सबा और सैले इरम

(लगभग 200ई०)

तम्हीद (प्रस्तावना)

      क़ौमों की तरक्की और तनज्जुली का पस मंज़र (उन्नति-अवनति की पृष्ठभूमि) बख्त व इत्तिफ़ाक़ (भाग्य और संयोग) पर टिका नहीं होता, बल्कि कुदरत के क़ानून के मुकर्रर किए गए उसूल के मुताबिक पेश आता है, अलबत्ता कभी ऊरूज व ज़वाल (उन्नति-अवनति) की वजहें इतनी वाजेह और साफ़ होती हैं कि आम तौर से ये देखने में आ जाती हैं और या अक्ल की सरसरी तवज्जोह से पहचान ली जाती हैं और कभी उनका वजूद ऐसी वजहों से होता है जिनका ताल्लुक़ आम वजहों और वासिलो से अलग होता है, अल्लाह तआला की फ़रमांबरदारी और नाफरमानी से जुड़ा होता है।

      यानी देखने में अगरचे एक क़ौम में, मिसाल के तौर पर वे तमाम हालात और वजहें पाई जाती हों जिनसे किसी क़ौम को तरक्की मिलती है फिर भी वह क़ौम अचानक हलाकत व बर्बादी की भेंट चढ़ जाती है और इंसानी दुनिया के लिए उसकी हलाकत हैरत में डाल देने वाली बन जाती है लेकिन जब अल्लाह की ओर से उनकी सरकशी, बगावत और अल्लाह के हुक्मों की बराबर खिलाफवर्जी का पर्दा चाक हो जाता है और अल्लाह की वह्य, उनके अमल और अमल के बदले की तफ्सील को सबके सामने ले आती है, तब बुद्धि रखने वाले लोग यह यकीन कर लेते हैं कि जिस कौम की इज्तिमाई ज़िंदगी के खुबसूरत खोल में ऐसी मकरूह और घिनौनी शक्ल मौजूद थी तो बेशक उसकी हलाकत व तबाही संयोग की वजह से नहीं बल्कि अल्लाह के क़ानून व अमल के बदले के ठीक मुताबिक़ हुई है।

      सबा और क़ौमें सबा का वह सबक भरा हादसा और उन की तरक्कियों का नसीहत भरा वाकिया, जो नीचे दिया जा रहा है कौमों की तरक्की-तबाही के उस दूसरे कानून की वजह से ही आया था और तारीख के पन्ने इस सच्चाई के गवाह हैं कि वह कौम ऐश व इशरत की बुलन्दी पर बिना किसी ख़ौफ़ और खतरे के ज़िंदगी बसर कर रही थी और एकदम हलाकत व बर्बादी के गहरे गड्ढे में सिर्फ संयोग से नहीं गिर गई थी बल्कि दूर-दूर तक पहुँचे हुए बुरे आमाल के बदले में उसको ये बुरे दिन देखने पड़े थे, जो तारीख के वाकियों में बड़ी अहमयित रखते और कौमों के बनने-बिगड़ने की तारीख में हज़ारों सबक़ व नसीहत जुटाते हैं।

सबा और क़ौमें सबा

      सबा कहतानी कबीले की मशहूर शाख है जबकि कहतान का ताल्लुक उम्मे सामिया से है लेकिन इसमें इख्तिलाफ़ है कि वह बनू इस्माईल में से है और अदनानी और कहतानी एक ही सिलसिला है या यह कि अदनानी तो बनी इस्माईल हैं और कहतानी उनसे अलग एक पुराना सिलसिला है। अरब के तारीखदां कहते हैं कि सबा लक़ब है और नाम अम्र या अब्द शम्स है। आज के दौर के तारीख वाले इसी को सही समझते हैं और यह भी कहते हैं कि ‘सबा‘ के मतलब में ‘तिजारत‘ के मानी दाखिल हैं और ‘सबा की क़ौम‘ (क़ौमें सबा), चूंकि तिजारत पेशा क़ौम थी इसलिए ‘सबा’ के नाम से मशहूर हुई।

सबा और हुकूमत के तबक़े

      तारीखदानों के हिसाब से सबा की हुकुमत दो तबकों में बंटी रही है और फिर हर दो तबकों की हुकूमत का ज़माना अलग-अलग दो दौरों में बंटा हुआ है। पहले तबके का पहला दौर लगभग 11 सौ ईसा पूर्व से शुरू हो कर 550 ईसा पूर्व पर ख़त्म होता है। यह इसकी तरक्की का ज़माना है और हज़रत सुलैमान (अलै.) के ज़माने की मलिका सबा (बिलकीस) इसी दौर से ताल्लुक रखती है। पहले तबके का दूसरा दौर 550 ईसा पूर्व से शुरू होकर 115 ईसा पूर्व पर ख़त्म होता है। सैले इरम और सबा का बिखराव इसी दौर से मुताल्लिक है।

