हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम

कुरआन और हज़रत ज़करिया (अलै.)

      कुरआन में हज़रत ज़करिया (अलै.) का ज़िक्र चार सूरतों, आले इमरान, अनआम, मरयम और अंबिया में आया है, उनमें से सूरः अनआम में सिर्फ अंबिया की फहरिस्त में नाम ज़िक्र किया गया है और बाकी तीन सूरतों में मुख्तसर तज़्किरा नक़ल किया गया है। लेकिन कुरआन में जिस हज़रत ज़करिया (अलै.) का ज़िक्र हुआ है, यह वह नहीं हैं जिनका ज़िक्र मज्मूआए-तौरेत के सहीफ़ा ज़करिया (ZECHARIAH) में आया है। 

ज़िंदगी के हालात

      हज़रत ज़करिया (अलै.) के हालात तफ़्सील से मालूम नहीं हैं, लेकिन जिस क़द्र भी कुरआन और सीरत और तारीख़ की भरोसे की रिवायतों से मालूम हो सके हैं, वे यह हैं –

      1. हज़रत ज़करिया (अलै.) बनी इसराईल में इज़्ज़तदार काहिन [इस्लाम के पहले दौर में अरब में जो काहिन मुस्तक़बिल (भविष्य) के हालात बतलाते थे, वे इस मंसब से अलग है] भी थे और ऊंचे रुत्बे वाले पैग़म्बर भी। चुनांचे कुरआन ने उनको नबियों की फहरिस्त में गिनते हुए इर्शाद फ़रमाया है –

      तर्जुमा- ‘और ज़करिया और यहया और ईसा और इलयास, ये सब नेक लोगों में से हैं। (16: 85)

      2. पिछले तज़्किरो में बयान किया गया है कि तमाम नबी अलैहिमुस्सलाम, चाहे वे बादशाह हों और हुकूमत वाले ही क्यों न हों, अपनी रोज़ी हाथ की मेहनत से पैदा करते और किसी के कंधे पर बोझ नहीं होते थे। इसीलिए हर नबी ने जब अपनी उम्मत को रुश्द व हिदायत की तब्लीग की है, तो साथ ही यह भी एलान कर दिया है –

      तर्जुमा- ‘मैं तुमसे इस तब्लीग पर कोई उजरत नहीं मांगता। मेरा अज्र तो अल्लाह के सिवा और किसी के पास नहीं है।’

      चुनांचे हज़रत ज़करिया (अलै.) भी अपनी रोज़ी के लिए नज्जारी (बढ़ई का काम) का पेशा करते थे, जैसा कि हदीसों में ज़िक्र हुआ है।

      3. हज़रत ज़करिया (अलै.) के ख़ानदान में इमरान बिन नाशी और उसकी बीवी हन्ना, दो नेक नफ्स इंसान थे, मगर औलाद न थी। हन्ना की दुआ से उनके यहां एक लड़की पैदा हुई जिनका नाम उन्होंने मरयम रखा। समझदार हो गईं तो हज़रत ज़करिया (अलै.) ने उनके लिए हैकल के करीब एक हुजरा मख्सूस कर दिया, जहां वह अल्लाह की इबादत में लगी रहतीं और रात अपनी ख़ाला हज़रत ज़करिया (अलै.) की मोहतरमा बीवी के पास गुज़ारतीं। उस जमाने में –

      तर्जुमा- ‘जब हज़रत ज़करिया (अलै.) मरयम के पास मेहराब खिलवत) में दाखिल होता, तो उसके पास खाने-पीने का सामान रखा देता। हज़रत ज़करिया (अलै.) ने मालूम किया, मरयम! यह तेरे पास कहाँ से आता है? मरयम ने कहा, यह अल्लार के पास से है। यह बिला शुबहा जिसको चाहता है. बेगुमान  रोज़ी अता कर देता है। (3:37)

हज़रत ज़करिया (अलै.) के यहां औलाद

      हज़रत ज़करिया (अलै.) के यहां कोई औलाद न थी और उनको ज़्यादा फ़िक्र इस बात की थी कि उनके भाई-बंद बनी इसराईल की खिदमत के अहल न थे। इसलिए उनके दिल में यह तमन्ना पैदा हुई कि अगर अल्लाह उनके यहाँ कोई नेक और भली तबियत का लड़का पैदा कर दे तो यह उनके लिए इत्मीनान की वजह हो जाए, लेकिन वह बड़ी उम्र वाले हो चके थे और उनकी बीवी भी बांझ थीं। इस हालत के बावजूद अब उन्होंने मरयम पर अल्लाह का लुत्फ़ व करम देखा, तो उम्मीद बंधी और उन्होंने अल्लाह के दरबार में दुआ की

