(क़हफ़ और रक़ीम वाले)
कहफ़ और रक़ीम
डिक्शनरी में कहफ़ पहाड़ के भीतर लम्बे चौड़े ग़ार (खोह) को कहते हैं मगर रक़ीम के मानी में तफ़्सीर लिखने वाले एक नहीं हैं अलबत्ता कुबूल यही है कि यह शहर अंबात (बनू नाबित बिन इस्माईल जिनकी हुकूमत का ज़माना 700 ई०पू० से 106 ई०पू० तक है) की राजधानी था और अक़्बा खाड़ी (ऐला) से उत्तर की ओर बढ़ते हुए पहाड़ों के जो दो मुतवाज़ी (समानांतर) सिलसिले मिलते हैं उन्हीं में से एक पहाड़ की बुलन्दी पर आबाद था। उसका नाम रक़ीम (आज का पटरा या बतरा) था। पुराने खंडहरों की रिसर्च में एक नुमायां खोज इस शहर की है।
इसमें नई-नई बातों के साथ-साथ उसके पहाड़ों के अजीब व गरीब ग़ार भी ज़िक्र के काबिल हैं जो बहुत लम्बे-चौड़े और गहरे हैं और इस तरह वाले हैं कि दिन की धूप और गर्मी उन तक नहीं पहुंचती। एक ग़ार ऐसा भी खोज लिया गया है जिसके मुहाने पर पुरानी इमारतों के निशान पाए जाते हैं और बहुत से स्तूनों के खंडहर बाकी रह गए हैं। ख़्याल किया जाता है कि यह किसी हैकल की इमारत है। मुख़्तसर यह कि इस शहर के बारे में जितनी खोज की जा रही है उससे क़ुरआन के एक-एक शब्द की तस्दीक (पुष्टि) होती है इसलिए यह कहना आसान हो जाता है कि कुरआन ने जिन अस्हाबे कहफ़ का वाक़िया बयान किया है उनका ताल्लुक इसी शहर रक़ीम (पटरा) के किसी ग़ार से है।
(हज़रत मौलाना हिफज़ुर्रहमान स्योहारवी रह० ने लम्बी बहस के बाद यह भी साफ़ किया है कि) अस्हाबे कहफ़ और अस्हाबे रक़ीम दोनों एक ही हैं और बुख़ारी शरीफ़ में अस्हाबे कहफ़ वाले बाब की ग़ार वाली हदीस में जो वाक़िया बयान हुआ है वह बनी इसराईल का एक दूसस वाक्रिया है और यह भी कि अस्हाबे कहफ़ और रक़ीम के वाक़िए का ताल्लुक़ शुरू के ईसाई दौर से है।
कुरआन और अस्हाबे कहफ़ और अस्हाबे रक़ीम
जैसा कि ज़ुलक़रनैन के वाक़िए में जिक्र किया जा चुका है यहूदी उलेमा ने कुरैश के वफ़द के ज़रिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से तीन सवालों के जवाब चाहे थे उनमें से एक यह भी था कि ”अस्हाबे कहफ़ कौन थे? और उन पर क्या गुजरी?‘ आपने वह्य आने पर उनके सामने सूरःकहफ़ की तिलावत करके वाक़ियों की हक़ीक़त उन पर खोल दी –
तर्जुमा- ‘क्या तुमने यह गुमान कर लिया है कि अस्हबे कहफ़ व रक़ीम का मामला हमारी निशानियों में से कोई अजीब (मामला) है जबकि कुछ नवजवानों ने पहाड़ के ग़ार में पनाह ले लिया था और यह दुआ मांग रहे थे, ऐ हमारे परवरदिगार! तू अपने पास से हमको रहमत अता कर और हमारे लिए रुश्द व हिदायत मुहैय्या कर। फिर हमने ग़ार में कुछ साल तक उनको थपक कर सुला दिया फिर उनको उठाया (बेदार किया) ताकि हम जान लें कि दोनों बस्ती वालों और ग़ार वालों में से किसने उनकी मुद्दत का सही अन्दाज़ा लगाया। हम तुझको उनका सच्चा वाक़िया बताएं देते हैं।
बेशक वे कुछ नवजावान थे जो अपने परवरदिगार पर ईमान ले आए थे और हमने उनको हिदायत की रोशनी और ज़्यादा अता कर दी थी और जब वे (वक्त के हाकिम के सामने) यह ऐलान करने पर उतर आए कि हमारा परवरदिगार वही है जो आसमानों और ज़मीन का परवरदिगार है और हम हरगिज़ उसके अलावा किसी को ख़ुदा नहीं पुकार सकते और अगर ऐसा करें तो खुदा पर बोहतान बांधेगे उस वक्त हमने उनके दिल खूब मज़बूत कर दिए थे। वे कहते थे, यह हमारी कौम है जिन्होंने अल्लाह के अलावा बहुत से माबूद बना लिए हैं। ये क्यों खुली दलील अपने बातिल माबूदों (की सदाक़त) के लिए नहीं लाते?