      कुरआन में सूरः दुःखान और सूरः क़ाफ़ में जिन ‘तुब्बअ’ वालों का ज़िक्र किया गया है उनका ताल्लुक दूसरे तबके के इस दौर से है। मुख्तसर यह कि लगभग आठवीं सदी ईसा पूर्व में ‘सबा’ की हुकूमत अरब की शानदार तरक्कीयाफ्ता हुकूमत थी। 

सबा की इमारतें और उनका रहन-सहन

      सबा की शानदार इमारतों के तज़किरे पुराने और नए तारिखदानों के यहां बहुत ज्यादा मिलते हैं। कहते हैं कि उनका महल ग़मदान कारीगरी का बेहतरीन नमूना था। (इसके मुताल्लिक बयान अगले पन्नों पर देखें। यह क़स्र बीस मंज़िले रखता था और ऊपर की मंजिल बहुत ही ज़्यादा क़ीमती आबगीनों (हीरे-जवाहरात) से बनाई गई थी।

      इसका ज़िक्र हज़रत सुलैमान (अलै.) के किस्से में हो चुका है। इसी तरह और भी बेनजीर इमारतें थीं। सबा की हुकूमत की सीमाओं के अन्दर सोने और जवाहरात की खाने थीं, हज़र मौत और यमन का इलाक़ा ख़ुशबूदार चीज़ों के लिए मशहूर था, जबकि अमान और बहरैन के मोती दुनिया में बेमिसाल समझे जाते थे। इसी तरह यमन का साहिल पूरे इलाके की (पैदावार के लिए) मंडी था और शाम, मिस्र, यूरोप और हिन्दुस्तान व हब्श के दर्मियान तिजारत के अकेले ठेकेदार ‘सबा‘ ही थे। तौरात में सबा की दौलत क सरवत और उनके तमद्दुन (संस्कृति) की महानता के बहुत ज़्यादा तज़किरे मिलते हैं।

सद्दे मआरिब (मआरिब का बांध)

      अरब में मुस्तक़िल नदियां नहीं हैं। अकसर बारिश के पानी पर गुज़र है और कहीं-कहीं पहाड़ी चश्मे भी हैं। बारिश का पानी हो या पहाड़ी चश्मों का, तमाम पानी बहकर वादी के रेगिस्तान में सूख कर बर्बाद हो जाता है। क़ौमे सबा ने इस पानी को काम में लाने और बागों और खेतों को हरा-भरा बनाने के लिए यमन के दूर-दूर तक के इलाकों में एक सौ से ज्यादा बांध बांधे थे और उनकी वजह से पूरा मुल्क सरसब्ज़ व शादाब बना हुआ था। इन्हीं बांधों में से सबसे बड़ा और शानदार बांध ‘सद्दे मआरिब‘ था, जो राजधानी मआरिब में बनाय गया था।

      इस सद्द के बारे में पुराने नये तारीखदानों और सैर-सपाटा करनेवालों ने जो हालात लिखे हैं, वे यह साबित करते हैं कि सबा को इंजिनियरिंग के फ़न और मैथमेटिक्स में बड़ा कमाल हासिल था।

      मआरिब के दक्खिन में दाएं-बाएं दो पहाड़ हैं जो अबलक पहाड़ के नाम से मशहूर हैं और उनके दरमियान बड़ी लम्बी-चौड़ी घाटी है जिसको उज्निय की घाटी कहते हैं। जब पानी बरसता या पहाड़ी चश्मों से बह निकलता तो घाटी नदी बन जाती। सबा ने यह देख कर 800 ई०पूर्व में इन दोनों पहाड़ी के दर्मियान बांध का बांधना शुरू कर दिया और अर्से तक उसके बनाने के सिलसिला जारी रहा।

      अरब के कुछ तारीख़दा कहते हैं कि यह बांध दो वर्ग मील में था और अर्जुल कुरआन के लेखक एक यूरोपीय पर्यटक (सय्याह) अज़माऊ के मज्मू (लेख) के हवाले से बयान करते हैं कि यह एक सौ फिट लम्बी और पचास फिट चौड़ी दीवार है, जिसका बहुत बड़ा हिस्सा टूट चुका है और तिहाई अभी बाक़ी है और वे यह भी तहरीर फ़रमाते हैं कि इस सय्याह (पर्यटक) उसका बहुत अच्छा-सा नक्शा तैयार करके अपने मज़मून के साथ छापा है। फ्रेंच एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में छपा है और जिसको उन्होंने अर्जुल कुरआन में भी नक़ल किया है।

