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क़ुरआन और हज़रत यहया (अलै.)
कुरआन मजीद में हज़रत यहया (अलै.) का ज़िक्र उन्हीं सूरतों में आया है, जिनमे उनके मोहतरम वालिद हज़रत ज़करिया (अलै.) का ज़िक्र है और जिनकी दुआओं का वह हासिल थे।
तर्जुमा- ऐ ज़करिया! हम बेशक तुमको बशारत देते हैं एक बेटे की, उसका नाम यहया होगा कि इससे पहले हमने किसी के लिए यह नाम नहीं ठहराया है।’ (19:7)
हज़रत ज़करिया (अलै.) और बेटे की विलादत
हज़रत यहया (अलै.) से मुताल्लिक रिवायतों का हासिल यह है कि वह यानी हज़रत यहया (अलै.), हज़रत ईसा (अलै.) से छः महीने बड़े थे और हज़रत यहया (अलै.) के लिए जब हज़रत ज़करिया (अलै.) ने दुआ की तो उसमें यह कहा था कि वह ‘पाक औलाद‘ हो, चुनांचे कुरआन मजीद ने बताया कि अल्लाह तआला ने उनकी दुआ मंजूर फ़रमा ली, चुनांचे हज़रत यहया (अलै.) नेकों के सरदार और ज़ुहद और तक़्वा में बे-मिसाल थे, न उन्होंने शादी की और न उनके दिल में कभी गुनाह का खतरा पैदा हुआ और अपने बुजुर्ग बाप की तरह वह भी अल्लाह के बरगज़ीदा नबी थे और अल्लाह तआला ने उनको बचपन ही में इल्म व हिक्मत से भर दिया था और उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा काम यह था कि वे हज़रत ईसा (अ.स.) के आने की बशारत देते और उनके आने से पहले रुश्द व हिदायत के लिए ज़मीन हमवार करते थे। चुनांचे मुबारक इर्शाद है –
तर्जुमा- ‘पस ज़करिया जिस वक्त मस्जिद में नमाज अदा कर रहा था, तो फ़रिश्ते ने उसको पुकारा। ऐ ज़करिया! अल्लाह तुमको (एक फ़रज़न्द ) यहया की ख़ुशख़बरी देता है जो अल्लाह के कलिमा (ईसा) की बशारत देगा और वह अल्लाह की और उसके बंदों की नज़र में बरगज़ीदा और गुनाहों से बेलौस होगा और नेकों में से नबी होगा।’ (3:39)
तफ़्सीरी नुक़्ते
1. सीरत की किताबों में इस जगह पर ‘सैयद‘ के अलग-अलग मानी नक़ल किए गए हैं। जैसे हलीम (सहनशील), आलिम, फ़क़ीह, दीन व दुनिया का सरदार, शरीफ़ व परहेज़गार, अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा और बरगज़ीदा लेकिन आख़िर मानी चूंकि ऊपर लिखी तमाम सतरों के मानी को हावी हैं इसलिए तर्जुमा में उन्हीं को अपनाया गया है। (तफ़्सीर इने कसीर, भाग 2 : पृ-361)
2. इसी तरह तफ़्सीर इब्ने कसीर में ‘हुसूर के भी अलग-अलग मानी ज़िक्र किए गए हैं, ‘वह आदमी जो औरत के करीब तक न गया हो’ ‘जो हर किस्म के गुनाह से बचा हो’, और उसके दिल में गुनाह का खतरा भी न गुज़रता हो’ ‘जो आप भी अपने नफ्स पर पूरी तरह काबू रखता हो और नफ़्सानी ख्वाहिशों को रोकता हो।’
हमारे ख्याल में ये सब मानी एक ही हक़ीक़त की अलग-अलग ताबीरें हैं इसलिए कि डिक्शनरी में ‘हस्र‘ के मानी ‘रुकावट‘ आते हैं और हुसूर इसका मुबालगा है, इसलिए इस जगह यह मतलब है कि अल्लाह के नज़दीक जिन मामलों से रुकना जरूरी है, उनसे रुकने वाला ‘हुसूर‘ है और इस लिहाज़ से चूंकि हज़रत यहया (अलै.) में तमाम सिफतें मौजूद हैं इसलिए सभी मानी उन पर फिट बैठते हैं अलबत्ता ताकत बाकी रहने के बावुजूद उस पर काबू पाने के लिए अल्लाह के बरगज़ीदा इंसानों के हमेशा दो तरीके रहे हैं।
