Contents
अहम लड़ाइयां और नतीजे और नसीहतें
ग़ज़वा बदरुल-कुबस (जंगे बद्र)
1. जीत-हार की बुनियाद तायदाद की कमी-ज़्यादती नहीं है, बल्कि सिर्फ़ उसके फज़ल व करम पर है।
2. जो जमाअत फ़र्ज़ के एहसास के साथ अद्ल व इंसाफ़ के लिए मैदान में निकलती है, वह कभी नाकाम नहीं होती और खुदा की मदद का पैग़ाम उसी को नसीब होता है।
3. बशरी तकाज़े के पेशेनजर अपनी जान से ख़ौफ़ व हरास मलामत के क़ाबिल नहीं है और अल्लाह ज़रूर उससे जमाव देता है।
4. सब्र तल्ख अस्त वले बर शीरीं दारद –
आज भी हो जो इब्राहीम का ईमां पैदा
आग कर सकती अंदाज़े गुलिस्तां पैदा
उहुद की लड़ाई
1. जिहाद मुख्लिस व मुनाफ़िक़ की मारफ़त के लिए बेनज़ीर कसौटी है।
2. अमीर, ख़लीफ़ा और उसके नायबों का फ़र्ज़ है कि अहम मामलों में मुसलमानों से मश्विरा कर लें और सब एक राय होकर या अक्सरीयत से जो फैसला हो, उसी को अपना अज़म बनाएं।
3. तमाम मामलों में आमतौर से और जिहाद व मैदान में खासतौर से ज़ब्त व नज़म अहम है। अगर किसी जमाअत में यह न हो तो सच्ची जमाअत का कामयाब होना मुश्किल है।
4. जिहाद के मैदान में मुनाफ़िक़ और कमज़ोर अंगों का जुदा रहना ही फ़ायदे और कामयाबी के लिए बहुत ज़रूरी है।
अहज़ाब की लड़ाई
1. यह भाईचारा और बराबरी का एक शानदार और बेमिसाल इल्मी व अमली नक्शा है।
2. हर ज़माने में वक़्त की तरक्की वाले दुनिया के साधनों को हक़ के मामले की हिमायत के लिए इख़्तियार करना और अपनाना इस्लाम से हटना नहीं, बल्कि बेहतरीन इस्लामी ख़िदमत है, बशर्ते कि वे सब साधन इस्लामी उसूल व अहकाम से टकराते न हों।
3. जिहाद इस्लाम का इतना शानदार मेम्बर है और उसके बाक़ी रखने और हिफाज़त के लिए ऐसा अहम फ़रीज़ा है कि फ़र्ज़ के इस अदा करने में लगा रहने में नबी अकरम (ﷺ) और सहाबा किराम रज़ि० का नमाज़ जैसा फ़रीजा क़ज़ा हो गया और आपने और सहाबा ने अस्र की नमाज़ मगरिब के वक्त अदा फ़रमाई। अगरचे जिहाद के वक्त भी अल्लाह की इबादत से ग़ाफ़िल नहीं रखा गया और क़ुरआन ने ‘ख़ौफ़ की नमाज़‘ का रास्ता निकाल कर नमाज़ की अहमियत वाज़ेह कर दी है।
4. लड़ाई में ऐसे तरीक़े इख्तियार करना सही हैं, जिनमें झूठ और वायदा-खिलाफ़ी जैसी नापसन्दीदा बातों का दखल न होते हुए दुश्मन को बगैर लड़ाई ही के नुक़सान व हार का मुंह देखना पड़ जाए।
मक्का की फतह (फ़तेह मक्का)
1. जब किसी और-मुस्लिम ताक़त से समझौता कर लिया जाए तो समझौते की मुद्दत को अपनी तरफ से पूरा करना इस्लामी ज़िम्मेदारी है। अलबत्ता अगर दूसरी तरफ़ से ख़िलाफ़वर्ज़ी हो, तो मुसलमान ज़िम्मेदारी से अलग हैं।
2. फ़तहे मक्का की खास बात यह है कि वह ताक़त के ज़ोर पर फतह होने के बावजूद खूरेज़ी से बचा रहा।
3. दुनिया के शहंशाह और नबी-ए-रहमत के दर्मियान अगर फ़र्क और इम्तियाज़ मालूम करना हो तो फ़तहे मक्का उसके लिए रोशन दलील है।
4. काफ़िर व मुशरिक गिरोह अगर इस्लामी ताक़त का हलीफ़ (मित्र) बनना चाहे, तो मुस्लिम मफ़ाद को सामने रखकर उसको हलीफ़ बनाया जा सकता है, बल्कि कुछ हालात में उसको हलीफ़ बनाना बहुत ही ज़रूरी है।
हुनैन की लड़ाई