      अरब के तारीख़दां यह भी कहते हैं सबा ने उसको इस तरह तामीर किया था कि पानी को रोकने के बाद मौसमों के इख्तिलाफ़ के पेशे नज़र सिंचाई के लिए पानी के ऊपर-नीचे तीन दर्जे कायम कर दिए थे और हर दर्जे में तीस-तीस खिड़कियां रखी थीं, जिनके ज़रिए पानी को खोला और बंद किया जाता था और फिर उनके नीचे एक बहुत बड़ा हौज़ बनाया था। उसके दाएं-बाएं लोहे के दो बड़े-बड़े फाटक थे।

      हौज़ का पानी जिनके ज़रिए तक़सीम होकर मआरिब के दोनों तरफ़ नहरों, गोलों और जबहों के ज़रिए ज़रूरत के मुताबिक काम में आता था। इस शानदार बांध की वजह से लगभग 300 वर्ग मील तक दाएं-बाएं छुहारों के बाग़, मेवों और फलों के बहुत सुन्दर बाग और मुर्गज़ार, ‘दार चीनी‘, औफ़ और हर तरह के खुश्बूदार पेड़ों के घने बाग इतने ज़्यादा हो गए थे कि तमाम इलाक़ा चमनिस्तान और फ़िरदौस बना हुआ था।

      यमन की फ़ितरी खुसूसियतों के लिहाज़ से खुश्बुओं, फलों और फूलों के पेड़ों की ज़्यादती मआरिब के बांध की वजह से इसमें शानदार बढ़ोत्तरी और तरक्की, तिजारती कारोबार और खनिज पदार्थों (मादनियात) की ज़्यादती की वजह से सोना, चांदी और जवाहरात की बहुतायत ने कौमे सबा में इस दर्जा, ऐश्परस्ती, खुशहाली, और इत्मीनान पैदा कर दिया था कि वे हर वक्त खुशी-खुशी अल्लाह की नेमतों का फायदा उठाते और रात व दिन सुख-चैन का जीवन जी रहे थे।

      और देश के बहारस्तानों और चमनिस्तानों की वजह से जलवायु में इतना ठहराव था कि सबा के लोग मच्छरों, मक्खियों और पिस्सुओं जैसे तकलीफ पहुंचाने वाले कीड़ों से पाक और हिफ़ाज़त में थे। ‘जन्नतानि अय्यमीनिंब-व शिमाल’ (34:15)

      गरज़ हर किस्म की राहत और ऐश की जिंदगी पर यह और ज़्यादा था कि यमन से शाम तक जिस मशहूर शाहराह (Main Road) पर सबा वालों के तिजारती क़ाफ़िलों का आना-जाना था, उसके भी दोनों तरफ़ खुबसूरत बलसान और दारचीनी के खुश्बूदार पेड़ों का साया था और करीब-करीब फ़ासले से सफ़र को आरामदेह बनाने के लिए कारवां सराएं बनाई गई थीं जो शाम के इलाके तक उनको इस आराम के साथ पहुंचाती थीं कि ठंडे पानी, मेदों और फूलों की ज्यादती यह भी महसूस नहीं होने देती थी कि वे अपने वतन में हैं या कठिनाई भरे सफ़र में।

      यहां तक कि जब ख़ुशबूदार साया और सुकून देने वाली हवा में उनका कारवां इन कारवां सरायों में ठहरता, मेवे और ताज़ा फल खाता और ठंडा-मीठा पानी पीता हुआ हिजाज़ और शाम तक आना जाना रखता तो पड़ौसी कौमें रशक व हसद से उन पर निगाहें उठाती और हैरत व ताज्जुब के साथ उनके इस ऐश व इश्त पर दांतों तले उंगलियां दबा लेती थीं जैसा कि आप उनके ज़माने के तारीखदानों की ज़ुबान से सुन चके हैं कि वे किन लफ़्ज़ों में उनकी खुशहाली का तज़किरा कर रहे हैं और जिसको अल्लाह ने बेहद (उनके लिए) सस्ता कर दिया था।

      इन तारीख़ी तफ्सील के बाद अब हमको कुरआन की इन आयतों को पढ़ना चाहिए जो सबा की इन खुशहालियों का ज़िक्र करते हुए उसको अहले सबा पर अल्लाह तआला का शानदार इनाम व इकराम ज़ाहिर करती हैं –

      तर्जुमा- बेशक अहले सबा के लिए उनके वतन में अल्लाह की कुदरत की अजीब व गरीब निशानी थी। दो बागों का सिलसिला) दाएं-बाएं और अल्लाह ने उनको यह फ़रमा दिया था, ऐ सबा वालो! अपने परवरदिगार की तरफ़ से बख़्शी हुई रोज़ी खाओ और उसका शुक्र करो, शहर है पाकीज़ा और परवरदिगार है बख्शने वाला। (34:12)

