हज़रत मुहम्मद ﷺ (भाग ६)

लड़ाइयां

ग़ज़वा व सरीया 

      अल्लाह के रास्ते में जिहाद करने के सिलसिले में जिस फ़ौज के साथ नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम नहीं थे, उसको सरीया और जिसमें आपने ख़ुद शिर्कत फ़रमाई उसको ‘गज़वा’ कहा गया है।

बद्र की लड़ाई (गज़वा)

      ‘बद्र’ एक कुंए का नाम है जिसके ताल्लुक़ से यह घाटी भी बद्र कहलाती है। यह घाटी मक्का और मदीने के बीच मदीने से क़रीब मेन रोड पर वाक़े है। इस जगह वह ग़जवा पेश आया जिसको गज़वा बद्र कहा जाता है। क़ुरआन ने जिन गज़वों का ज़िक्र किया है उनमें इस गज़वे को सबसे ज़्यादा नुमायां हैसियत हासिल है।

वाकिया

      मदीने की हिजरत मुशरिकों के लिए कुछ इस दर्जा भड़काने की वजह बनी और वह पैगम्बर (ﷺ) और मुसलमानों को अपनी बरदाश्त न कर पाने लायक़ तकलीफ़ पहुंचाने से महफूज़ देखकर कुछ इस दर्जा खफा हुए कि अब उन्होंने तै कर लिया कि जिस क़ीमत पर भी हो सके मुसलमानों को मिटा देना चाहिए, चुनांचे इसके लिए उन्होंने हिजरत से फ़ौरन बाद ही लड़ाई और झड़पों की शुरूआत कर दी और बवात और अशीरा जैसी छोटी-छोटी लड़ाइयों इसी सिलसिले में पेश आई, मगर मक्का के मुशरिकों की नफ़रत की आग के लिए यह काफ़ी न था और वे चाहते थे कि किसी तरह मुसलमानों के साथ एक फैसला कर देने वाली लड़ाई हो जाए।

      इस इरादे को पूरा करने के लिए उन्होंने ज़रूरी समझा कि लड़ाई के सामान ज़्यादा से ज़्यादा मिल जाएं और इसके लिए बेहतरीन तरीक़ा यह सोचा कि अबू सुफ़ियान की सरबराही में तिजारत का एक क़ाफिला शाम (सीरिया) की मंडियों में जाए और भारी नफ़ा हासिल करके उससे लड़ाई का सामान जमा किया जाए और इस जज़्बे ने जोश व खरोश की यह कैफियत पैदा कर दी कि जब तिजारत के क़ाफिले की तैयारी शुरू हुई तो मक्का के हर आदमी ने अपनी पूंजी का हिस्सा इस तिजारत के लिए पेश किया, यहां तक कि एक बुढ़िया ने भी अपनी मेहनत की मामूली पूंजी इस ख़िदमत के लिए पेश कर दी और लगभग सत्तर कुरैशियों पर मुश्तमिल यह काफिला अबू सुफ़ियान की क़यादत में शाम के लिए रवाना हो गया।

      कुरैश का यह तिजारती क़ाफिला जब भारी मुनाफा हसिल करके शाम से वापस होकर मक्का जा रहा था और बद्र के क़रीब होकर गुज़रा, तो नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इल्म हुआ। आपने फौरन सहाबा को जमा करके मशवरा फ़रमाया, तब कुछ लोगों ने खुशी-खुशी उसके मुक़ाबले के लिए आमादगी ज़ाहिर की और कुछ ने यह समझ कर कि यह किसी अहम लड़ाई का मामला नहीं है, उसका पीछा करने पर तैयार होने का सबूत नहीं दिया।