पस उस से ज्यादा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठी तोहमत लगाए और ऐ रफ़ीक़ों! जब तुम उनसे और उनकी इबादत से अल्लाह के सिवा जो वे बातिल माबूदों की करते हैं अलग हो जाते हो तो पहाड़ के ग़ार में चले चलो तुम्हारा परवरदिगार अपनी रहमत न्यौछावर करेगा और तुम्हारे मामले में काम की आसानी पैदा करेगा और ऐ पैग़म्बर! तुम सूरज को देखोगे कि वह निकलते वक्त उनके ग़ार से दाहिनी जानिब बच कर निकल जाएगा और डूबते वक़्त ग़ार से कतरा कर बाई ओर को हो जाता है और वे बड़े फैले ग़ार में हैं।
यह अल्लाह की निशानियों में से है जिसको वह हिदायत दे वही रास्ते पर है और जिस आदमी को उसकी बराबर सरकशी की बुनियाद पर गुमराह करे तो वह किसी राह दिखाने वाले मददगार को न पाएगा और तू उनको बेदार गुमान करेगा हालाकि वे सो रहे होंगे और हम उनकी करवटें बदलते रहते हैं दाएं भी और बाएं भी और उनका कुत्ता अपने अगले हाथ फैलाए ग़ार के मुंह पर बैठा हुआ है। अगर तू उनको झांक कर देखे तो उनकी इस शान और हालत को देखकर मऊब हो जाए और भाग पड़े और इसी तरह हमने उनको उठा दिया, जगा दिया ताकि आपस में पूछ-गछ करें।
एक ने उनमें से कहा, तुम गार में कब से हो? दूसरे ने जवाब दिया, एक दिन या दिन के कुछ हिस्से से फिर उन्होंने कहा, तुम्हारा परवरदिगार ही खूब जानता है कि तुम यहां कितनी मुद्दत से हो (तो अब यह करो कि) अपने में से किसी एक को शहर में यह सिक्का दे कर भेजो कि वह तुम्हारे लिए देख-भाल कर उम्दा किस्म का खाना लाए और उसको चाहिए कि बहुत ही.राज़दाराना तरीके से वह जाए और हरगिज़ किसी को पता न चलने दे कि हम यहां ठहरे हुए हैं इसलिए कि अगर इन पर तुम्हारा मामला खुल गया तो वे तुम को पत्थर मार-मार कर हलाक़ कर देंगे या तुम को ज़बरदस्ती अपने दीन की तरफ़ लौटने पर मजबूर करेंगे और उस वक़्त तुम हरगिज़ कामयाब न रहोगे (न दुनिया में, न आख़िरत में) और इसी तरह हमने शहर वालों पर उनका मामला ज़ाहिर कर दिया ताकि वे यकीन कर लें कि अल्लाह का वायदा सच्चा है और क़यामत की घड़ी ज़रूर आने वाली है इसमें कोई शक नहीं है।
हमने उनको उस वक्त इस मामले की ख़बर दी जब कि वे कयामत के आने और न आने पर आपस में इख़्तिलाफ़ कर रहे थे फिर वे कहने लगे कि इन अस्हाबे कहफ़ पर कुब्बा तामीर कर दो इनका परवरदिगार इनके हाल को खूब जानता है यानी इनसे कोई छेड़-छाड़ न करो। उन लोगों ने जो हुकूमत में थे कहा, हम तो उनके ग़ार पर एक मस्जिद (हैकल) तामीर करेंगे। ऐ पैग़म्बर! कुछ लोग कहेंगे, वे तीन आदमी हैं, चौथा उनका कुत्ता है। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं, नहीं पांच हैं, छठा उनका कुत्ता हैं। ये सब अंधेरे में तीर चलाते हैं। कुछ कहते हैं, सात हैं, आठवां उनका कुत्ता हैं।
(ऐ पैग़म्बर!) कह दो असल गिनती तो मेरा परवरदिगार ही बेहतर जानता है क्योंकि उनका हाल बहुत कम लोगों के इल्म में आया है और तुम लोगों से इसमें मत झगड़ो मगर सिर्फ इस हद तक कि साफ़-साफ़ बात में हो (यानी बारीकियों में नहीं पड़ना चाहिए कितने आदमी कितने दिनों तक रहे थे और न उन लोगों में से किसी से इस बारे में कुछ पूछो और हरगिज़ किसी चीज़ के बारे में यह कहना कि मैं कल को यह जहर करने वाला हूं, मगर (यह कहकर) होगा वही जो अल्लाह चाहेगा और जब कभी भूल जाओ तो अपने परवरदिगार की याद ताजा कर लो, तुम कह दो उम्मीद है मेरा परवरदिगार इससे भी ज्यादा कामियाबी का रास्ता मुझ पर होल देगा और कहते हैं, वे गार में तीन सौ वर्ष तक रहे और लोगों ने नौ वर्ष और बढ़ा दिए हैं।
(ऐ पैगम्बर!) तुम कह दो अल्लाह ही बेहतर जानता है कि वे कितनी मुद्दत तक रहे, वह आसमान ब ज़मीन की सारी छिपी बातें जाननेवाला है, बड़ा ही देखने वाला, बड़ा सुनने वाला है, उसके सिवा लोगों का कोई करता-धरता नहीं, और न वह अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है| (क़हफ 18 : 8:26)
