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हज़रत ईसा (अलै.) और मोजज़े
हज़रत ईसा (अलै.) के ज़माने में तिब्ब का इल्म (Medical Science) और भौतिक ज्ञान (Physics) की बहुत चर्चा थी और यूनान के कमाल पर बहुत ज़्यादा असर डाल रही थी और मुल्कों में सदियों से बड़े तबीब और फ़लसफ़ी अपनी हिक्मत व दानिश और तिब्ब के कमालों का मुज़ाहिरा कर रह थे मगर एक ख़ुदा की तौहीद और दीने हक की तालीम से आम व ख़ास लोग आमतौर से महरूम थे और खुद बनी इसराईल भी जो कि नबियों की नस्ल में होने पर हमेशा फख्र करते रहते थे गुमराहियों में पड़े हुए थे।
पस इन हालात में ‘अल्लाह की सुन्नत‘ ने जब हज़रत ईसा (अलै.) को रुश्द व हिदायत के लिए चुन लिया तो एक तरफ़ उनको हुज्जत व बुरहान (इंजील) और हिक्मत से नवाज़ा तो दूसरी तरफ़ ज़माने के ख़ास हालात के मुनासिब कुछ ऐसे निशान (मोजज़े) भी अता फरमाए जो उस ज़माने के कमाल वालों और उनके पीछे चलने वालों पर इस तरह असर डालने वाले हों कि हक़ तलाश करने वाले को यह मानने में कोई शक बाकी न रहे कि बेशक ये अमल हासिल किए गए इल्मों से जुदा सिर्फ़ अल्लाह की ओर से रसूले बरहक की ताईद में ज़ाहिर हुए हैं और तास्सुब रखने वाले और सरकश के पास इसके अलावा और कोई रास्ता न रहे कि उनको ‘खुला जादू‘ कह कर अपने बुग्ज़ व हसद की आग को और बढ़ा दे।
ईसा के उन मोजज़ों में से जिनका मुज़ाहिरा उन्होंने क़ौम के सामने किया, कुरआन ने चार मोजज़ों का खुल कर ज़िक्र किया है –
1. वह ख़ुदा के हुक्म से मुर्दे को ज़िन्दा कर दिया करते थे।
2. और पैदाइशी अंधे को आंख वाला और कोढ़ को चंगा कर दिया करते थे।
3. वह मिट्टी से परिंदा बनाकर उसमें फूंक देते थे और अल्लाह के हुक्म से उसमें रूह पड़ जाती थी।
4. वह यह भी बता दिया करते थे कि किसने क्या खाना खाया और क्या खर्च किया और क्या घर में भंडारा जमा कर रखा है।
क़ौमो में ऐसे मसीहा मौजूद थे जिनके इलाज व मुआलजे और अपनी तदबीरों से मायूस मरीज़ शिफ़ा पाते थे, उनमें भौतिक-ज्ञान के माहिर ऐसे फ़लसफ़सी भी कम न थे जो रूह व माद्दा (आत्मा व भूत द्रव्य) की हक़ीक़तों और आसमानी और ज़मीनी चीज़ों पर बेमिसाल नज़रियों और तजुर्बो के मालिक समझे जाते थे और चीज़ों की हक़ीक़त पर उनकी गहरी नज़र महारत कमाल वालों के लिए फ़ल की चीज़ थी लेकिन अब उनके सामने ईसा (अलै.) ने सामान और वसीला अपनाए बगैर इन मामलों का मुज़ाहिरा किया तो उन पर भी हिदायत और गुमराही की कुदरती तक्सीम के मुताबिक़ यही असर पड़ा कि जिस आदमी के दिल में हक़ की तलब पाई जाती थी।
उसने मान लिया कि बेशक इस किस्म का मुज़ाहिरा इंसानी पहुंच से बाहर और सच्चे नबी की ताईद व तस्दीक के लिए अल्लाह की तरफ़ से है और जिन दिलों में घमंड, हसद, और जलन और दुश्मनी थी, उनके तास्सुब ने वही कहने पर मजबूर किया, जो उनके पहले के नबी और रसूल कहते आए थे-
‘यह कुछ नहीं मगर खुला जादू है।’ (37:15)