एक यह कि बिन ब्याही ज़िंदगी अख्तियार कर के मुजाहदों, रियाज़तों और नफ्सकुशी के ज़रिये हमेशा के लिए उसको दबा दिया जाए, गोया उसको फ़ना कर दिया जाए। हज़रत ईसा (अलै.) की मुबारक ज़िन्दगी में यही पहलू ज़्यादा नुमायां है और हज़रत यहया (अलै.) में अल्लाह तआला ने यह वस्फ, बगैर मुजाहदा व रियाजत ही के शुरू फ़ितरत में ही रख दिया था।
और दूसरा तरीका यह है कि उसको इस दर्जा काबू में रखा जाए और उस पर इस हद तक ज़ब्त क़ायम किया जाए कि वह कभी एक लम्हे के लिए भी बे-महल हरकत में न आ पाए बल्कि बे-महल हरकत में आने का खतरा तक बाकी न रहे, लेकिन इंसानी नस्ल के बाक़ी रखने के लिए सही तरीके के ज़रिए शादीशुदा ज़िन्दगी इख़्तियार की जाए।
पहला तरीका अगरचे (यद्यपि) कुछ हालतों में पसंदीदा होता है, मगर इंसानी फ़ितरत और इज्तिमाई ज़िंदगी के लिए गैर-मुनासिब है, पस जिन नबियों ने इस तरीके को अपनाया, वह वक्त की अहम ज़रूरत के हिसाब से था, खासतौर से जबकि उनकी दावत ख़ास-खास क़ौमों में महदूद थी लेकिन जमालती ज़िंदगी के लिए फ़ितरत का हक़ीकी तकाज़ा सिर्फ दूसरा तरीका पूरा करना है और इसीलिए नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तालीम और आपका ज़ाती अमल इसी तरीके की ताईद करते हैं और जबकि आप तमाम दुनिया के लिए भेजे गए हैं, तो ऐसी शक्ल में आपके लाए हुए ‘दीने फितरत’ में उसी को बरतरी हासिल होनी चाहिए थी।
चुनांचे आपने ज़िंदगी के कई शोबो में इस हक़ीक़त की तरफ़ तवज्जोह दिलाई है कि दुनिया के मामलों से अलग होकर पहाड़ों के गारों और बयाबानों में जिंदगी गुज़ारने वाले आदमी के मुकाबले में उस आदमी का रुतबा अल्लाह के यहां ज़्यादा बुलंद है जो दुनिया की ज़िंदगी के मामलों में क़ैद रहकर एक लम्हे के लिए भी अल्लाह की नाफरमानी न करे और क़दम-क़दम पर उसके हुक्मों को नज़रों के सामने रखे।
तर्जुमा- ‘ऐ याहया! (ख़ुदा का हुक्म हुआ क्योंकि वह खुशखबरी के मुताबिक़ पैदा हुआ और बढ़ा) अल्लाह की किताब (तौरात) के पीछे मज़बूती के साथ लग जा चुनांचे वह अभी लड़का ही था कि हमने उसे इल्म व फ़ज़ीलत बख्शी, साथ ही अपने ख़ास फ़ज़्ल से दिल की नर्मी और नफ़्स की पाकी अता फरमाई। वह परहेज़गार और मां-बाप का ख़िदमत गुज़ार था, सख्तगीर और नाफरमान न था। उस पर सलाम हो (यानी सलामती हो) जिस दिन पैदा हुआ और जिस दिन मरा और जिस दिन फिर ज़िंदा किया जाएगा। (19:12-15)
3. बहस में आई आयतों में ‘व आतै नाहुल हुक-म सबीया‘ के यही मानी है जैसा कि तारीख़ इब्ने कसीर में अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने मुअम्मर से नक़ल किया है और जिस आदमी ने उससे यह मुराद ली है कि हज़रत यहया (अलै.) बचपन ही में नबी बना दिए गए थे सही नहीं है इसलिए नुबूवत के मंसब जैसा ऊंचा और अहम मंसब किसी को भी बचपन ही में मिल जाना न अक़्ल के नज़दीक सही है और न नक़्ल से साबित है।
