ज़ुलक़रनैन

ज़ुलक़रनैन

तम्हीद

      कुरआन मजीद में सूरः कहफ़ में एक ऐसे बादशाह का ज़िक्र किया गया है जिसका लक़ब ज़ुलक़रनैन है और जिसने मशरिक़ व मग़रिब (पूरब व पश्चिम तक फ़तहे की और फ़तह (जीत) के दौरान एक ऐसी जगह पर पहुंचे बसने वालों ने उनसे शिकायत की कि याजूज माजूज हमको सताते और वहशियाना हमले करके फ़साद मचाते और बर्बादी लाते हैं। आप हमको उनसे नजात दिलाइए।

      ज़ुलक़रनैन ने उनको तसल्ली दी और लोहे और तांबे को पिघला कर दो पहाड़ों के दर्मियान एक ऐसी रुकावट खड़ी कर दी कि शिकायत करने वाले याजूज व माजूज के फ़ित्ने से बच गए। यह वाकिया तीन अहम हिस्सों में तक़सीम किया जा सकता है –

      1. ज़ुलक़रनैन की शख़्सियत, 

      2. ज़ुलक़रनैन का महल व वक़ूअ और आस-पास का इलाका,

      3. याजूज-माजूज के बारे में तै करना। 

ज़ुलक़रनैन की शख्सियत

      ज़ुलक़रनैन की शख़्सियत के बारे में नीचे लिखे क़ौल पेश किए गए हैं –

      1. मशहूरे ज़माना सिकन्दरे आज़म (Alexandar, the Great) ही ज़ुलक़रनैन हैं।

      2. अरब और ईरान के शायरों ने अपने-अपने मुल्क और इलाक़े के अलग-अलग बादशाहों को ज़ुलक़रनैन कहा है।

      3. कुरआन में ज़िक्र किया गया ज़ुलक़रनैन अरब वंश का था, सामिया ऊला में से था और हज़रत इब्राहीम (अलै.) के ज़माने का बादशाह था। 

      हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह० ने ऊपर के क़ौलों से मुताल्लिक़ तफ़्सीली बहस के बाद आख़िर के लोगों में से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की तहक़ीक़ से एक हद तक इत्तिफ़ाक़ करते हुए जो कुछ लिखा है, वह पेश किया जाता है। मौलाना ने इस तफ़्सीली बहस को जिस उसूल के पेशेनज़र रखा है, वह यह है कि ज़ुलक़रनैन को एक ऐसा शख़्स समझना चाहिए जो हर एतबार से में सालेह और अपने वक़्त के दीने हक़ की पैरवी करने वाला होना चाहिए।

      इस उसूल पर मौलाना हिर्रहमान स्योहारवी रह० की तहकीक़ के मुताबिक़ जो शख़्सियत पूरी उतरती है, वह इबरानी में ख़ोरस की है, जिसक फ़ारस के लोग अरश या गोरश कहते हैं, लेकिन यूनानी में साइरस और अरची में ख़ुसरो कहा जाता है, जिसकी तफ़्सील नीचे दी जा रही है.

      ज़ुलक़रनैन की शख़्सियत पर बहस करने से पहले अहम सवाल यह है कि कुरआन मजीद ने इस मामले की तरफ़ किसलिए तवज्जोह की और ख़ुद से नहीं बल्कि किसी सवाल के जवाब पर तवज्जोह की तो सवाल करने वाले कौन हैं और किस बुनियाद पर उन्होंने इस सवाल को चुना? यही वह सवाल है जो असल में इस मामले की कुंजी है और अगरचे यह शाने नुज़ूल के सिलसिले में तफ़्सीर लिखने वालों और सीरत लिखने वालों ने इसकी तरफ़ तवज्जोह दिलाई है, लेकिन शख़्सियत की तहक़ीक़ के वक़्त उन्होंने इस हक़ीक़त को नजरंदाज़ कर दिया है।

      साथ ही यह बात भी तवज्जोह के क़ाबिल है कि ज़ुलक़रनैन की शख़्सियत, रोक (सद्द) का तै करना और याजूज माजूज की तहक़ीक़ अगरचे तीन मुस्तक़िल मस्अले हैं, फिर भी ये तीनों आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि अगर किसी एक के बारे में खुलकर तहक़ीक़ की जाए तो कुरआन की तफ़्सीली की रोशनी में बाक़ी दो मसअलों के हल में भी बहुत ज़्यादा आसानी हो जाती है।

ज़ुलक़रनैन से मुताल्लिक सवाल की शक्ल

      मुहम्मद बिन इसहाक़ ने इब्ने अब्बास (रज़ि) से रिवायत किया है कि मक्का के क़ुरैश ने नज़्र बिन हारिस और उक़बा बिन मुईत को यहूदी उलेमा के पास यह पैग़ाम देकर भेजा कि चूंकि तुम ख़ुद को अहले किताब कहते हो और तुम्हारा दावा है कि तुम्हारे पास पीछे के पैग़म्बरों का वह इल्म है जो हमारे पास नहीं है, इसलिए मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुताल्लिक़ हम को यह बताएं कि पैग़म्बरी के उनके दावे की सच्चाई के बारे में आप लोगों की इल्हामी किताबों में कोई तज़किरा या निशानियां मौजूद हैं या नहीं?

      चुनांचे क़ुरैश के वफ़्द ने यसरिब पहुंच कर यहूदी उलेमा से अपने आने का मक़सद बयान किया और यहूदी अहबार ने उनसे कहा, तुम और बातों को छोड़ दो, हम तुमको तीन सवाल बता देते हैं, अगर वह उनका सही जवाब दे दें तो समझ लेना, वे ज़रूर अपने दावे में सच्चे हैं और नबी मुर्सल हैं और तुम पर उनकी पैरवी वाजिब है और अगर वे सही जवाब न दे सकें, तो वह झूठे हैं, फिर तुमको इख़्तियार है जो मामला उनके साथ चाहो, करो। वे सवाल ये हैं –

1. उस आदमी का हाल बयान कीजिए जो पूरब से पश्चिम तक जीतता चला गया?

2. उन कुछ नवजवानों पर क्या गुज़रा जो काफ़िर बादशाह के डर से पहाड़ की खोह में जा छिपे थे?