चौथे मोजज़े के बारे में तफ्सीर लिखने वाले कहते हैं कि इसके मुज़ाहिरे की वजह यह पेश आई कि मुखालिफ़ जब रुश्द व हिदायत की उनकी दावत से नफ़रत करके उनको झुठलाते और उनकी पेश की हुई खुली निशानियों (मोजजों) को सेहर और जादू कहते तो साथी मज़ाक के तौर पर यह भी कह दिया करते थे कि अगर तुम अल्लाह तआला के ऐसे मक्बूल बन्दे हो तो बताओ आज हमने क्या खाया है और क्या बचा रखा है? तब ईसा (अलै.) उनके मज़ाक़ को संजीदगी में बदल देते और अल्लाह की वह्य की मदद से उनके सवाल का जवाब दे दिया करते थे।
मगर कुरआन क़रीम ने इस मोजज़े को जिस अन्दाज़ में बयान किया है उसको ध्यान देकर पढ़ने समझने से मालूम होता है कि इस ‘निशान‘ के मुज़ाहरे की वजह तफ्सीर लिखने वालों की बयान की हुई तौजीह से ज़्यादा बारीक़ और फैली हुई मालूम होती है और वह यह कि ईसा पैगामे हिदायत और तब्लीगे हक़ की खिदमत अंजाम देते हुए ज़्यादातर लोगों को दुनिया में फंसे हुए होने हिदायत व दौलत का लालच देने और ऐश-पसन्द जिंदगी की रग्बत से बाज़ रखने पर बयान के अलग-अलग तरीकों के ज़रिए तवज्जोह दिलाया करते थे।
तो जिस तरह कुछ सईद रूहें इस कलिमा-ए-हक के सामने सर झुका दिया करती थी इसके खिलाफ़ घटिया और दुष्ट इंसान उनके बेहतर वाजों से दिली नफ़रत और दूरी रखने के बावजूद मुत्तास्सिर करने वाली हस्तियों से ज़्यादा उनको यह बताती कि हम तो हर वक्त आपके इस इर्शाद को पूरा करने में लगे रहते हैं।
इसलिए कि कुदरते हक़ ने यह फैसला किया कि इन मुनाफिकों की मुनाफिक़त के नुक्सान को ख़त्म करने के बजाए हज़रत ईसा (अलै.) को ऐसा निशान दिया जाए कि इस ज़रिए से हक व बातिल खुल कर सामने आ जाए और अल्लाह के हुकूक और इंसान के हुक़ूक़ के मारे जाने पर ज़खीरा करने का जो सामना किया जा रहा है उसका परदा चाक कर दिया जाए।
इन चार किस्म के ख़ुदाई निशान (मोजज़ों) के अलावा खुद हज़रत ईसा (अलै.) की बगैर बाप की पैदाइश भी एक शानदार ‘ख़ुदाई निशान‘ था जिसके बारे में अभी तफ़सील से बातें बयान की गई।
हज़रत मसीह (अलै.) के हाथ पर जो मोजज़े ज़ाहिर किए गए या उनकी पैदाइश जिस मोजज़ाना तरीके से हुई यहूदियों ने हसद की वजह से उसका इंकार किया तो किया लेकिन कुछ फितरतपरस्त इस्लाम के दावेदार हज़रात ने भी उनके इंकार के लिए राह पैदा करने की नाकाम कोशिश फ़रमाई है इनमें से कुछ लोग वे हैं जिन्होंने इस इंकार को ज़ाती फायदे के लिए नहीं बल्कि फितरतपरस्त और खुदा के इंकारी नए यूरोपीय उलेमा से मरऊब होने की वजह से यह रवैया अपनाया है ताकि उनकी मज़हबियत पर अजाइब-परस्ती का इलज़ाम न लग सके।
इसी तरह एया-ए-मौता (मुर्दा को ज़िन्दा कर देना) के मोजज़े का भी इंकार करते हुए यह दावा किया है कि अल्लाह तआला मौत के बाद किसी को इस दुनिया में क़यामत से पहले ज़िंदगी नहीं बटेगा लेकिन इस दावे के खिलाफ कई जगहों पर ऐसा साबित किया हुआ मौजूद है कि अल्लाह ताला ने इस दुनिया में मौत देने के बाद ताज़ा जिंदगी बख्शी है। (देखिए आयतें 2:73, 259, 260)