4. अल्लाह तआला की ओर से हज़रत याहया (अलै.) को इन आयतों में जो सलामती की दुआ दी गई है, वह तीन वक़्तों के साथ ख़ास है। सच तो यह है कि इंसान के लिए यही तीन वक्त सबसे ज़्यादा नाज़ुक और अहम हैं – पैदाइश का वक़्त,जिसमें रहमे मादर (गर्भाशय) से जुदा होकर दुनिया में आता है और वक्ते मौत कि ‘जिसमें दुनिया से विदा होकर आलमे बरज़ख़ में पहुंचता है और ‘हश्र व नश्र का वक्त‘ कि जिसमें क़ब्र (बरज़ख) से आख़िरत की दुनिया में आमाल की जज़ा व सज़ा के लिए पेश होता है. इसलिए जिस आदमी को अल्लाह की ओर से इन तीन वक़्तों के लिए सलामती की बशारत मिल गई उसको दोनों दुनिया की सआदत का कुल भंडार मिल गया। ‘फतूबा लहू व हुस-न मआब’
तर्जुमा- ख़ुशहाली और नेक अंजामी है उसके लिए। (13:29)
दावत व तब्लीग़
सही हदीसों में ज़िक्र किया गया है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया –
‘अल्लाह तआला ने याहया बिन ज़करिया (अलै.) को पांच बातों की खुसूसियत के साथ हुक्म फ़रमाया कि वे खुद भी इन पर अमल करें और बनी इसराइल को भी इन की हिदायत फ़रमाएं। चुनांचे उन्होंने बनी इसराईल को बैतुल-मक्दिस में जमा किया और जब मस्जिद भर गई तो इर्शाद फ़रमाया कि- अल्लाह तआला ने मुझको पांच बातों का हुक्म दिया है कि मैं खुद भी उन पर अमल करूं और तुमको भी अमल के लिए हिदायत करूं और वे पांच हुक़्म ये हैं–
‘पहला हुक्म यह है कि अल्लाह के सिवा किसी की परस्तिश न करो और न किसी को उसका शरीक ठहराओ, क्योंकि मुशरिक की मिसाल उस ग़ुलाम की सी है जिसको उसके मालिक ने अपने रुपए से खरीदा, मगर ग़ुलाम ने यह तरीका इख़्तियार किया कि जो कुछ कमाता है, वह मालिक के सिवा एक दूसरे आदमी को दे देता है, तो अब बताओ कि तुममें से कोई आदमी यह पसंद करेगा कि उसका गुलाम ऐसा हो? इसलिए समझ लो कि जब अल्लाह ही ने तुमको पैदा किया और वही तुमको रोज़ी देता है तो तुम भी सिर्फ उसी की परस्तिश करो और उसका किसी को शरीक न ठहराओ।’
‘दूसरा हुक्म यह है कि तुम दिल लगा कर अल्लाह से डरते हुए नमाज़ पढ़ो क्योंकि जब तक तुम नमाज़ में किसी दूसरी तरफ़ मुतवज्जह न होगे, तो अल्लाह बराबर तुम्हारी तरफ़ रज़ा व रहमत के साथ मुतवज्जह रहेगा।’
तीसरा हुक्म यह है कि रोज़ा रखो। इसलिए कि रोज़ेदार की मिसाल उस आदमी की सी है जो एक जमाअत में बैठा हो और उसकी मुश्क की थैली हो। चुनांचे मुश्क उसको भी और उसके साथियों को भी अपनी ख़ुश्बू से मस्त करता रहेगा और रोज़ेदार के मुंह की बू का ख्याल न करो इसलिए कि अल्लाह के नज़दीक रोज़ेदार के मुंह की बू (जो ख़ाली मेदे से उठती है) मुश्क की ख़ुश्बू से ज़्यादा पाक है।’
