हज़रत लुक़मान (रज़ि)

हज़रत लुक़मान (रज़ि)

      हज़रत लुक़मान (रज़ि) या हकीम लुक़मान (रज़ि) अरबों की एक मशहूर शख़्सियत हैं लेकिन उनके हालात और ज़िंदगी से मुताल्लिक़ तफ़्सील से मुताल्लिक़ सिर्फ इतना ही इत्तिफ़ाक़ है कि वह एक बहुत बड़े दाना (हकीम) थे और उनकी हिक्मत भरी बातें ‘सहीफ़ा लुक़मान‘ के नाम से उनके बीच मशहूर व मारूफ़ थे और उनसे मुताल्लिक़ दूसरे मामलों में आपस में टकराने वाली राय पाई जाती हैं।

कुरआन और हज़रत लुक़मान (रज़ि)

      हज़रत लुक़मान (रज़ि) का ज़िक्र कुरआन ने भी किया है और कुरआन की एक सूरः का नाम भी इसी वजह से ‘सूरः लुकमान‘ है और अगरचे उसने अपने सामने के मक़सद के लिए उनके नसब और ख़ानदान की बहस में जाना पसन्द नहीं किया, फिर भी उनकी हिक्मत भरी बातों का जिस ढंग से ज़िक्र किया है, उससे हज़रत लुक़मान (रज़ि) की शख्सियत पर एक हद तक ज़रूर  रोशनी पड़ती है। इसलिए मुनासिब है कि उसको बयान करने के बाद यह फैसला किया जाए कि ऊपर लिखी हर दो रायों में कौन-सी सही या क़ियास के करीब है।

      तर्जुमा- ‘और बेशक हमने लुकमान को हिक्मत अता की (और कहा कि) अल्लाह का शुक्र अदा करो। पस जो आदमी उसका शुक्र अदा करता है, वह अपने नफ्स के फायदे के लिए करता है और जो कुफ्र करता है तो अल्लाह बे-परवाह है, तमाम तारीफ़ों का मालिक है और जिस वक्त लुक़मान ने अपने बेटे से नसीहत करते हुए कहा, ऐ मेरे बेटे! अल्लाह का शरीक न ठहरा, बेशक शिर्क बहुत बड़ा ज़ुल्म है और हमने हुक्म किया इंसान को, उसके मां-बाप के बारे में कि उठाती है उसको उसकी मां तकलीफ़ पर तकलीफ़ झेल कर और दो साल के अन्दर दूध पिलाते रहना, यह कि मेरा शुक्रगुज़ार बन और अपने मां-बाप का शुक्रगुज़ार हो।

      आख़िर मेरी ही तरफ़ लौटना है और अगर तेरे मां बाप तुझ पर सख्ती करें इस बारे में कि मेरा शरीक ठहरा कि जिसके बारे में वे नादानी और जिहालत में हैं तो उसमें उन दोनों की पैरवी न कर और दुनिया की ज़िंदगी में उनके साथ अच्छा बर्ताव कर और पैरवी उस आदमी की कर कि जो सिर्फ मेरी तरफ़ रुजू करता है, फिर मेरी ही तरफ़ तुम सबको लौटना है। पस मैं उस वक्त तुमको तुम्हारे किए की ख़बर दूंगा। ऐ मेरे बेटे। बिला शुबहा अगर राई के दाने के बराबर भी कोई चीज़ छोटी होती है और वह पत्थर के अन्दर या आसमानों या ज़मीनों में कहीं भी हो, अल्लाह उसको ले आता है।

      बेशक अल्लाह बारीकी से देखने वाला ख़बरदार है। ऐ मेरे बेटे। क़ायम कर नमाज़ को और हुक्म कर भलाई का और बुराई से मना कर और जो तुझ पर पड़े उस पर सब्र कर । बेशक ये अज़ीमत की बातें हैं और तू अपने गालों को लोगों से (घमंड की वजह से) न फेर और ज़मीन पर इतरा कर न चल । बेशक अल्लाह किसी तकब्बुर और शेखी करने वाले को दोस्त नहीं रखता और चाल में बीच का रास्ता अपना और अपनी आवाज़  को नरम और पस्त कर। बेशक गधे की आवाज़ बहुत ही नापसन्दीदा आवाज़ है।’ (31:14-19)