मौलाना हिर्रहमान स्यहारवीं रहत ने इस याकिए को इस तरह बयान किया है।
वाकिया
इस्माईली अरबों के मजहब से मुताल्लिक तारीख के पन्ने यह गवाही देते हैं कि इनमें जो कुछ अर्से बाप-दादा का दीने हक ‘मिल्लते इब्राहीम‘ बाक़ी रहा मगर धीरे-धीरे मिस्र, शाम और इराक़ के मूर्ति पूजकों के ताल्लुकात ने अम्र विन लहय के ज़रिए उनमें बुतपरस्ती और सितारा परस्ती की बुनियाद डाल दी और कुछ दिनों बाद इन अरवों को शिर्क परस्ती में ऐसा कमाल हासिल हो गया कि वे दूसरों के लिए रहनुमा बन गए, चुनांचे साबित की ओलाद भी शिर्कों की गुमराही में मुब्तिला थी और उनके मशहूर बुत जुश्शुरा, लात-मनात, हुवल, फसआ, अमयानस और हरीश थे।
सदियों तक नवती बुतपरस्ती की इस गुमग़ही में मुन्तला रहे कि मसीही दौर के शुरू में राजधानी रक़ीम के अन्दर एक अजीब मामला पेश आया जिस की तफ्सील नीचे दी जाती है।
मसीही मज़हब का शुरू का दौर है। नवती हुकूमत के चारों तरफ़ यानी शाम वगैरह में ईसाइयत का जोर है कि रक्रीम की कुछ नवजवान सईद रूहें हैं, शिर्क से बेज़ार और नफ़रत में पड़कर तौहीद की तरफ़ मायल हो जाती हैं और ईसाई मज़हब को कुबूल कर लेती हैं। धीरे-धीरे यह बात वक्त के बादशाह तक भी पहुंच जाती है। बादशाह नवजवानों को दरबार में बुलाता है और हालात जानना चाहता है।
नवजवान हक का कलिमा बुलन्द करने में बेबाक और जरी साबित होते हैं। यह बात बादशाह को नागवार गुजरती है, मगर वह दोबारा मामले पर गौर करने के लिए उनको कुछ दिनों की मोहलत देता है। ये दरबार से वापस आकर आपस में मश्विरा करते हैं और तै पाता है कि ख़ामोशी के साथ किसी पहाड़ के गार में छिप जाना चाहिए, ताकि मुशिकों के शर से बचे रह कर अल्लाह की इबादत में मशूल रह सकें। यह सोच कर वे एक गार में छुप जाते हैं। जब वे गार में दाखिल होते हैं तो अल्लाह के हुक्म से नींद उन पर छा जाती है और वे ख्वाब ही की हालत में करवटें बदलते रहते हैं।
गार की अजीब कैफियत, अन्दर से बहुत बड़ा है मगर कुदरत ने उसको ऐसा मौक़ा नसीब किया है कि जिंदगी बाक़ी रखने के कुदरती सामान वहां सब मौजूद हैं। एक तरफ़ मुहाना है, तो दूसरी तरफ़ हवा गुज़रने की जगहें और सूराख हैं, जिनकी वजह से हर वक्त ताज़ा हवा अन्दर आती रहती है। गार का रुख उत्तर-दक्खिन है, इसलिए निकलने-डूबने के वक़्त सूरज की तपन अन्दर नहीं पहुंच पाती, मगर हल्की-हल्की रोशनी बराबर पहुंचती रहती है और ऐसी कैफियत पैदा हो गई है कि न अंधेरा ही है कि कुछ नज़र आए और न इतनी रोशनी है कि खुले मैदान की तरह जगह सेशन हो जाए। इस हालत में कुछ इंसान इस गार में सो रहे हैं और उनका साथी कुत्ता अपने हाथ फैलाए गार के मुहाने पर बाहर की तरफ़ मुंह किए बैठा है।
कुल मिला कर इस सूरत ने ऐसी कैफियत पैदा कर दी है कि पहाड़ों के दर्मियान गार के भीतर झांकने वाले इंसान पर ख़ौफ व हरास की हालत छा जाती है और वह भाग खड़े होने पर मजबूर हो जाता है।
वर्षों तक ये नवजवान इसी हालत में आराम के साथ महफूज़ रहते हैं कि शहर में इंक़िलाब आ जाता है। रूमी ईसाई नबती हुकूमत पर हमलावर होते हैं और दुश्मन को हरा कर उस पर कब्जा कर लेते हैं और इस तरह रक़ीम (पटस) ईसाई धर्म की गोद में आ जाता है। अब अल्लाह की मशीयत फैसला दी है कि ये नवजवान बेदार हों, वे बेदार हो जाते हैं और आपस में गोशियां करते हुए एक दूसरे से मालूम करते हैं हम कितनी मुद्दत सोते रहे। एक ने जवाब दिया, एक दिन और दूसरे ने कहा या दिन का कुछ हिस्सा।
