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खेती का मामला:
कुरआन में इर्शाद है –
तर्जुमा- ‘और दाऊद और सुलैमान (का वाक़िया) जबकि वे एक खेती के मामले का फैसला कर रहे थे, जिसको एक फ़रीक की बकरियों के रेवड़ ने खराब कर डाला था और हम अपने फैसले के वक़्त (अपने फैले हुए इल्म के एतबार से) मौजूद थे, फिर उसके (बहतरीन) फैसले की समझ सुलैमान को अता की और दाऊद व सुलैमान को हमने इल्म व हिक्मत अता किए।’ [अंबिया: 78-79]
इस आयत की तफ़्सीर में जम्हूर तफ़्सीर लिखने वालों ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (र.) और हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (र.) से यह वाक़िया नक़ल किया है कि एक बार हज़रत दाऊद (अलै.) की ख़िदमत में दो आदमी मुक़दमा लेकर हाज़िर हुए। मुद्दई ने दावे की रिपोर्ट यह दी कि मुद्दा अलैहि की बकरियों के गल्ले ने उसकी तमाम खेती तबाह व बर्बाद कर डाली और उसको चर कर रौंद डाला।
हज़रत दाऊद (अलै.) ने अपने इल्म व हिक्मत के पेशेनज़र यह फैसला दिया कि मुद्दई की खेती का नुक्सान चूंकि मुद्दआ अलैहि के रेवड़ की क़ीमत के करीब बराबर है, इसलिए यह पूरा रेवड़ मुद्दई को तावान में दे दिया जाए। हज़रत सुलैमान (अलै.) की उम्र अभी ग्यारह साल थी, वह वालिद साहब के पास बैठे थे, कहने लगे कि अगरचे आपका यह फैसला सही है, मगर इससे भी ज़्यादा मुनासिब शक्ल यह है कि मुद्दआ अलैहि का तमाम रेवड़ मुद्दई के सुपुर्द कर दिया जाए कि वह उसके दूध और उसके ऊन से फ़ायदा उठाए और मुद्दआ अलैहि से कहा जाए कि वह इस दर्मियान में मुद्दई के खेत की ख़िदमत अंजाम दे और खेत की पैदावार अपनी असली हालत पर वापस आ जाए तो खेत मुद्दई के सुपुर्द कर दे और अपना रेवड़ वापस ले ले। हज़रत दाऊद (अलै.) को बेटे का यह फैसला बहुत पसन्द आया।
कुरआन ने भी इस तरफ इशारा किया है कि इस सिलसिले में सुलैमान (अलै.) का फैसला ज़्यादा मुनासिब रहा और इस ख़ास वाक़िए में हज़रत दाऊद (अलै.) की समझ पर हज़रत सुलैमान (अलै.) की समझ भारी पड़ी।
फ़िलह की इस्तिलाह में हज़रत दाऊद (अलै.) के फैसले को क़ियासी कहेंगे और हज़रत सुलैमान (अलै.) के फैसले को इस्तिहसानी मगर इस किस्म की जुज़ई (आंशिक) फ़जीलत के यह मानी नहीं हैं कि कुल मिलाकर फ़जीलत के मामले में हजरत सुलैमान (अलै.) अपने वालिद हज़रत दाऊद (अलै.) पर फ़जीलत रखते थे इसलिए कि अल्लाह तआला ने फ़जीलतों के मज्मूए के एतबार से हज़रत दाऊद (अलै.) की जो तारीफ़ की है वह हज़रत सुलैमान (अलै.) के हिस्से में नहीं आई
दुंबियों का मामला:
कुरआन की सूरः साद में हज़रत दाऊद (अलै.) के मुताल्लिक़ इस तरह जिक्र किया गया है –