       इन आयतों में हज़रत लुक़मान (रज़ि) ने अपने बेटे को जो नसीहतें की हैं और हिक्मत व दानाई की जो बातें बताई हैं, उनमें इन बातों पर ज़ोर दिया है कि-

1. लोगों के साथ अच्छे व्यवहार से पेश आना चाहिए, यह न हो कि घमंड की वजह से मुंह मोड़ लिया जाए।

2. और न अल्लाह की ज़मीन में अकड़ कर चलो। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि अल्लाह घमंडी और अकड़ने वाले को पसन्द नहीं करता।

3. हमेशा चाल चलने में बीच का रास्ता इख़्तियार करना चाहिए।

4. और आवाज़ को बात-चीत में नर्म रखो, इसलिए कि चीख़ना-चिल्लाना इंसानों का काम नहीं है। अगर कड़ी और बेवजह बुलन्द आवाज़ पसन्दीदा चीज़ होती, तो गधे की आवाज़ तारीफ़ के क़ाबिल समझी जाती। उसकी आवाज़ सबसे बुरी आवाज़ समझी जाती है।

नुबूवत या हिक्मत

      अगरचे एक रिवायत में यह कहा गया है कि हज़रत लुक़मान (रज़ि) नबी थे, लेकिन कुरआन के बयान का अन्दाज़ इसका साथ नहीं देता और किसी एक जुम्ले में भी इसका इशारा नहीं पाया जाता कि जो उनकी ‘नुबूवत‘ के लिए दलील बनता हो। इसीलिए जम्हूर की राय यह है कि हज़रत लुक़मान (रज़ि) अल्लाह के वली और हकीम व दाना थे।

कुछ अहम तफ़्सीरी नुक़्ते 

      1. हज़रत लुक़मान (रज़ि) ने अपने बेटे को सबसे पहले जो अहम नसीहत की वह अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराने से बचना और ख़ुदा को मानना है। उन्होंने शिर्क को बड़ा भारी ज़ुल्म (ज़ुल्मे अज़ीम) फ़रमाया। असल में दीन हक़ में यही वह हकीक़त है जो ‘हनीफ़‘ को मुशरिक से अलग करती है और शिर्क ही ऐसा गुनाह है जो किसी हाल में बख़्शिश  क़ाबिल  नहीं, मगर यह कि उससे तौबा कर ले।

      2. सूरः लुक़मान में ‘व इज़ का-ल लुक़मानु लि इनिहीं’ से ‘लजुल्मुन अज़ीम’ तक और फिर “या बनी-य’ से ‘ल-सौतुल हमीर’ तक हज़रत लुक़मान (रज़ि) की बातें बयान की गई हैं और बीच में ‘वस्सैनलइंसानु’ से ‘उनबिउकुम बिमा कुन्तुम तामलून’ तक अल्लाह का अलग से इर्शादे मुबारक है, तो इसके लिए मुनासिब वजह यह है कि जब कुरआन ने ऐसे एक वाकिए का ज़िक्र किया है, जिसमें बाप ने बेटे को नसीहतें की हैं, तो अल्लाह ने उम्मते मुस्लिमा को यह नसीहत करना ज़रूरी समझा कि जब बाप और मां की मुहब्बत का यह आलम है, तो दुनिया और आख़िरत किसी मामले में भी औलाद के लिए बिल्कुल ज़रूरी है कि वह अल्लाह की सही और हक़ीक़ी मारफ़त के बाद सबसे ज़्यादा मां-बाप की ख़िदमत और उनकी रज़ा हासिल करने को मुक़द्दम समझे।

      यहां तक कि अगर मां-बाप काफ़िर व मुश्रिक हों तब भी उसका फ़र्ज़ है उनकी ख़िदमत और उनके साथ अच्छा व्यवहार, नर्मी और नियाज़मन्दी को हाथ से न जाने दे, अलबत्ता अगर वह दीने हक़ से एराज़ और शिर्क के अख़्तियार पर ज़िद करें तो उसको कुबूल न करे। इसलिए कि अल्लाह की नाफरमानी में किसी की इताअत भी दुरुस्त नहीं है, चुनांचे इर्शादे नबवी है

      “ला ता अ-तलि मिख्लूकिन फ़ी मासियत्तिल ख़ालिक़”

      लेकिन इस मुकालमे में भी अपने इंकार के वक्त नर्मी और ढंग से बात करना न छोड़िए और सख्त जुबान इस्तेमाल न करे।