      मुसलमानों का यह लश्कर जो क़ाफिले का पीछा करने निकला, लड़ाई के सामान से बेपरवा होकर मदीना से निकला। मशहूर रिवायत के मुताबिक़ उनकी तायदाद सिर्फ तीन सौ तेरह थी, जबकि अल्लाह का शुक्र है कि मदीना के अन्दर ही मुसलमानों की आबादी हज़ारों बालिग लोगों पर मुश्तमिल थी और कुछ तलवारें, दो तीन घोड़े, साठ ज़िरह (कवच) और सिर्फ़ साठ ऊंट उनके जंग का सामान था, जबकि मुसलमानों के पास बल्कि खुद निकलने वाले मुजाहिदों के पास मदीने में लड़ाई के ज़्यादा से ज़्यादा सामान और ऊंट-घोड़े मौजूद थे। गरज़ यह फ़ौज लड़ाई की फ़ौज न थी, बल्कि तौहीद के फ़िदाकारों का एक मुख्तसर-सा क़ाफ़िला था जो कुरैश के लड़ाई के सामान पर कब्ज़ा करके दुश्मन को बे-सामान बनाने निकला था।

      अबू सुफ़ियान को मुसलमानों के पीछा करने का हाल मालूम हुआ तो घबराया और फौरन ज़मज़म नामी एक आदमी को अज़ीर बनाकर (मुआवज़ा देकर) मक्का रवाना किया कि वह कुरैश को इस मामले की खबर दे और मदद तलब करे। कुरैश ने जब हकीक़ते हाल को सुना तो उनमें बहुत ज़्यादा जोश पैदा हो गया और कुरैश के तमाम सरदार लड़ाई पर तैयार होकर अपने-अपने लश्कर को लेकर निकल खड़े हुए और इस शान से निकले कि तायदाद में एक हज़ार थे नेज़े और तलवारें सजे, ढालें और बकतर लगाए, गुरूर के नशे में झूमते हुए बद्र की ओर बढ़े।

      इधर मुसलमान आगे बढ़ते हुए जब सफ़रा घाटी के करीब पहुंचे तो नबी अकरम (ﷺ) ने वसवस बिन अम्र और अदी विन ज़गवा को जासूस बनाकर भेजा कि वे क़ाफिले का हाल मालूम करके आएं। इस मुद्दत में मुसलमान सफ़रा घाटी से गुज़र कर ज़फ़रान घाटी तक पहुंच चुके थे। यहां उतरे तो एक नरफ़ वसवस और अदी से यह मालूम हुआ कि बहुत जल्द असुफ़ियान का क़ाफिला बद्र पहुंचने वाला है। दूसरी ओर यह पता लगा कि मक्का से कुरेश एक हज़ार की फ़ौज लेकर पूरी शान के साथ मुसलमानां से लड़ने की गरज़ में बद्र की जानिब बढ़ रहे हैं।

      बहरहाल मुसलमानों को जब ज़फ़रान घाटी में ये दोनों ख़बरें मिलीं तो नबी अकरम (ﷺ) ने सहाबा से दोबारा मशवरा ज़रूरी समझा, क्योंकि अब मामला मुश्किल था। मुसलमान बेसर व सामान और थोड़ी तायदाद में थे और दुश्मन हर तरह वक़्त के हथियारों से मुसल्लह, लड़ाई के भारी समान के साथ थे और तायदाद में तीन गुने से भी ज़्यादा और सीरते अंसार लिखने वालों के मुताबिक़ अगरचे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सफ़र करने पर हज़ार बार फ़ख्र करते। और साथ रहते थे लेकिन दूसरी अक्बा के वक्त वे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ यह समझोता कर चुके थे कि जब तक कुरैश या गैर-कुरैश अपनी जानिब से मदीना पर हमलावर न हों, अंसार मदीना से बाहर निकल कर लड़ाई के लिए मजबूर नहीं होंगे।

      मशवरे के लिए ये अहम वजहें थीं जिनके पेशे नज़र नबी अकरम सल्ल० ने सहाबा से मशवरा फ़रमाया, आपने इर्शाद फ़रमाया कि दुश्मन सर पर है और क़ाफ़िला क़रीब। अब बताओ क्या चाहते हो? लड़ाई लड़कर हक़ व बातिल का फ़ैसला या बगैर कांटा लगे क़ाफिले पर क़ब्ज़ा ?