तर्जुमा – ‘और क्या तुझको उन दावे वालों की खबर पहुंची है, जब वे दीवार कूद कर इबादतख़ने में घुस आए दाऊद के पास, तो दाऊद उनसे घबराया। वे बोले, घबराओ नहीं। हम दो झगड़ रहे हैं, ज़्यादती की है एक ने दूसरे पर हमारे दर्मियान, इंसाफ़ के मुताबिक़ फैसला कर दे और टालने वाली बात न करना और हमको सीधी राह बता। यह मेरा भाई है, इसके पास 99 दुंबियां हैं और मेरे पास एक दुंबी है। पस यह कहता है कि वह भी मेरे हवाले कर दे और मुझसे बात करने में भी तेज़ है।
दाऊद ने कहा, वह अपनी दुबियों में तेरी एक दुबी को मिलाने के लिए जो सवाल करता है, ज़ुल्म करता है और अक्सर शरीक एक दूसरे पर ज़ुल्म करते हैं, अलावा उसके कि जो ईमान लाए और नेक अमल किए, वे नेक हैं और ऐसे नेक बहुत कम हैं और दाऊद के ख़्याल में गुज़रा कि हमने उसका इम्तिहान लिया, पस फिर मग़फ़िरत चाहने लगा वह अपने रब से और गिर पड़ा झुकाकर और रुजू हुआ (अल्लाह के सामने) फिर हमने उसका वह काम माफ़ कर दिया और उसके लिए हमारे पास (इज़्ज़त का) मर्तबा है और अच्छा ठिकाना।
ऐ दाऊद! हमने तुझको मुल्क में (अपना) नायब मुक़र्रर किया है, सो तू लोगों में इंसाफ के साथ हुकूमत कर और नफ़्स की ख्वाहिश पर न चल कि वह तुझको अल्लाह की राह से फिसला दे। जो लोग अल्लाह की राह से फिसलते हैं, उनके लिए है सख़्त अज़ाब है। [सूरः साद]
इन आयतों में हज़रत दाऊद (अलै.) के एक इम्तिहान का ज़िक्र है जो अल्लाह तआला की तरफ से उनको पेश आया। हज़रत दाऊद (अलै.) ने पहले उसको नहीं समझा मगर यकायक दिल में यह ख़्याल आया कि यह अल्लाह की तरफ से एक आज़माइश है इसलिए फ़ौरन ही अल्लाह के बरगज़ीदा पैग़म्बरों की तरह अल्लाह तआला की ओर रुजू किया और दरगाहे इलाही में उनकी तौबा कुबूल होकर उनकी शान में बड़ाई और अल्लाह से करीब होने की वजह बना।
ऊपर वाली आयत की तफ़्सीर:
मामला तो इस क़दर था जितना बयान हुआ लेकिन कुरआन ने इस आज़माइश की कोई तफ़सील नहीं बयान की। इस सूरतेहाल में कुछ तफ़्सीर लिखने वालों ने इसराईली खुराफ़ात का सहारा लेकर ऐसी तफ़्सीर कर डाली जो किसी तरह कुबूल करने के काबिल नहीं हो सकती। (हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान साहब स्योहारवी उन तमाम तफ्सीरों पर तफ़्सीरी बहस के बाद जिस नतीजे पर पहुंचे, वह नीचे दिया जाता है।) –
हमारे नज़दीक आयतों की बहतरीन तवज्जोह व तफ़्सीर वह है जो नज़्मे कलाम, आयतों के रब्त और आगे-पीछे में मुताबक़त के लिहाज़ से भी सही है और जिसकी बुनियाद हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) के एक ‘असर‘ पर कायम है, जो नीचे दिया जाता है –
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) से नक़ल किया गया है कि हज़रत दाऊद (अलै.) ने कामों की तक़सीम को सामने रखकर अपने मामूलात को चार दिनों पर इस तरह बांट दिया था कि एक दिन ख़ालिस अल्लाह की इबादत के लिए, एक दिन मुक़दमों के फैसले के लिए, एक दिन ख़ालिस ज़ात के लिए, एक दिन बनी इसराईल की रुश्द व हिदायत के लिए आम था।