      कुरआन मजीद की ऊपर की लाइनों को पढ़िए, कुरआन कहता है कि सबा के अपने घर में अल्लाह तआला की बेनज़ीर और अजीब व गरीब निशानी मौजूद थी, वह यह कि सैंकड़ों मील तक उनके शहर के दाएं-बाएं मेवों, फलों और खुश्बूदार चीज़ों के पेड़ों का घना सिलसिला बागों की शक्ल में मौजूद था।

      यह अल्लाह तआला के दिए हुए रिज्क की कुंदरती ख़ासियतों के ज़रिए जो अल्लाह की ‘फ़ितरत‘ के हाथों एतदाल पर रहा, सर्द व खुश्क तबई नश्व व नुमा की शक्ल में ज़ाहिर हुआ और दूसरा पानी पहुंचाने के बेहतर तरीके की शक्ल में, जो असल में कायनात के पैदा करने वाले की दी हुई अक्ल और सूझ-बूझ और समझ का नतीजा था पस अहले सबा का फ़र्ज़ है कि वे इस खुशऐशी और अम्न व सुकून पर जो उनके वतन ही में बे-मेहनत हासिल है उसके शुक्र गुज़ार बन्दे बनें।

      अगर वे इन नेमतों का शुक्र अदा करेंगे और ख़ुदा के रिश्ते को मज़बूत करने के लिए उसकी मर्ज़ी के मताबिक़ ज़िदंगी गुज़ारते रहेंगे, तो बेशक उन्हें यह समझना चाहिए कि एक ओर उनकी दुनिया की ज़िंदगी के लिए उनको ऐसा उम्दा और पाक-साफ़ वतन हासिल है और दूसरी ओर उनकी हमेशा की ज़िदंगी और आखिरत की निजात के लिए उनका परवरदिगार बहुत बख्शने वाला है।

अहले सबा और अल्लाह की नाफरमानी

      अहले सबा एक मुद्दत तक तो इस दुनिया की जन्नत को अल्लाह की शानदार अमानत और नेमत ही समझते और इस्लाम का दामन थामे हुए अल्लाह के अहकाम का पूरा करना अपना फ़र्ज़ समझते रहे, लेकिन खुशहाली, इंतेहाई ऐशपरस्ती और हर किस्म की नेमतों के मिल जाने से धीरे-धीरे उनमें भी वहीं रद्दी अखलाक पैदा हो गए, जो उनके पहले की पिछली घमंड में चूर और तकब्बुर वाली क़ौमों में मौजूद थे और यह यहां तक तरक्की करते रहे कि उन्होंने दीने हक़ को भी छोड़ दिया और कुफ़्र व शिर्क की पिछली ज़िंदगी को दोबारा अपना लिया।

      फिर भी रब्बे ग़फूर (बनाने वाले पालनहार) ने फ़ौरन पकड़ नहीं की, बल्कि उसकी भारी रहमत ने मोहलत देने के कानून से काम लिया और नबियों ने उनको हक़ के रास्ते पर चलने की हिदयत दी और बताया कि इन नेमतों का मतलब यह नहीं है कि तुम दौलत, सरवत व हश्मत के नशे में चूर होकर मस्त हो जाओ और न यह कि अच्छे अख्लाक को छोड़ बैठो और कुफ्र व शिर्क इख़्तियार करके ख़ुदा के साथ बगावत का एलान कर दो, सोचो, और गौर करो कि यह राह बुरी है और उसका अंजाम बुरा अंजाम है।

      मुहम्मद बिन इसहाक इब्ने मुनब्बह की रिवायत के ज़रिए कहते हैं कि इस दौरान उनके पास अल्लाह के तेरह नबी रिसालत का हक़ अदा करने के लिए आए, मगर उन्होंने तनिक भी तवज्जोह न दी और अपनी मौजूदा ऐशपरस्ती को हमेशा की विरासत समझ कर शिर्क और कुफ्र की बद मस्तियों में मुब्तिला रहे।

      आखिर तारीख ने खुद को दोहराया और उनका अंजाम भी वही हुआ जो पिछले ज़माने में अल्लाह की नाफरमान कौमों का हो चुका है।

सैले इरम

      चुनांचे अल्लाह तआला ने उन पर दो क़िस्म का अज़ाब मुसल्लत कर दिया जिसकी वजह से उनके जन्नत जैसे बाग बर्बाद हो गए और उनकी जगह जंगली बेरियों, कांटेदार पेड़ और पीलू के पेड़ उगकर यह गवाही देने और इबरत की कहानी सुनाने लगे कि अल्लाह की लगातार नाफरमानी और सरकशी करने वाली क्रौमों का यह अंजाम होता है।