      तर्जुमा- ‘जब ऐसा हुआ था कि ज़करिया ने चुपके-चुपके अपने पालनहार को पुकारा, उसने अर्ज़ किया, पालनहार! मेरा जिस्म कमज़ोर पड़ गया है, मेरे सर के बाल बिल्कुल सफ़ेद पड़ गए हैं। ऐ अल्लाह! कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने तेरी जनाब में दुआ की हो और महरूम रहा हूं। मुझे अपने मरने के बाद अपने भाई-बंदों से अंदेशा है (कि न जाने वे क्या ख़राबी फैलाए) और मेरी बीवी बांझ है, पस तू अपने ख़ास फज़ल से मुझे एक वारिस बख़्श दे, ऐसा वारिस जो मेरा भी वारिस हो और याकूब के खानदान (की बरकतों) का भी, और पालनहार! उसे ऐसा कर देना, जिससे कि (तेरे और तेरे बंदों की नजर में) पसंदीदा हो।

      (इस पर हुक्म हुआ) ऐ ज़करिया हम तुझे एक लड़के की पैदाइश की खुशखबरी देते हैं। उसका नाम यहया रखा जाए, इससे पहले हमने किसी के लिए यह नाम नहीं ठहराया है। (हज़रत ज़करिया (अलै.) ) ने ताज्जुब से कहा) परवरदिगार! मेरे यहां लड़का कहां से होगा, मेरी बीवी बांझ हो चुकी और मेरा बुढ़ापा दूर तक पहुंच चुका, इर्शाद हुआ, ऐसा ही होगा, तेरा पालनहार फ़रमाता है कि ऐसा करना मेरे लिए मुश्किल नहीं है, मैंने इससे पहले खुद तुझे पैदा किया, हालांकि तेरी हस्ती का नाम व निशान न था।

      इस पर हज़रत ज़करिया (अलै.) ने अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह! मेरे लिए (इस बारे में) एक निशानी ठहरा दे। फ़रमाया तेरी निशानी यह है कि सही व तंदुरुस्त होने के बावजूद तू तीन रात लोगों से बात न करेगा। फिर वह हुजरे से निकला और अपने लोगों में आया और उसने उनमे इशारे से कहा, ‘सुबह-शाम अल्लाह की पाकी और जलाल की सदाएं बुलद करते रहो’ (19:3-11)

      और सूरः अंबिया में इर्शाद है –

      तर्जुमा- ‘और इसी तरह ज़करिया का मामला याद करो) जब उसने अपने परवरदिगार को पुकारा था, ऐ खुदा! मुझे (इस दुनिया में) अकेला न छोड़ (यानी बगैर वारिस के न छोड़) और (वैसे तो) तू ही (हम सबका) बेहतर वारिस है, तो देखो हमने उसकी पुकार सुन ली। उसे (एक फ़रज़ंद) यहया अता फरमाया और उसकी बीवी को उसके लिए तंदुरुस्त कर दिया। ये तमाम लोग नेकी की राहों में सरगर्म ये (और हमारे फ़ज़्ल से) उम्मीद लगाए हुए और (हमारे जलाल से) डरते हुए दुआएं मांगते थे और हमारे आगे इज़्ज़ व नियाज़ से झुके हुए थे। (21:89-90) 

      और सूरः आले इमरान में इर्शाद है –

      तर्जुमा- उसी वक्त ज़करिया ने अपने पालनहार से दुआ की, कहा, ऐ मेरे परवरदिगार! मुझको अपने फ़ज़्ल से पाकीज़ा औलाद अता कर। बेशक तू दुआ का सुननेवाला है, फिर जब ज़करिया हुजरे के अंदर नमाज़ में मशूल था तो फ़रिश्तों ने उसको आवाज़ दी कि अल्लाह तुझको यहया की (पैदाइश की) खुशखबरी देता है, जो गवाही देगा अल्लाह के एक कलिमा (ईसा) की और तक़वे वाला होगा और औरत के पास तक न जाएगा (या हर किस्म की छोटी-बड़ी तलवीस से पाक होगा) और नेकों से होते हुए) नबी होगा।

