अस्हाबुर्रस्स

अस्हाबुर्रस्स

(लगभग 630 क़ब्ल मसीह या नामालूम मुद्दत)

रस्स

      डिक्शनरी में ‘रस्स‘ के मानी पुराने कुएं के हैं, इसलिए ‘असहाबुर्रस्स‘ के मानी हुए कुएं वाले। कुरआन ने इस निस्बत के साथ एक क़ौम की नाफरमानी और सरकशी के बदले में उसकी हलाकत व बर्बादी का ज़िक्र किया है। 

कुरआन और अहाबुर्रस्स

      कुरआन ने सूरःफ़ुरक़ान और सूरःकाफ़ में इनका ज़िक्र किया है और जिन कौमों ने नबियों  के झुठलाने और उनकी खिल्ली उड़ाने की वजह से हलाकत व तबाही मोल ली, उनकी लिस्ट में उनका नाम सिर्फ बयान कर दिया है और हलात व वाक़िए से कोई छेड़ नहीं की।

      तर्जुमा- और आद, समूद और असहाबुर्रस्स को और उनके दर्मियानी ज़माने की बहुत-सी (क़ौमो) को (हमने हलाक कर दिया) और हमने हर एक के वास्ते मिसालें बयान की और हमने इन सबको हलाक़ कर दिया।’ (25:38-39)

       तर्जुमा-‘इनसे पहले भी नूह की क़ौम ने और कुएं वालों ने और समूद, आद, फ़िरऔन, ‘बिरादराने लूत‘ ‘अस्हाबे कहफ़‘ ‘तुब्बा‘ की कौम को झुठलाया। इनमें से हर एक ने रसूलों को झुठलाया, पस उन पर लाज़िम हुआ। 

अस्हाबुर्रस्स

      इनको अस्हाबुर्रस्स क्यों कहते हैं? इसके जवाब में तफ़्सीर लिखने वाले उलेमा के क़ौल इतने अलग-अलग हैं कि सही हक़ीक़त खुलने के बजाए ही ज़्यादा छुप गई हैं। इन कौलों में से एक तहक़ीक़ मिस्र के आज के मशहूर आलिम फ़रजुल्लाह ज़र्क़ी कुर्दी की है। वह कहते हैं कि लफ़्ज़ ‘रस्स’ अरस का छोटा रूप है और यह उस मशहूर शहर के नाम है जो क़फ़क़ाज़ के इलाके में वाक़े है। अल्लामा ज़की के इस क़ौल की ताईद इब्ने कसीर के उस बयान से होती है कि कुछ तफ्सीर लिखने वाले कहते हैं कि आज़रबाइजान में एक पुराना कुंबा ‘रस्स’ था। इस घाटी में रहने वाले इसी वजह से ‘अस्हाबुर्रस्स (रस्स वाले) कहलाते थे।

सही बात

      इस मसले में कुरआन का ज़ाहिर यह साबित करता है कि यह वाक़िया यक़ीनन हज़रत मसीह (अलै.) से पहले ही गुज़रा है। अब रही यह बात कि यह हज़रत मूसा (अलै.) और हज़रत ईसा (अलै.) के दर्मियान के ज़माने की किसी क़ौम का जिक्र है या किसी पुरानी क़ौम का तो कुरआन ने इसे छेड़ा नहीं और ऊपर दी गई तफ़्सीरी रिवायतों से इसका क़तई फैसला नामुम्किन है, अलबत्ता मेरा ज़हन आख़िरी क़ौल (ऊपर ज़िक्र किए गए) को तर्जीह देता है।

      बहरहाल, कुरआन का जो मक्सद सबक़ और नसीहत है, वह अपनी जगह साफ़ और वाज़ेह है और ये तारीखी बहसें और तय की गई चीजें इसको रोक नहीं रही हैं, बल्कि एक सबक लेने वाली निगाह के लिए यह काफ़ी व शाफ़ी है कि जो क़ौमें इस दुनिया में अल्लाह के पैग़ामे हक़ को ठुकराती और उसके खिलाफ़ बग़ावत और सरकशी का झंडा ऊपर किए रहती हैं और बराबर मोहलत और ढील देने के बावजूद वे अपने घमंड और फ़साद भरी जिंदगी को छोड़ कर के भली और पाक जिंदगी बसर करने के लिए तैयार नहीं होती, तो फिर उन पर अल्लाह तआला की कड़ी पकड़ ‘बत्शे शदीद‘ आ जाती है और बे-यार व मददगार हलाक्यू व बर्बाद कर दी जाती हैं। 

सबक़ और नसीहत

      1. इंसानी कायनात के पास जिस वक्त से अपनी तारीख का भंडार मौजूद है. वह इस हक़ीक़त को खूब अच्छी तरह जानती है कि दुनिया की जिस क़ौम ने भी अल्लाह के पैगामे हक़ को मज़ाक़ उड़ाने का मामला किया और अल्लाह के पैग़म्बरों और हादियों के साथ सरकशी और शरारत को जायज़ रखा, उनकी ज़बरदस्त ताक़त व शौकत और शानदार तमद्दुन के बावजूद कुदरत के हाथों ने हलाक़ व बर्बाद करके उनका नाम व निशान तक मिटा दिया और आसमानी या ज़मीनी सबक़ भरे हुए अज़ाब ने दुनिया से मिटाकर रख दिया, मगर यह अजीब बात है कि अपने पहलों के दर्दनाक अंजाम को देखने और सुनने के बाद भी उनकी वारिस कौमों ने तारीख़ को दोहराया और उसी किस्म की हरकतों को इख़्तियार किया,जिनके अंजाम में उनके अगलों को बुरे दिन देखने पड़े थे। ‘इन-न हाज़ा  ल शैउन अजीब’

2. अगर इंसान इस ज़िंदगी में इन दो सच्चाइयों को जान-समझ ले, तो हमेशा बाली ज़िंदगी में भी नाकाम नहीं रह सकता और ज़िंदगी के यही वे राज़ हैं जिन पर चलकर क़ौमें ‘अस्हाबुलजन्नः‘ कहलाईं और इनसे ग़ाफ़िल रहकर ‘असहाबुन्नार‘ कहलाने की हक़दार हुई।

To be continued …