पहली सज़ा

      हुआ यह कि जिसकी तामीर पर इनको बहुत नाज़ था और जिसकी बदौलत उनकी राजधानी के दोनों तरफ तीन सौ वर्ग मील तक खूबसूरत और हसीन बाग और सरसब्ज़ व शादाब खेतों और फ़सलो से चमन गुलज़ार बना हुआ था, वह खुदा के हुक्म से टूट गया और अचानक उसका पानी सैलाब बना हुआ वादी में फैल गया और मआरिब और ज़मीन के उन तमाम हिस्सों पर जिनमें फरहत पहुंचाने वाले बाग थे,पर छा गया और उन सबको डुबा कर बर्बाद कर डाला और जब पानी धीरे-धीरे सूख गया तो उस पूरे इलाके में बागों की जन्नत की जगह पहाड़ों के दोनों किनारों से वादी के दोनों तरफ़ झाऊ के पेड़ों के झुंड और जंगली बेरों के झुंड और उन पीलू के पेड़ों ने ले ली, जिन का फल बद मज़ा, और कसेलापन लिए हुए होता है।

      और खुदा के इस अज़ाब को अहले मआरिब और कौमे सबा की कोई ताकत न रोक सकी और बांध बांधने में इंजिनियरिंग और मैथेमेटिक्स के फ़न की जिस महारत का जो सबूत उन्होंने दिया था वह उसके टूटने के वक्त सब बेकार होकर रह गया और अहले सबा के लिए इसके अलावा कोई रास्ता बाकी न रहा कि अपने प्यारे वतन और बड़े शहर मआरिव और उसके पड़ोस को छोड़कर बिखर जाएं।

      कुरआन ने इसी सबक भरे वाकिए को बयान करके खुली निगाह वाले और जागते दिल रखने वाले इंसान को नसीहत का यह सबक सुनाया है –

      तर्जुमा- फिर उन्होंने (कौमे सबा ने) उन पैगम्बरों की नसीहतों से मुंह फेर लिया पस हमने उन पर बांध तोड़ने का सैलाब भेज दिया और उनके दो (उम्दा) बागों के बदले दो ऐसे बाग उगा दिए, जो बद मज़ा फलों, झाऊ और कुछ बेरी के पेड़ों के झुंड थे, यह हमने उनकी नाशुक्रगुज़ारी की सज़ा दी और हम नाशुक्र कौम ही को सजा दिया करते हैं। (34:16-17)

      गौर कीजिए यह सैलाब ज़ाहिरी अस्बाव से किस तरह आया? क्या इसलिए कि ‘मआरिब का बांध‘ पुराना टूट-फूट का शिकार हो गया था? नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो जिस किस्म के इंजिनियरिंग के माहिरों ने उसको बनवाया था, सबा में उसकी उस वक़्त भी कमी न थी और वे इसके अलावा देश के अलग-अलग हिस्सों में सैंकड़ों बांध बनाते रहते थे, फिर क्या वे उसकी टूट फूट और पुरानेपन का इतना इंतिज़ाम भी नहीं कर सकते थे कि अगर उसको अपनी तबई उम्र पर टूटना ही है तो पानी के ज़ोर को इस तरह कम कर दिया जाए या इसके लिए तामीर में ऐसे इज़ाफ़े कर दिए जाएं कि जिससे यह अचानक टूटकर इस भारी मुसीबत की वजह न बन सकता।

      फिर यह सैलाब क्यों आया? क्या इसलिए कि इस हक़ीक़त के जान लेने के बावजूद कि यह बांध बहुत जल्द टूट-फूट कर इस भारी तबाही की वजह बनने वाला है, उन्होंने काहिली और सुस्ती से इसकी परवाह नहीं की तो तारीख की रोशनी में यह भी गलत है इसलिए कि सबा हुकूमत के बारे में जो वक़्त की तारीख़ी गवाहियां मिली हैं, वे यह ज़ाहिर करती हैं कि वे इस बांध की मज़बूती, और हर क़िस्म के हिफ़ाज़ती मामलों के बारे में बहुत मुतमइन थे और बराबर उससे सिंचाई का काम ले रहे थे। 

      सच तो यह है कि पुरानी और नई तारीखें इस हौलनाक तारीखी वाकिए की वजहों के बारे में बिल्कुल ही ख़ामोश हैं और इसलिए ख़ामोश हैं कि सबा पर यह अज़ाब, शक नहीं कि अचानक और उम्मीद के बिल्कुल ख़िलाफ़ आया जिससे वे ख़ुद भी हैरान हो कर रह गए और वे इसके सिवा और कुछ न समझ सके कि यह जो कुछ हुआ, अचानक गैबी हाथ से हुआ, क्योंकि बांध की मज़बूती और इंतिजाम में देखने में कोई ख़राबी नहीं थी फिर यकायक बांध का टूट जाना और पानी का भारी बाढ़ की शक्ल में फैल कर, तमाम जन्नतनिशां इलाके को तबाह व बर्बाद न कर देना अल्लाह के अज़ाब के अलावा और क्या हो सकता है।