लेकिन दिनों की तक़सीम की इस तफ्सील में उस हिस्से को ज़्यादा अहमियत हासिल थी जो अल्लाह की इबादत के लिए खास था इसलिए कि यूँ तो हज़रत दाऊद (अलै.) का कोई दिन भी अल्लाह की इबादत से ख़ाली न था पर एक दिन को उन्होंने सिर्फ उसी के लिए ख़ास कर लिया था और उसमें कोई दूसरा काम अंजाम न देते थे। चुनांचे कुरआन मजीद उनकी इस खुसूसियत को ‘इन्नहू अब्बाब’ कहकर नुमायां करता है।
साथ ही कुरआन मजीद और बनी इसराईल की तारीख से साबित है कि हज़रत दाऊद (अलै.) हुजरा बन्द करके इबादत और तस्बीह व तहमीद किया करते थे ताकि कोई ख़लल अन्दाज़ न हो सके, गोया दिनों की तकसीम में सिर्फ़ एक दिन ऐसा था जिसमें हज़रत दाऊद (अलै.) तक किसी का पहुंचना बहुत मुश्किल था और बनी इसराईल से उसका ताल्लुक कट जाता था और बाकी दिनों में अगर कोई ख़ास हंगामी शक्ल पेश आ जाए तो हजरत दाऊद (अलै.) के साथ वास्ता बाक़ी रहता था और वे अपने मामलों को उनकी तरफ़ रुजू कर सकते थे।
इसलिए हज़रत दाऊद (अलै.) के दिनों की यह तकसीम, अगरचे ज़िंदगी के नज़्म और तक्सीमे अमल के लिहाज़ से हर तरह तारीफ़ के क़ाबिल थी, लेकिन उसमें से एक दिन को अल्लाह की इबादत के लिए इस तरह ख़ास कर लेना कि उनका ताल्लुक अल्लाह की मख़लूक से टूट जाए, ‘नुबुवत के मंसब’ और ‘खिलाफ़त के मंसब‘ के ख़िलाफ़ था और हज़रत दाऊद (अलै.) को अल्लाह तआला ने एक गोशा-नशीन इबादतगुज़ार और ज़ाहिद की हैसियत से नहीं नवाज़ा था।
बल्कि उनको नुबूबवत और ख़िलाफ़त बख़्श कर मख़लूक की दीनी व दुन्यावी हर किस्म की खिदमत व हिदायत के लिए भेजा था और इस तरह उनकी मुबारक ज़िंदगी का बड़ा कारनामा ‘ख़ल्क़ की हिदायत‘ और ‘ख़ल्क़ की खिदमत‘ था, न कि ‘इबादत की कसरत’, चुनांचे हज़रत दाऊद (अलै.) की इस रविश को ख़त्म करने के लिए अल्लाह ने उनको इस तरह आज़माइश (फ़ित्ने) में डाल दिया कि दो आदमी जिनके दर्मियान एक ख़ास झगड़ा था, इबादत के ख़ास दिन में हुजरे की दीवार फांद कर अन्दर दाख़िल हो गए।
हज़रत दाऊद (अलै.) ने अचानक आदत के ख़िलाफ़ इस तरह दो इंसान को मौजूद पाया तो बशर होने के तकाज़े के तौर पर घबरा गए। दोनों ने सूरतेहाल का अन्दाज़ा करते हुए अर्ज़ किया कि आप डरें नहीं। हमारे इस तरह अचानक दाखिल होने की वजह यह झगड़ा है और हम इसका फ़ैसला चाहते हैं तब हज़रत दाऊद (अलै.) ने वाक़िए को सुना और ऊपर वाली नसीहत फ़रमाई।
कुरआन ने इस जगह झगड़े के आम पहलुओं को नज़रअन्दाज़ कर दिया क्योंकि वे हर समझदार के दिमाग़ में अपने आप आ जाते हैं कि हज़रत दाऊद (अलै.) का फैसला बेशक हक़ के मुताबिक़ ही रहा होगा और उसने सिर्फ़ उसी पहलू को नुमायां किया, जिसका ताल्लुक़ ‘रुश्द व हिदायत‘ से थाज़ यानी जबरदस्तों का कमज़ोरों के साथ ज़ुल्म करना।