इन तमाम वाकियों में मुर्दा के ज़िन्दा किए जाने के खुले और साफ़ मानी साबित है (इसी तरह हज़रत मसीह (अलै.) की बिन बाप पैदाइश का भी इंकार किया गया है और कलम का गैर-ज़रूरी ज़ोर लगाया गया है। लेकिन इस मसले की मुवाफिक और मुखालिफ़ रायों से हटकर एक और जानिबदार मुसन्निफ (लेखक) जब हज़रत मसीह (अलै.) की पैदाइश के मुताल्लिक क़ुरआन की तमाम आयतों को पढ़ेगा तो उस पर यह हकीकत आसानी से वाज़ेह हो जाएगी कि कुरान हज़रत मसीह (अलै.) से मुताल्लिका यहूदियों का घटना और ईसाइयों का बढ़ना दोनों के खिलाफ अपना वह मंसबी फ़र्ज़ अदा करना चाहता है जिसके लिए कुरआन की हक की दावत सामने आई है।
यहूदी और ईसाई इस बारे में दो कतई मुखालिफ और आपस में टकराने वाली दिशाओं में चले गए हैं। यहूदी कहते हैं कि हज़रत मसीह (अलै.) झूठे और शोबदे (जाद) दिखाने वाले थे और ईसाई कहते हैं कि वह ख़ुदा या ख़ुदा के बेटे या तीन के तीसरे थे। इन हालात में कुरान ने उन आयतों और वहय के खिलाफ इल्म व यकीन की राह दिखाते हुए दोनों के खिलाफ यह फैसला किया कि हक का रास्ता इफ़रात व तफ़रीत के दर्मियान है और सीधे रास्ते की यही सबसे बड़ी पहचान है।
वह कहता है कि वाजेह रहे कि हज़रत ईसा (अलै.) झूठे नहीं थे बल्कि अल्लाह के सच्चे पैगम्बर और राहे हक की सच्ची दावत देने वाले थे। उन्होंने दावते हक की तस्दीक के लिए जो कुछ अजीब बातें कर दिखाईं वे नबियों के मोज़ज़ो की लिस्ट में शामिल हैं न कि जादूगरों और तमाशा दिखाने वालों की और यह भी सही है कि उनकी पैदाइश बगैर बाप के हुई मगर इससे यह कैसे इलज़ाम आ सकता है कि वह ख़ुदा या खुदा के बेटे हो गए? क्या जो शख्स इंसानी ज़रूरतों यानी खाने-पीने का मुहताज हो वह अब्द और इंसान के अलावा खुदा या माबूद हो सकता है? नहीं, हरगिज़ नहीं।
तो जबकि कुरआन ने यहूदियों और ईसाइयों के उन तमाम बातिल अकीदों को खुले लफ़्ज़ों में रद्द करके जो उन्होंने हज़रत मसीह (अलै.) के बारे में कायम कर लिए थे इस्लाह का अपना फ़रीज़ा अंजाम दिया। यह कैसे मुम्किन था कि अगर बिन बाप की पैदाइश का वाकिया बातिल और ग़ैरवाकई था और जो सहारा बन रहा था उलूहियते मसीह के बारे में खुलकर कुरआन रद्द न करता बल्कि इसके खिलाफ वह जगह-जगह इस वाकिए को ठीक उस तरह बयान करता जाता जैसा कि इंजील में बयान किया गया है उसका फर्ज था कि सबसे पहले उसी पर कड़ी चोट लगाता और सिर्फ इतना कह कर कि हज़रत मसीह (अलै.) का बाप फ़्ला आदमी था उस सारी इमारत को जड़ से उखाड़ फेंकता जिस पर मसीह के इलाह होने की बुनियाद रखी गई। मगर उसने यह तरीका इख़्तियार न किया बल्कि यह कहा कि यह बात किसी तरह भी मसीह के अल्लाह होने की दलील नहीं बन सकती? इसलिए कि –
तर्जुमा– ईसा की मिसाल अल्लाह के नज़दीक जैसे मिसाल आदम की बनाया उसको सिट्टी से फिर कहा कि हो जा’ वह हो गया। (3:59)