      उन्होंने जब जायज़ और पाक खुशऐशी को अय्याशी और बद-अतवारी में बदल दिया, अल्लाह की दी हुई नेमतों का शुक्र अदा करने के बजाए घमंड और गुरूर के साथ नेमतों की नाक़द्री की, अम्बिया और पैगम्बरों के बार-बार रुश्द व हिदायत पहुंचाने के बावजूद शिर्क और कुफ़्र पर इसरार किया तो अचानक अल्लाह का अज़ाब उनको आकर तबाह व बर्बाद न करता तो आर क्या होता, जैसा कि ऊपर की आयतों में अल्लाह का इर्शाद है।

दूसरी सज़ा

      मआरिब के पानी के बांध के टूट जाने पर इन बस्तियों के बाशिंदे बिखर कर दूसरे इलाकों में चले गए और कुछ यमन के ही दूसरे इलाकों में जा बसे, मगर अल्लाह के अज़ाब की तक्मील अभी बाक़ी थी, इसलिए कि सबा ने सिर्फ गुरूर, सरकशी और कुफ्र और शिर्क ही के ज़रिए अल्लाह की नमतों को नहीं ठुकराया था, बल्कि उनको यमन से शाम तक राहत पहुंचाने वाली आबादियों और करवा सरायों की वजह से वह सफ़र भी नापसंद था जिसमें उनको यह महसूस नहीं होता था कि सफ़र की परेशानियां क्या होती हैं और पानी की तकलीफ़ और खाने-पीने की तकलीफ़ किस चीज़ का नाम है और कदम-क़दम पर मीलों तक दोनों तरफ़ खुश्बुओं और फलों के बागों की वजह से गर्मी और तपन की पीड़ा को भी नहीं जानते थे।

      उन्होंने इन नेमतों पर अल्लाह का शुक्र अदा करने के बजाए बनी इसराईल की तरह नाक-भौं चढ़ाकर यह कहना शुरू कर दिया कि यह भी कोई जिंदगी है कि इन्सान सफ़र के इरादे से घर से निकले तो यह भी न मालूम हो कि सफर की हालत मे है या अपने घर में। वे भी क्या खुशनसीब इंसान हैं जो भारी हिम्मत के साथ सफ़र की हर किस्म की तकलीफ उठाते, पानी और खाने-पीने के लिए तक्लीफें सहते और राहत व आराम के सामानों के न मिल पाने की वजह से सफ़र की लज्जत का मज़ा चखते हैं। ऐ काश! हमारा सफ़र भी ऐसा हो जाए कि हम यह महसूस करने लगे कि वतन से किसी दूर की जगह का सफ़र करने निकले हैं और मंज़िल की दूरी की तकलीफ़ सहते हुए सफ़र और गैर-सफ़र में फ़र्क कर सकें।

      बदबख्त और नाशुक्रे इंसानों की यह नाशुक्री थी, जिसकी तमन्नाओं और आरज़ूओं से बेचैन होकर ख़ुदा के अज़ाब को दावत दे रहे थे और उसके बुरे अंजाम से गाफ़िल हो चुके थे।

      सबा ने जब इस तरह नेमत की नाशुक्री को आखिर तक पहुंचा दिया तो अब अल्लाह तआला ने भी उनको दूसरी सज़ा यह दी कि यमन से शाम तक उनकी तमाम आबादियों को वीरान कर दिया, जो नज़दीक नज़दीक बराबर छोटे-छोटे कस्बों, गांवों, करवां सरायों और तिजारती मंडियों की शक्ल में आदाद थीं और उनके राहत और आराम में किफ़ालत करती थीं और सफर की हर किस्म की परेशानियों से उनको बचाए रखती थीं और इस तरह पूरे इलाके में ख़ाक उड़ने लगी और यमन से शाम तक नव आबादियों का यह सिलसिला वीराने में तब्दील होकर रह गया।

      चुनांचे कुरआन मजीद की ये आयतें इसी सच्चाई का एलान करती हैं –

      तर्जुमा- ‘हमने उनके (मुल्क) और बरकत वाली आवादियों (शाम) के दर्मियान बहुत सी खुली आबादियां कायम कर दी थीं और उनमें सफर की मंज़िलें (कारवां सराए) मुकर्रर की थीं और कह दिया था, चलो इन आवादियों के दर्मियान दिन-रात बिना किसी डर और ख़तरे के, मगर उन्होंने कहा, ऐ हमारे परवरदिगार! हमारे सफ़रों (मंजिलों) के दर्मियान दूरी कर दे और यह कह कर उन्होंने खुद अपनी जानों पर ज़ुल्म किया। बस हमने उनको कहानी बना दिया और उनको पारा-पारा कर दिया। बेशक इस (वाकिए) में इबरत (सबक़) की निशानियां हैं सब्र करने वालों और शुक्र गुज़ारों के लिए!’ (सबा 18:19)