3. रूह के मुताल्लिक़ बयान कीजिए

      मक्का का वफ़द वापस आया और उसने क़ुरैश को यहूदी उलेमा की बातें सुनाई, क़ुरैश ने सुनकर कहा, अब हमारे लिए मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में फैसला करना आसान हो गया कि यहूदियों के इन सवालों के जवाब एक उम्मी (अनपढ़) इंसान जभी दे सकता है कि हक़ीक़त में उस पर अल्लाह की ओर से वह्य आती हो, चुनांचे मक्का के क़ुरैश ने ख़िदमते अक़्दस में हााज़िर होकर तीनों सवाल पेश कर दिए। उन्हीं सवालों के जवाब के लिए आप पर सूरः कहफ़ उतरी।

यहूदी, क़ुरैश और सवालों का इंतिख़ाब

      एक बार फिर उस रिवायत पर गौर फरमाइए जो मुहम्मद बिन इसहाक ने नक़ल फ़रमाई है और जिसका हासिल यह है कि अस्हाबे कहफ़ और ज़ुलक़रनैन के बारे में मक्का के मुशिरकों ने जो सवाल नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से किए, वे असल में मदीना के यहूदियों के बार-बार ताकीद करने पर किए गए, तो अब कुदरती तौर पर यह सवाल पैदा होता है कि आख़िर यहूदियों को इन वाकियों से ऐसी क्या दिलचस्पी थी कि जिसकी बुनियाद पर उन्होंने उसका चुनाव किया और उनके सही जवाबों को ख़ुदा के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नुबूवत के दावे और रिसालत की सच्चाई का मेयार ठहराया।

      आख़िर ज़ुलक़रनैन के बारे में क्यों सवाल किया गया? इसका जवाब यह है कि यहूदियों ने इस सवाल में हक़ीक़त में एक ऐसी शख्सियत का इंतिख़ाब किया है जो उनकी मज़हबी जिंदगी के सिलसिले में बहुत ही ज़्यादा अहमयित रखती है और जिसको वे अपनी मिल्ली और इज्तिमाई जिंदगी में किसी वक़्त भी नहीं भुला सकते, क्योंकि उस शख्सियत की बदौलत बनी इसराईल ने बाबिल की गुलामी से नजात पाई और उनका कौमी मर्कज किब्ला नमाज़ और मुकद्दस मक़ाम यरूशलम (बैतुलमक्दिस) हर किस्म की तबाही व बर्बादी के बाद उसी के हाथों दोबारा आबाद हुआ, चुनांचे इन अहम मामलों की बुनियाद पर यहूदियों के नज़दीक वह नजात दहन्दा अल्लाह का मसीह और अल्लाह का चरवाहा कहलाया, क्योंकि उनके नबियों के मुक़द्दस सहीफ़ों में उसके बारे में यही अलक़ाब दर्ज थे और उसकी अज़मत ज़ाहिर करते थे।

      यही वजह थी कि उन्होंने सवालों में उस शख़्सियत के मसले को भी मुंतख़ब किया, बल्कि उसी को ज़्यादा अहमियत दी, जैसा कुरआन के बयान करने के उस्लूब ‘यस अलू-न-क अन जिलकरनैन‘ से वाज़ेह होता है। वह समझते थे कि जबकि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यह दावा करते हैं कि वे अल्लाह के सच्चे पैगम्बर और उसके तमाम सच्चे पैग़म्बरों के दीन को और अपने दीन को दीन समझते हैं, खास तौर से बनी इसराईल के नबियों की अज़मत व इज़्ज़त और उनकी सदाक़त व  हक़्क़ानियत को ज़ाहिर फ़रमाते हैं।

      अगर वह हक़ीक़त में अल्लाह के सच्चे पैग़म्बर हैं तो ‘उम्मी‘ (अनपढ़) होने के बावजूद ज़रूर वह्य इलाही के ज़रिए उस आदमी के वाक़ियों पर रोशनी डाल सकेंगे, जिसकी वजह से बनी इसराईल के नबियों के गढ़ (यरूशलम) और बनी इसराईल के नबी और कौम बनी इसराईल को एक बुतपरस्त बादशाह की ग़ुलामी और तबाहकारियों से निजात मिली और जो अल्लाह का कलिमा बुलन्द करने में बनी इसराईल के नबियों का मददगार साबित हुआ।

बनी इसराईल के नबियों की पेशीनगोइयां

      बनी इसराईल के नबी हज़रत यसइयाह, यर्मियाह, दानियाल, अज़रा और ज़करिया की तौरात में खुलकर और साफ़ ज़िक्र की गई पेशीनगोइयों से नीचे लिखे वाक़िये साबित होते हैं –

      1. जिस हस्ती ने बनी इसराईल को बातिल की गुलामी से निजात दिलाई उसका नाम खोरस था और वह फ़ारस और मीडिया का एक ही बादशाह था।

      2. दानियाल नबी के मुकाश्फा और हज़रत जिब्रील (अलै.) की ताबीर ने इन दो हुकूमतों के इत्तिहाद की बुनियाद पर ही खोरस को दो सींगोंवाला (ज़ुलक़रनैन) बादशाह कहा और इस ख़्याल की बुनियाद पर बनी इसराईल में उसका लकब ज़ुलक़रनैन मशहूर हुआ।

      3. मुताल्लिक़ सहीफ़ों में उस बादशाह को अल्लाह का मसीह, बनी इसराईल को निजात दिलाने वाला और अल्लाह का चरवाहा कहा गया।

      4. यहूदियों में क़ौमी असबियत और नस्ली तास्तुब की ज़्यादती के बावजूद इन्हीं वाकियों की बुनियाद पर वे ग़ैर इसराईली शख्स को ऐसी बातों से याद करते हैं, जो वे सिर्फ अपने नबियों के हक़ में ही कहने के आदी हैं।

      5. यसइयाह नबी के सहीफ़े में उसका उत्तर से आना बताया गया है। ख़ोरस बाबिल से उत्तर ही की तरफ़ (फ़ारस व मीडिया) से आया था, इसलिए वही इस पेशनगोई पर पूरा उतरता है।

      6. ज़करिया नबी की पेशीनगोई में उसको ‘उगने वाली शान‘ बताया गया है। इससे मतलब यह है कि उसका उगना-बढ़ना और ज़ाहिर होना गैर-मामूली हालात में होगा, जैसा कि आम तौर से ऐसी शख्सियतों के बारे में अल्लाह की तरफ से होता रहा है जिनसे उसको कोई काम लेना होता है।

तारीख़ी गवाहियां

      622 क़ब्ल मसीह में बाबिल व नैनवा की हुकूमतें बड़े उरूज और तरक़्क़ी पर थीं और खोरस से पहले उसी ज़माने में ईरान की हुकूमत दो अलग-अलग हिस्सों में तक़सीम थी। उत्तरी-पश्चिमी हिस्से को मीडिया (माहात) कहते थे और पश्चिमी हिस्से को फारस और दोनों हिस्सों में कबीलों के सरदार हुकूमत करते थे। ये क़बीलों की हुकूमतें उनके असर में और ताबेअ थीं, लेकिन 612 क़ब्ल मसीह में जब नैनवा की आशूरी हुकूमत तबाह हो गई, तो अगरचे मीडिया आज़ाद हो गया और कबीलों की हुकूमत की जगह धीरे-धीरे शाही हुक्मरानी की दाग-बेल पड़ने लगी थी।