      3. सूरः लुकमान में जिन नसीहतों का ज़िक्र किया गया है उनमें अच्छे अख़्लाक़ और नर्मी पर उभारा गया है और घमंड, शेखी और बुरे अख़्लाक़ को बुरा बताया गया है। हज़रत लुक़मान (रज़ि) ने भलाइयों का जो हुक्म दिया है और बुराइयों से जो रोका है, इन बातों का ख़ास तौर से इसलिए इंतिख़ाब फ़रमाया है कि कायनात में जितनी भी भलाई और बुराई पेश आती है, उन सबकी जड़ व बुनियाद यही होते हैं। चुनांचे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी मुसलमानों को इन बातों की अहमियत पर बहुत ज़्यादा तवज्जोह दिलायी है।

      4. हज़रत लुक़मान (रज़ि) ने कड़ी और तेज़ आवाज़ से बात-चीत करने को भी मना फ़रमाया है, इसलिए कि नर्म बात-चीत अच्छे अख़्लाक़ का शोबा और कड़ी और तेज़ आवाज़ बुरे अखलाक का हिस्सा है और इसी बुनियाद पर बात करने के इस तरीके को ‘गधे की आवाज़‘ का नाम दिया गया है।

      5. हज़रत लुक़मान (रज़ि) ने अपने बेटे को जो नसीहतें की हैं, उनमें यह भी कहा है कि ज़मीन पर अकड़ कर न चलो। इस मज्मून को कुरआन मजीद ने सूरः बनी इसराईल की एक आयत में अजीब अन्दाज़ से बयान किया है –

      और ज़मीन में इतराता हुआ न चल, तू अपनी इस चाल से न ज़मीन को फाड़  सकेगा और न पहाड़ों की चोटियों तक लम्बा हो जाएगा।’ और इसके खिलाफ़ नर्म और अख़्लाक़ वाले इंसानों की यह कैफियत है कि –

      तर्जुमा- ‘और जो रहमान के बन्दे (यानी हुक्मबरदार बन्दे) हैं, वे ज़मीन पर वक़ार और तवाज़ो के  साथ चलते हैं और जब उनसे जाहिल लोग मुखातब होते हैं, तो वे (जिहालत से बचने के लिए) सलाम कहकर अलग हो जाते हैं।’ (25:63) 

हज़रत लुक़मान (रज़ि) की हिक्मत

      पीछे की लाइनों में यह ज़िक्र आ चुका है कि अरब में हज़रत लुक़मान (रज़ि) की हिक्मत की काफ़ी चर्चा थी और वे अक्सर मज्लिसों में उनकी हिक्मत भरी बातों को नक़ल करते रहते थे, चुनांचे ताबिईन, सहाबा, बल्कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से भी इस सिलसिले के कौल नक़ल किए गए हैं और उनमें से कुछ नीचे दिए जाते हैं –

      1. हिक्मत व समझदारी ग़रीब को बादशाह बना देती है।

      2. जब किसी मज्लिस में दाखिल हो तो पहले सलाम करो। फिर एक तरफ़ बैठ जाओ और जब तक मज्लिस वालों की बातें न सुन लो, खुद बात शुरू न करो, पस अगर वे अल्लाह के ज़िक्र में मशग़ूल हों, तो तुम भी उसमें से अपना हिस्सा ले लो और अगर वे फ़िजूल कामों में मश्गूल हों तो वहां से अलग हो जाओ और दूसरी किसी अच्छी मज्लिस को हासिल करो।

      3. अल्लाह तआला जब किसी को अमानतदार बनाए, तो अमानत रखने वाले का फ़र्ज़ है कि उस अमानत की हिफ़ाज़त हिफाज़त करे।

      4. ऐ बेटे! अल्लाह से डर और दिखावे के तौर पर अल्लाह से डरने का मुज़ाहरा न कर कि लोग इस वजह से तेरी इज़्ज़त करें और तेरा दिल हक़ीक़त में गुनाहगार है।

      5. ऐ बेटे! जाहिल से दोस्ती न कर कि वह यह समझने लगे कि तुझको उसकी जिहालत भरी बातें पसन्द हैं और दाना (समझदार आदमी) के गुस्से को बेपरवाही में न टाल कि कहीं वह तुझसे जुदाई न अख़्तियार कर ले।

      6. वाज़ेह रहे कि दानाओं की जुबान में अल्लाह की ताक़त होती है, उनमें से कोई कुछ नहीं बोलता, मगर यह कि इस बात को अल्लाह तआला इसी तरह करना चाहता हो।