‘चौथा हुक्म यह है कि माल में से सदक़ा निकाला करो, क्योंकि सदक़ा’ करने वाले की मिसाल उस आदमी की सी है जिसको उसके दुश्मनों ने अचानक आ पकड़ा हो और उसके हाथों को गर्दन से बांध कर वे मक्तल की तरफ़ ले चले हों और इस नाउम्मीदी की हालत में वह यह कहे, क्या यह मुम्किन है कि मैं माल देकर अपनी जान छुड़ा लूं और ‘हां‘ में जवाब पाकर अपनी जान के बदले सब धन-दौलत कुरबान कर दे।’
‘पांचवां हुक्म यह है कि दिन-रात में कसरत से अल्लाह का ज़िक्र करते रहा करो, क्योंकि ऐसे आदमी की मिसाल उस आदमी की-सी है जो दुश्मन से भाग रहा हो और दुश्मन तेज़ी के साथ उसका पीछा कर रहा हो और भागकर वह किसी मज़बूत किले में पनाह हासिल करके दुश्मन से बच जाए। बेशक इंसान के दुश्मन ‘शैतान’ के मुकाबले में अल्लाह के ज़िक्र में मश्ग़ूल हो जाना मज़बूत किले में महफूज़ हो जाना है।’
इसके बाद नबी अकरम सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने सहाबा की जानिब मुतवज्जह होकर इर्शाद फरमाया –
मैं भी तुमको ऐसी पांच बातों का हुक्म करता हूं जिनका अल्लाह ने मुझको हुक्म दिया है- यानी ‘जमाअत का लाज़िम करना’, ‘सुनना’, ‘इताअत करना’, ‘हिजरत’ और ‘अल्लाह के रास्ते में जिहाद’ । पस जो आदमी ‘जमात‘ से एक बालिश्त बाहर निकल गया, उसने बेशक अपनी गर्दन से इस्लाम की रस्सी को निकाल दिया, मगर यह कि जमाअत का लाज़िम होना इख़्तियार करे और जिस आदमी ने जाहिलियत के दौर की बातों की तरफ़ दावत दी, तो उसने जहन्नम को ठिकाना बनाया। हारिस अशअरी रह० कहते हैं, कहने वाले ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल०! चाहे वह आदमी नमाज़ और रोज़े का पाबन्द ही हो, तब भी जहन्नम का हक़दार है? फ़रमाया, हाँ अगरचे, नमाज़ व रोज़े का पाबन्द भी हो, और यह समझता हो कि मैं मुसलमान हूं, तब भी जहन्नम का मुस्तहिक़ है। (अल-बिदाया बन्निहाया, माग, पृ. 52)
इब्ने असाकिर ने वहब बिन मुनब्बह से कुछ रिवायतें नकल की हैं जिनका हासिल यह है कि हज़रत याहया (अलै.) पर अल्लाह का डर इस तरह छाया रहता था कि वे अक्सर रोते रहते थे, यहां तक कि उनके गालों पर आंसुओं के निशान पड़ गए थे, चुनांचे एक बार उनके बाप हज़रत ज़करिया (अलै.) ने जब उनको जंगल में तलाश करके पा लिया, तो उनसे फ़रमाया, बेटा! हम तो तेरी याद में परेशान तुझको तलाश कर रहे हैं और तू यहां आह व गिरया में लगा है?’ तो याहया (अलै.) ने जवाब दिया, ऐ बाप! तुमने मुझे बताया है कि जन्नत और जहन्नम के दर्मियान एक ऐसा लम्बा-चौड़ा मैदान है जो अल्लाह के डर से आंसू बहाए बग़ैर तय नहीं होता और जन्नत तक पहुंच नहीं होती। यह सुनकर हज़रत ज़करिया (अलै.) भी रोने लगे। (अल-बिदाया वन्निहाया)
शहादत का वाक़िया
हज़रत याहया (अलै.) ने जब अल्लाह के दीन की मुनादी शुरू कर दी। लोगों को यह बताने लगे कि मुझसे बढ़कर एक और अल्लाह का पैग़म्बर आने वाला है तो यहूदियों को उनके साथ दुश्मनी और अदावत हो गई और वे उनकी बरगज़ीदगी, कुबूलियत और मुनादी को बरदाश्त न कर सके और एक दिन उनके पास इकट्ठा होकर आए और मालूम किया, क्या तू मसीह है? उसने कहा नहीं, तब उन्होंने कहा, क्या तू वह नबी है?
