क़रिया वाले या अस्हाबे यासीन

क़रिया वाले या अस्हाबे यासीन

क़रिया वाले और कुरआन

      कुरआन में एक बहुत ही मुख़्तसर वाकिया सूरः यासीन में ज़िक्र किया। गया है, इसको सूरः की निस्बत से ‘अस्हाबे यासीन का वाकिया’ और आयतों के बयान के तरीके के मुताबिक़ ‘अस्हाबे करिया का वाकिया’ कहते हैं। अस्हाबे करिया अगरचे मुशरिक व बुतपरस्त थे मगर उनके यहां ‘रहमान‘ का विचार पाया जाता था। क्या अजब है कि आयत के मुताबिक़ ‘कोई कौम ऐसी नहीं जहां हमारा डराने वाला न पहुंचा हो- वे इस दावत से पहले अर्से तक किसी सच्चे पैग़म्बर की पैरवी करने वाले रहे हों और धीरे-धीरे एक ज़माने के बाद शिर्क में पड़ गए हों। कुरआन पाक में यह वाकिया इस तरह ज़िक्र किया गया है

      तर्जुमा- ‘(ऐ पैग़म्बर!) इन (मक्के के मुश्रिकों से) बस्ती वालों का वाकिया बयान करो कि जब उनके पास अल्लाह के रसूल आए, जब यह शक्ल बनी कि हम ने एक तो उनके पास दो भेजे थे, तो उन्होंने उनको जब हमने उन दोनों को तीसरे के ज़रिये से ताकत व इज़्ज़त अता की इन तीनों ने बस्ती वालों से कहा, हम यकीन दिलाते हैं कि हमको अल्लाह तुम्हारे पास भेजा है। बस्ती वालों ने कहा, इस बात के अलावा कि तुम भी हमारी तरह एक इंसान हो, कौन-सी ऐसी खूबी है कि तुम अल्लाह के रसूल हो और रहमान ने तुम पर कुछ भी नाज़िल भी नहीं किया, इसलिए तुम साफ झूठे हो।

      उन तीनों ने कहा, हमारा परवरदिगार खूब जानता है कि हम यकीनी तौर पर अल्लाह के भेजे हुए हैं और हमारे ज़िम्मे सिर्फ वाज़ेह और साफ़ तौर पर अल्लाह का पैगाम पहुंचा देना है। (ज़बरदस्ती कुबूल करा देना हमारा काम नहीं है।) बस्ती वाले कहने लगे हम तो तुमको मनहूस समझते हैं पर अगर तुम इस (तब्लीग) से बाज़ न आए तो हम तुमको पत्थर मार-मार कर हलाक़ कर देंगे और सख़्त क़िस्म का अज़ाब चखाएंगे।

      उन्होंने कहा- तुम्हारी नहूसत तो खुद तुम्हारे साथ लगी हुई है कि तुमको जब नसीहत की जाती है तो उसको नहूसत कहते हो, बल्कि तुम तो हद से गुज़र रहे हो और शहर के आखिरी किनारे से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और उससे कहा, ‘ऐ क़ौम ! तुम अल्लाह के रसूलों की पैरवी करो उनकी पैरवी करो, जो तुमसे अपनी नेक हिदायत पर कोई बदला तलब नहीं करते और मुझे क्या बात रोक बनी हुई है कि मैं सिर्फ अपने पैदा करने वाली की ही परस्तिश न करूं। उसकी परस्तिश, जिसकी तरफ हम तुमको लौट जाना है।

      क्या मैं उस ज़ात के सिवा बातिल माबूदों को अल्लाह बना लूं कि अगर रहमान मुझको कोई नुकसान पहुंचाना चाहे तो इन बातिल माबूदों की न कोई सिफ़ारिश चल सके और न वे उस नुक्सान से बचा सकें। मैं अगर ऐसा करूं तो खुला गुमराह हूं। बेशक मैं तो अपने और तुम्हारे परवरदिगार पर ईमान ले आया। तुम खूब कान लगाकर सुन लो। तब उसको हमारी ओर से कहा गया, जन्नत में किसी खतरे के बगैर दाखिल हो जा। हमने कहा, काश कि मेरी क़ौम जान लेती कि मेरे परवरदिगार ने मुझे मग़फ़िरत का कैसा अच्छा तोहफा दिया और मुझको उन लोगों में शामिल कर लिया जिनको उसने एजाज़ व इकराम से नवाज़ा है और हमने उसकी मौत के बाद उसकी क़ौम पर आसमान से कोई लश्कर सज़ा देने के लिए नहीं उतारा और हमको ऐसा करने की कतई तौर पर कोई ज़रूरत नहीं थी, (उनकी सज़ा के लिए) और कुछ नहीं था। मगर एक हौलनाक चीख, पस वे वहीं बुझ कर रह गए, (यानी हलाक हो गए) (36 : 18-29)