      मुसलमानों ने जब यह सुना तो कुछ ने फ़ितरी तौर पर लड़ने से मना किया और इस बारे मे बोझ महसूस किया। उन्होंने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल०! हम लड़ने के इरादे से नहीं निकले थे, इसलिए बेसर व सामान हैं। हम तो अब भी यही चाहते हैं कि कि क़ाफ़िले पर क़ब्ज़ा करके वापस चले जाएं। नबी अकरम (ﷺ) ने इस कमज़ोर राय को नापसन्द फ़रमाते हुए इर्शाद फ़रमाया, क़ाफिले को छोड़ दो, अब इस क़ौम के बारे में राय दो, जो तुम्हारे मुक़ाबले के लिए मक्के से निकल आई। कुछ लोगों ने जब दोबारा उज्र किया, तो आपने फिर पहली बात लौटा दी।

      तब बड़े सहाबा (रजि) हज़रत अबूबक्र, हज़रत उमर (रजि), हज़रत अली (रजि) समझ गए कि मुबारक मर्ज़ी हक़ व बातिल की लड़ाई से जुड़ी हुई है, इसलिए उन्होंने वफ़ादारी के जज़्बे को ज़ाहिर करते हुए अर्ज़ किया कि हम हर तरह लड़ाई के लिए तैयार हैं और इस्लाम के लिए आपके पसीने की जगह खून बहाने को हाज़िर हैं और हज़रत मिक़दाद (रजि) ने तो इस तेज़ी से फ़िदाकाराना जज़्बे का इज़हार किया कि सहाबा को उनकी तक़रीर पर रश्क होने लगा, मगर आप (ﷺ) अब भी अपनी मुबारक निगाह से किसी बात के तालिब नज़र आ रह थे।

      यह देखकर अंसार में से हज़रत साद बिन मुआज़ (रजि) खड़े हुए और अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या हम अंसार की तरफ इशारा है कि वे कुछ अर्ज़ करें और फिर अंसार की ओर से पूरी वफादारी का यक़ीन दिलाते हुए बड़ी असरदार तक़रीर फ़रमाई।

      मुहाजिरों और अंसार की ये तक़रीरें सुनकर सरवरे दो आलम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का मुबारक चेहरा ख़ुशी से तमतमा उठा और आपने इर्शाद फ़रमाया –

      अब अल्लाह के नाम पर आगे बढ़ो और बशारत हासिल करो, क्योंकि अल्लाह ने मुझसे वायदा फ़रमाया है कि दो गिरोह (क़ाफ़िला और मक्का के मुशरिकों का लश्कर) में से एक को तुम्हारे क़ब्ज़े में दे दूंगा और काफ़िला नहीं, बल्कि मुशरिकों का लश्कर तुम्हारे क़ब्ज़े में दे दिया जाएगा और अल्लाह का वायदा बेशक सच्चा है और ख़ुदा की क़सम! मैं लड़ाई से पहले अभी से क़ौम के सरदारों की क़त्लगाह को देख रहा हूं और सहीह मुस्लिम में है कि आप (ﷺ) ने बद्र पहुंच कर ज़मीन पर हाथ रखकर बताया कि इस जगह फलां कुरैशी मारा जाएगा और यहां फलां क़त्ल होगा।

      पहले और आज के तमाम तफ़सीर लिखने वाले, हदीस के माहिर और सीरत व तारीख के जानकार इस पर एक राय हैं कि यही वह मश्विरा है जिसके बारे में सूरः अंफाल की ये आयतें उतरी हैं –