      7. ऐ बेटे! ख़ामोशी में कभी नदामत नहीं उठानी पड़ती और अगर कलाम चांदी है तो सुकूत सोना है।

      8. बेटा! गैज़ व ग़ज़ब से बचो, इसलिए कि ग़ज़ब की शिद्दत दाना के कल्ब को मुर्दा बना देती है।

      9. बेटा! खुश कलाम बनो, खुश मिज़ाजी अख्तियार करो, तब तुम लोगों की नज़रों में उस आदमी से भी ज़्यादा महबूब हो जाओगे जो हर वक़्त उसको दाद व दहिश करता रहता है।

      10. नर्मी दानाई (सूझ-बूझ) की जड़ है। 

      11. जो बोओगे, वहीं काटोगे। 

      12. अपने और अपने वालिद के दोस्त को महबूब रखो। 

      13. किसी ने हज़रत लुक़मान (रज़ि) से पूछा, सबसे ज़्यादा सब्र करने वाला आदमी कौन है? कहा, जिसके सब्र के पीछे ईज़ा (पीड़ा) न हो। फिर पूछा सबसे बड़ा आलिम कौन है? जवाब दिया जो दूसरों के इल्म के ज़रिए अपने इल्म में बढ़ौतरी करता रहे।

      14. फिर सवाल किया, सबसे बेहतर आदमी कौन सा है? फ़रमाया, ग़नी। पूछने वाले ने फिर पूछा, ग़नी से मालदार मुराद है? जवाब में कहा, नहीं, बल्कि ग़नी वह है जो अपने अन्दर ख़ैर को तलाश करे तो मौजूद पाए, वरना खुद को दूसरों से बेनियाज़ बनाए रखे।

      15. किसी ने पूछा, सबसे बुरा आदमी कौन-सा है? फ़रमाया जो इसकी परवाह न करे कि लोग उसको बुराई करता देखकर बुरा समझेंगे।

16. बेटा! तेरे दस्तरख्वान पर हमेशा नेकों का इज्तिमा रहे तो बेहतर है और मश्विरा सिर्फ़ उलेमा-ए-हक़ से लेना। 

नसीहत और सबक़ 

      1. इंसान अगर मासूम नबी व पैग़म्बर भी न हो, मगर हिक्मत व दानाई वाला हो, तब भी अल्लाह के नजदीक उसका दर्जा बहुत बड़ा है। इसीलिए हज़रत लुक़मान (रज़ि) को यह इज़्ज़त मिली कि अल्लाह ने कुरआन में उनकी तारीफ़ फ़रमाई और उम्मत के लिए उनकी कुछ उन नसीहतों और वसीयतों को नक़ल फ़रमाया जो उन्होंने अपने बेटे को की थीं, यहां तक कि कुरआन में एक सूरः उनके नाम से जोड़ दी गई।

      2. अल्लाह के साथ शिर्क तमाम भलाइयों को मिटाकर इंसान को अल्लाह के सामने खाली हाथ ले जाता है, इसलिए हमेशा उससे परहेज़ ज़रूरी है।

      खुले शिर्क की तरह छिपा शिर्क भी इंसानी आमाल को उसी तरह खा लेता है, जिस तरह आग लकड़ी को खा लेती है और छिपे शिर्क में दिखावा, नुमाइश और शोहरत पाने का जज्बा ख़ास तौर से काबिले ज़िक्र है।

      मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार और उनके बड़प्पन को इस्लाम में इस दर्जा अहमियत हासिल है कि उनको मजाज़ी रब कहा है और उनकी खिदमत और उनके सामने सरे नियाज़ झुका देने को मां-बाप के इस्लाम व कुफ़्र दोनों हालतों में ज़रूरी करार दिया है और इसी अहमियत को देखते हुए जगह-जगह अपने हक़ यानी एक अल्लाह को मानने के साथ-साथ मां-बाप का ज़िक्र किया और उनको तमाम हक़ों पर मुक़द्दम रखा। (सूरः बनी इसराईल की आयतें 23-24) और मां-बाप के साथ अच्छे व्यवहार से मुताल्लिक हदीसें तो बहुत ज़्यादा मौजूद हैं, यहां तक कि यह कहा गया है कि 

‘जन्नत मां के कदमों के नीचे है।’ (नसई)

To be continued …