पस अगर बिन बाप की पैदाइश मसीह को अल्लाह का दर्जा दे सकती है तो आदम को उससे ज़्यादा अल्लाह बनाए जाने का हक हासिल है कि वह बिना मां-बाप के पैदा हुए।
बहरहाल जिन तावील-परस्तों ने हज़रत मसीह (अलै.) की बिन बाप की पैदाइश से मुताल्लिक आयतों के जुम्लों को जुदा-जुदा करके गलत बातें पैदा की हैं वे इसलिए बातिल हैं कि जब इस वाकिए से मुताल्लिक आयतों को इकडा करके पढ़ा जाए तो एक लम्हे के लिए भी आयतों के मानी में बिन बाप पैदाइश के मानी के सिवा दूसरे किसी भी मानी की गुजाइश नहीं रहती।
इसके अलावा जहां तक इस मसले का अक्ली पहलू है सो अक्ल भी इसके मुमकिन होने को मुहाल करार नहीं देती यहां तक कि आजकल तो यहां तक हो चुका है कि इंसानी पैदाइश आंखों देखे पैदा होने के आम तरीके के अलावा कुछ दूसरे तरीकों से भी होने लगी है और इन तरीकों को कुदरत के कानून के खिलाफ़ इसलिए कहा नहीं जा सकता कि हमने कुदरत के तमाम कानूनों का एहाता नहीं कर लिया है बल्कि इंसान जितना ही इल्म और समझ की ओर बढ़ता जाता है उसके सामने कुदरत के कानून के नये-नये गोशे खुलने लगते हैं।
पस अगर यह सही है कि जो बात कल नामुम्किन नज़र आती थी आज यह मुम्किन कही जा रही है और जल्द या देर उसके वाके होने पर यकीन किया जा रहा है तो फिर नहीं मालूम कुदरत के इस कानून से इंकार कर देने के क्या मानी हैं? जिसका इल्म अभी तक अगरचे हमको हासिल नहीं है मगर नबियों और रसूलों जैसी कुदसी सिफ़ात हस्तियों पर इस इल्म की हक़ीक़त सुती हुई है तो क्या इल्मी दलील का यह भी कोई पहलू है कि जिस बात का हमको इल्म न हो और अक्ल उसको नामुम्किन और मुहाल न साबित करती हो उसका इंकार सिर्फ इल्म न होने की वजह से कर दिया जाए।
अब इन खुली निशानियों को कुरआन मजीद से सुनिए और नसीहत और सबक हासिल कीजिए कि इन पुराने वाकियों को याद दिलाने का कुरआन का यही बड़ा मक्सद है।
तर्जुमा- ‘और अल्लाह सिखाता है उस (ईसा )को किताबे हिक़मत तौरात और इंजील और वह रसूल है बनी इसराईल की तरफ (वह कहता है। कि बेशक मैं तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से निशान’ लेकर आया हूं। वह यह कि मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से परिंदे की शक्ल बनाता फिर उसमें रूह फूक देता हूं और वह अल्लाह के हुक्म से ज़िन्दा परिंदा बन जाता है और पैदाइशी अंधे को आंख वाला कर देता हूं और सफेद दाग के कोढ़ को अच्छा कर देता हूं और अल्लाह के हुक्म से मुर्दा को ज़िन्दा कर देता हूं और तुमको बता देता हूं जो तुम खाकर आते हो और जो तुम घर में ज़खीरा रख आते हो।
सो अगर तुम हकीकी ईमान रखते हो तो बेशक इन मामलों में (मेरी सच्चाई और अल्लाह की ओर से होने के लिए) निशान है और मैं तौरत की तस्दीक करने वाला हूं जो मेरे सामने है और इसलिए भेजा गया हो ताकि कुछ चीज़ों को जो तुम पर हराम हो गई हैं, तुम्हारे लिए हलाल कर दूं तुम्हारे लिए परवर दिगार ही के पास से “निशान‘ लाया हूं पस तुम अल्लाह से डरो और (उसके दिए हुए हुक्मों में) मेरी इताअत करो बेशक अल्लाह तआला ही मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है सो उसकी इबादत करो, यही सीधा रास्ता है। (3:48-51)