1. जीत और हार का मदार हर हालत में तायदाद की ज़्यादती पर नहीं, बल्कि अल्लाह की मदद के साथ जुड़ा रहना चाहिए।
2. अगर इस्लाम और मुसलमान के फायदे का तक़ाज़ा हो तो एक गैर मुस्लिम ताक़त के मुक़ाबले में दूसरी गैर मुस्लिम ताक़त या गैर मुस्लिम जमाअत का मेल और मदद हासिल करना बेशक दुरुस्त और सही है।
तबूक
1. इस्लामी मुफ़ाद के पेशेनजर जब आम जिहाद का एलान हो जाए तो फ़र्ज़ के अदा करने के मुक़ाबले में हर क़िस्म की मश्किलें ख़त्म हो जानी चाहिए।
2. आम जिहाद के मौक़े पर माली मदद भी जिहाद ही का अहम शोबा है
3. मुनाफ़िकों का जिहाद में शिर्कत न करना ही फायदेमंद है। अलबत्ता अगरचे खुलूस वाले लोग ऐसे मौक़े पर नज़रें चुरा जाएं तो माफ़ न करने वाला जुर्म है, जब तक कि वे तौबा न कर लें।
4. इस्लामी हुक्मों की खुली खिलाफवर्ज़ी पर मुसलमानों के किसी मुस्लिम फ़र्द या मुस्लिम जमाअत के खिलाफ़ समाजी बाइकाट दुरुस्त है, बल्कि कुछ अहम और नाज़ुक हालात के पेशेनज़र कभी भी वाजिब हो जाता है।
हुदैबिया का वाकिया
1. इस्लामी इज्तिमाई मस्लहतें अगर तक़ाज़ा करें तो ख़लीफ़ा और अमीरुल मोमिनीन को इख़्तियार है कि वह कुफ़्फ़ार व मुशरिकों से ऐसी सुलह करें जो देखने में हारी हुई नज़र आती हो, मगर गहरी नज़र और सूझ-बूझ का यह फत्वा हो कि नतीजे के लिहाज़ से यह मुसलमानों के हक़ में बेहतर साबित होगी।
2. मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वह अल्लाह और उसके रसूल सल्ल० के हुक्मों को हर मामले में नमूना बनाए और अपनी सूझ-बूझ पर भरोसा करके उनके ख़िलाफ़ करने पर तैयार न हो जाए।
3. ‘वायदा तोड़ने को ग़लत समझे और यक़ीन करें कि वायदे की पाबन्दी न करने वाला, न दुनिया में इज़्ज़त का मालिक हो सकता है और न आख़िरत में उसको फलाह नसीब हो सकती है।
4. हुदैबिया के समझौते ने यह साफ़ कर दिया कि मुस्लिम क़ौम अख्लाक व आमाल और किरदार व गुफ़्तार, बल्कि ज़िंदगी के हर शोबे में सच्चा, इंसाफ़पसंद, हक़पसंद और हक़-आगाह है और उसकी जमाअती और इंफ़िरादी ज़िंदगी के वक्त का दर्जा तमाम कौमों और मिल्लतों से बुलंदतर है।
गोद लेकर बेटा बनाना
जाहिलियत की रस्मों में से एक रस्म ‘तबन्ना’ भी है। यह रस्म किसी न किसी शक्ल में हर मुल्क में पाई जाती रही है, बल्कि हिंदुओं में आज भी मौजूद है। यह रस्म हसब-नसब से ताल्लुक़ और समाजी निज़ाम, दोनों लिहाज़ से ख़राब और फ़ितरत के खिलाफ़ है। इस रस्म के ख़त्म करने के लिए अल्लाह तआला ने जिस वाकिए को चुना, वह इस तरह है –
हज़रत ज़ैद (रजि)
हज़रत ज़ैद बिन हारिस बिन शुरहबील अरब के इज्ज़तदार क़बीला बनी कलब के एक आदमी थे और एक हादसे की वजह से बचपन ही में गुलाम बना लिए गए और उकाज़ के बाज़ार में हज़रत ख़दीजा (रजि) के भतीजे हकीम बिन हिज़ाम ने उनको अपनी फूफी के लिए खरीद लिया। हज़रत ख़दीजा (रजि) ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवन-साथी होने के बाद उनको हुज़ूरे अक़दस की खिदमत में हिबा कर दिया।
