हज़रत मुहम्मद ﷺ (भाग १४)

फ़ासिक की दी हुई ख़बर

     5 हिजरी में पेश आने वाले ग़ज़वा बनी मुस्तलिक़ में जब मुसलमान जीत गए और सहाबा के मशवरे की बुनियाद पर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़बीले के सरदार की बेटी हज़रत जुवैरिया (रजि) से निकाह कर लिया तो नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ससुराली रिश्ते की वजह से तमाम सहाबा ने लड़ाई के कैदियों को रिहा कर दिया और मुसलमानों के इस अच्छे व्यवहार और ऊंचे अख़्लाक और इस्लामी खूबियों की वजह से मुतास्सिर होकर तमाम क़बीला मुसलमान हो गया, तब नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने वलीद बिन उक़बा को इसलिए उनके पास भेजा कि वे क़बीले के दौलतमंदों से ‘ज़कात‘ वसूल करके उन ही के मुहताजों और ग़रीबों में बांट दें।

     क़बीले वालों को जब वलीद के इस आने का इल्म हुआ तो इज़्ज़तदार हस्ती के आने के इस्तिक़बाल की तरह साज़ व सामान के साथ मैदान में निकले।

     जाहिलियत के ज़माने में इस क़बीले के और वलीद के दर्मियान पुरानी दुश्मनी चली आ रही थी, इसलिए इस्तिक़बाल के इस एहतिमाम को वलीद ने दूसरी नज़र से देखा और समझा और अपनी ग़लत राय पर जमे रह कर क़बीले वालों से मामला किए बगैर ही मदीना वापस आ गए और दरबारे क़ुदसी में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि बनी मुस्तलिक़ तो फिर गए और उन्होंने ज़कात देने से भी इंकार कर दिया और वे तो सरकशी पर भी तैयार हैं।

     नबी अकरम (ﷺ) यह सुनकर बनी मुस्तलिक़ के तरीक़े पर बहुत दुखी हुए और मुसलमान तो बिगड़ गए और जिहाद की तैयारियां होने लगी, ताकि मुर्तद लोगों का मुक़ाबला किया जाए, यहां तक कि वे इस्लाम पर वापस आ जाएं या अपने नतीजे को पहुंचे। इधर जब बनी मुस्तलिक़ को मालूम हुआ कि वलीद ने किसी बेजा ज़रूरत के साथ उनके बारे में नबी (ﷺ) के दरबार में ग़लतबयानी की है, तो वे बेहद परेशान हुए, क्योंकि उनके तो वहम व ख्याल में भी यह नहीं था कि इन जैसे पुख्ताकार और साबितक़दम मुसलमानों पर इस क़िस्म की तोहमत भी लगाई जा सकती है। चुनांचे उन्होंने फ़ौरन खिदमते अक़दस में इज़्ज़तदार वफ्द भेजा, जिसने हाज़िर होकर कुल माजरा कह सुनाया।

     एक तरफ अपने आमिल (वलीद) का वह बयान और दूसरी तरफ ‘हदीसुल अहद’ मुस्लिम जमाअत का यह बयान। इसलिए नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खामोशी अपनाई और अल्लाह की वह्य़ का इंतिज़ार किया।

     आखिर अल्लाह की वह्य़ ने रहनुमाई की और न सिर्फ़ मामले की हक़ीक़त ही खोल दी बल्कि इस सिलसिले में एक मुस्तकिल क़ानून या ‘तहक़ीक़ का मेयार‘ अता फरमा दिया।

     तर्जुमा- “ऐ ईमान वालो! अगर तुम्हारे पास कोई (ग़लतकार) खबर लेकर आए तो जांच कर लिया करों, ऐसा न हो कि नादानी की वजह से किसी क़ौम पर (जिहाद के नाम से) हमलावर हो जाओ और फिर कल को (असल हाल मालूम होने के बाद) अपने किए पर पछताने लगो और जानो कि तुममें अल्लाह का रसूल मौजूद है। अगर वह तुम्हारी बात अकसर मामलों में मान लिया करे तो तुम (अपने ग़लत रवैए की वजह से) मुसीबत में पड़ जाओ, लेकिन अल्लाह ने अपने फज़ल से तुम्हारे लिए ईमान को महबूब बना दिया है और तुम्हारे दिलों में उसको ज़ीनत बख्शी है और तुम्हारे दिलों में कुफ़्र और गुनाह और नाफरमानी के लिए नफरत पैदा कर दी है और (हक़ीक़त में) यही लोग हैं अल्लाह के फज़ल और एहसान की वजह से रास्ता पाने वाले और अल्लाह जानने वाला है, हिक्मतों वाला है।” (49:6-8)

नतीजा 

     1. ख़बरों के बयान करने में आम तौर पर संजीदा और मुह्ज्ज़ब जमात मी इसको ऐब नहीं समझती कि जो खबर भी उनके कानों तक पहुंचे, वे उसको बे-तकल्लुफ़ नक़ल करते रहें और हक़ीक़ते हाल की खोज की तकलीफ क़तई तौर पर गवारा न करें, चाहे इस खबर से किसी न किये गए गुनाह पर झूठ गढ़ा जा रहा हो या किसी शख्स या जमाअत को नुक़सान पहुंच रहा हो, हालांकि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ज़ोरदार लफ्ज़ो में यह तंबीह फ़रमाई है –

     ‘हज़रत अबू हुरैरह (रजि) से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया, इंसान के लिए यह गुनाह काफ़ी है कि हर सुनी बात को नक़ल करता रहे, यानी यह भी गुनाह की बात है कि सुनी-सुनाई बात का प्रोपगंडा. करे।

     2. जब कोई ऐसी ख़बर सुनी जाए जो फायदे या नुक़सान के एतबार से ख़बर देने वाले पर या दूसरों पर असरंदाज़ होती हो, तो पहले उसकी जांच होनी चाहिए और जब पूरी तरह साबित हो जाए तब उससे मुताल्लिक़ नतीजों की तरफ़ तवज्जोह होनी चाहिए।

To be continued …