फिर कहने लगे कि हम में से कोई शहर जा कर खाना ले आए और यह सिक्का ले जाए, मगर जो भी जाए, इस तरह लेन-देन करे कि शहर वालों को पता न लग सके कि हम कौन हैं और कहां हैं? वरना मुसीबत आ जाएगी। बादशाह ज़ालिम भी है और मुश्रिक भी। वह या तो शिर्क पर तैयार और बेदीनी पर मजबूर करेगा, वरना हम सबको क़त्ल कर डालेगा और ये बातें हमारे दीन व दुनिया को बर्बाद करने देने वाली साबित होंगी।
अब नवजवानों में से एक आदमी सिक्का लेकर शहर गया, वहां देखा तो हालात बिल्कुल बदल चुके हैं और नए आदमी और नया तौर-तरीका नज़र आ रहा है, मगर फिर भी डरते-डरते एक बावरची की दुकान पर पहुंचा और खाने-पीने की चीजें खरीदी। जब क़ीमत अदा करने लगा तो बावरची ने देखा लि सिक्का पुराना है। इस तरह आखिर बात खुल गई। लोगों को जब असल हकीकत मालूम हुई तो उन्होंने उस आदमी का स्वागत किया और इस अजीब व गरीब मामले में बहुत ज्यादा दिलचस्पी ली, क्योंकि अर्सा हुआ कि यहां मुरिक बादशाहों का दौर खत्म हो चुका था और यहां के बाशिंदों ने ईसाई धर्म अपना लिया था।
उस आदमी ने जब यह हाल देखा तो अगरचे ईसाई धर्म फैल जाने से उसको बेहद खुशी हुई, मगर अपने और अपने साथियों के लिए यही पसन्द किया कि दुनिया के हंगामों से अलग रह कर ख़ुदा की याद में गुज़ार दें, इसलिए किसी तरह मज्मे से जान बचाकर पहाड़ की राह ली और अपने साथियों में पहुंच कर सब हाल कह सुनाया। इधर शहरियों में उनकी तलाश का शौन पैदा हुआ और उन्होंने आखिर उनको एक गार में पा लिया।
लोगों ने इसरार दिया कि वे शहर चलें और अपनी पाक जिंदगी से शहर वालों को फायदा पहुंचाएं, पर वे किसी तरह तैयार न हुए और उन्होंने अपनी उम्र का चाकी हिस्सा राहिबों जैसी ज़िदंगी में गुज़ार दिया।
जब इन ख़ुदा के बन्दे राहिबों का इंतिकाल हो गया, तो अब लोगों में चर्चा हुई कि उन की यादगार क़ायम होनी चाहिए, चुनांचे इनमें जो लोग असरदार बाइक्तिदार थे, उन्होंने कहा कि हम तो उनके ग़ार पर हैकल (मस्जिद) तामीर करेंगे और ग़ार के मुहाने पर एक शानदार हैकल तामीर करा दिया।
और हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास )) की रिवायत में है कि जब उस जवान के पीछे वक़्त के बादशाह और आवाम दोनों आए, तो ग़ार के करीब पहुंच कर वे यह न मालूम कर सके कि जवान किस तरफ़ चला गया और जब बहुत तलाश के बाद असहाबे कल्फ़ का पता न पा सके, तब मजबूर होकर वापस हो गए और उनकी यादगार में पहाड़ पर एक हैकल (मस्जिदो तामीर कराया।
अहम तफ्सीरी हक़ीक़तें
तर्जुमा– फिर हमने उनको (ख्वाब से) उठाया, ताकि मालूम करें कि दो जमाअतों में से किसने इस मुद्दत को महफूज़ रखा, जिसमें वे (ग़ार के अन्दर) रहे। (18:12)
यहां दो जमाअतों में से एक अस्हाबे कहफ़ की और दूसरी अहले शहर की जमाअत मुराद है। मतलब यह है कि यह इसलिए किया कि मुद्दत ज़ाहिर हो जाए और यह मालूम करने के बाद कि अल्लाह तआला ने उनको वर्षों तक ख्वाब की हालत में जिंदा रखा, जबकि वे ज़िदंगी की बक़ा के साधनों से यकसर महरूम थे, लोगों को यह यक़ीन हो जाए कि बेशक इसी तरह वह मख्लूक को मरने के बाद भी जिंदा करेगा और बेशक मौत के बाद उठाए जाने का मसला हक़ है।
चुनांचे अल्लाह तआला ने उनको बेदार किया और उनमें से एक नौजवान शहर में खाना ख़रीद करने गया तो उस ज़माने में बस्ती वालों के दर्मियान ‘मौत के बाद उठाए जाने‘ पर झगड़ा और बहस जारी थी, एक जमाअत कहती थी कि फ़क़त रूह का उठाया जाना होगा और दूसरी जमाअत क़ायल थी कि रूह और जिस्म दोनों को जिंदा होना है, यह तो नसारा की जमाअतें थीं और जो नती मुशिक आबाद थे, वे सिरे से मौत के बाद उठाए जाने ही के इंकारी थे। ऐसे नाज़ुक वक़्त में अल्लाह तआला ने उस आदमी को ग़ार से बेदार करके भेजा और इस तरह जब अस्हाबे कहफ़ का वाकिया सब पर ज़ाहिर हो गया तो उसने एलानिया यह नज़ीर कायम कर दी कि जिस तरह सालों तक जिंदगी के सामानों से महरूम रहने के बावजूद रूह के साथ जिस्म भी सही-सालिम बाकी रहा।
