हज़रत हिज़क़ील अलैहिस्सलाम

क़ुरआन और हज़रत हिज़कील (अलै.)

      क़ुरआन मजीद में हिज़क़ील (अलै.) नबी का ज़िक्र नहीं है लेकिन सूरः बकर में बयान किए गए एक वाक़िए के बारे में पुराने नेक लोगों से जो रिवायतें नक़ल की गई हैं उनसे मालूम होता है कि इस वाक़िए का ताल्लुक़ हज़रत हिज़क़ील (अलै.) ही से है। क़ुरआन में इस वाक़िए को इस तरह बयान किया गया है –

      ‘(ऐ मुख़ातब!) क्या तूने उन लोगों को नहीं देखा जो मौत के डर से अपने घरों से हज़ारों की तायदाद में निकले, फिर अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उनको ज़िंदा कर दिया। बेशक अल्लाह तआला लोगों पर फ़ज़्ल करने वाला है लेकिन अक्सर लोग शुक्र नहीं करते।’ अल-बकरः 2:246

      तफ़्सीर की किताबों में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) और कुछ दूसरे सहाबा से यह रिवायत नक़ल की गई है कि बनी इसराईल की एक बहुत बड़ी जमाअत से जब उनके बादशाह या उनके पैग़म्बर हिज़कील (अलै.) ने यह कहा कि फ़ला दुश्मन से लड़ाई करने के लिए तैयार हो जाओ और हक़ का क़लमा बुलन्द करने का फ़र्ज़ अदा करो, तो वे अपनी जानों के ख़ौफ़ से भाग खड़े हुए और यक़ीन करके कि अब जिहाद से बचकर मौत से महफूज़ हो गए हैं, दूर एक घाटी में मुक़ीम हो गए। 

      अल्लाह तआला को यह हरकत ना-गवार हुई और उसके ग़ज़ब ने उन पर मौत तारी कर दी और वे सबके सब मौत के आग़ोश में चले गए। एक हफ्ते के बाद उन पर हज़रत हिज़क़ील (अलै.) का गुज़र हुआ तो उन्होंने उनकी इस हालत पर अफ़सोस किया और दुआ मांगी कि इलाहुल आलमीन! इनको मौत के अज़ाब से निजात दे ताकि उनकी ज़िंदगी ख़ुद उनके लिए और दूसरों के लिए इबरत व नसीहत बन जाए। पैग़म्बर की दुआ कुबूल हुई और वह ज़िंदा होकर इबरत व नसीहत का नमूना बने।

अहम बातें

      हज़रत हिज़कील (अलै.) से मुताल्लिक़ हालात के सिलसिले में दो अहम बातें सामने आती हैं- मरने के बाद की ज़िन्दगी और जिहाद से बचना। इन दोनों बातों की वज़ाहत की जाती हैं –

मरने के बाद की ज़िन्दगी

      जिन लोगों ने पीछे के पन्नों में ‘मोजज़े’ की बहस को पढ़ा है वे हज़रत हिज़कील (अलै.) के ज़माने में मरने के बाद की ज़िन्दगी के बारे में किसी शक व शुबहे के या गैर-ज़रूरी बहसों के शिकार नहीं होंगे। यह सही है कि दुनिया में आम कानून के मुताबिक़ अगरचे दोबारा ज़िंदगी नहीं मिलती और क़यामत ही के दिन जिस्मों के उठाए जाने का वाकिया पेश आएगा लेकिन अल्लाह के ख़ास कानून के पेशेनज़र किसी हिकमत व मस्लेहत की बुनियाद पर ऐसा होना अक्ल के लिहाज़ से न सिर्फ यह कि मुमकिन है, बल्कि होता रहता है।

      दूसरे आज के ज़माने में नई रूहानियत (New Spiritualism) के माहिरों के नज़दीक यह बात नई खोज को पहुंच चुकी है कि ‘रूह‘ जिस्म से अलग एक मुस्तकिल मख़लूक है और जिस्म के गल-सड़ जाने और उसके उन्सरी तख़लीक़ के मिट जाने के बावजूद रूह ज़िन्दा रहती है। साथ ही यह भी एक माकूल बात है कि जिस हस्ती ने किसी चीज़ को तरकीब दिया है वह तरकीब के बिखर जाने के बाद दोबारा उसको तरकीब दे सकती है तो फिर कोई वजह नहीं कि हयाते रूह और बिखरे हुए हिस्सों के दोबारा तरकीब के माकूल होने के बाद मुरदे के ज़िन्दा होने के बारे में किसी शक व शुब्हा में फंसकर और ज़रूरी तावील का सहारा लिया जाए। 