      तारीख़दा कहते हैं कि सबा के मुकाबले में बहुत दिनों से रूमियों की यह ख्वाहिश थी कि किसी तरह वे भी हिन्दुस्तान और अफ्रीका के साथ अरबों की तरह सीधे-सीधे तिजारत करके ज़्यादा से ज़्यादा फायदा उठाएं, मगर अब किसी तरह इसका मौका नहीं देते थे और तिजारती साहिलों पर क़ब्ज़ा जमाए हुए थे, लेकिन पहली सदी ईसा पूर्व में रूमियों ने एक के बाद एक, मिस्र व शाम पर क़ब्ज़ा कर लिया और अब उनको मौका मिला कि वे अपने मंसूबे को पूरा करें, लेकिन तिजारती मर्कज़ों के लिए जो शाहराह ‘इमामे मुबीन’ अरबों ने बना रखी थी, वह खुश्की का रास्ता था और गुज़रने वाला के लिए अरबों से वास्ता पड़ना लाज़िमी था और रूमी इन पहाड़ी राहों को पार करने में वैसे भी पेरशानी महसूस करते थे।

      इसलिए उन्होंने अरबों के डर से बचे रहने के लिए यह किया कि हिन्दुस्तान और अफ्रीका की तिजारत के खुश्की के रास्ते को समुद्री रास्ते में तब्दील कर दिया और लाल सागर में नावों के ज़रिए तमाम माल मिस्र और शाम के बन्दरगाह पर उतारने लगे। नतीजा यह निकला कि तिजारत के इस नए तरीके ने यमन से शाम तक सबा की तमाम नव-आबादियों को बर्बाद कर दिया और वहां कुछ ही दिनों में ख़ाक उड़ने लगी और सबा का यह ख़ानदान बिखर कर रह गया।

      किसी ने शाम की राह ली तो किसी ने ओमान की और किसी ने इराक का रुख किया तो किसी ने हिजाज़ की ओर, कोई नज़्द पहुंचा तो किसी ने बहरैन की राह इख़्तियार की और अहले सबा की हुकूमत का शीराज़ा इस तरह बिखर गया कि वे सच में एक कहानी बन कर रह गए और ‘फ-ज़अलना हुम अहादीस’ और ‘मज्जक्नाहुम कुल-ल मुमज्जक‘ का सही नक्शा आँखों के सामने आ गया, गोया –

देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरत निगाह हो
मेरी सुनो जो गोशे नसीहत नयोश है। 

सैले इरम का फैलाव

      यह बात भी खुल कर बताने की है कि सैले इरम का यह सानहा और हादसा सारे यमन पर पेश नहीं आया, बल्कि यमन की राजधानी मआरिब और उसके आस-पास के इलाकों में सैंकड़ों मील तक इसकी तबाही मचाने वाला असर पड़ा और उस वक्त सिर्फ़ वही कबीले वतन छोड़ने पर मजबूर हुए जो इन जगहों पर आबाद थे, अलबत्ता जब दूसरा अज़ाब आया तो पूरे यमन पर असर पड़ा और सबा के बाक़ी क़बीले भी बिखर गए और सबा की हुकूमत का ख़त्मा हो गया।

सबा की मज़हबी हालत

      क़ुरआन ने सूरः सबा में सबा की मज़हबी हालत पर जो रोशनी है उससे यह मालूम होता है कि सबा के ऊंचे तबके का मज़हब सूरज परस्ती (सितारा परस्ती) रहा है या सच्ची यहूदियत (यहूदी धर्म यानी हज़रत मूसा (अलै.) का धर्म) जबकि दूसरे तबके में सनमपरस्ती क़ौमी मज़हब रहा या ईसाई धर्म, कभी-कभी उनमें नज़र आ जाता है।

कुछ तफ्सीरी नुक्ते

      1. मआरिब और यमन का यह इलाक़ा जिस की तफ्सील ऊपर गुज़र चुकी है, दुनिया में फ़िरदौस (जन्नत) की नज़ीर (मिसाल) बन गया था और उनके मुल्क की यह सूरते हाल अल्लाह तआला के ख़ास करम पर ही बनी। थी इसीलिए कुरआन ने इसको अल्लाह की निशानी कहा है –

      तर्जुमा- बिला शुबहा अहले सबा के लिए उनके वतन में अल्लाह की कुदरत की अजीब व गरीब निशानी थी, दो बागों का सिलसिला-दाहिनी और बाए।