ग़रज़ दोनों फ़रीकों का फैसला करने के बाद हज़रत दाऊद (अलै.) फ़ौरन ख़बरदार हो गए कि मुझको अल्लाह तआला ने इस आज़माइश में किसलिए डाला है और वे हकीक़ते हाल को समझ कर अल्लाह की दरगाह में सज्दे में गिर गए, तौबा की और अल्लाह ने तौबा को कुबूल फ़रमा कर उनके बड़प्पन को कई गुना बढ़ा दिया और फिर यह नसीहत फ़रमाई कि –
‘ऐ दाऊद! हमने तुमको ज़मीन में अपना ख़लीफ़ा बनाकर भेजा है। इसलिए तुम्हारा फ़र्ज़ है कि अल्लाह के नायब होने का पूरा-पूरा हक़ अदा करो और यह ख़्याल रखो कि इस राह में अद्ल व इंसाफ़ बुनियादी बात है और सीधे रास्ते से हटकर कभी इंतिहाओं के रास्ते को इख़्तियार न करो।’
मुबारक उम्र और कफ़न-दफ़न:
हज़रत दाऊद (अलै.) ने एक लम्बी उम्र पाई और एक रिवायत के एतबार से सत्तर साल हुकूमत की। तौरात के मुताबिक़ वह ‘सेहून’ (Sidon) में दफ़न किए गए।
क्या सबक मिला?
1. अल्लाह तआला जब किसी हस्ती को अज़्म वाला बनाता है और उसकी शख़्सियत को ख़ास ख़ूबियों से नवाज़ना चाहता है, तो उसकी फ़ितरी जौहरों को शुरू ही से चमका देता है –
बाला-ए-सरश ज़ होशमन्दी मी
ताफ्त सितारा-ए-बुलन्दी
(सादी रह)
2. कभी-कभी हम एक चीज को मामूली समझ लेते हैं, लेकिन हालात व वाक़ियात बाद में ज़ाहिर करते हैं कि ‘बहुत क़ीमती चीज़’ है।
3. हमेशा ‘ख़लीफ़उल्लाह‘ (अल्लाह के खलीफ़ा) और “तागूती बादशाह के दर्मियान यह फ़र्क नज़र आएगा कि पहले ज़िक्र किए गए लोगों में हर किस्म की शान व शौकत के बावजूद आजिज़ी, इन्कसारी और जन-सेवा की भावना पाई जाएगी और दूसरे किस्म के लोगों में घमंड, ‘मैं ही सब कुछ हूँ की भावना और ज़ुल्म और ज़्यादती का ग़लबा होगा और वह अल्लाह की मख्लूक को अपनी राहत और ऐश का एक आला समझेगा।
4. अल्लाह का कानून है कि जो हस्ती इज़्ज़त और उरूज पर पहुंचने के बाद जिस क़दर अल्लाह का शुक्र और उसके फ़ज़्ल व करम का एतराफ़ करती है, उसी क़दर उसको ज़्यादा से ज़्यादा इनाम व इकराम से और ज़्यादा नवाज़ा जाता है। हज़रत दाऊद (अलै.) की पूरी ज़िंदगी इस पर गवाह है।
5. मज़हब और दीन अगरचे रूहानियत से ज़्यादा ताल्लुक़ रखता है, लेकिन माद्दी ताकत (खिलाफ़त) उसकी बड़ी मददगार है, यानी दीन व मिल्लत, दीनी और दुन्यावी इस्लाह के लिए काफ़ी है और ख़िलाफ़त व ताक़त उसके बताए हुए अद्ल के निज़ाम की हिफ़ाजत करने वाली, चुनांचे हज़रत उस्मान (अलै.) का यह क़ौल बहुत मशहूर है –
‘बेशक अल्लाह तआला साहिबे ताक़त (खलीफ़ा) के ज़रिए बचाव का वह काम लेता है जो कुरआन करीम के ज़रिए अंजाम नहीं पाता।’ (अल-बिदायः वन्निहायः, भाग 1, पृ. 10)
6. अल्लाह तआला ने मुल्क़ व हुकूमत देने के लिए कुरआन मजीद की अलग-अलग आयतों में जो इर्शाद फ़रमाया है, उसका हासिल यह है कि सबसे पहले इंसान को यह यक़ीन पैदा करना चाहिए कि मुल्क व हुकूमत का देना और उसका छिन जाना सिर्फ अल्लाह की कुदरत के हाथ में है, चुनांचे दुनिया के बड़े-बड़े शहंशाहों और बाजबरूत सुल्तानों की तारीख़ इसकी ज़िंदा गवाह है कि –