नबी करीम सल्ल० ने उनको आज़ाद कर के अपना बेटा बना लिया और उसी दिन से लोग ज़ैद को इब्ने मुहम्मद कहने लगे। इत्तिफ़ाक़ की बात कि बनी क़लब के कुछ लोग हज की नीयत से मक्का आए तो हज़रत ज़ैद को पहचान लिया। हज़रत ज़ैद के बाप हारिस और उनके भाई काब को जब यह मालूम हुआ तो वह मक्का आए और हुज़ूरे अक़दस की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया, अब ज़ैद को हमारे हवाले कर दीजिए और फ़िदए की रक़म ले लीजिए।
हुज़ूरे अक़दस (ﷺ) ने इर्शाद फ़रमाया- ‘इससे बेहतर यह बात है कि ज़ैद आ जाएं और उसके सामने ये दोनों शक्लें रख दी जाएं, वह तुम्हारे साथ जाना कुबूल करता है या मेरे साथ रहना चाहता है और जो उसकी मर्ज़ी हो, उस पर हम भी राज़ी हो जाएं।’
हारिस खुशी-खुशी इस पर राज़ी हो गए, क्योंकि वह यक़ीन रखते थे कि बेटा बहरहाल बाप ही को तर्जीह देगा। चुनांचे ज़ैद बुलाए गए। ज़ाते अक़दस ने मालूम किया. इनको पहचानते हो?
ज़ैद ने कहा, ‘क्यों नहीं, यह मेरे वालिद हैं और यह मेरे चचा है।
आपने फ़रमाया, ‘ये लेने आए हैं। अब तुम मुख्तार हो, इनके साथ चले जाओ या मेरे पास रहो।
हज़रत ज़ैद ने अर्ज़ किया, “मैं आप पर किसी को तर्जीह नहीं दे सकता। मेरे. बाप-चचा जो कुछ भी हैं, आप ही हैं।’
हारिस ने यह सुना तो रंज व तकलीफ़ के साथ कहा, ‘ज़ैद! किस क़दर अफ़सोस है तुझ पर कि गुलामी को आज़ादी पर और बाप-दादा और ख़ानदान पर अजनबी को तर्जीह दे रहा है।’
हज़रत ज़ैद ने कहा, ‘इस हस्ती के साथ रह कर मेरी आंखों ने जो कुछ देखा है, उसके बाद मैं दुनिया और उसकी हर चीज़ को उसके सामने कम समझता हूँ।
तब नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हारिस और हाज़िरीन को बतलाया कि मैं ने ज़ैद को आज़ाद कर दिया है। अब वह मेरा गुलाम नहीं, बल्कि बेटा है। हारिस ने यह सुना तो बहुत खुशी ज़ाहिर की और बाप और चचा दोनों मुतमइन वापस हो गए और कभी-कभी आकर देख जाते और आंखें ठंडी कर लिया करते थे।
तिर्मिज़ी की एक मुख्तसर रिवायत में हारिस की जगह उसके दूसरे बेटे हबला के आने और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ ऊपर की बातचीत का ज़िक्र हुआ है।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज़रत ज़ैद की मज़ीद क़द्र अफज़ाई के लिए उनका निकाह अपनी दूध पिलाई उम्मे ऐमन के साथ कर दिया, जिसके पेट से हज़रत उसामा पैदा हुए और उसके बाद इरादा किया कि उनकी शादी अपनी फुफेरी बहन ज़ैनब बिन्ते ज़हश के साथ कर दें। यह हाशमी खानदान की बेटी और आपकी फूफी उमैया बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थी, इसलिए ज़ैनब और ज़ैनब के भाई इस निकाह पर राज़ी नहीं थे, तब अल्लाह की वह्य़ ने नाज़िल होकर यह हुक्म दिया कि जिस बात का हुक्म अल्लाह और उसका रसूल दे फिर उसकी खिलाफवर्ज़ी किसी के लिए जायज़ नहीं है।
तर्जुमा- ‘जब अल्लाह और उसका रसूल कोई फैसला कर दे, तो फिर किसी मोमिन मर्द और औरत को उनके मामले में कोई इख़्तियार बाकी नहीं रहता और जो आदमी अल्लाह और उसके रसूल की नाफरमानी करे, बेशक वह खुली गुमराही में पड़ गया।’ (33-36)
वह्य़ के नाज़िल होने पर हज़रत ज़ैनब (रजि) और उसके भाइयों ने आपके फैसले के सामने सर झुका दिया और इस तरह आपने ख़ानदान से ही अमली तौर पर नसब पर फ़ख्र करने की जड़ काट दी ताकि आपका अमल नमूना बने।