      तफ्सीर और सीरत लिखने वाले इस वाकिए के ज़माने और तफ़्सील में इस दर्जा शक में पड़ गए हैं और बेचैन हैं कि उनके बयानों और रिवायतों से वाकिए का तय करना नामुम्किन हो जाता है। इसलिए हम यही कह सकते हैं कि कुरआन ने अपने अज़ीम मक़सद भली नसीहत को नज़र में रखकर जिस क़दर बयान किया है, वह एक देखने-समझने वाले के लिए काफ़ी है। अल्लाह की इस सरज़मीन पर हक़ व बातिल के जहां बहुत से वाकिए हो गुज़रे हैं और इस बूढ़े आसमान ने इस सिलसिले में जितने पन्ने भी उलटे हैं उनमें एक यह वाक़िया भी इसी आसमान के नीचे और इसी ज़मीन के ऊपर हो गुज़रा है।

      बस्ती, नेक मर्द और मुक़द्दस रसूलों के नाम मालूम हुए, तब और न हुए, तब नफ़्से वाकिया पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि तारीख़ के जिन पन्नों ने हज़रत नूह (अलै.) और क़ौमे नूह, हज़रत हूद (अलै.) और आद, हज़रत सालेह (अलै.) और समूद, हज़रत इब्राहीम (अलै.), हज़रत लूत (अलै.) और कौम लूत, हज़रत मूसा (अलै.) और फ़िरऔन, हज़रत ईसा (अलै.) और बनी इसराईल के हक़ व बातिल के मारकों के तफ़्सीली हालात और वाकियों को अपने सीने में आज तक महफूज़ कर रखा है, उसमें अगर इस वाकिए का भी इज़ाफ़ा हो जाए, जिसका मुख्तसर व मुज्मल ज़िक्र कुरआन ने किया है तो कौन-सी हैरत की बात और ताज्जुब का मक़ाम है। 

      वाकिए का हासिल यही तो है कि कुछ मुक़द्दस पैग़म्बरों ने एक गुमराह मख्लूक को सीधा रास्ता दिखाने की कोशिश की और उसने दुश्मनी और गुमराही को बुनियाद बनाकर उनकी बात मानने से इंकार कर दिया, यहां तक कि ख़ुदा के पहुंचे हुए इन हादियों को क़त्ल कर देने से भी बाज़ न रहे, तो इस किस्म के वाकियों को तारीख़ ने सिर्फ बनी इसराईल ही में इतनी बार दोहराया है कि कौमों और मिल्लतों की तारीख़ की जानकारी रखने वाला एक लम्हे के लिए भी उसके बारे में तरद्दुद नहीं कर सकता।

वाक़िये से मुताल्लिक़ बातें

      इब्ने इस्हाक़, काब अहबार वह्य बिन मुनब्बह के वास्ते से अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) से नकल करते हैं कि यह वाकिया शहर अन्ताकिया (शाम) का है। इस शहर के लोग बुतपरस्त थे और उनके बादशाह का नाम इंतखीस बिन इन्तखीस था। अल्लाह ने उनकी हिदायत के लिए तीन पैग़म्बरों हज़रत सादिक (अलै.), हज़रत  मस्दूक (अलै.) और हज़रत शलूम (अलै.) को भेजा और शहर के आखिरी सिरे से जो नेक मर्द उनकी ताईद के लिए आया, उसका नाम हबीब था।

      फिर कोई कहता है कि यह आबिद, ज़ाहिद और मुर्तज़ा था और शहर के किनारे इबादत में लगा रहता था और किसी का क़ौल है कि वह रेशमी और सूती कपड़ा बुनने का काम करता था और सदक़ात व खैरात करने वाला था। ग़रज़ उनके नज़दीक यह वाक़िया हज़रत ईसा (अलै.) के ज़माने का है और शहर अन्ताकिया ही का वाकिया है। वाक़िये की दूसरी छोटी-छोटी बातों की तफ़्सील कुछ भी हो, वह इसके बड़े मक़सद को पूरा करता है और सोचने-समझने वालों को सबक लेने की दावत देता है।

हासिल

      1. बातिल वालों का हमेशा से यही अक़ीदा रहा है कि अल्लाह का पैग़म्बर इंसान नहीं होना चाहिए, बल्कि किसी ‘फ़ितरत से ऊपर की हस्ती‘ को अल्लाह का रसूल होना चाहिए। इस अक़ीदे की बुनियाद ही बेवकूफ़ी पर टिकी है, इसलिए कि जब दुनिया में इंसान बस रहे हैं तो फिर उनकी हिदायत के लिए भी रसूल और पैग़म्बर इंसान ही होना चाहिए, न कि फ़रिश्ता।

      2. जहां बुराई, खराबी, बिगाड़ और गुमराही के कीड़े ज़्यादा से ज़्यादा पाए जाते हैं, वहां भलाई और अच्छाई की भी कोई रूह निकल आती है और वह कलिमा-ए-हक़ की ताईद में जान की बाज़ी लगा देती है।

      3. हक़ ज्यों-ज्यों अपनी सच्चाई को उजागर करता जाता है, बातिल उतना ही इश्तिआल में आता जाता है और दलीलों की जगह लड़ने-झगड़ने पर तैयार हो जाता है, मगर हक़ के परस्तार इसकी परवाह न करते हुए हक़ पर जान कुर्बान कर देते हैं। ‘खुदा रहमत कुनद ई आशिकाने पाक तीनत रा०’

To be continued …