      फिर भी बाबुल के बादशाह बख़्त नस्र के काहिराना इक़्तिदार के सामने ईरान का उभरना मुम्किन नज़र न आता था, मगर इन्हीं हालात के अन्दर 559 ई.पू. में कुदरत ने एकेमी नीज़िया बखामाश खानदान की एक और मामूली हस्ती को नुमायां किया जो शुरू में अगरचे एक छोटी रियासत अश्शान का रईस था, मगर वह 559 ई.पू. में हैरत में डाल देने वाले अन्दाज़ में उसके अद्ल व इंसाफ़, सियासत व तदब्बुर, ख़ुदातरसी और हिल्म ने फारस और मावात दोनों हुकूमतों को बिना किसी लड़ाई के उसके क़ब्ज़े में दे दिया और दोनों हुकूमतों के कबाईली हुक्मरानों ने ब रज़ा व रग़बत उसको अपना बादशाह मान लिया। यही वह हस्ती है जिसको फारस के लोग ‘गोरश’ या अरश और यहूदी खोरस कहते हैं। 

पश्चिमी मुहिम

      खोरस ने जब फ़ारस और मीडिया की हुकूमतों को मिलाकर फ़रमारवाई का एलान किया, तो उससे क़रीबी ज़माने में उसको पश्चिमी मुहिम पेश आई और इस वजह से पेश आई कि खोरस से बहुत पहले मीडिया और ईरान के मग़रिब में बाके हकूमत लीडिया ‘एशिया–कोचक‘ के दर्मियान आपसी जंग रहती थी, गरख़ोरस के ज़माने के लीडिया बादशाह ‘कादूसिस‘ के बाप ख़ोरस (गोरश) के नाना अस्टियागस के बाप से सुलह कर ली थी और आपसी शादी-ब्याह का रिश्ता क़ायम करके मुस्तक़िल तौर से जंग का ख़ात्मा कर दिया था, लेकिन अब जबकि ख़ोरस ने फ़ारस और मीडिया दोनों को मिलाकर के एक मज़बूत हुकूमत कायम कर ली, तो एशिया-ए-कोचक का बादशाह काइरिस उसको सह न सका और उसने बाप के किए हुए तमाम वायदों और समझौतों को तोड़कर मीडिया पर हमला कर दिया।

      तब गोरश मजबूर होकर अपनी राजधानी हमदान से तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और दो ही लड़ाइयों के बाद तमाम एशिया-ए-कोचक पर क़ब्ज़ा कर लिया, चुनांचे मशहूर यूनानी तारीख़दां वैरोडोटस कहता है कि गोरशा की यह मुहिम ऐसी अजीब और मोजज़ों से भरी हुई थी के पटेरिया के मारके से सिर्फ चौदह दिन के अन्दर उसने लीडिया की मज़बूत राजधानी को क़ब्ज़े में कर लिया और करडीसन क़ैद होकर मुल्ज़िम की हैसियत में उसके सामने खड़ा नज़र आया। अब अगरचे काला सागर तक तमाम एशिया-ए-कोचक उसके तहत था, मगर फिर भी वह आगे बढ़ता चला गया, यहां तक कि पश्चिमी किनारे पर जा पहुंचा यानी राजधानी से चौदह सौ मील फ़ासला तय करके पश्चिमी तरफ़ जा खड़ा हुआ।

      जुग़राफ़िया के माहिर कहते हैं कि लीडिया की राजधानी सारडेस पश्चिमी साहिल के करीब था और एशिया-ए-कोचक के पश्चिमी किनारे की हालत यह है कि यहां समरना के करीब छोटे-छोटे जज़ीरे (द्धीप) निकल आने की वजह से पूरा साहिल (तट) झील की तरह बन गया है और बहे अजियन के इस किनारे का पानी ख़लील (खाड़ी) की वजह से बहुत गदला रहता है और शाम के वळत सूरज डूबते हुए ऐसा मालूम होता है कि गोया एक गदले हौज़ में डूब रहा है। 

      तारीख़ के माहिर कहते हैं कि ख़ोरस ने अगरचे एशिया-ए-कोचक को बहादुरी से जीता, लेकिन वक़्त के दूसरे बादशाहों की तरह उसने जीते हुए मुल्कों पर ज़ुल्म नहीं किया और न उनको वतन से बेवतन किया, यहां तक कि सारडेस की जनता को यह भी महसूस नहीं होने दिया कि यहां कोई इन्क़िलाब आ गया है, मगर सिर्फ शख़्सियत का यानी उनको करडीसल की जगह खुरस जैसा आदिल बादशाह मिल गया, चुनांचे हीरोडोटिस लिखता है –

      साइरस (ख़ोरस) ने अपनी फ़ौज को हुक्म दिया कि दुश्मन की फ़ौज के सिवा और किसी इंसान पर हाथ न उठाया जाए और दुश्मन की फौज में भी जो कोई नेज़ा झुका दे उसे हरगिज़ न क़त्ल किया जाए और करडीस अगर तलवार भी चलाए, तब भी उसको तक्लीफ़ (पीड़ा) न पहुंचाई जाए।

      साथ ही हुकूमत के बारे में उसका अक़ीदा वही था जो एक भले और नेक बादशाह का होना चाहिए। चुनांचे यूनानी तारीख़ लिखने वाला कीस्याज़ लिखता है। उसका अक़ीदा यह था कि दौलत बादशाहों के ज़ाती ऐश व आराम के लिए नहीं है, बल्कि इसलिए है कि भलाई के कामों में लगाया जाए और मातहतों को उससे फायदा पहुंचे। 

पूरबी मुहिम

      यही तारीख़ का माहिर हीरोडोट्स बयान करता है कि गोरश ने अभी बाबिल को जीता नहीं था कि उसको ईरान में एक अहम लड़ाई पेश आई, क्योंकि दूर मशिरक़ के कुछ वहशी और जंगलों में रहने वाले क़बीलों ने सरकशी और बग़ावत की थी और ये बाख्तर (बकटीरिया) के क़बीले थे और कुछ तारीख़ी हवालों से यह बात खुले तौर पर मिलती है कि जिस जगह को आजकल मकरान कहते हैं, उस जगह के खानाबदोश कबीलों ने यह सरकशी की थी। यह जगह बेशक ईरान के लिए दूर पूरब का हुक्म रखती है, इसलिए कि इसके बाद पहाड़ हैं जिन्होंने आगे बढ़ने के लिए राह रोक दी है।

तीसरी (उत्तरी) मुहिम

      बाबिल की फ़तह के अलावा तारीख़ गोरश की एक और मुहिम का ज़िक्र करती है, जो ईरान से उत्तर की ओर पेश आई। इस मुहिम में वह बहे कास्पियन (ख़ज़र) को दाहिनी तरफ़ छोड़ता हुआ काकेशिया के पहाड़ी सिलसिले तक पहुंचा है। इन्हीं पहाड़ों में उसको एक दर्रा मिला है जो दो पहाड़ों के दर्मियान फ़ाटक की तरह नज़र आता है।