उसी तरह “मौत के बाद उठना‘, रूह और जिस्म दोनों से ताल्लुक रखता है और जिस तरह सोते रहने के बाद अस्हाबे कहफ़ बेदार कर दिए गए, उसी तरह कब्र से (बरज़ख की दुनिया में) सैकड़ों और हजारों साल मुर्दा रहने के बाद भी क़यामत में जिंदा कर दिए जाएंगे।
तर्जुमा- ‘ऐ पैगम्बर! कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन आदमी हैं, चौथा उनका कुत्ता है, कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं, नहीं पांच हैं, छठा उनका कुत्ता है, ये सब अंधेरे में तीर चलाते है।’ (18:22)
अल्लाह ने इस वाक़िये से मुताल्लिक इन हकीक़तों को ज़ाहिर करने के बाद, जो उसके मक़सद ‘तज़कीर’ (याददेहानी) के लिए फायदेमंद थीं; वाकिए की इन छोटी-छोटी बातों के बारे में जो सिर्फ़ तारीखी हैसियत रखती हैं और उनके जान लेने से कोई खास फ़ायदा भी नहीं होता, पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह नसीहत फ़रमाई कि वे इन ला-हासिल बहसों से परहेज करें और इन पर सरसरी तौर से गुज़र जाएं और बेकार बातों की खोज लगाने की फ़िक्र न करें, जैसे यह कि इन नौजवानों की तायदाद क्या थी? उनकी उम्रों का तनासुब क्या था? वे ग़ार में कितनी मुद्दत तक ठहरे रहे? मुद्दत की सही मिक्दार क्या है? वगैरह।
तर्जुमा– (ऐ पैगम्बर:) कह दे कि उनकी असल गिनती को मेरा पालनहार ही जानता है, क्योंकि उनका हाल बहुत कम लोगों के इल्म में आया है और जब सूरतेहाल यह है तो लोगों से इस बारे में बहस और झगड़ा न करो, मगर सिर्फ इस हद तक कि साफ़-साफ़ बात में हो और न उन लोगों में से किसी से इस बारे में कुछ मालूम करना? इसलिए जो बात भी होगी अटकल होगी।’ (18-22)
3. ‘व लबिसू फ़ी कहफ़िहिम सला-स मि-अति सिनीन वज़दादू तिसआ’ (18-25)
इस आयत का तर्जुमा आमतौर से तफ्सीर लिखने वालों ने इस तरह किया है गोया अल्लाह अपनी ओर से यह इत्तिला दे रहा है कि वे तीन सौ नौ साल ग़ार में रहे, मगर हज़रत अदुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि) और हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि) से कुछ रिवायतों में जो मानी ज़िक्र कि गए है, उसका मतलब यह है कि यह लोगों का कौल है, अल्लाह तआला की अपना कौल नहीं है यानी वे आयत “व लाबिसू” को इससे पहले के जुमले “याकूलुन” के तहत में दाख़िल समझते और यह मानी करते हैं कि जिस तरह लोग (ईसाई) “असहाबे कहफ़” की तायदाद के बारे में अलग-अलग बातें करते हैं और कहेंगे, इसी तरह वे यह भी कहते पाए जाते हैं कि अस्हाबे कहफ तीन सौ नौ साल तक ग़ार में रहे।
हमारे (मौलाना हिफज़ुर्रहमान स्योहारवी रह० के) नज़दीक यही मानी तर्जीह के लायक है, क्योंकि कुरआन मजीद का सबक़ (प्रसंग) इसी को ज़ाहिर करता है, इसलिए कि इन्हीं आयतों में कुरआन ने नबी अकरम मल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह हिदायत की है कि वे इस किस्म की गैर-मुफीद और अटकल की बातों के पीछे न पड़ें, तो इससे यह बात साफ गई कि ग़ार में, कियाम का मामला भी अंधेरे का तीर है और इसे अल्लाह के इल्म के सुपुर्द कर दिया जाए, तो बेहतर है।
4. ज़ालि-क मिन आयातिल्लाह (18:17) (यह अल्लाह की निशानियों में से है,) यानी पहाड़ के अन्दर ग़ार की यह मज्मूई कैफियत कि ग़ार का मुहाना अगरचे तंग है, मगर उसके अन्दर बहुत काफ़ी फैलाव है, उसका रुख उत्तर-दक्खिन है जिसकी वजह से सूरज का निकलना और डूबना दोनों हालातों में सूरज दाहिने और बाए कतरा कर निकल जाता है और ग़ार उसके तपन में बचा रहता है।