तर्जुमा– अल्लाह! शाही और जहांदारी के मालिक! तू जिसे चाहे मुल्क बख़्श दे, जिससे चाहे, मुल्क ले ले, जिसे चाहे इज़्ज़त दे दे, जिसे चाहे ज़लील कर दे तेरे ही हाथ में भलाई है बेशक तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। [आले इमरान : 26]
लेकिन उसने इस देने और लेने का एक कानून मुकर्रर कर दिया जिसको ‘अल्लाह की सुन्नत‘ बताना मुनासिब है। कानून यह है कि उम्मतों को हुकूमत व सल्तनत दो तरह हासिल होती है. एक विरासत’ की मारफ़त और दूसरी ‘दुन्यर्वी अस्वाब व वसाइल’ ही पहली सूरत में किसी क़ौम को जब हुकूमत अता होती है तो उसके अर्क और अमल में पूरी तरह विरासते इलाही काम करे, यानी अल्लाह तआला के साथ उसकी अकीदत का रिश्ता भी सही और उस्तवार हो और इंफिरादी और इज्तिमाई आमाल में भी सलाह व खैर के इस दर्जे पर फ़ाइज होकर क़ुरआन के लफ़्ज़ों में उसको ‘सालिहीन‘ में गिना जा सके।
यह कौम बेशक इसकी हक़दार है कि वह अल्लाह के इस इनाम नवाजी जाए, जिसका नाम ‘खिलाफते इलाहीया’ है और जो हकीकत दुनिया में अल्लाह की नियाबत (नायाब होना) का मज़हर और नबियो और रसूलों की पाक विरासत है। अल्लाह का वायदा है कि जो क़ौम भी अक़ीदा व अमल में नबियों और रसूलों की विरासत से फ़ैज़ हासिल कर रही है, व जमीनी विरासत की भी मालिक होगी और अगर दुनिया के अस्वाब में वसीलों के पहाड़ भी उसके दर्मियान रोक बनेंगे, तो इनसे सबको जेर व ज़ब्र करके अल्लाह तआला वायदा ज़रूर पूरा करेगा, चुनांचे इर्शाद है –
तर्जुमा-‘और हमने बेशक ज़बूर में नसीहत के बाद यह लिख दिया कि अल्लाह की ज़मीन के वारिस मेरे नेक बन्दे होंगे। (अल-अंबिया : 105)
तर्जुमा- ‘बेशक जमीन अल्लाह ही की मिल्कियत है, वह अपने बन्दो’ से जिसको चाहता है वारिस बना देता है।’ (अल-आराफ़ : 128)
इन आयतों में उसकी मशीयत का यही फैसला है कि ज़मीन की विरासत उन्हीं को नसीब होती है जो उसके सालेह बन्दे हैं और अगर किसी क़ौम या उम्मत में यह सलाहियत मौजूद नहीं है तो वह चाहे इस्लाम की दावदार क्यों न हो तो उसको ज़मीनी विरासत नसीब नहीं हो सकती और ख़िलाफ़ते इलाहीया’ उसका एक नहीं बन सकती है और न उस क़ौम की इज़्ज़त व कर दे तेरे ही हाथ में भलाई है बेशक तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। [आले इमरान : 26]