      तर्जुमा- (‘अनफ़ाल’ अल्लाह और रसूल के लिए है) इसलिए कि तेरे परवरदिगार ने तुझको हक़ के लिए तेरे घर में निकाला और हालत यह हो गई कि मुसलमानों का एक फ़रीक़ इस निकलने पर बोझ महसूस कर रहा था और ये तझसे हक़ के बारे में हक़ के ज़ाहिर हो जाने के बाद झगड़ा कर रहे थे, गोया वे आंखों देखे मौत के मुंह में हंकाए जा रहे हैं और (यह वाकिया उस वक्त पेश आया) जबकि अल्लाह तुमको वायदा दे रहा था कि दोनों फ़रीज़ (क़ाफ़िला और मक्का के मुशिरकों की फ़ौज) में से एक फरीक़ को तुम्हारे क़ब्ज़े में दे देगा और तुम यह शुबहा करते थे कि तुमको वह गिरोह मिले, जिसके मुकाबले में कांटा भी न लगे और अल्लाह का इरादा यह था कि वह अपने वायदों के कलिमों से हक़ को साबित कर दिखाए और काफिरों की जड़ काट दे और इस तरह हक़ को हक़ कर दे और बातिल को बातिल, अगरचे मुजरिमों को यह बात पसन्द न आए।’ (83-8)

      अब मुसलमान आगे बढ़े और बद्र के क़रीब पहुंच कर मदीना की तरफ़ वाले रुख ‘उदयतुद्दूनया‘ पर खेमे गाड़ कर ठहर गए और मक्का के मुशिरक आगे बढ़े तो बद्र पहुंच कर मदीने से दूर मक्का की तरफ़ बाले रुख ‘उदवतुल कस्वा’ पर उतरे और लड़ाई के मोर्चे का नशा इस तरह बना कि मुसलमान और मुशिरक आमने-सामने थे और अबू सुफ़ियान का काफ़िला उस वक्त साहिल की तरफ़ नीचे-नीचे मक्का के मुश्रिकों के लश्कर की पीठ पर से गुज़र रहा था कि जब वे चाहें तो मक्का के मुशरिकों की नुसरत व मदद के लिए बे-रोक-टोक आ सकते और कुमक का काम दे सकते हैं।

      और फिर यह अजीब सूरतेहाल थी कि मुसलमानों का मोर्चा इतना ज़्यादा रेतीला था कि इंसानों और चौपायों दोनों के क़दम रेत में घसे जा रहे थे और चलना मुश्किल हो रहा था, मगर मुशरिको का मोर्चा हमवार और पक्के फ़र्श की तरह था। गरज़ मुकम्मल दुश्मन तायदाद में तीन गुने से ज़्यादा, लड़ाई के सामान में पूरी तरह मुकम्मल, आने जाने के साधनों पर पूरा इत्मीनान, रुकने की जगह बहुत उम्दा और इन तमाम बातों के साथ क़ाफ़िले को कुमक की आशा भी थी और खुद अपनी हालत यह कि तायदाद में बहुत कम, लड़ाई के हथियार नाम भर के लिए, न होने के बराबर, सवारियों की गिनती नाम के लिए, ठहरने की जगह इस दर्जा खराब और उन तमाम नासाज़गार हालात के साथ कुमक क़तई तौर पर जिसकी उम्मीद नहीं और हद यह कि दुश्मन पानी पर क़ाबिज़ और मुसलमान उससे महरूम ।

      ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में अगर मुसलमानों को उनकी ज़ाती राय पर छोड़ दिया जाता तो उनकी अक्ल, ज़ाहिर को देखकर इसके अलावा और फ़ैसला कर सकती थी कि वे इस वक्त को टाल दें और दुश्मन से किसी ऐसे दूसरे वक़्त के लिए जंग का क़ौल व क़रार करें कि वह दुश्मन की तरह हर हैसियत से जंग के लिए तैयार हों, चुनांचे इसी बुनियाद पर मुसलमानों ने ज़फ़रान घाटी में मशवरा करते वक्त शुरू में यही कहा था, मगर अल्लाह की वह्य़ी के ज़रिए चूंकि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह मालूम हो चुका था कि ख़ुदा का यह वायदा कि तुमको आर और नफ़ीर’ दोनों में से एक पर मुसल्लत कर दिया जाएगा सिर्फ इस शक्ल में पूरा होने वाला कि मुसलमान मुशिरकों के लश्कर (नफ़ीर) का मुकाबला करें और हक व बातिल की इस लड़ाई में मुसलमान कामयाब हों और मुशरिक नाकाम, नामुराद इसलिए मुसलमानों ने पैग़म्बर की मर्ज़ी पाकर हर किस्म के बे-सर व सामानी के बावजूद ख़ुद को पूरे शौक के साथ फ़िदाकारी के जज़्बे के साथ पेश कर दिया।