और दूसरी तरफ खुला होने की वजह से हवा और रोशनी जरूरत पर पहुंचती रहती है, गोया जिस्मानी बका के लिए जो चीज़ नुकसानदेह है यानी तपन, उससे हिफाज़त और जो ज़िदंगी बाक़ी रखने के लिए ज़रूरी चीजें है यानी रोशनी और हवा, उसकी मौजूदगी, ये ऐसी बातें हैं जो अल्लाह तआला की खुली निशानियां कही जा सकती हैं कि उनकी बदौलत सालों तक अल्लाह के नेक बन्दे दुनिया की खराबियों में अलग होकर ग़ार में ख़्वाब की हालत में बसर कर सके और ऐसी हालत में बसर कर सके जबकि खाने-पीने के सामान और ज़िदंगी की बक़ा के दूसरे दुनिया के साधनों से क़तई तौर पर महरूम थे।
5. आमतौर पर मशहूर है कि अस्हाबे कहफ़ अभी तक ग़ार में सो रहे हैं और ज़िन्दा हैं, मगर यह सही नहीं है, इसलिए कि हज़रत इब्ने अब्बास )) खोलकर यह फ़रमाया है कि उनका इंतिकाल हो चुका।
6. ‘व कल्लुहुम बासितुन ज़िराऐहि बिलवसीद’ (18 : 18) कुत्ते ने वफादारी और जानिसारी का सबूत दिया और भले लोगों की सोहबत पाई तो क़ुरआन ने भी उसका ज़िक्रे खैर करके उसे वह इज़्ज़त बख्शी कि इंसानों के लिए काबिले रश्क बना दिया। शेख सादी रहमतुल्लाहि अलैहि ने क्या खूब कह्म है –
सये अस्हावे कफ़, रोजे चन्द
पए एकां गिरफ्ते मर्दम शुद।
पिसर नूहे ब अब्दां बनशिस्त
खानदाने नबूतश गुमशुद
7. तर्जुमा- और किसी चीज़ के लिए यह न कहो कि कल मैं इसको जरूर करूंगा, (मगर यह कह लिया करो) यह कि अल्लाह चाहे तो’ (14-23)
इस आयत में अल्लाह तआला ने यह तालीम दी है कि जब मुस्तक़बिल में किसी काम का इरादा हो तो दावे के साथ यह नहीं कहना चाहिए कि मैं इसको ज़रूर करूंगा इसलिए कि कौन जानता है कि कल क्या होगा और कहने वाला इस कायनात में मौजूद भी होगा या नहीं इसलिए इस मामले को अल्लाह के सुपुर्द करते हुए ‘इन शाअल्लाह‘ ज़रूर कहना चाहिए।
8. तर्जुमा- ‘तुम कहो उम्मीद है मेरा परवरदिगार इससे भी ज़्यादा कामियाबी की राह मुझ पर खोल देगा।’ (18:24)
इस आयत में इस तरफ़ इशारा है कि बहुत जल्द ऐसा ही मामला तुम को भी पेश आने वाला है, बल्कि वह इससे भी अजीब व गरीब होगा, यानी अपना आबाई वतन छोड़ना पड़ेगा। राह में ग़ारे सौर के अन्दर कई दिन तक छिपे रहोगे। दुश्मन ग़ारे सौर के मुंह पर पहुंच जाने के बावजूद तुमको न पा सकेंगे, तुम खैरियत के साथ मदीना पहुंच जाओगे और वहां तुम पर फ़तह व कामरानी की ऐसी राहें खोल दी जाएंगी जो इस मामले से कहीं ज़्यादा असर य ज़लील होंगी। यह सूरः मक्की दौर की आखिरी सूरतों में से है, इसलिए इसके उतरने के बहुत थोड़े दिनों के बाद हिजरत का वह शानदार वाकिया पेश आया, जिसने मुसलमानों की ज़िदंगी के दौर में हैरत में डाल देने वाला इंक़िलाब पैदा कर दिया और बातिल ने हक के सामने हथियार झल दिए।
सबक़ और नतीजे
1. अगर हम को कोई बात अपनी अक्ल के मुताबिक़ अजीब व गरीब मालूम हो तो यह ज़रूरी नहीं है कि वह अपनी हक़ीक़त के लिहाज़ से भी कोई अजीब बात है। अगर वह अजीब है भी तो हमारे लिए है, न कि कायनात के पैदा करने वाले के लिए, जिसने कि कायनात को पैदा किया और फिर ऐसे मज़बूत निज़ाम पर उसको क़ायम किया कि अक्ल हैरान है मगर आंख रोज़ाना उसे देखती और दिल हर लम्हा इस हक़ीकत का एतराफ़ करता है कि :
तर्जुमा– ‘अल्लाह पर यह बात कुछ भारी नहीं है।’
2. जब शर व फ़साद और ज़ुल्म व सरकशी इस दर्जा बढ़ जाए कि अल्लाह के नेक बन्दों के लिए कहीं पनाह न रहे, तो अगरचे अज़ीमत का दर्जा यही है कि कायनात की रुश्द व हिदायत की ख़ातिर हर किस्म की तकलीफें बर्दाश्त करे और हक़ कलिमे पर पहाड़ की तरह जमा रहे, मगर मख्लूके ख़ुदा से कट कर कोना न पकड़ ले, लेकिन अगर हालात इस दर्जा नज़ाकत अख्तियार कर लें कि मख्लूक़ के ख़ुदा के साथ ताल्लुक रखने की शक्ल में जान देनी पड़ या दीने बातिल कुबूल करने पर मजबूर होना पड़े और हालत यह हो जाये
तर्जुमा– ‘अगर ये लोग कहीं तुम्हारी खबर पर जाएंगे तो तुमको या तो ‘पत्थरों से मार डालेंगे या तुम को (ज़बरन) अपने तरीके में फेर लेंगे और अगर ऐसा हुआ तो तुम को कभी फलाह नसीब न होगी।’ (18:20)