      इस जगह जब वह पहुंचा है तो एक क़ौम ने उससे याजूज व माजूज कबीलों की लूट-मार की शिकायत की कि वे इस दरें में से निकल कर हमलावर होते और तोड़-फोड़ करके हमको तबाह व बर्बाद कर डालते हैं, चुनांचे उसने लोहा और तांबा इस्तेमाल करके इस फ़ाटक को बन्द कर दिया और धातु की एक रोक (दीवार) क़ायम कर दी, जिसकी निशानियां इस वक़्त भी पाई जाती हैं। चुनांचे हीरोडोटस जम्बूफ़न दोनों यूनानी तारीख़दां साफ़ कहते हैं कि गोरश ने लीडिया की जीत के बाद सेथीन कौम के सरहदी हमलों की रोक-थाम के लिए ख़ास इंतेज़ाम किए।

      और यह सच्चाई बहुत जल्द सामने आ जाएगी कि गोरश के ज़माने में याजूज माजूज कबीलों में से यही सेथीन थे जो हमलावर होकर क़रीब की आबादियों को तबाह व बर्बाद करते रहते थे।

बाबिल की जीत

      अब जबकि गोरश या खोरस की जीतें इतनी फैल चुकी थीं कि ईरान के दूर पश्चिम में वह उत्तरी समुन्दर से लेकर काले समुन्दर के आख़री साहिल तक काबिज़ था और मशरिक़े अक़्सा में मकरान के पहाड़ों तक बल्कि दारा के रक़बा हुकूमत की तफ़्सील को मुस्तनद मान लिया जाए तो सिंध नदी तक जीत चुका था और उत्तर में काकेशिया के पहाड़ी सिलसिले तक हुक्मरां या तो उसको इराक की मशहूर और मुतमद्दिन, मगर क़ाहिर व जाबिर हुकूमत बाबिल की तरफ़ मुतवज्जह होना पड़ा, चुनांचे उसकी तफ़्सील भी तारीख़ ही की जुबानी सुनिए –

      ख़ोरस से लगभग पचास साल पहले बाबिल की हुकूमत पर बनू कद नज़्र (बख्त नस्र) नज़र आता है और उसके ज़िम्नी और बुनियादी) अक़ीदों के मुताबिक़ वह न सिर्फ बादशाह था, बल्कि बाबुली बुतों में से सबसे बड़े बुत का मज़हर और देवता भी समझा जाता था और इसलिए उसका हक़ था कि वह जिस हुकूमत को चाहे, अपने ग़ज़ब का शिकार बनाकर उसके बाशिंदों को हौलनाक और सख्त अज़ाब में डाले। उनको हलाक़ करे या ग़ुलाम बनाकर इन वहशियों वाले ज़ुल्म व ज़्यादती को बाक़ी रखे।

      इसलिए इस बादशाह के ज़ुल्म बेपनाह और मुल्कों पर क़ब्ज़ा करने का उसका तरीका यहशियाना था, जैसा कि पिछले पन्नों में बयान हो चुका है। उसने अपनी हुकूमत के दौर में यरूशलम (बैतुल मक्दिस) पर तीन बार हमले किए और फ़लस्तीन को तबाह व बर्बाद करके तमाम बाशिंदों को मवेशियों की तरह हांक कर बाबिल ले गया। एक यहूदी तारीख़ लिखने वाला जो-जेफस कहता है –

      “कोई सख़्त से सख़्त बेरहम क़साई भी इस वहशत व खुंखारी के साथ भेड़ों को मज़बह (ज़िब्ह करने की जगह) में नहीं ले जाता जिस तरह बनू कद नज़्र बनी इसराईल को बाबिल में हांक कर ले गया।”

      बाबुल की हुकूमत आशूरी हुकूमत की तबाही के बाद और भी ज़्यादा मज़बूत और क़ाहिर हुकूमत हो गई थी और उस ज़माने में आस-पास की ताक़तों में किसी को भी यह जुर्रात नहीं थी कि वह इस जाबिर हुकूमत के क़हर व ज़ुल्म की जड़ काट सके, लेकिन बैतुल मक्दिस की जीत के कुछ दिनों बाद बख़्त नस्र मर गया और उसका जानशीं नायूनीदस मुकर्रर हुआ, मगर उसने हुकूमत का तमाम बोझ शाही ख़ानदान के एक आदमी बेल शाज़ार पर डाल दिया।

      यह आदमी अगरचे बहुत अय्याश और ज़ालिम था, मगर बख़्त नस्र  की तरह बहादुर और जरी नहीं था, उसके ज़माने में बनी इसराईल के कैदियों में से हज़रत दानियाल (अलै.) ने अपनी सूझ-बूझ और हिक्मत भरी चालों से बाबुल दरबार को इस तरह क़ब्जे में कर लिया था कि वह हुकूमत के ख़ास मुशीर समझे जाते थे। हज़रत दानियाल (अलै.) ने बेल शाज़ार को बार-बार उसकी ज़ालिम और ऐश भरी ज़िंदगी के खिलाफ़ डांट-फटकार और तंबीह की, मगर उसने कुछ सुनवाई नहीं की, यहां तक कि उन्होंने हुकूमत के मामलों से किनाराकशी इख़्तियार कर ली।

      इधर यह वाक़िया पेश आया कि बाबुल के लोग अर्से से बेल शाज़ार के ज़ुल्मों से छुटकारा पाने की तज्वीज़ सोच रहे थे कि उनके कुछ सरदारों ने यह मशवरा दिया कि क़रीब की ज़बरदस्त ताक़त ईरान से मदद हासिल की जाए और उसके इंसाफ़ पसन्द हुक्मरां से यह अर्ज़ किया जाए कि वह हमको बेल शाज़ार के ज़ुल्मों से निजात दिलाए और उसको यह इत्मीनान दिलाया जाए कि बाबुल के लोग हर तरह उसकी मदद करने को तैयार हैं।

      चुनांचे सन् 54 ई पू. बाबिली सरदारों का एक वफ़्द ख़ोरस के पास उस वक़्त पहुंचा जबकि वह अपनी मशरिक़ी मुहिम में लगा हुआ था। ख़ोरस ने उनका स्वागत किया और उनको इत्मीनान दिलाया कि वह अपनी मुहिम से फ़ारिग होकर ज़रूर बाबुल पर हमला करेगा और उनको बेल शाज़ार जैसे ज़ालिम और अय्याश बादशाह से निजात दिलाएगा। ख़ोरस जब अपनी मुहिम से फ़ारिग़ हो गया तो वायदे के मुताबिक़ उसने बाबुल पर हमला कर दिया।