      ऐसी सूरतेहाल का कुरआन ने इस असर भरे ढंग के साथ बयान किया है –

      तर्जुमा-’अगर तुम अल्लाह पर और उस (ग़ैबी मदद) पर यकीन रखते हो जो हमने फैसले कर देने वाले दिन अपने बन्दे पर नाज़िल की थी जबकि फौजें एक दूसरे के मुकाबले में आ खड़ी हुई थीं तो चाहिए कि इस तक्सीम पर (यानी माले गनीमत की तय की हुई तक्सीम पर) कारबंद हो और अल्लाह हर चीज़ पर कुदरत रखता है। यह वह (बद्र का दिन था कि तुम उधर करीब के नाके पर थे इधर दुश्मन दूर के नाके पर और क़ाफ़िला तुमसे निचले हिस्से में था (यानी समुन्दर के किनारे-किनारे गुज़र रहा था) और अगर तुम आपस में लड़ाई की बात ठहराते तो ज़रूर लड़ाई के वक्त के बारे में तुम इख़्तिलाफ़ करते क्योंकि तुम चाहते हो कि किसी हालत में लड़ाई न हो और दुश्मन चाहता है कि ज़रूर लड़ाई हो।

      (यानी तुम्हें दुश्मनों की भारी तायदाद और अपनी बेसर व सामानी का अन्देशा था और काफिले पर कब्ज़ा आसान नज़र आ रहा था और दुश्मन अपनी भारी तायदाद और साज़ व सामान के बल पर घमंड किए हुए था, अल्लाह ने दोनों फौजों को भिड़ा दिया ताकि जो बात होने वाली थी उसे कर दिखाए साथ ही इसलिए कि जिसे हलाक होना है हुज्जत पूरी होने पर हलाक हो और जो ज़िन्दा रहने वाला है हुज्जत के बाद ज़िन्दा रहे और बेशक अल्लाह सबकी सुनता और सब कुछ जानता है।’ (8:41-42)

      तर्जुमा-’और अल्लाह तुम्हारी मदद कर चुका है बद्र की लड़ाई में और तुम कमज़ोर हालत में थे। पस अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम शुक्रगुज़ार हो। (यह जब हुआ) कि तुम मुसलमानों से कह रहे थे कि क्या तुमको काफी नहीं है कि तुम्हारा परवरदिगार तुम्हारी मदद को आसमान से उतरने वाले तीन हज़ार फ़रिश्ते भेजे। हां, बिला शुबहा अगर तुम सब्र करो और तकवा का रास्ता इख़्तियार करो और फिर ऐसा हो कि दुश्मन उसी वक्त तुम पर चढ़ आए तो तुम्हारा परवरदिगार (भी) पांच हज़ार निशान रखने वाले फरिश्तों से तुम्हारी मदद करेगा।

      अल्लाह ने यह सिर्फ इसलिए किया कि तुम्हारे लिए खुशखबरी हो उसकी वजह से तुम्हारे दिल मुतमइन हो जाएं और मदद व नुसरत जो कुछ भी है अल्लाह ही की तरफ से है उसकी ताक़त सब पर ग़ालिब है और वह अपने तमाम कामों में हिक्मत रखने वाला है और साथ ही इसलिए ताकि हक़ के इंकार करने वालों की जमईयत व ताक़त का एक हिस्सा बेकार कर दे उन्हें इस दर्जा ज़लील व ख़्वार कर दे कि वे नामुराद होकर उलटे पांव फिर जाएं। (3:124-127)