तो इस वक्त रुखसत है कि जान की हिफ़ाजत और दीन की खिदमत के लिए दुनिया और आलाइशों से कट कर किनाराकशी अख्तियार कर ले।
गोया यह इज्तिरारी हालत का एक हंगामी और वक्ती इलाज है जो म दीन ईमान की हिफ़ाज़त के लिए किया जा सकता है लेकिन इस्लाम की निगाह में अपने आपमें कोई महबूब अमल नहीं है और अख्तियारी तौर पर इस योगियाना ज़िदंगी को इख़्तियार करना रहबानियत है। ‘वला रहबानियत फिल इस्लाम’ (इस्लाम में रहबानियत नहीं है।) और इस्लाम रहबानियत को नापसन्द करता है।
ईसाइयों की मज़हबी तारीख के पढ़ने से मालूम होता है कि शुरू के ज़माने में कुछ सच्चे ईसाइयों को अस्हाबे कह्फ़ की तरह के कुछ वाकिए पेश आए जिनमें से एक रूप में, एक अन्ताकिया में और शहर अफ़स में पेश आना बताया जाता है चुनांचे उन्होंने हालात से मजबूर होकर इज्तिरारी तौर पर इस योगियाना जिंदगी को इख़्तियार किया था मगर बाद में दूसरी बिदअतों की तरह यह अमल भी ईसाई धर्म का बहुत अहम हिस्सा और पसंदीदा अमल गिना जाने लगा और जिस तरह भारत के पुराने धर्म के मुताबिक़ दुनिया के झमेलों से कट कर हिन्दू योगी पहाड़ों की खोह और वीरानों में योग करना मुकद्दस अमल समझते हैं उसी तरह ईसाइयों ने भी इखित्यारी सन्यास को मज़हब के मुक़द्दस कामों में शामिल कर लिया।
लेकिन कुरआन हकीम ने उनके इस अमल के मुताल्लिक़ सफ़ाई के साथ ज़ाहिर कर दिया है कि अल्लाह के नज़दीक अपने आपमें यह अमल कोई पसन्दीदा अमल नहीं है, बल्कि अहले किताब की मज़हबी बिदअतों में से एक बिदअत है।
तर्जुमा- ‘और राहिबाना ज़िन्दगी को कि जिसको इन (ईसाइयों) ने दीन में ईजाद कर लिया, हमने उन पर फ़र्ज नहीं किया था मगर उन्होंने इख़्तियार किया था अल्लाह की रज़ा के लिए, पर उसके हक़ की रियायत न रह सके।’ (57-27)
मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने उनके लिए यह तरीका दीन वे तरीकों में से नहीं मुक़र्रर किया था बल्कि उन्होंने खुद ही इख़्तियार कर लिया था मगर बाद में उसको निबाह न सके और रहबानियत के परदे में दुनियादारी से ज़्यादा दुनियातलबी और लालच में फंस गए।
हक़ यह है कि साफ़ और सीधा रास्ता एतदाल का रास्ता है, न इसमें पेच व ख़म है और न नशेब व फ़राज़ । यह राह इफ़रात व तफ़रीत दोनों से जुदा करके असल मंज़िल तक पहुंचा देती है और चूंकि इस्लाम फ़ितरत का दीन है, इसलिए उसने हर मामले में एतदाल ही को पसन्दीदा अमल करार दिया है। उसकी नज़र में जितना दुनिया में लगा रहना बुरा है, उतना ही मख्लूके खुदा से कट कर योगियाना रहबानियत भी मज़मूम (निन्दनीय) है।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फरमाया है कि – इस उम्मत के लिए रहबानियत ‘अल्लाह के रास्ते का जिहाद‘ है, क्योंकि जिहाद के मैदान के लिए इंसान जब ही कदम उठाता है कि वह अपने नफ्स, अपने बाल बच्चों और हर क़िस्म की दुनियावी झंझटों से बेनियाज़ होकर सिर्फ अल्लाह तआला की मर्ज़ी को पूरा करना अपना मक़सद और नस्बुलऐन (निगाह के सामने रहने वाली मंज़िल) बना ले।
3. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि) से आयत ‘वला तकूलन्नलिशैइन इन्नी फाइिलुन गदा इल्ला अय्यशा अल्लाहु’ (18 : 23-24) के नाज़िल होने के बारे में यह रिवायत बयान की जानी है कि जब मक्का के मुश्रिकों ने नबी अकरम सल्लाल्लाहु अलैहि वसल्लम से असहाबे कहफ़ के बारे में सवाल किया, तो आपने फ़रमाया कि मैं कल वहय से मालूम करके इसका जवाब दूंगा मगर आपको ‘इंशा अल्लाह’ कहना याद न रहा, इस वजह से पन्द्रह दिन तक वहय नहीं आयी तब मुशरिकों ने कानाफूसियां शुरू कर दी और आपका दिल इस वजह से टूटने लगा।