      तारीख़ इस पर एक राय है कि उस अहद में बाबुल से ज़्यादा ताक़त रखने वाली और किसी के क़ब्ज़े में न आने वाली कोई जगह नहीं थी, इसलिए कि उसकी शहर पनाह इस दर्जा तह दर तह मोटी और मज़बूत थी कि कोई जीतने वाला उसको क़ाबू में करने की जुर्रत नहीं कर सकता था, लेकिन ख़ोरस का इंसाफ़ और रहम के हालात देखकर बाबुल की रियाया ख़ुद इस क़दर उस पर फ़िदा थी कि बाबुल हुकूमत का एक गवर्नर गोबरयास ख़ुद उसके साथ था और हीरोडोटस के क़ौल के मुताबिक उसी ने दरिया में नहर काटकर उसका बहाव दूसरी तरफ़ कर दिया और दरिया की जानिब से फ़ौज शहर में दाखिल हो गयी और ख़ोरस के वहां तक पहुंचने से पहले ही शहर फ़तह हो गया और बेल शाज़ार मारा गया।

ख़ोरस का मज़हब

      ख़ोरस के मज़हब के बारे में तौरात और तारीख़ दोनों एक राय हैं कि जिस तरह उसने ईरान के बटे हुए हिस्सों और छोटी-छोटी रियासतों को एक करके एक बड़ी शहंशाही क़ायम की और जिस तरह वक़्त के जाबिर व क़ाहिर बादशाहों के खिलाफ़ उसने इंसाफ़ और रहमदिली पर अपनी हुकूमत को मज़बूत किया, उसी तरह वह दीन व मज़हब के बारे में भी ईरान के राइज मज़हब के खिलाफ़ दीने हक़ के ताबे था, जैसा कि अज़रा नबी और दानियाल नबी की किताबों (Old Testament अज़रा नबी और दानियाल नबी की किताबों) से अच्छी तरह मालूम होता है, साथ ही दारा के उन कतबों (शिला लेखों) से जो पहाड़ों की चट्टानों पर नक़्श करा दिए गए थे, इसकी ताईद होती है कि दारा और उसके पहले के ख़ोरस का मज़हब ईरान के पुराने मज़हब ‘मोगोश‘ (मजूसी मज़हब) से जुदा और मुखालिफ़ था और यह कि दारा जिस इस्ती को अस्वर मोज़दह कहकर पुकारता है।

      और जो उसकी खूबियां बयान करता है, उससे यह साफ़ मालूम होता है कि वह और उसका पेशरो (पहले का) दीने हक़ पर थे और अरबी का ‘अल्लाह‘, सुरयानी का ‘उलूहेम‘ और इबरानी का ‘एल‘ और ईरान का ‘अस्वर मोजदह‘ एक ही मुकद्दस हस्ती के नाम हैं, क्योंकि दारा कहता है, वही यकता है और बेहमता है और कायनात का पैदा करने वाला है और ख़ैर व शर अकेले उसी के हाथ में है, साथ ही तौहीदे ख़ालिस पर ईमान के साथ-साथ आख़िरत पर ईमान रखता और सीधे रास्ते पर उभारता और गुनाहों से बचने की तालीम ज़ाहिर करता है और ज़ाहिर है कि अक़ीदों की यह तफ़सील मजूसी मज़हब के बिल्कुल ख़िलाफ़ है और इसीलिए दारा मजूसियों पर कामियाबी हासिल करने का अस्बर मूज़दह की मेहरबानी करार देता है।

      रही यह बात कि ख़ोरस और दारा वक़्त के किस मज़हब की पैरवी करने बाले थे तो इसका जवाब थोड़ी-सी तम्हीद के बाद आसानी से दिया जा सकता।

ईरान और ज़रतुश्त मज़हब

      ईरान के पुराने मज़हब की पैरवी करने वाले मोगोश (मजूस) कहे जाते थे लेकिन 550 ई.पू. और 583 ई.पू. के दर्मियान उत्तर पश्चिमी ईरान यानी कफ़क़ाज़ और आज़र बाई जान के उसके क़रीब जो अर्स वादी के नाम से मशहूर है, एक मुलहिम मिनल्लाह हस्ती ज़ाहिर हुई। यह इब्राहीम ज़रदुश्त की शख़्सियत थी। उन्होंने ईरान के मजूसियों में दीने इलाही का एलान किया और रुश्द व हिदायत और दावत व तब्लीग का फ़र्ज़ अंजाम दिया।

      अगरचे ज़रदुश्त से जुड़ी हुई इलहामी किताब अवेस्ता भी कुरआन पाक से पहले की इलहामी किताबों की तरह घट-बढ़ का शिकार हो चुकी है, फिर भी उसमें ऐसे जुम्ले हैं जिनका मतलब सच्ची इलहामी किताबों में मुश्ताक पाया जाता है, यानी शैतानी वस्वसों से पनाह और अल्लाह रहमान व रहीम की मदह व सना आज अरब और यूरोप के तहक़ीक़ करने वाले तारीख़ के माहिर भी बग़ैर किसी झिझक के दलीलों और निशानियों की रोशनी में ही हक़ीक़त का ऐलान करते हैं कि ज़रदुश्त का मज़हब ईरान के पुराने मज़हब से जुदा “दीने हक़” था, जिसमें मज़ाहिरपरस्ती, अस्नामपरस्ती, आतिशपरस्ती सब मना की गई थी और एक अल्लाह की परस्तिश के सिवा किसी की परस्तिश जायज़ न थी।

ज़ुलक़रनैन और कुरआन

      ज़ुलक़रनैन की शख़्सियत के बारे में अगरचे दो अहम बहसें यानी ज़ुलक़रनैन से मुताल्लिक़ तौरात की पेशीनगोइयों और तारीख़ी गवाहियों के बाद अभी एक सबसे अहम मसअला यह बाक़ी है कि क्या वह शख़्सियत जिसके लिए तौरात और तारीख़ से रिवायतें व गवाहियां पेश की गई है, हक़ीक़त में कुरआन में जिक्र किए गए ज़ुलक़रनैन ही की शख्सियत है। तो उसके जवाब से पहले कुरआन की इन आयतों को पेश कर देना ज़रूरी है जो सूरःकहफ़  में इस वाक़िए से मुताल्लिक़ बयान की गई हैं, ताकि बाद में मेल करने से अच्छी तरह वाज़ेह हो सके।

      कुरआन (सूरःकहफ़) में ज़ुलक़रनैन का वाक़िया इस तरह ज़िक्र किया गया है –

      तर्जुमा- ऐ पैग़म्बर! तुमसे ज़ुलक़रनैन का हाल मालूम करते हैं, तुम कह दो – मैंने उसका कुछ हाल तुम्हें (कलामे इलाही में से) में पढ़कर सुना देता हूं। हमने उसे ज़मीन में हुक्मरानी दी थी, साथ ही उसके लिए हर तरह का साज़ व सामान मुहैया करा दिया था, तो देखो) उसने (पहले) एक मुहिम के लिए साज़ व सामान किया (और पश्छिम की ओर निकल खड़ा हुआ) यहां तक कि (चलते-चलते) सूरज के डूबने की जगह पहुंच गया। वहां उसे सूरज ऐसा दिखायी दिया, जैसे स्याह दलदल की झील में डूब जाता है और उसके करीब एक गिरोह को भी आबाद पाया।