मदद की दुआ

      ग़रज़ इस हालत में दोनों फरीकों ने लड़ाई के लिए लाइन बन्दी कर ली तो पहले आपने मुसलमानों की सफ़ों को दुरुस्त फ़रमाया और फिर उस अरीश (खसपोश टूटी झोंपड़ी) के नीचे जाकर जो आपके लिए लड़ाई के मैदान में बना दी गई थी, अल्लाह के दरबार में गिडगिड़ा-गिड़गिड़ा कर दुआ शुरू कर दी और अर्ज़ किया –

      ऐ अल्लाह! तूने मुझ से जो वायदा (मदद का) फ़रमाया उसको पूरा कर, ऐ अल्लाह! अगर ये मुट्ठी भर मुसलमान हलाक़ हो गए तो फिर इस धरती पर कोई तेरा इबादतगुज़ार बाकी नहीं रहेगा। सिद्दीक़े अकबर (रजि) ने देखा तो करीब आए और अर्ज़ किया – “ख़ुदा के रसूल! बस कीजिए, अल्लाह तआला अपना वायदा ज़रूर पूरा करेगा।

ग़ैबी मदद

      1. और आख़िर यहीं हुआ भी कि हर किस्म के नासाज़गार हालात और इस दर्जा कमज़ोरी के बावजूद कि किसी मुसलमान का इस लड़ाई से सही व सालिम बच कर निकल जाना ख़ुद एक मोजज़ा होता मुसलमानों को ग़ैबी नुसरत व इमदाद ने बामुराद व कामयाब किया| फतह व नुसरत ने कदम चूमे और दुनिया की तारीख़ का एक बेनज़ीर और हैरत में डाल देने वाला इन्किलाब पेश कर दिया और कुरैश के मुशरिकों के तमाम सरदार और मशहूर योद्धा ही नहीं क़त्ल हुए बल्कि शिर्क व क़ुफ्र की इज्तिमाई ताक़त ही का खात्मा हो गया।

      यह ग़ैबी मदद क्या थी? कुरआन इसका जवाब कई आयतों में देता है –

      तर्जुमा- ‘मुसलमानों की निगाह में दुश्मनों की तायदाद असल तायदाद से कम नज़र आई ताकि मुसलमान मरऊब न हों और मुशरिको की निगाहों में मुसलमान मुडी पर मालूम हुए ताकि वे लड़ाई से जी न चुराएं और हक़ व बातिल का मारका टल न जाए और एक वक्त में दोगुने मालूम हुए ताकि मुसलमानों से मरऊब होकर रह जाएं। (8:43-44) 

      तर्जुमा-’अभी हो चुका है तुमको एक नमूना दो फ़ौज़ों में जो मिड़ी हुई थी एक फौज है कि लड़ती है अल्लाह की राह में और दूसरी मुंकर है| ये उनको देखते हैं अपने दो बराबर, खुली आंखों से और अल्लाह ज़ोर देता है अपनी मदद का जिसको चाहे उसी में ख़बरदार हो जाएँ जिनको आंख है। (आले-इमरान 3:13)

      2. मुसलमानों की दुआ पर पहले उनकी मदद एक हज़ार फ़रिश्तों से की गई।

      तर्जुमा- ‘जब तुम लोग फरियाद करने लगे रब से तो पहुंचा तुम्हारी पुकार को कि मैं मदद भेजूंगा तुम्हारी हज़ार फ़रिश्ते जंगी पीछे आये।’ (8:9

और फिर यह तायदाद बढ़ाकर तीन हज़ार कर दी गई –

      तर्जुमा- ‘जब तू कहने लगा मुसलमानों को क्या तुमको किफ़ायत नहीं कि तुम्हारी मदद भेजे रब तुम्हारा तीन हज़ार फरिश्ते आसमान से उतरे (हुए)। (3:124)

      और अगर दुश्मन तुम पर एक साथ हमला कर दे तो हम तीन हज़ार  के बजाए पांच हज़ार फ़रिश्तों से मदद करेंगे।

      तर्जुमा– ‘अलबत्ता अगर तुम ठहरे रहो और परहेज़गारी करो और वे आयें तुम पर उसी दम, तो मदद भेजे तुम्हारा रब पांच हज़ार फ़रिश्ते पले हए घोड़ों पर। (3:125)

