्जोह दिलाई है और तामील करने वाले के अज्र व सवाब की बशारत और तर्क करने वाले को सज़ा का हक़दार करार देता है। 

      2. इंसान की अलग-अलग गुमराहियों में से बहुत बड़ी गुमराही यह भी है कि अल्लाह के हुक्मों से बचने के लिए हीले-बहाने तलाश कर हराम को हलाल और हलाल को हराम बनाने की कोशिश करे। चुनांचे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उम्मते मुस्लिमा को सख़्त ताक़ीद फरमाई है वे ऐसी गुमराही की ओर हरगिज़ कदम न उठाएं और अपने अमल का दामन उससे बचाए रखें।

      3. फ़र्ज के अदा करने में इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए कि जिनके मुक़ाबले में फ़रीज़ा अंजाम दिया जा रहा है, वे इसको कुबूल करते हैं या नहीं।

To be continued …