      हमने कहा, ऐ ज़ुलक़रनैन! (अब ये लोग तेरे इख़्तियार में है) तू चाहे इन्हें अज़ाब में डाले, चाहे अच्छा सुलूक करके अपना बना ले। ज़ुलक़रनैन ने कहा, हम नाइंसाफ़ी करने वाले नहीं जो सरकशी उसे ज़रूर सज़ा देंगे, फिर उसे अपने परवरदिगार की ओर लौटना है। वह (बदअमलों) को सख़्त अज़ाब में मुब्तिला करेगा और जो ईमान लाएगा और अच्छे काम करेगा तो उसके बदले उसे भलाई मिलेगी और हम उसे ऐसी ही बातों का हुक्म देंगे, जिसमें उसके लिए राहत व आसानी हो। इसके बाद उसने फिर तैयारी की और (पूरब) की तरफ़ निकला, यहां तक कि सूरज निकलने की आख़िरी हद तक पहुंच गया। उसने देखा, सूरज एक गिरोह पर निकलता है जिससे हमने कोई आड़ नहीं रखी है, मामला यूँ ही था और जो कुछ ज़ुलक़रनैन के पास था, इसकी हमें पूरी ख़बर है।

      उसने फिर साज़ व सामान तैयार किया और तीसरी मुहिम में निकला, यहां तक कि (दो पहाड़ों की) दीवारों के दर्मियान पहुंच गया। वहां उसने देखा पहाड़ों के उस तरफ़ एक क़ौम आबाद है, जिससे बात की जाए तो कुछ नहीं समझती। उस क़ौम ने (अपनी ज़ुबान में) कहा, ऐ ज़ुलक़रनैन! याजूज और माजूज इस मुल्क में आकर लूट-मार करते हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि आप हमारे और उनके दर्मियान एक रोक बना दें। इस गरज से हम आपके लिए कुछ ख़िराज मुक़र्रर कर दें। ज़ुलक़रनैन ने कहा, मेरे परवरदिगार ने जो कुछ मेरे क़ब्ज़े में दे रखा है, वही मेरे लिए बेहतर है।

      (तुम्हारे ख़िराज का मुहताज नहीं), मगर तुम अपनी ताक़त से (इस काम में) मेरी मदद करो, मैं तुम्हारे और याजूज माजूज के दर्मियान एक मज़बूत दीवार खड़ी कर दूंगा। (इसके बाद उसने हुक्म दिया) लोहे की सिलें मेरे लिए मुहैया कर दो। फिर जब (तमाम सामान मुहैया हो गया और) दोनों पहाड़ों के दर्मियान दीवार उठाकर उसके बराबर बुलन्द कर दी तो हुक्म दिया, (भट्ठियां सुलगाओ और) उसे धौंको। फिर जब (इस कदर धौंका गया कि) बिल्कुल आग की तरह लाल हो गई, तो कहा, गला दुआ तांबा लाओ, उस पर उंडेल दें, चुनांचे (इसी तरह) एक ऐसी रोक बन गई, न तो (याजूज व माजूज) इस पर चढ़ सकते थे, न उसमें सुरंग लगा सकते थे।

      ज़ुलक़रनैन ने (काम पूरा होने के बाद) कहा, यह जो कुछ हुआ तो (हक़ीक़त में) मेरे परवरदिगार की मेहरबानी है। जब मेरे परवरदिगार की फ़रमाई हुई बात ज़ाहिर होगी तो वह इसे ढा कर रेज़ा-रेज़ा कर देगा और मेरे परवरदिगार की फ़रमाई हुई बात सच है, टलने वाली नहीं और उस दिन हम ऐसा करेंगे कि उनमें से एक क़ौम दूसरी क़ौम पर मौजों की तरह आ पड़ेगी और फूंका फूका जाएगा नरसिंहा (सूर), पस इकट्ठा करेंगे हम उनको। (कहफ़ 18:83-90

      पस ज़ुलक़रनैन के बारे में कुरआन ने किन सच्चाइयों को ज़ाहिर किया है और ख़ोरस से मुताल्लिक़ वाक़िए किस तरह इन हक़ीक़तों के साथ मुताबक़त रखते हैं, नीचे की लाइनों में तरतीबवार पढ़ने के लिए दिए जा रहे–

      1. कुरआन के बयान करने का तरीक़ा बताता है कि उसने ज़ुलक़रनैन का वाक़िया दूसरों के सवाल करने पर बयान किया है और सवाल करने वालों ने उसी लक़ब के साथ उसको याद किया है, कुरआन ने अपनी ओर से लक़ब तजवीज़ नहीं किया।

      नतीजा- सही रिवायतों से यह साबित हो चुका है कि यह सवाल यहूदियों के बार-बार उकसाने पर मक्का के क़ुरैश ने किया था और सवाल में यह बात थी कि ऐसे बादशाह का हाल बताओ जो पूरब-पच्छिम में फिर गया और जिसको तौरेत में सिर्फ एक जगह इस लक़ब से याद किया गया है और तौरेत यह कहती है कि दानियाल के क़ौल में ईरान के एक बादशाह को ऐसे मेंडे की शक्ल में दिखाया गया है, जिसके दो सींग ज़ाहिर थे और हज़रत जिब्रील फ़रिश्ते ने इन दो सींगों वाले मेंढे (ज़ुलक़रनैन) की ताबीर यह दी कि इससे बह बादशाह मुराद है जो फ़ारस और मीडिया दो बादशाहतों का मालिक होगा और यसइयाह नबी की पेशीनगोई और तारीख़ दोनों की इसमें राय एक है कि ईरान का यह बादशाह ख़ोरस था जिसने फ़ारस और मीडिया दोनों को मिलाकर शहंशाही की।

      यहूदियों को इससे इसलिए दिलचस्पी थी कि उनके नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के इलहामों के मुताबिक़ वह उनको नजात दिलाने वाला था, चुनांचे यहूदियों का दिया हुआ यह लक़ब ‘ज़ुलक़रनैन‘ ख़ुद ईरान के शाही ख़ानदान में इस दर्जा मशहूर व मक़बूल हुआ कि उन्होंने ख़ोरस के मरने के बाद उसका मुजस्समा (Statue) बनाया, तो उसमें भी तारीख़ी यादगार के तौर पर दानियाल के ख़्वाब को तस्वीरों के ज़रिए दिखाया।

      चूंकि मसाइयाह नबी के सहीफ़े में एक जगह उनको उक़ाब भी कहा गया है, इसीलिए इस्तख़रके करीब ख़ोरस की जो पत्थर की मूर्ति निकली है, उसको इसी मिले-जुले ख़्याल पर ही बनाया गया है कि उसके सर के दोनों तरफ़ दो सींग हैं और सर पर एक उक़ाब है और ख़ोरस के सिवा दुनिया के किसी बादशाह के बारे में यह कल्पना मौजूद नहीं है।