जिहाद से पहलू बचाना

      जब इंसान का ईमान व एतक़ाद इस यक़ीन को हासिल कर ले कि खैर व शर और मौत और जिंदगी सब कायनात के पैदा करने वाले के हाथ में है, तो फिर एक लम्हे के लिए भी उसको ख्याल नहीं आता कि वह अल्लाह की मुकर्रर की हुई कद्र के बारे में यह सोचे कि उसका हीला (बहाना) अल्लाह के फैसले को रद्द कर सकता है और अगर उसकी तक़दीर लागू है तो दूसरी जगह वह उसके असर से आज़ाद रह सकता है।

      इस्लाम की निगाह में तक़दीर का यह फ़लसफ़ा है कि इंसान अपने अन्दर यकीन पैदा कर ले कि मेरा फ़र्ज़ अल्लाह के हुक्मों का मानना और उसका अमल करना है। रहा यह मामला कि इस तामील की अदाएगी में जान का डर या माल की तबाही का डर है तो वह मेरे अपने इख़्तियार में नहीं है। अगर क़ुदरत का हाथ जान व माल की हलाकत का फ़ौरी फैसला कर चुका है तो दूसरे अस्वाब पैदा होकर तक्वीनी दुनिया के इस फैसले को जरूर सच कर दिखाएंगे। यह यक़ीन इंसान को निडर और बहादुर बनाता और बुज़दिली और नामर्दी से दूर रखता है। उसकी नज़र सिर्फ़ फ़र्ज की अदाएगी पर जम जाती है और वह तक्वीनी फैसलों को अपनी पहुंच से बाहर समझ कर उससे बे-नियाज़ हो जाता है। 

      इस्लाम ने तक़दीर के ये मानी कभी नहीं बताए कि हाथ-पैर तोड़ का और जद्दोजुहद और अमल की ज़िंदगी को छोड़कर ग़ैबी मदद के इंतिज़ार करने वाले हो बैठो और फ़र्ज अदा करने को यह कहकर छोड़ दो कि तक्वीनी फ़ैसले के मुताबिक जो कुछ होना होगा, होकर रहेगा। असल में यह ख्याल बुज़दिल और नामर्दी की पैदावार है जो फ़र्ज़ की अदाएगी से रोकता है और इतनी-आसानी की दावत देकर ज़िल्लत के हवाले कर दिया जाता है। 

      इसीलिए मुहम्मदी शरीअत में जिहाद के मैदान से भाग जाना (शिर्क के बाद) सबसे बड़ा गुनाह समझा जाता है और सच भी यही है कि अल्लाह पर ईमान लाने  के बाद, जबकि इंसान अपनी जान व माल को उसके सुपुर्द कर देता है औ सुपुर्दगी का नाम ही इस्लाम है, तो फिर उसको एक लम्हे के लिए भी यह हक़ नहीं रहता कि वह उसके हुक्म के खिलाफ़ जान बचाने की फ़िक्र करे बुज़दिली और नामर्दी इस्लाम के साथ नहीं हो सकती और हक के रास्ते बहादुरी ही इस्लाम की इम्तियाज़ी शान है। 

नतीजे

1. अगर सालिम फ़ितरत और सीधी तबियत हो तो इंसान की हिदायत और बसीरत के लिए एक बार फ़िक्र व ज़हन की हक़ीक़तों की तरफ़ मुतवज्जह कर देना काफी है फिर उसकी इंसानियत अपने आप सीधे रास्ते पर चल पड़ती है और मंज़िले मक़सूद का पता लगा लेती है लेकिन अगर बाहरी अस्बाब की वजह से फ़ितरत में टेढ़ और तबियत में ख़राबी पैदा हो चकी हो तो उसको हमवार करने के लिए अगरचे बार-बार अल्लाह की पुकार उसको बेदार करती है पर हर बार के बाद उसकी सलाहियतें और इस्तेदादी ताकतें सो जातीं। 