      तर्जुमा- ‘शहर है पाक और परवरदिगार है बख्शने वाला’, और उसके वाद है

      तर्जुमा- ‘पस उन्होंने अल्लाह से मुंह फेरा’

      इन दोनों जुम्लों से यह मालूम होता है कि सबा पहले मुसलमान थे, मगर धीरे-धीरे उन्होंने कुफ़्र इख़्तियार किया, जैसा कि इस आयत से भी ज़ाहिर होता है। “ज़ालि-क जर्जनाहुम” (यह है जिसका बदला हमने उन्हें दिया। (34:19

      हज़रत सुलैमान (अलै.) के किस्से में यह बयान किया जा चुका है कि सबा ने 950 ई० पू० में इस्लाम कुबूल किया। सदियों तक उन्होंने इस अमानत की सीने से लगाए रखा लेकिन पिछली कौमों की तरह उन्होंने मुंह फेरना शुरू कर दिया तब अल्लाह के पैगम्बरों ने खुद आकर या अपने नायबों के ज़रिए उनको हिदायत की तरफ़ बुलाया मगर उन्होंने भी बनी इसराईल की तरह अल्लाह की नेमतों को ठुकराया तब हज़रत ईसा (अलै.) से एक सदी पहले अल्लाह की ओर से सैले इरम की तबाही का अज़ाब आया और उसने सबा के खानदान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

नतीजे और सबक

      अल्लाह ने कुरआन मजीद में वाज़ व नसीहत के चार तरीके बयान फरमाए हैं –

      1. तज़कीर बिआलाइल्लाह- (अल्लाह की नेमतों से याद देहानी) यानी अल्लाह तआला ने अपने बन्दों पर जिन नेमतों की अरज़ानी फ़रमाई है उनको करके अल्लाह के हुक्मों की तरफ़ मुतवज्जह करना। सूरः आराफ़ में इर्शाद है –

      तर्जुमा- ‘पस अल्लाह की नेमतों को याद करो और ज़मीन में फ़साद करते मत फिरो।’ (9:94)

      2. तज़कीर बिअय्यामिल्लाह- अल्लाह के दिनों या ज़मानों से याद देहानी यानी उन पिछली कौमों के हालात बयान करके नसीहत व इबरत दिलाना जिन्होंने अल्लाह की इताअत व फ़रमांबरदारी की वजह से कामियाबी और दोनों दुनिया की फलाह हासिल की और या सरकशी और ढिठाई इंतिहा पर पहुंच कर हलाकत व तबाही मोल ली और अल्लाह के अज़ाब को अपने लिए ज़रूरी कर दिया या दूसरे लफ़्ज़ों में क़ौमों की तरक्की व पस्ती को पेश करके इबरत का सामान मुहय्या करना। सूरः इब्राहीम में है-

      तर्जुमा- ‘और ऐ पैगम्बर! इनको नसीहत कीजिए क़ौमों के उरूज व ज़वाल (तरक्की व पस्ती) को याद दिला कर।’ (15:5)

      3. तज़कीर बिमा बादल मौत- यानी बरज़ज़ और क़ियामत के हालात सुना कर इबरत दिलाना, सूरः कह्फ़ में है–

      तर्जुमा- ‘पस कुरआन के ज़रिए नसीहत करो उस शख्स को जो अल्लाह की धमकी यानी मौत के बाद के अज़ाब से डरता है’ (50-45)

      पस क़ौमे सबा का यह वाकिया तज़्किरा बिअय्यामिल्लाह’ से ताल्लुक रखता है और हमको यह सबक़ देता है कि जब कोई क़ौम ऐश व राहत और सरवत व ताक़त के घमंड में आकर नाफरमानी और सरकशी पर उतर आती है, तो पहले तो अल्लाह तआला उसको मोहलत देता और उसको सीधे रस्ते पर लाने के लिए अपनी हुज्जत को अख़िरी हद तक पूरा करता है।

      अगर इस पर भी वह हक़ कुबूल करने की दुश्मन रहती और बगावत व सरकशी के उस ऊंची कसौटी पर पहुंच जाती है कि उस को अल्लाह की नेमतें और दी हुई राहतें भी नागवार गुज़रने लगती हैं और वह उनको ठुकराने लगती है तो पकड का क़ानून-अपने फौलादी पंजे आगे बढ़ाता और ऐसी बदबख्त कौम को पारा-पारा कर देता और हलाकत और बरबादी को आसमान पर उतार देता है और उनकी सारी शान दुनिया के सामने एक कहानी बन कर रह जाती है –

      कुल सीरू फ़िल अर्जि फजुरू कैफ का-न आकिबतुल मुज्रिमीन (19:69)

      तर्जुमा : ‘तो कह दो, फिरो मुल्क में, तो देखो कैसा हुआ अंजाम गुनाहगारों का।

To be continued …