तर्जुमा- ‘ऐ ईसा बिन मरयम! तू मेरी इस नेमत को याद कर जबकि तू मेरे हुक्म से गारे से परिंदा बना देता और फिर उसमें फूँकदेता था और वह मेरे हुक्म से.ज़िदा परिंदा बन जाता था और जब कि तू मेरे हुक्म से पैदाइशी अंधे को आंख वाला और सफेद दाग के कोढ़ को अच्छा कर देता था और जबकि तू मेरे हुक्म से मुर्दा को ज़िन्दा करके कब्र से निकालता था। (5:110)
तर्जुमा- फिर जब वह (ईसा) उनके पास खुले निशान लेकर आया तो उन्होंने (यानी बनी इसराईल) ने कहा, यह तो खुला जादू है। (61:6)
नबियों ने जब कभी भी क़ौमो के सामने अल्लाह की आयतों का मुज़ाहिरा किया है तो इंकार करने वालों ने हमेशा उनके मुताल्लिक एक बात कही है, ‘यह खुला हुआ जादू है’। पस क्या एक हक को तलाश करने वाला और गैर-मुतास्सिब इंसान के लिए यह जवाब इस ओर रहनुमाई नहीं करता कि नबियों के इस किस्म के मुज़ाहरे ज़रूर कुदरत के आम कानूनों से जुदा ऐसे इत्म के ज़रिए ज़ाहिर होते थे जो सिर्फ उन कुद्सी सिफ़ारत हस्तियों के लिए ही खास रहा है।
और इनके अलावा इंसानी दुनिया उसकी हक़ीक़त के बारे में इंकार पर तुली हुई थी उसके इंकार के लिए इससे बेहतर दूसरी ताबीर नहीं थी कि वे इन मामलों को ‘जादू‘ कह दें। इसलिए इन मामलों को जादू कहना भी उनके ‘मोजज़ा‘ और ‘अल्लाह का निशान’ होने की ज़बरदस्त दलील है।
हज़रत ईसा (अलै.) और उनकी तालीम का खुलासा
बहरहाल हज़रत ईसा (अलै.) बनी इसराईल को हुज्जत और बुरहान और अल्लाह की आयतों के ज़रिए दीने हक़ की तालीम देते रहते और उनके भूले हुए सबक़ को याद दिला कर मुर्दा दिलों में नई ज़िंदगी बख्शते रहते थे।
अल्लाह और अल्लाह की तौहीद पर ईमान, नबियों और रसूलों की तस्दीक़, आखिरत पर ईमान, अल्लाह के फ़रिश्तों पर ईमान, क़ज़ा व केंद्र पर ईमान, अल्लाह के रसूलों और किताबों पर ईमान, भले अख़्लाक़ के अपनाने, दुरे अमलों से बचने, अल्लाह की इबादत से चाव, दुनिया में लगे रहने से नफ़रत और अल्लाह के कुंबे (अल्लाह की मख्लूक) से मुहब्बत, यही वह तालीम और उस पर ज़ोर था जो उनकी ज़िन्दगी का मश्गला और मंसबी फ़र्ज़ बना हुआ था वे बनी इसराईल को तौरात, इंजील और हिक्मत भरी नसीहतों के ज़रिए इन मामलों की तरफ़ दावत देते मगर बदबख्त यहूदी अपनी टेढ़ी फितरत, सदियों से आ रही सरकशी और अल्लाह की तालीम से बगावत की बदौलत इम दर्जा शिद्दत पसंद बन गए थे और नबियों और रसूलों के क़त्ल ने उनके दिलों को हक व सदाक़त के कुबूल करने में इस दर्जा सख्त बना दिया था कि एक छोटी-सी जमाअत के अलावा उनकी जमाअत की भारी अक्सरीयत ने उनकी मुखालफ़त और उनके साथ हसद व बुग्ज़ को अपना शिआर और अपनी जमाअती ज़िदंगी का शिआर बना लिया।