हज़रत ज़ैद (रजि) का सबसे बड़ा शरफ यह है कि क़ुरआन में उनका नाम खुलकर आया है। यह शरफ रसूल के किसी सहाबी को नसीब नहीं हुआ।
बेटा बनाने की रस्म की रोक-थाम
हज़रत ज़ैद (रजि) और हज़रत ज़ैनब (रजि) अगरचे निकाह के बंधन में जकड़े हुए थे लेकिन हज़रत ज़ैनब (रजि) का यह फितरी रुझान मिट न सका कि वह कुरैशी हाशमी हैं और उनका शौहर आज़ाद किया हुआ गुलाम। इसी तरह हज़रत ज़ैद को यह फ़ख्र हासिल था कि वह बहरहाल अरब के मुअज्ज़ज क़बीले के फर्द और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुंह बोले बेटे है और हज़रत ज़ैनब (रजि) पर उनको क़व्वाम (सरदार) होने का शरफ हासिल है।
चुनांचे इन आपसी टकराव वाली ज़हनियतों ने उनके आपस में मुहब्बत का रिश्ता क़ायम न होने दिया और आखिरकार हज़रत ज़ैद (रजि) इस पर तैयार हो गए कि हज़रत ज़ैनब (रजि) को तलाक़ दे दें। हज़रत ज़ैद (रजि) ने कई बार इस इरादे का ज़िक्र हुज़ूरे अक़दस (ﷺ) से किया, लेकिन आप ने यह समझ कर कि शायद देर या मुद्दत का ज़्यादा हो जाना मुहब्बत के बढ़ने की वजह बने, हज़रत ज़ैद (रजि) को तलाक़ देने से रोका।
हज़रत ज़ैद (रजि) और हज़रत ज़ैनब (रजि) की नाचाक़ी ने अब सूरतेहाल बदल दी और अल्लाह की वह्य़ ने यह फैसला कर दिया कि वक्त आ गया है कि अब बेटा बनाने की बुरी रस्म खत्म कर दी जाए और जिस तरह हसब-नसब के फ़ख्र के पहलू को अपने खानदान ही में सबसे पहले तोड़ा, उसी तरह इसकी शुरूआत भी खुद ज़ाते अक़दस के ही अमल से हो और यह इस तरह कि हज़रत ज़ैद (रजि) जब तलाक़ दे दें तो फिर हज़रत ज़ैनब (रजि) का निकाह आप से हो जाए, क्योंकि इससे एक तरफ हज़रत ज़ैनब (रजि) और उनके खानदान को जो सदमा पहुंचे, उसे दूर किया जा सके और दूसरी ओर गोद लिए बेटे की बुरी रस्म की रोक-थाम हो सके।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब वह्य़ इलाही ने यह नक्शा बतलाया तो एक बशर होने के नाते आपके दिल में यह जज़्बा पैदा हुआ कि हज़रत ज़ैद (रजि) अगर हज़रत ज़ैनब (रजि) को तलाक़ न दें तो अच्छा है ताकि ज़ैनब के खानदान को भी तौहीन महसूस न हो और मैं भी मुनाफ़िकों और मुशरिकों के इस ताने से बचा रहूं कि वे यह कहेंगे, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने बेटे की बीवी को अपनी बीवी बना लिया, हालांकि दूसरों के लिए बेटे की बीवी को हराम बताते हैं। चुनांचे आप बराबर हज़रत ज़ैद (रजि) को तलाक़ से बाज़ रखते रहे।
मगर जब किसी तरह आपस में निभ न सकी तब हज़रत ज़ैद (रजि) ने तलाक़ दे ही दी और इद्दत गुज़रने पर खुदा का हुक्म हुआ कि अब आप हज़रत ज़ैनब (रजि) को अपनी बीवी बनाएं ताकि आगे मुंह बोले बेटे की रस्म का खात्मा हो और मुसलमानों के समाज में यह तंगी न पैदा हो सके कि मुंहबोले बेटे की बीवी के निकाह को सगे बेटे की बीवी की तरह हराम समझा जाए और साथ ही अल्लाह साला की वह्य़ ने यह भी वाज़ेह कर दिया कि ख़ुदा जो फैसला कर चुका है वह तो ज़ाहिर होकर ही रहेगा और तुम्हारे बशरी ख़ौफ़ से वह टलने वाला नहीं है और सच भी यह है कि अल्लाह के हुक्म के मुक़ाबले में इंसानी समाज का डर बिल्कुल बेकार की बात है।
