Contents
- मूसा अलैहि सलाम के वाकिये से नसीहतें क्या मिली?
- मुसीबतों में सब्र किया जाए –
- कामयाबी के लिए शर्त –
- मोहब्बते इलाही की ताक़त –
- अल्लाह की मदद –
- ईमानी लज्ज़त के असरात –
- सब्र का फल –
- गुलामी के असरात –
- जमीन की विरासत के लिए शर्ते –
- बातिल की नाकामी –
- ज़ालिम कौमों का अंजाम –
- ताक़त का खुमार और उसका अंजाम –
- सरकशी का अंजाम –
- दीन में इस्तिक़ामत (जमाव) –
- अल्लाह की बरदाश्त –
- इंसानी इल्म की अहमियत –
- ग़ुलामी एक लानत है –
मूसा अलैहि सलाम के वाकिये से नसीहतें क्या मिली?
आईये मुख़्तसर में देखते है के हमे हज़रत मूसा (अ.स.) के वाकिये से नसीहत क्या मिली?
मुसीबतों में सब्र किया जाए –
अगर इंसान को कोई मुसीबत और आज़माइश पेश आ जाए तो उसे यह ज़रूरी है कि सब्र व रज़ा के साथ उसे सहे। अगर ऐसा करेगा तो बेशक उसको बड़ा अज्र हासिल होगा और वह यक़ीनी तौर पर सफल और कामयाब होगा।
कामयाबी के लिए शर्त –
जो आदमी अपने मामलों में अल्लाह पर भरोसा और एतमाद रखता है और उसी को दिल के खुलूस के साथ अपना हासिल समझता है, तो अल्लाह तआला ज़रूर उसकी मुश्किलों को आसान कर देते हैं और उसकी मुसीबतों को नजात और कामयाबी के साथ बदल देते हैं।
मोहब्बते इलाही की ताक़त –
जिसका मामला हक़ के साथ इश्क तक पहुंच जाता है, उसके लिए बातिल की बड़ी से बड़ी ताक़त भी हेच और बे-वजूद होकर रह जाती है।
हर कि पैमां बा ‘हुबल मौजूद बस्त’
गरदिनश अज़ बन्द हर माबूद हरस्त
अल्लाह की मदद –
अगर कोई अल्लाह का बन्दा हक़ की मदद और हिमायत के लिए सरफ़रोशाना खड़ा हो जाता है, तो अल्लाह दुश्मनों और बातिल परस्तों ही में से उसका मददगार पैदा कर देता है।
ईमानी लज्ज़त के असरात –
अगर एक बार भी कोई ईमानी लज्ज़त का लुत्फ़ उठा ले और सच्चे दिल से उसे मान ले, तो यह नशा उसको ऐसा मस्त बना देता है कि उसकी जान के हर रेशे से वही हक़ की आवाज़ निकलने लगती है।
सब्र का फल –
सब्र का फल हमेशा मीठा होता है, भले ही उसके फल हासिल होने में कितनी ही कड़वाहटें सहनी पड़ें, मगर जब भी वह फल लगेगा, मीठा ही होगा।
गुलामी के असरात –
गुलामी और महकूमी की जिंदगी का सबसे बुरा असर यह होता है कि हिम्मत और इरादे की रूह पस्त होकर रह जाती है और इंसान इस नापाक ज़िंदगी के ज़िल्लत भरे अम्न व सुकून को नेमत समझने और हक़ीर रास्तों को सबसे बड़ी अज़्मत सोचने लगता है और जद्दोजहद की ज़िंदगी से परेशान व हैरान नज़र आता है।
जमीन की विरासत के लिए शर्ते –
ज़मीन या मुल्क की विरासत उसी क़ौम का हिस्सा है जो बे-सर व सामानी से बेख़ौफ़ होकर और अज़्म व हिम्मत का सबूत देकर हर किस्म की मुश्किल और रुकावट का मुकाबला करती और ‘सब्र’ और अल्लाह की मदद पर भरोसा करते हुए जद्दोजहद के मैदान में साबित कदम रहती हैं।
बातिल की नाकामी –
बातिल की ताक़त कितनी ही ज़बरदस्त और शान व शौकत से भरी हुई हो, अंजाम यह होगा कि उसे नामुरादी का मुंह देखना पड़ेगा और आख़िरी अंजाम में कामरानी व कामयाबी का सेहरा उन्हीं के लिए होता है जो नेक और हिम्मत वाले हैं।