      3. मुसलमानों पर ठीक लड़ाई के वक़्त ऊंघ तारी कर दी जिसके कुछ मिनट बाद उनकी बेदारी ने उनमें एक नई ताज़गी और नई रूह पैदा कर दी।

      तर्जुमा- ‘जिसने डाल दी तुम पर उंघ अपनी तरफ से तस्कीन को और उतारा तुम पर आसमान से पानी कि उससे तुमको पाक करे और दूर करे तुमसे शैतान की नजासत और मज़बूत गिरह दे तुम्हारे दिल पर और साबित करे तुम्हारे क़दम।’ (8:11

      4. आसमान से पानी बरसा कर मुसलमानों के लिए रेतीली जमीन को पक्के फर्श की तरह बना दिया और नीचे होने की वजह से हौज़नुमा गढ़े में पानी इकट्ठा कर दिया और दुश्मनों को ज़मीन की कीचड़ की तरह दलदल बना डाला।

      तर्जुमा- ‘जब हुक्म भेजा तेरे रब ने फ़रिश्तों को कि मैं साथ हूं तुम्हारे सो तुम दिल साबित करो मुसलमानों के मैं डाल दूंगा दिल में काफिरों के दहशत सो मारो और ऊपर गरदनों के और मारो उनके पोर-पोर।’ (8:12)

जंग का नतीजा

      बहरहाल जंग का मारका बरपा हुआ और दोनों और से भिड़ गए तो एक दूसरे के मुकाबल में आकर ‘हल मिम बारिज़’ पुकारने और ललकारने लगे और फिर यकायक हुजूमी लड़ाई शुरू हो गई। मुसलमान एक तो जम कर लड़े मगर दुआ से फ़राग़त के बाद जब लड़ाई के मैदान में आकर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ‘शाहतिल वुजूह’ (चेहरे रूस्याह हो) पढ़ते हुए मुट्ठी भर खाक और कंकड़ियां दुश्मनों की तरफ़ फेंकी तो अल्लाह की मोजज़ाना कुदरत ने हवा के ज़रिए उसके जरें तमाम मुशरिकों की आंखों तक पहुंचा दिए और वे इसं यकायक पेरशानी से बेचैन होकर आंखें मलने लगे और जंग जीत की शक्ल में बदल गई।

      तर्जुमा- ‘(ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और तूने जब कंकड़ियां फेंकी तो हक़ीक़त में तूने नहीं फेंकी बल्कि अल्लाह ने फेंकी थीं (क्योंकि इंसानी हाथ एक मुट्ठी से इतने बड़े लश्कर के हर आदमी को कंकड़ियां नहीं फेंक सकता था पर जो कुछ हुआ नबी के हाथ ख़ुदा का मोजज़ा हुआ)।’ (8:17)

      और देर नहीं लगी कि मुश्रिकों के बड़े-बड़े आदमी मारे गए और दुश्मनों के पैर उखड़ गए। वे भागते थे मगर भागने का मौका न पाते थे चुनांचे उनके सत्तर आदमी क़त्ल हुए और सत्तर गिरफ्तार और बाक़ी ने भागने का रास्ता इख़्तियार किया।

      मुसलमान अगरचे ख़ुदा की नुसरत और उसके फ़ज़ल से कामयाब हुए और फ़तह व कामरानी के मालिक बने फिर भी बाईस मुजाहिदों ने भी जामे शहादत नोश किया। 

बद्र की लड़ाई ने दुनिया की तारीख़ का रुख बदल दिया

बद्र की लड़ाई तारीख़ और सीरत लिखने वालों से भी अगरचे अपनी तारीखी अहमियत का एतराफ़ कराती है और वे यह कहने पर मजबूर हो जाते हैं कि बद्र की लड़ाई एक हंगामी लड़ाई नहीं थी बल्कि उसने मक्का के कुरैश की ताक़त का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया और मुसलमानों के लिए अल्लाह के क़लमें को बुलन्द करने की राहें खोल दी।

To be continued …