      बल्कि और ज़्यादा ग़फ़लत में डूबकर रह जाती हैं यहां तक कि ताक़त और सलाहियत ख़त्म हो जाती है और जब इस दर्जे पर पहुंच जाती है जिसका ज़िक्र कुरआन मजीद ने इस तरह किया है ‘न-त-पल्लाहु अला कुलूबिहिम व अला समइहिम व अला असारिहिम गिशाव’ तो फिर उस पर अल्लाह का अज़ाब नाज़िल होता है और यह हमेशा के लिए उसके ग़ज़ब और उसके फिटकार का निशाना बन जाता और इस एलान का हक़दार ठहरता है कि –

      ‘उन पर ज़िल्लत और मस्कनत तारी हो गई और वे अल्लाह के ग़ज़ब के शिकार हो गए।’

      चुनांचे बनी इसराईल की लगातार सरकशी और अल्लाह के फ़रमानों के मुक़ाबले में बराबर बग़ावत ने उनके टेढ़ेपन को उस दूसरे रास्ते पर डाल दिया था और हज़रत हिज़क़ील (अलै.) के दौर में भी ये उस बुरे रास्ते पर चलने में लगे हुए थे पर उनमें एक छोटी-सी जमाअत पैग़म्बरों की रुश्द व हिदायत के सामने हमेशा सर झुकाती रही और लग्ज़िशों और खताकारियों के बावजूद उसने सीधे रास्ते को गिरते-पड़ते हासिल कर ही लिया।

2. जिहाद अगरचे क़ौम के कुछ लोगों के लिए मौत का पैग़ाम बनकर उनको दुनियावी लज़्ज़त से महरूम कर देता है लेकिन वह उम्मत और क़ौम की ज़िंदगी के लिए अक्सीर है और कौमी व मिल्ली निज़ाम के लिए हमेशा की बका का कफ़ील और साथ ही मौत की गोद में जाने वाले लोगों के लिए फ़ानी और नापायदार हयात के बदले हमेशा की हयात अता करने वाला है।

      यही मौत का वह फ़लसफ़ा है जिसने मुसलमानों की ज़िन्दगी को दूसरी क़ौमों से इस दर मुम्ताज़ (सर्वोच्च) कर दिया था कि ख़ुदा का कलमा बुलन्द करने वाला इंसान दुनियावी ज़िन्दगी से अलग शाद काम रहा तो ग़ाजी और मुजाहिद है और अगर मौत का शरबत हलक से उतार लिया तो शहीद, इसीलिए इर्शाद है- 

      ‘जो अल्लाह की राह में क़त्ल हुए, उनको मुर्दा न कहो बल्कि हक़ीक़ी हयात तो उन ही को हासिल है लेकिन तुम इस सच्चाई को जानते नहीं हो।’ अल-बकरः 2:154

और इसीलिए इस ज़िंदगी से जान चुराने वाले के लिए यह डरावा है –

      ‘और जो कोई उस दिन (जिहाद के दिन) काफिरों को पीठ देगा, सिवाए उस आदमी के जो लड़ाई की तरफ वापस आने वाला हो या अपनी जमाअत में पनाह तलाश करने वाला हो, वह अल्लाह के ग़ज़ब की तरफ लौटा और उसका ठिकाना दोज़ख है और वह बुरी जगह है।’ अंफाल : 16

3. इस्लाम बहादुरी को अच्छा अखलाक़ कहता है और बुज़दिली को अख़्लाकी ख़राबी में गिनता है। एक हदीस में बुरे आमाल को गिनाते हुए नबी करीम (ﷺ) का यह इर्शाद नक़ल किया गया है कि मुसलमान होते हुए भी लग्ज़िश और ख़ता की राह से इन आमाल का हो जाना मुमकिन है लेकिन इस्लाम के साय ज़ुब्न (बुज़दिली) किसी हाल में भी जमा नहीं हो सकती मगर याद रहे कि किसी पर बेजा क़ुव्वते आज़माइश का नाम बहादुरी नहीं है बल्कि हक़ के मामले पर कायम हो जाना और बातिल से बेख़ौफ़ बन जाना बहादुरी है।

To be continued …