क़ुरआन ने मुंह बोले बेटे की रोकथाम के मामले को दो हिस्सों में बांट दिया है कि एक ज़हनी व इल्मी इंकिलाब और दूसरा अमली, चुनांचे ज़हनी इस्लाह व इंक़िलाब के लिए नीचे लिखी आयतें नाज़िल फ़रमाई –
तर्जुमा- ‘और अल्लाह ने तुम्हारे मुंह बोले बेटों को तुम्हारा (हक़ीक़ी बेटा) नहीं बना दिया। यह क़ौल तुम्हारे अपने मुंह की बात है और अल्लाह सच बात कहता है और वही सीधी राह दिखाता है। तुम इन मुंह बोले बेटों को उनके (हक़ीक़ी) बापों की निस्बत से पुकारा करो। यही अल्लाह के नज़दीक इंसाफ़ का तरीक़ा है और अगर तुमको उनके बाप-दादों के नाम मालूम न हों तो वे तुम्हारे दीनी भाई हैं और तुम्हारे दोस्त हैं। (33:3-4)
चुनांचे सहाबा (रजि) साफ़ करते हैं कि हमने उसी वक्त से हज़रत ज़ैद (रजि) को इब्ने मुहम्मद कहना छोड़ दिया और ज़ैद बिन हारिस कहने लगे।
और बेटा बनाने के अमली पहलू की रोकथाम को रोशन करने के लिए ये आयतें उतरीं –
तर्जुमा- ‘और (वह वक्त ज़िक्र के क़ाबिल है) जब तुम उस आदमी से कहते थे, जिस पर अल्लाह ने और तुमने इनाम किया कि अपनी बीवी को रोके रख (और तलाक़ न दें) और अल्लाह से डर और सूरते हाल यह थी कि तुम अपने जी में इस बात को छिपाए हुए थे जिसको अल्लाह ज़ाहिर करने वाला था। तुम लोगों के (तान व तंज़) से डरते थे और अल्लाह ज़्यादा हक़दार है कि उससे डरा जाए, सौ जब ज़ैद अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका (और उसने तलाक़ दे दी) तो हमने उस (ज़ैनब) का निकाह तुमसे कर दिया ताकि (आगे) मुसलमानों पर तंगी न रहे कि वह अपने मुंह बोले बेटों की बीवियों से निकाह कर सकें। जब उनके मुंह बोले बेटे अपनी हाजत पूरी कर लें (यानी तलाक दे दे) और अल्लाह का यह हुक्म अटल है।’ (39-57)
क़ुरआन की इन आयतों का मतलब अपने मुताल्लिक़ मसअले के साथ इतना साफ़ और खुला हुआ है कि उसमें किसी दूसरे मतलब की गुंजाइश तक नहीं और न किसी क़िस्म की कोई पेचेदगी ही है कि जो मामले के रुख़ को किसी दूसरी ओर फेरने की वजह हो (इसलिए मुनासिब समझते हैं कि इस मामले से मुताल्लिक़ खुराफाती दास्तान से बिल्कुल ही आंखें फेर ली जाएं।)
सबक़ और नसीहत
इस बात के बावजूद कि पैग़म्बर व रसूल इस हक़ीक़त से आशना होते ‘ और उस पर यक़ीन रखते हैं कि अल्लाह का फ़ैसला अटल और रद्द करने के क़ाबिल नहीं होता है, फिर भी अगर कोई बात ऐसी हो जिसमें उनकी ज़ात वक़्त के खुद के गढ़े हुए अख्लाक़ी पहलू की बुनियाद पर तान व तंज़ की वजह बनती हो, तो बशर के तकाज़े की बुनियाद पर वे उसकी मार से बचे रहने की कोशिश करते हैं और उम्मीद करते हैं कि अल्लाह तआला जिस भले मक़सद के लिए ऐसी सूरत पैदा करना चाहता है।
काश वह किसी ऐसी शक्ल में ज़ाहिर हो कि उनके इस तान व तंज़ से बच जाए, लेकिन जबकि खुदा की मस्लहत इसी ख़ास सूरत में छिपी होती है तो वक्त आने पर नबी व रसूल अपनी ज़ाती ख्वाहिश को पीठ पीछे डाल कर ख़ुदा के फैसले पर सर झुका देता है।
To be continued …