पन्द्रह दिन के बाद वहय नाज़िल हुई और उसने वाक़िए की ज़रूरी तफसीलों के साथ-साथ यह भी बतलाया कि इंसान जबकि ‘कल‘ को नहीं जानता तो उसके लिए ज़रूरी है कि जब कल के लिए किसी बात का वायदा करे तो अल्लाह की मर्ज़ी का हवाला ज़रूर दे दिया करे ताकि यह बात कभी भूलने न पाए कि बन्दा नहीं जानता कि कल क्या होगा, मैं ज़िन्दा भी रहूंगा या नहीं और अगर ज़िन्दा भी रहा तो वायदे के पूरे होने पर मैं क़ादिर हो सकूँगा या नहीं।
4. दीन और मिल्लत अल्लाह तआला की साफ़ और सीधी राह का नाम है इसलिए वह जबरदस्ती करने से दिल में नहीं उतरती बल्कि अपनी सच्ची रोशनी से अंधे दिलों को रोशन और मुनव्वर करती है। ‘ला इकरा-ह फ़िद्दीन’ (दीन के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं है), मगर इसके ख़िलाफ़ बातिल की हमेशा यह कोशिश रहती है कि अल्लाह की मख्लूक़ पर ज़बरदस्ती ज़ुल्म और जब्र अपना असर जमाए और दलील की जगह जब्र से काम ले, लेकिन अल्लाह की मशीयत अंजाम की शक्ल में सच्चाई (दीने हक़) गालिब करती और बातिल को मग्लूब कर देती है और अंजाम व नतीजा हक़ के हाथ रहता है मगर चूंकि अल्लाह की पकड़ का कानून एक तो काफी मोहलत देता है, इसलिए ज़ालिम कौमें जिहालत से उसको अपनी कामियाबी समझकर अल्लाह की ‘बत्शे शदीद’ (सख्त पकड़) से गाफ़िल हो जाती हैं और इसलिए तारीख बार-बार अपने सबक़ को दोहराती रहती है।
5. तजुर्बा इस पर गवाह है कि हक़ व सदाक़त की तहरीक और न सिर्फ यह, बल्कि हर इंकेलाबी तहरीक जिस दर्जा कौम के नौजवानों पर असरअंदाज होती है, बड़ी उम्र के लोग क़ौम पर इस तेज़ी के साथ असरअंदाज़ नहीं होते। साइक्लोजी के माहिर लोग इसकी यह वजह बयान करते हैं कि बड़ी उम्र वालों के दिल व दिमाग चूंकि उम्र के बड़े हिस्से में पुराने रस्म व रिवाज के आदी हो जाते और सोसाइटी के पुराने निज़ाम से अर्से तक मानूस रह चुके होते हैं और उसकी नस-नस में पुरानी बातें बैठ चुकी होती हैं इसलिए हर वह तहरीक जो पुराने निज़ाम या घिसी-पिटी रस्मों के खिलाफ ज़ाहिर होती है उनके दिल व दिमाग उसके नये असर से तकलीफ महसूस करते हैं और पुरानी-नई बातों का टकराव उनके लिए बोझ बन जाता है।
इसलिए वे नए इंकलाब से मानूस होने की बजाए और ज़्यादा दहशत में पड़ जाते हैं, अलबत्ता इनमें से जो दिल व दिमाग जज़्बे के मुकाबले में अक्ल को और तास्सुर के मुक़ाबले में दलीलों को रहनुमा बना लेते हैं और हर मामले में नए-पुराने से हट कर मतानत और संजीदगी के साथ उनके फायदे और नुक्सान पर गौर करने के आदी होते हैं वे इस आम उसूल से अलग हैं और जब भी वे इंकलाबी तहरीक के लिए जबरदस्त मददगार साबित होते हैं, मगर जमाअतों और कौमों में आमतौर से उनकी तायदाद कम होती है लेकिन, बड़ी उम्रवाले लोगों के खिलाफ़ चूंकि नौजवानों के दिल न दिमाग बड़ी हद तक ग़ैरजानिबदार (निष्पक्ष) होते और पुराने रस्म व रिवाज के लिए अभी तक पके हुए नहीं होते, उन पर नए नक्श बहुत जल्द उभर आते हैं और वे किसी तब्दीली और किसी इंकलाब को, सिर्फ इसलिए कि वे नई बातों की दावत दे रहे हैं, वहशत भरी नज़रों से नहीं देखते बल्कि दिलचस्पी के साथ उसकी तरफ बढ़ते और साफ़ दिल व दिमाग से उस पर गौर करते हैं।
अब यह इंकलाबी तहरीक की ज़िम्मेदारी है कि अगर उसमें सच्चाई और हक़तलबी काम कर रही है और जमाअतों और कौमों को गलत रास्ते से निकाल कर सीधे रास्ते की तरफ़ दावत देती है, तो उसकी तरफ़ तेज़ी के साथ भीड़ की भीड़ बढ़ने वालों और पैरवी करने वालों की ज़िंदगी में चार चांद लग जाते है और उनका वजूद इस पूरी दुनिया के लिए रहमत साबित होता है और अगर मामला इसके खिलाफ़ है, तो वह इन तर व ताज़ा और साफ़ दिल व दिमाग रखनेवाले नौजवानों को तबाही और बर्बादी के रास्ते पर लगा देती है और उनका वजूद पूरी इंसानियत के लिए मुसीबत और अज़ाब बन जाता है।
To be continued …