ज़ालिम कौमों का अंजाम –
यह ‘आदतुल्लाह’ है कि जाबिर व ज्ञालिम कौमें, जिन क़ौमों को ज़लील और हकीर समझती हैं, एक दिन आता है कि वही ज़ईफ़ और कमज़ोर कौमें अल्लाह की ज़मीन की वारिस बनती और हुकूमत व इक़्तिदार की मालिक हो जाती हैं और ज़ालिम क़ौमों का इक़्तिदार ख़ाक में मिल जाता है।
ताक़त का खुमार और उसका अंजाम –
ताकत, हुकूमत और दौलत, सरवत में डूबी जमाअतों का हमेशा से यह शिआर रहा है कि सबसे पहले वही ‘हक़ की दावत’ के मुकाबले में सामने आ खड़ी होती है, मगर कौमों की तारीख यह भी बताती है के हमेशा हक़ के मुकाबले में उनको नाकामी, हार और नामुरादी का मुंह देखना पड़ा है।
सरकशी का अंजाम –
जो हस्ती या जमाअत जानते बूझते और हक़ को हक़ जानते हुए भी सरकशी करे और अल्लाह की दी हुई निशानियों की इंकारी और नाफ़रमान बने तो उसके लिए अल्लाह का क़ानून यह है कि वह उनसे हक़ कुबूल करने की इस्तेदाद फ़ना कर देता है, क्योंकि यह उनकी लगातार सरकशी का कुदरती फल है।
यह बहुत बड़ी गुमराही है कि इंसान को जब हक़ की बदौलत कामयाबी हासिल हो जाए तो अल्लाह के शुक्र की जगह हक के मुख़ालिफ़ों की तरह ग़फ़लत व सरकशी में मुब्तला हो जाए।
दीन में इस्तिक़ामत (जमाव) –
कोई हक़ को कुबूल करे या न करे, हक़ की दावत देने वाले का फ़र्क है कि हक़ की नसीहत करने से बाज़ न रहे।
किसी क़ौम पर ज़ाबिर व ज़ालिम हुक्मरां का मुसल्लत होना, उस हुक्मरां की अल्लाह के नज़दीक मक़बूल होने और सरबुलन्द व सरफ़राज़ होने की दलील नहीं, बल्कि वह अल्लाह का एक अज़ाब है जो महकूम कौम की बद-अमलियों के बदले की शक्ल में ज़ाहिर होता है, मगर महकूम क़ौम की ज़ेहनियत पर जाबिर ताकत का इस क़दर ग़लबा छा जाता है कि वह अपनी परेशानियों को ज़ालिम हुकूमत पर अल्लाह की रहमत समझने लगती है।
अल्लाह की बरदाश्त –
जब कोई क़ौम या कोई जमाअत बदकिरदारी और सरकशी में मुब्तला होती है तो अल्लाह का क़ानून यह है कि उसको फ़ौरन ही पकड़ में नहीं लिया जाता, बल्कि एक तदरीज के साथ मोहलत मिलती रहती है कि अब बाज़ आ जाए, अब समझ जाए और इस्लाह हाल कर ले।
लेकिन जब वह इस्लाह पर तैयार नहीं होती और उनकी सरकशी और बदअमली एक ख़ास हद तक पहुंच जाती है तो फिर अल्लाह की पकड़ व पंजा उनको पकड़ लेता है और वे बे-यार व मददगार फ़ना के घाट उतर जाते हैं।
इंसानी इल्म की अहमियत –
किसी हस्ती के लिए भी, वह नबी या रसूल ही क्यों न हो, यह मुनासिब नहीं कि वह यह दावा करे कि मुझसे बड़ा आलिम कायनात में कोई नहीं, बल्कि उसको अल्लाह के इल्म के सुपुर्द कर देना बेहतर है।
ग़ुलामी एक लानत है –
मिल्लते इस्लामिया की पैरवी करने वालों के लिए ‘ग़ुलामी’ बहुत बड़ी लानत है और अल्लाह का ग़ज़ब है और उस पर क़नाअत कर लेना गोया अल्लाह के अज़ाब और अल्लाह की लानत पर भरोसा कर लेने के बराबर है। फ़ातबिरू या उलिल अब्सार
इंशा अल्लाह उल अजीज! अगले पार्ट में हज़रत हिज़क़ील का ज़िक्र करेंगे।
To be continued …