      (ज़करिया) ने कहा, परवरदिगार! मेरे लड़का किस तरह होगा, जबकि मैं बहुत बूढ़ा हो गया और मेरी बीवी बांझ है। फ़रमाया, अल्लाह जो चाहे, इसी तरह करता है। ज़करिया ने कहा, परवरदिगार! मेरे लिए कोई निशानी मुक़र्रर कीजिए, फ़रमाया, यह निशानी है कि तू तीन दिन लोगों से इशारे के सिवा (ज़ुबान  से) बात न करेगा और अपने रब की याद में (शुक्र के ज़ाहिर करने के लिए बहुत ज़्यादा रह और सुबह-शाम तस्बीह कर। (3:38-41)

तफ़्सीरी नुक्ते

      हज़रत ज़करिया (अलै.) के वाकिए से मुताल्लिक सबसे अहम नुक्ता ऊपर की आयत में ‘यह निशानी है कि तू तीन दिन लोगों से इशारे के सिवा (ज़ुबान से) बात न करेगा‘ से मुताल्लिक है। (हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह०) के मुताबिक बात न करने से मतलब यह है कि ज़ुबान में बोलने की ताकत के पूरी तरह रहने के बावजूद निशानी के तौर पर तीन दिन के लिए अल्लाह की ओर से ज़ुबान में रुकावट पैदा हो गई थी और चूंकि पुराने बुजुर्ग उन दिनों में रोज़ा रखने से भी इत्तिफाक नहीं करते इसलिए यह सूरत भी कुबूल करने के काबिल नहीं है। रहा इस असे के लिए ‘गूंगा हो जाना‘ तो यह किसी की भी राय नहीं’ 

हज़रत ज़करिया (अलै.) की वफात

      हज़रत यहया (अलै.) के वाकिए की गवाही के तौर पर सीरत व तारीख के उलेमा के दर्मियान यह मामला इख़्तेलाफ़ी रहा है कि हज़रत ज़करिया (अलै.) की वफ़ात तबई मौत से हुई या वह शहीद किए गए और लुत्फ़ यह है कि दोनों की सनद वब बिन मुनब्बः ही पर जाकर पहुंचती है।

      चुनांचे वह्ब की एक रिवायत में है कि यहूदियों ने जब हज़रत यहया (अलै.) को शहीद कर दिया तो फिर हज़रत ज़करिया (अलै.) की तरफ़ मुतवजह हुए कि उनको भी क़त्ल करें, हज़रत ज़करिया (अलै.) ने जब यह देखा तो वह भागे, ताकि उनके हाथ न लग सकें।

      सामने एक पेड़ आ गया और वह उसके शिगाफ़ में घुस गए, यहूदी पीछा कर रहे थे, तो उन्होंने जब यह देखा तो उनको निकलने पर मजबूर करने के बजाए पेड़ पर आरा चला दिया। जब आरा हज़रत ज़करिया (अलै.) पर पहुंचा तो अल्लाह की वह्य आई और हज़रत ज़करिया (अलै.) को कहा गया कि अगर तुमने कुछ भी आह व ज़ारी की, तो हम यह सब ज़मीन तह व धाला कर देंगे और अगर तुमने सब्र से काम लिया तो हम भी इन यहूदियों पर फ़ौरन अपना ग़ज़ब नाज़िल नहीं करेंगे, चुनांचे ज़करिया ने सब्र से काम लिया और उफ़ तक नहीं की और यहूदियों ने पेड़ के साथ उनके भी दो टुकड़े कर दिए और उन्हीं वब से दूसरी रिवायत यह है कि पेड़ पर आरा चलाने का जो मामला पेश आया, वह हज़रत  यहया (अलै.)  से मुताल्लिक है और हज़रत ज़करिया (अलै.) शहीद नहीं हुए बल्कि उन्होंने तबई मौत से वफ़ात पाई

      बहरहाल मशहूर क़ौल यही है कि उनको भी यहूदियों ने शहीद कर दिया था। रहा यह मामला कि किस तरह और किस जगह शहीद किया, तो इसके बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि हकीक़ते हाल को अल्लाह ही बेहतर जानता है।

(‘नतीजा और सबक’ हज़रत यहया (अलै.) के किस्से में देखिए)

To be continued …