लेकिन उसने इस देने और लेने का एक कानून मुकर्रर कर दिया जिसको ‘अल्लाह की सुन्नत’ बताना मुनासिब है। कानून यह है कि उम्मतों को हुकूमत व सल्तनत दो तरह हासिल होती है- एक विरासत’ की मारफ़त और दूसरी ‘दुन्यावी अस्बाब व वसाइल’ ही पहली सूरत में किसी क़ौम को जब हुकूमत अता होती है तो उसके अकीदे और अमल में पूरी तरह विरासते इलाही काम करे यानी अल्लाह तआला के साथ उसकी अकीदत का रिश्ता भी सही और उस्तवार हो और इंफिरादी और इज्तिमाई आमाल में भी सलाह व खैर के इस दर्जे पर फ़ाइज होकर क़ुरआन के लफ़्ज़ों में उसको ‘सालिहीन’ में गिना जा सके।
यह कौम बेशक इसकी हक़दार है कि वह अल्लाह के इस इनाम से नवाजी जाए जिसका नाम ‘खिलाफते इलाहीया’ है और जो हकीकत में दुनिया में अल्लाह की नियाबत (नायाब होना) का मज़हर और नबियो और रसूलों की पाक विरासत है। अल्लाह का वायदा है कि जो क़ौम भी अक़ीदा व अमल में नबियों और रसूलों की विरासत से फ़ैज़ हासिल कर रही है व ज़मीनी विरासत की भी मालिक होगी और अगर दुनिया के अस्बाब में वसीलों के पहाड़ भी उसके दर्मियान रोक बनेंगे तो इनसे सबको ज़ेर व ज़ब्र करके अल्लाह तआला वायदा ज़रूर पूरा करेगा, चुनांचे इर्शाद है-
तर्जुमा-‘और हमने बेशक ज़बूर में नसीहत के बाद यह लिख दिया कि अल्लाह की ज़मीन के वारिस मेरे नेक बन्दे होंगे। (अल-अंबिया : 105)
तर्जुमा- ‘बेशक जमीन अल्लाह ही की मिल्कियत है, वह अपने बन्दो’ से जिसको चाहता है वारिस बना देता है।’ (अल-आराफ़ : 128)
इन आयतों में उसकी मशीयत का यही फैसला है कि ज़मीन की विरासत उन्हीं को नसीब होती है जो उसके सालेह बन्दे हैं और अगर किसी क़ौम या उम्मत में यह सलाहियत मौजूद नहीं है तो वह चाहे इस्लाम की दावदार क्यों न हो तो उसको ज़मीनी विरासत नसीब नहीं हो सकती और ‘ख़िलाफ़ते इलाहीया’ उसका एक नहीं बन सकती है और न उस क़ौम की इज़्ज़त व अज़मत के लिए अल्लाह के पास कोई वायदा है।
अलबत्ता अल्लाह की मशीयत अपनी हिक्मत व मस्लहत के पेशेनजर कायनात के नज्म व इन्तिज़ाम के लिए जिसको चाहती है हुकूमत अता कर देती है और जिससे चाहती है छीन लेती है। इस देने-लेने में उसका कानून इसी तरह काम करता रहता है। इस देने और छीन लेने में इतनी अलग-अलग और अनगिनत मस्लहते होती हैं कि इंसान उनकी हकीकत तक पहुंचने से आजिज़ है।
सबक़ हासिल करने की जगह यह होती है कि ताज व तख़्त के मालिक को इसलिए हुकूमत नहीं दी जाती कि अल्लाह उससे खुश है बल्कि इसलिए दी जाती है कि ज़मीन के हक़ीकी वारिसों ने अपनी बदकिरदारियों की वजह से विरासत के हकों को अपने हाथों से खो दिया और अब कायनात की आम मस्लहतों को सामने रखकर हुकूमत के लिए न मुस्लिम की शर्त है न काफ़िर व मुशरिक की।
तर्जुमा – ‘और अल्लाह जिसे चाहता है, अपना मुल्क बख्श देता है। (अल-बकर : 247)
अगर मुसलमान इबरत की आंखें खोलें और अपनी गन्दी जिंदगी में क्रान्ति पैदा करके ‘सालिहीन’ बन जाएं तो अल्लाह का वायदा भी उनको बशारत देने के लिए आगे बढ़ता है।