उसने कहा, नहीं। क्या तू एलिया नबी है! उसने कहा, नहीं, तब उन सबने कहा कि फिर तू कौन हैं, जो इस तरह मुनादी करता और हमको दावत देता है? हज़रत याहया (अलै.) ने जवाब दिया. मैं जंगल में पुकारने वाले की एक आवाज़ हूं जो हक के लिए बुलन्द की गई है। यह सुनकर यहूदी भड़क उठे और आख़िरकार उनको शहीद कर डाला।
मक़्तल (क़त्लगाह)
इस बारे में कोई फैसला कर देने वाली गवाही मौजूद नहीं है कि हज़रत याहया (अलै.) का मक़्तल कौन-सी जगह है? लेकिन यह मानी हुई बातों में से है कि यहूदियों ने उनको शहीद कर दिया। कुरआन में यहूदियों के हाथों नबियों और पैग़म्बरों के क़त्ल का ज़िक्र कई जगहों पर आया है।
शबे मेराज और हज़रत याह्या (अलै.)
किताबुल अंबिया में बुख़ारी (अलै.) ने हज़रत याहया (अलै.) के ज़िक्र में सिर्फ इसरा की हदीस के उस टुकड़े को बयान किया है जिसमें नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का दूसरे आसमान पर उनके साथ मुलाक़ात करना ज़िक्र किया गया है। रिवायत में है –
‘पस जब मैं (दूसरे आसमान पर पहुंचा तो देखा कि हज़रत याहया (अलै.) और हज़रत ईसा (अलै.) मौजूद हैं और ये दोनों ख़लेरे भाई हैं। हज़रत जिब्रील (अलै.) ने कहा, यह हज़रत याहया (अलै.) व हज़रत ईसा (अलै.) हैं, इनको सलाम कीजिए। मैंने उनको सलाम किया, तो उन दोनों ने सलाम का जवाब दिया और फिर दोनों ने कहा, आपका आना मुबारक हो, ऐ हमारे नेक भाई और नेक पैग़म्बर।’
नतीजा और सबक़
1. दुनिया में उस आदमी से ज़्यादा बद-बख़्त और ज़ालिम दूसरा कोई नहीं हो सकता जो ऐसी मुक़द्दस हस्ती को क़त्ल कर दे, जो न उसको सताती है और न उसके माल व दौलत पर हाथ डालती है, बल्कि इसके खिलाफ़ बग़ैर किसी उजरत और मुआवज़े के उसकी ज़िंदगी की इस्लाह के लिए हर क़िस्म की ख़िदमत अंजाम देती और अख़लाक़, आमाल और अक़ाइद की ऐसी तालीम बख़्शती है, जो उसको दुनिया और आख़िरत दोनों की फ़लाह व सआदत के लिए काफ़ी हो।
2. इंसान को अल्लाह के फ़ज़्ल व करम से कभी ना-उम्मीद नहीं होना चाहिए और अगर कुछ हालात में ख़ुलूस के साथ दुआएं करने के बावजूद भी मक्सद हासिल न हो, तो इसके यह मानी हरगिज़ नहीं है कि उस आदमी से अल्लाह की मेहरबान निगाह ने रुख फेर लिया है, नहीं, बल्कि ‘हकीमे मुतलक़‘ की आम और मुकम्मल हिक्मत की नज़र में कभी इंसान की तलब की हुई चीज़ माल और अंजाम के लिहज़ से उसके लिए फायदेमंद होने की जगह नुक्सानदेह होती है, जिसका ख़ुद उसको इसलिए इल्म नहीं होता कि उसका इल्म एक हद के अन्दर है और कभी ऐसा होता है कि चाहे शख्सी मस्लहतों से ऊपर होकर इज्तिमाई मस्लहतों की फलाह व कामयाबी के लिए ‘देर‘ चाहता है या इससे बेहतर मक्सद के लिए उसको कुरबान कर दिया जाता है।
बहरहाल ‘कुनूत‘ और ‘मायूसी‘ अल्लाह के दरबार में ख़राब और ना-पसन्दीदा बात है।
तर्जुमा- अल्लाह की रहमत से ना-उम्मीद न हो, इसलिए कि अल्लाह की रहमत से सिर्फ़ वही लोग ना-उम्मीद होते हैं, जो इंकारी हैं।’ (12:87)
To be continued …