      पस यह दलील है इस बात की कि यहूदियों को अपने निजात दिलाने वाले ‘अल्लाह के मसीह‘ और ‘अल्लाह के चरवाहे‘ के साथ इस दर्जा दिलचस्पी थी कि उन्होंने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सच होने का मेयार उस बादशाह के वाक़ियों के इल्म को क़रार दिया और उसी को सामने रखकर कुरआन ने उस बादशाह (ख़ोरस) का मुनासिबेहाल ज़िक्र किया –

      2. कुरआन कहता है कि वह बहुत शौकत वाला बादशाह था और अल्लाह ने उसको हुकूमत के हर क्रिस्म के साज़ व सामान से नवाज़ा था।

      ख़ोरस (गोरश) के बारे में तौरात और पुराने व नये तारीख़ी हवालों से यह साबित हो चुका है कि उसने न सिर्फ ईरान की अलग-अलग कबाइली हुकूमतों को ही एक शहंशाही में जोड़ दिया था, बल्कि बाबुल व नैनवा की शानदार हुकूमतों पर भी क़ब्ज़ा करके अपनी जुगराफ़ियाई हैसियत में ऐसे फैले मुल्क का मालिक हो गया था कि अल्लाह तआला ने उसको जिंदगी और हुकूमत के तमाम साज़ व सामान से मालामाल कर दिया।

      3. कुरआन कहता है कि ज़ुलक़रनैन ने ज़िक्र के क़ाबिल तीन मुहिमें पूरी की हैं।

      एतबार के क़ाबिल तारीख़ी गवाहियां साबित करती हैं कि ख़ोरस ने तीन जिक्र के क़ाबिल मुहिमें सर की।

      4. कुरआन कहता है कि ज़ुलक़रनैन ने पहले पच्छिम की ओर एक मुहिम सर की।

      तर्जुमा- ‘पस उसने (एक मुहिम के लिए) साज़ व सामान किया और पच्छिम की ओर निकल खड़ा हुआ, यहां तक कि (चलते-चलते) सूरज के डूबने की जगह पहुंचा, वहां उसे सूरज ऐसा दिखाई दिया जैसे एक स्याह दलदल में डूब जाता है।

      यूनानी तारीख़ लिखने वाला हीरोडोटस और कुछ तारीख़ लिखने वालों के हवाले से यह साबित हो चुका है कि ख़ोरस को सबसे पहली और अहम मुहिम पच्छिम की तरफ़ पेश आई, जबकि लीडिया (एशिया-ए-कोचक) के बादशाह करडीसस के ग़द्दारी भरे तरीके के खिलाफ़ उसको लीडिया पर हमला करना पड़ा। यह जगह ईरान के पच्छिम में वाक़े है और इसकी राजधानी “सारडीस‘ एशिया-ए-कोचके के आखिरी पच्छिमी किनारे से करीब थी।

      हीरोडोनटस के कहने के मुताबिक़ख़ोरस की यह मुहिम ऐसे मोजज़े भरे अन्दाज़ में भी थी कि वह पच्छिम की ओर फ़तह हासिल करता हुआ चौदह दिन के अन्दर ‘एशिया-ए-कोचक‘ के आखिरी साहिल पर जा खड़ा हुआ और सारडेस जैसे मज़बूत शहर को क़ब्ज़े में कर लिया। अब उसके सामने समुन्दर के सिवा और कुछ न था। समरना के करीब बहरे एजिन (Aegean sea) का यही वह साहिल है जो अपने अन्दर बहुत से छोटे-छोटे जज़ीरे रखने की वजह से झील बन गया है और उसका पानी बहुत गन्दा रहता है और शाम के वक़्त जब सूरज डूबता है तो यूँ मालूम होता है, गोया काले दलदल में डूब रहा है।

       5. कुरआन कहता है कि अल्लाह तआला ने वहां की क़ौम पर ज़ुलक़रनैन को ऐसा ग़लबा दे दिया था कि यह जिस तरह चाहे उनके साथ मामला करे, चाहे उनकी बग़ावत के बदले में उनको सज़ा दे और चाहे तो उनके साथ अच्छा व्यवहार करके उनको माफ़ कर दे।

      तारीख़ी हवालों से यह साबित है कि ख़ोरस (के अरश) ने लीडिया को फ़तह करके आम बादशाहों की तरह उसको बर्बाद नहीं किया, बल्कि इंसाफ़पसन्द, नेक और सालेह बादशाह की तरह माफ़ी का ऐलान कर दिया और उनको बे-वतन कर दिया, बल्कि करडेसस की गिरफ्तारी के सिवा यह भी नहीं महसूस होने दिया कि यहां कोई हुकूमत में इंक़िलाब आया है। अलबत्ता करडेसस की जुर्रात के इम्तिहान के लिए एक तो उसको चिता में जलाने का हुक्म दिया, मगर जब वह मरदानावार चिता के अन्दर बैठ गया तो उसको भी माफ़ कर दिया और उसके साथ एजाज़ व इकराम के साथ पेश आया।

      6. कुरआन ने ज़ुलक़रनैन का जो क़ौल नक़ल किया है उससे मालूम होता है कि वह मोमिन भी था और नेक और इंसाफ पसन्द भी। वह कहता है, ज़ुलक़रनैन ने कहा, हम नाइंसाफी करने वाले नहीं है। जो सरकशी करेगा, उसे ज़रूर सज़ा देंगे, फिर उसे अपने परवरदिगार की तरफ लौटना है। वह (बद अमलों को) सख़्त अज़ाब में मुब्तिला करेगा और जो ईमान लाएगा और अच्छे काम करेगा, तो उसके बदले में उसको भलाई मिलेगी और हम उसे ऐसी ही बातों का हुक्म देंगे, जिसमें उसके लिए आसानी और राहत हो। (18:87-88)

      तौरत में ख़ोरस का यरूशलम से मुताल्लिक़ फ़रमान और दारा के कतबे व एलान, ज़िक किए गए तौरात ‘अवेस्ता‘ की अन्दरूनी गवाहियों और तारीख़ी बयानों में से सब गवाहियां इंकार न करने के क़ाबिल की हद तक यह साबित करती हैं कि ख़ोरस और दारा मोमिन थे और वक़्त के सच्चे, दीन के पैरो, बल्कि उसकी तब्लीग़ करने वाले और उसकी ओर बुलाने वाले थे, वे इब्राहीम ज़रदुश्त की इत्तिबा करने वाले, एक ख़ुदा की परस्तिश करने वाले और आख़िरत के क़ायल थे और उनका दीन बनी इसराईल के नबियों की तालीम के एक शाख़की हैसियत रखता था जो दारा के बाद बहुत ही जल्द बदल कर और बिगड़ कर रह गया।