और इसलिए नबियों की बहतरीन सुन्नत के मुताबिक़ रुश्द व हिदायत के हलकों में दुन्यावी जाह व जलाल के लिहाज़ से कमज़ोर व नातवां और निचले पेशेवर तबके के अक्सरीयत नज़र आती थी। कमज़ोरों का यह तबका अगर इख्लास के दयानतदारी के साथ हक़ की आवाज़ को अपनाता तो बनी इसराईल का ना सरकश और मग़रूर हलका उन पर और अल्लाह के पैग़म्बर पर फब्तियां कसता, तौहीन व तज़लील का मुज़ाहिरा करता और अपनी अमली जद्दोजहद का बड़ा हिस्सा मुखालफ़त में लगाता रहता था।
तर्जुमा- ‘और जब ईसा ज़ाहिर दलीलें लेकर आए तो कहा, बेशक तुम्हारे पास हिक्मत’ लेकर आया हूं और इसलिए आया हूं ताकि उन कुछ बातों को साफ कर दूं जिनके बारे में तुम आपस में झगड़ रहे हो पस अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो। बेशक अल्लाह ही मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है सो उसकी परस्तिश करो यही सीधी राह है। फिर वे आपस में गिरोहबन्दी करने लगे सो उन लोगों को दर्दनाक अज़ाब के ज़रिए हलाकत और खराबी है। (43:63-65)
तर्जुमा- और (वह वक़्त याद करो) जब ईसा बिन मरयम ने कहा, ऐ बनी इसराईल! बेशक मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का पैगम्बर हूं, तस्दीक करने वाला हूं तौरात की, जो मेरे सामने है और खुशखबरी देने वाला हूं एक रसूल की, जो मेरे बाद आएगा नाम उसका अहमद है। पस जब (ईसा) आया उनके यास मोजज़े लेकर तो वे (बनी इसराईल) कहले लगे, यह तो खुला जादू है। (61:6)
तर्जुमा- ‘फिर जब ईसा ने इन (बनी इसराईल) से कुफ़्र महसूस किया तो कहा, ‘अल्लाह की तरफ मेरा कौन मददगार है?’
हवारियों ने जवाब दिया, ‘हम हैं अल्लाह के (दीन के) मददगार। हम अल्लाह पर ईमान ले आए और तुम गवाह रहना कि हम मुसलमान हैं। ऐ हमारे परवरदिमार! जो तूने उतारा है, हम उस पर ईमान ले आए और हमने रसूल की पैरवी अख्तियार कर ली पस तू हमको (दीने हक़ की) गवाही देने वालों में से लिख ले।’ (5:52-5)
हवारी ईसा (अलै.)
मगर ईसा (अलै.) दुश्मनों और मुखालिफ़ों की शरारतों और बेहूदगियों के वावजूद अपने मंसबी फ़र्ज़ ‘दावत इलल हक़’ (हक की तरफ़ दावत देने) में हमेशा सरगर्म रहते और रात व दिन बनी इसराईल की आबादियों और बस्तियों में हक़ का पैगाम सुनाते और रोशन दलीलों और अल्लाह की वाजेह आयतों के जरिए लोगों को हक व सदाक़त कुबूल करने पर तैयार करते रहते थे।
अल्लाह और अल्लाह के हुक्म से सरकश और बागी इंसानों की इस भीड़ में ऐसी सईद सहें भी निकल आती थीं जो ईसा (अलै.) की हक की दावत की ओर लपकतीं और सच्चाई के साथ दीने हक़ को अपनाती थीं जो हज़रत ईसा (अलै.) की सोहबत में रहकर और फ़ायदा उठा कर न सिर्फ ईमान ही ले आती थी बल्कि दीने हक़ की सरबुलंदी और कामयाबी के लिए उन्होंने जान व माल की बाज़ी लगा कर दीन की खिदमत के लिए खुद को वक्फ़ कर दिया था और अक्सर व बेशतर हज़रत मसीह (अलै.) के साथ रह कर तब्लीग़ व दावत का काम सरअंजाम देती थीं। इसी खुसूसियत की वजह से वे ‘हवारी‘ (रफ़ीक़) और अन्सारुल्लाह (अल्लाह के दीन के मददगार) के मुक़द्दस अलकाब से मुअज्जज व मुम्ताज़ की गई।