तर्जुमा- ‘वायदा कर लिया अल्लाह ने उन लोगों से जो तुममें ईमान वाले हैं और किए हैं उन्होंने नेक काम, अलबत्ता बाद में हाकिम कर देगा उनको मुल्क में जैसा हाकिम किया था उनके अगलों को और जमा देगा उनके लिए दीन जो पसन्द कर लिया उनके वास्ते और देगा उनको उनके ख़ौफ़ के बदले। (अन-नूर 55)
एक अहम नुक्ता
इसमें कोई शुबहा नहीं कि अल्लाह की इबादत और अल्लाह की तस्बीह (सुब्हानल्लाह कहना) और तहलील (ला इला-ह इल्लल्लाह कहना) एक मुसलमान की जिंदगी का मक़सद है फिर भी अल्लाह ने जिन हस्तियों को अपनी मख्लूक़ की रुश्द व हिदायत और खिदमते-खल्क़ के लिए चुन लिया है उनके लिए “कसरते इबादत‘ (ज़्यादा से ज़्यादा इबादत) के मुक़ाबले में ‘अदाएनी फ़र्ज़ में इन्हिमाक (फ़र्ज़ अदा करने में लगा रहना) अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा महबूब और पसन्दीदा अमल है।
बिलाशुबह एक सूफ़ी और रियाज़ करने वाला आबिद व ज़ाहिद, गोशा गीर और खलवतीनशीं होकर इबादतों में लगा रहता है। ‘विलायत मनसब के दर्जो को उतना ही हासिल करता है, नबूवत के मसब और ख़िलाफ़त’ के मसब के ख़िलाफ़ कि अल्लाह तआला की ओर से उसको दिए जाने की ग़रज़ और मक़सद मख्लूक़ की रुशद व हिदायत और उनकी ख़िदमत और सेवा है। इसलिए उसका कमाल मख्लूक़ के साथ रिश्ता व ताल्लुक कायम करके अल्लाह के हुक्मों को सरबुलन्द करना है, न कि ख़लवत में बैठकर सूफी’ बनना।।
मस्लहत दर दीने ईसा गार व कोह।
मस्लहत दर दीने मा जंग व शिकोह।
इसराईली पैग़म्बरों के हालात से मुताल्लिक एक अहम वज़ाहत
(हज़रत मौलाना हिफजुर्रहमान स्युहारवी रह० ने हज़रत सुलैमान (अलै.) से मुतालिक वाकियों को तफ़्सीली तौर पर बयान करने के बाद एक अहम नुक्ता लिखा है। इस नुक्ते को शुरू ही में बयान कर दिया जाए तो खुलासा लिखने की सूरत वाज़ेह हो जाएगी-लेखक)
नबी अकरम (ﷺ) ने एक जगह सिर्फ़ यह इर्शाद फ़रमाया है कि –
अहले किताब की जो रिवायतें कुरान और इस्लाम की तालीम के खिलाफ न हों उनको नक़ल करना सही है। लेकिन हमने इस मुबारक इर्शाद की बुनियादी शर्त कि वह कुरआन और इस्लाम की बुनियादी तालीम के खिलाफ़ न हो को नज़रअंदाज़ करके हर किस्म की इसराईली रिवायतों को न सिर्फ़ नक़ल किया बल्कि कुरआन की तफसीर व तौजीह के लिए उनको दलील बना लिया और जगह-जगह कुरआन की तावील व तफ्सीर में उनको पेश करना शुरू कर दिया। इसके नतीजे अच्छे न हुए।
इस्लाम की तालीम के ख़िलाफ़ इसराईली रिवायतों को इस्लामियात, खास तौर से तासीरे कुरआन में जगह देना ग़लत और सख़्त मुह्लिक कदम है। सही और साफ़ राह (सीधा रास्ता) सिर्फ़ वह है जो तहकीक करने वाले उलेमा ने अपनाया है कि वह एक तरफ़ कुरआन व हदीस की नस्स पर अपना ईमान व यकीन रखते और उनमें इलहाद भरी तावीलों को तहरीफ़ समझते हैं और दूसरी तरफ़ कुरआन व हदीस के दामन को इसराईली रिवायतों से पाक साबित करके हक़ीक़त की रोशनी को सामने लाते हैं।’
To be continued …