      7. कुरआन कहता है कि ज़ुलक़रनैन ने दूसरी मुहिम पूरब की तरफ़ सर की और वह चलते-चलते जब सूरज निकलने की आख़िरी हद पर पहुंचा तो उसको वहां ख़ानाबदोश कबीलों से वास्ता पड़ा –

      तर्जुमा- इसके बाद उसने फिर तैयारी की और पूरब की तरफ निकला, यहां तक कि मकरान के ख़ानाबदोश कबीलों ने सरकशी की जो कि उसकी राजधानी से पूरब में पहाड़ी इलाके तक आबाद थे और जिनसे मुताल्लिक, मुहिम कीतफ़्सील पिछले पन्नों में बयान की जा चुकी।

      इस जगह यह बात भी ध्यान देने की है कि कुरआन ने ज़ुलक़रनैन की ज़िक्र के क़ाबिल पच्छिमी और पूर्वी मुहिमों के लिए “मग़रिबश्शम्स’ (सूरज डूबने की जगह) और ‘मतलइश शम्स’ (सूरज निकलने की जगह) की ताबीर इख़्तियार की है। इससे कुछ लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो गई कि ज़ुलक़रनैन सारी दुनिया का बिना किसी शरीक के हुक्मरां बन गया था और उसने दुनिया के दोनों तरफ़ के आख़िरी चौथाई इलाक़ों तक क़ब्ज़ा कर लिया था, हालांकि तारीख़ी एतबार से यह किसी भी बादशाह के लिए साबित नहीं है और कुरआन ने इस मक़्सद के लिए ऐसा कहा है, बल्कि इसका साफ़ और खुला मतलब यह है कि ज़ुलक़रनैन अपनी हुकूमत केमर्क़ज़ के लिहाज़ से मग़रिब की इंतिहा और मशरिक़ कीइंतिहा तक पहुंचा है।

      और मग़रिब में वह इस हद तक पहुंच गया कि जहां खुश्की का सिलसिला शुरू होकर समुन्दर शुरू हो जाता है और मशिरक में इस हद तक पहुंचा कि वहां ख़ानाबदोश कबीलों के सिवा कोई शहरी आबादी नहीं थी। यह मतलब इतना साफ़ है कि अगर बे-दलील ग़लतफ़हमी की वजह से ऊपर वाला क़ौल नक़ल न किया गया होता, तो हर आदमी ज़ुबान के मुहावरे के लिहाज़ से यही समझता, जो हमने समझा है। चुनांचे आज भी हम हिन्दुस्तान में रहते हुए दूर पूरब और दूर पच्छिम से ‘बहुत दूर के मुल्क‘ मुराद लेते हैं और इन लफ़्ज़ों को इस बात में बांध नहीं देते कि पूरब और पछिम के वे किनारे मुराद हैं जिनके बाद दुनिया का कोई हिस्सा भी बाक़ी न रहा हो, अलबत्ता दलीलों और क़रीनों के ज़रिए से कभी-कभी ये मानी भी मुराद हो जाते हैं।

      दूर पच्छिम और दूर पूरब के इस लफ़्ज़ को जो कुरआन ने ज़ुलक़रनैन के सिलसिले में बयान किया है, अगर और गहरी नज़र से देखा जाए तो यह मालूम होता है कि ज़ुलक़रनैन (ख़ोरस से मुताल्लिक़) तौरात ने चूंकि यही ताबीर की थी, इसलिए बहुत मुम्किन है, कुरआन ने सवाल करने वालों को उसका वाक़िया सुनाते वक्त इस लफ़्ज़ को इख़्तियार करना पसन्द किया हो। यसइयाह नबी के सहीफ़े में ख़ोरस के हक़ में ठीक यही ताबीर मिलती है और इसी तरह ज़करिया नबी के सहीफ़े में भी।

      ज़ाहिर है कि इन दोनों जगहों पर दुनिया के दोनों तरफ़ आख़िरी कोने मुराद नहीं हैं, बल्कि जिनका ज़िक्र है उनकी हुकूमत या रहने की जगह से मशरिक़ी और मग़रिबी सम्तें दशाएं) मुराद हैं।

      8. कुरआन कहता है कि ज़ुलक़रनैन की ज़िक्र के क़ाबिल तीसरी मुहिम पेश आई और जब वह ऐसी जगह पहुंचा जहां दो पहाड़ों की फांके एक दर्रा बनाती थी, तो वहां उसको एक ऐसी क़ौम से वास्ता पड़ा जो उसकी ज़ुबान और बोली को नहीं जानती थी, उन्होंने ज़ुलक़रनैन पर (किसी तरह) यह साफ़ किया कि इन पहाड़ों के दर्मियान से निकल कर हम को याजूज और माजूज सताते और ज़मीन में फ़साद फैलाते हैं, क्या आप हमारी इतनी मदद करेंगे कि हम से माली टैक्स लेकर उनके और हमारे दर्मियान सीमा-रेखा हो जाए और रोक बन जाए।

      ज़ुलक़रनैन ने कहा, मेरे पास ख़ुदा का दिया सब कुछ है, इसकी मुझे उजरत की ज़रूरत नहीं, अलबत्ता इसके बनाने में मेरी मदद करो। इन लोगों ने ज़ुलक़रनैन के हुक्म से लोहे के टुकड़े जमा किए और उनको ज़ुलक़रनैन ने दोनों पहाड़ों के दर्मियान ‘सद्द‘ बना दी और फिर तांबा पिघला कर उस लोहे की दीवार को मज़बूत किया।

      तारीख़ की न इंकार की जा सकने वाली गवाहियों ने यह साबित कर दिया है कि ख़ोरस को उत्तर की तरफ़ एक अहम मुहिम पेश आई, जिसमें काकेशिया (जबले कोक़ा या क्राफ़ पर्वत) के पहाड़ी सिलसिले में ऐसे दो पहाड़ों के क़रीब एक क़ौम मिली जिनकी फांकों के दर्मियान कुदरती दर्रा था और पहाड़ के दूसरी तरफ़ से सेथेनियन क़बीलों के जंगली और ग़ैर-मुहज़्ज़ब लुटेरे दल के दल आकर उस क़ौम पर हमला करते और लूट-मार करकेदर्रे के रास्ते वापस हो जाया करते थे।

      ख़ोरस जब उस जगह पहुंचा, तो उस आबादी के लोगों ने हमलावर लुटेरों की शिकायत करते हुए उससे पहाड़ों के दर्मियान ‘सद्द‘ (दीवार) बना देने की दरख़्वास्त की। ख़ोरस ने उनकी दरख़्वास्त को मंज़ूर किया और लोहे और तांबे से मिला कर एक सद्द क़ायम कर दी, जिसको वक्त के गाग और मीगाग असभ्य (सेन्थनीन) क़बीले अपनी दरिन्दगी और खुख्वारी के बावजूद न तोड़-फोड़ सके और न उसके ऊपर से उतर कर हमलावर हो सके और इस तरह पहाड़ों के दर्रे की आबादी उनके हमलों से बच गई।

To be continued …