चुनांचे इन बुजुर्ग हस्तियों ने अल्लाह के पैग़म्बर की पाक ज़िन्दगी को अपना आदर्श बनाया और सख्त-से-सख्त और नाजुक से नाजुक हालात में भी उनका साथ नहीं छोड़ा और हर तरह मददगार साबित हुई।
तर्जुमा- और (ऐ ईसा! वह वक्त याद करो) जब कि मैंने हवारियों की ओर (तेरी मारफ़त) यह वह्य की कि मुझ पर और मेरे पैगम्बर पर ईमान लाओ तो उन्होंने जवाब दिया ‘हम इमान लाए और ऐ खुदा! तू गवाह’ रहना कि हम बिला शुबहा मुसलमान हैं।’ (5:111)
तर्जुमा- ऐ ईमान वालो! तुम अल्लाह के (दीन के) मददगार हो जाओ जैसा कि ईसा बिन मरयम अलैहिस्सलाम ने जब हवारियों से कहा, अल्लाह के रास्ते में कौन मेरा मददगार है तो हवारियों ने जवाब दिया, ‘हम हैं अल्लाह (की राह) के मददगार।‘ पस बनी ईसराइल की एक जमाअत ईमान ले आई एक गिरोह ने कुफ़्र इख़्तियार किया सो हमने मोमिनों की उनके दुश्मनों के मुकाबले में ताईद की पस दे (मोमिन) ग़ालिब रहे। (61:14)
पिछले पन्नों में यह वाज़ेह हो चुका है कि हज़रत ईसा (अलै.) के ये हवारी ज्यादातर गरीब और मज़दूर तबके में से थे क्योंकि नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की दावत व तब्लीग के साथ ‘अल्लाह की सुन्नत‘ यही जारी रही है कि उनके हक की आवाज़ को लपकने और दीने हक पर जान निछावर करने का मुजाहरा करने के लिए पहले गरीब और कमज़ोर तबका ही आगे बढ़ता है।
और नीचे के लोग ही फिदाकारी का सबूत देते हैं और वक्त के इक्तिदार में बैठी और ज़बरदस्त हस्तियां अपने गुरूर और घमंड के साथ मुकाबले के लिए सामने आती और मुखालिफ़ सरगर्मियों के साथ अल्लाह का कलिमा सरबुलन्द करने के रास्ते में भारी पत्थर बन जाती हैं लेकिन जब अल्लाह का ‘अमल के बदले’ का कानून अपना काम करता है, तो नतीजे में फलाह और कामयाबी उन कमज़ोर हक के फ़िदाकारों का हिस्सा हो जाता है और घमंड में चूर हस्तियां या हलाकत के गहरे गढ़े में जा गिरती हैं और या मकहूर व मालूब होकर झुक जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं रखतीं।
हज़रत ईसा (अलै.) के हवारी और कुरआन व इंजील का मवाज़ना
कुरआन ने हज़रत ईसा (अलै.) के हवारियों की हक़ीकत बयान की है। सूरः आले इमरान की आयतें तुम्हारे सामने हैं। हज़रत मसीह (अलै.) जब दीने हक़ की मदद के लिए पुकारते हैं तो सबसे पहले जिन्होंने ‘ननु अन्सारुल्लाह’ (हम हैं अल्लाह के मददगार) का नारा बुलन्द किया वे यही पाक हस्तियां थीं।
सूरः सफ्फ़ में अल्लाह रब्बुल-आलमीन ने जब मुसलमानों को मुखातिब करके ‘कूनू अंसारल्लाह’ (हो जाओ तुम मदद देने वाले अल्लाह के) की तर्गीब दी तो “नकीर बिअय्यामिल्लाह’ (अल्लाह के वाकियों की तज़्किरा) के पेशे नज़र इन्हीं हस्तियों का ज़िक्र किया और इन्हीं की मिसाल और नज़ीर देकर हक़ की मदद के लिए उभारा और सूरः माइदा में उनके ईमान के कुबूल करने और हक़ की दावत के सामने सर झुका देने का जो नक्शा खीचा है, वह भी उनके खुलूस,हक्रनलवी और हक्र-कोशी की हमेशा ज़िन्दा रहने वाली तस्वीर है।
यह सब कुछ तो उस वक्त का हाल है जब तक हज़रत ईसा (अलै.) उनके दरमियान मौजूद हैं लेकिन आपके ‘आसमान पर उठा लिए जाने के बाद भी उनकी इस्तिकामत से भरी (जमाव वाली) और पुराने दीन की फ़िदाकाराना खिदमत के बारे में सूरः सफ्फ़ की आयत ‘फ़ अय्यदनल्लज़ीन आमनू अला अदविहिम फ़ अस्वहू ज़ाहिरीन०’ (6:14) में काफी इशारा मौजूद है और शाह अब्दुल कादिर नवरल्लाहु मरकदहू ने इसी बुनियाद पर इस आयत की तफ़सीर करते हुए तारीख़ी गवाही का इस तरह ज़िक्र फ़रमाया है –
‘हज़रत ईसा (अलै.) के बाद उनके चारों (हवारियों) ने बड़ी मेहनतें की हैं जब उनका दीन फैला। हज़रत यसूअ (अलै.) के उन तमाम हवारियों में से जिनकी तारीफ़ में जगह-जगह बाइबिल बखान करता है एक दो या दस पांच नहीं सबके सब निहायत बुज़दिली और गद्दारी के साथ उस वक्त हज़रत मसीह (अलै.) से अलग हो गए जब दीने हक की मदद और हिमायत के लिए सबसेज़्यादा उनको ज़रूरत थी और जबकि अल्लाह के पैगम्बर (अलैहिस्सलाम) दुश्मनों के नरगे में फंसे हुए थे।
मगर इंजील की इस गवाही के खिलाफ सूरः आले इमरान में कुरआन मजीद ने यह गवाही दी है कि उस नाजुक वक्त में जब हज़रत ईसा (अलै.) ने अपने हवारियों को दीने हक की मदद और यारी के लिए पुकारा तो सबने पूरे अज्म, हौसला और फिदा हो जाने वाले जज़्बे के साथ यह जवाब दिया, ‘नहनु अन्सारुल्लाह (3:52) फिर हज़रत मसीह (अलै.) के सामने दीन पर अपने जमे रहने और अपने खुलूस भरे ईमान के बारे में गवाही देकर मदद का पूरा-पूरा यकीन दिलाया और फिर सूरः सफ़्फ़ में कुरआन मजीद ने यह भी जाहिर किया कि इन हवारियों ने हज़रत ईसा से जो कुछ कहा था, उनकी मौजूदगी में और उनके बाद भी, सच्ची वफ़ादारी के साथ उसे निबाहा और इसमें शक नहीं वे सच्चे मोमिन साबित हुए और इसलिए अल्लाह ने भी उनकी मदद फ़रमाई और उनको हक के दुश्मनों के मुकाबले में कामयाब किया।
इंजील और कुरआन के इस मवाज़ने को देख कर एक इंसाफ़ पसन्द यह कहे बगैर नहीं रह सकता कि इस मामले में ‘हक‘ कुरआन के साथ है और ईसाई उलेमा ने इंजील में घट-बढ़ करके इस किस्म के गढ़े हुए वाकियों का इज़ाफ़ा इसलिए किया है ताकि सदियों बाद के ख़ुद के गढ़े हुए ‘मसीह (अलै.)’ के सलीब (फांसी) का अक़ीदा से मुताल्लिक़ दास्तान सही तर्तीब कायम हो सके कि जब हज़रत मसीह (अलै.) को सलीब पर लटकाया गया तो उन्होंने कहते-कहते जान दे दी, ऐली! ऐली! लिमा सबकतनी’ (ऐ ख़ुदा तूने मुझे क्यों अकेला तंहा छोड़ दिया। और किसी एक आदमी ने भी मसीह (अलै.) का साथ न दिया। बहरहाल हवारियों से मुताल्लिक बाइबिल की ये घट-बढ़ बाली गढ़ी हुई दास्तान से ज़्यादा कोई हैसियत नहीं रखतीं।
To be continued …