हुदैबिया का वाकिया
हुदैबिया मक्का मुकर्रमा से जददा की तरफ़ एक मंज़िल पर वाक़े एक कुएं का नाम है। यही वह जगह है जिसके साथ ‘फतहे-मुबीन’ (खुली जीत) और बैअते-रिज़वान की मुक़द्दस तारीख़ जुड़ी हुई है।
6 हिजरी के मुताबिक़ फ़रवरी 628 ई० माह ज़ीक़ादा, दिन सोमवार, वह मुबारक वक़्त था कि सरवरे दो आलम (ﷺ) में चौदह सौ सहाबा के साथ उमरा की अदाएगी के इरादे से मक्का मोअज्ज़मा रवाना हुए और जब ज़ुल-हुलैफ़ा पहुंचे तो क़ुरबानी के जानवरों के क़ालादा डाला और एहराम बांधा और बनी खुग़ाया के एक आदमी को जासूस बनाकर भेजा कि वह क़ुरैश के हालात का अन्दाज़ा लगाकर खबर दे।
हुज़ूरे अक़दस ﷺ जब ग़दीर अशतात पंहुचे तो जासूस ने आकर ख़बर दी कि कुरैश को आपकी आमद की इत्तिला हो चुकी है और वे कबीलों को जमा करके मुकाबले की तैयारियों में लगे हैं उनका इरादा है कि आप को मक्का मुकर्रमा में दाख़िल न होने दें।
नबी अकरम ने सहाबा (रजि) से मशवरा फ़रमाया तो सिद्दीके अकबर (रजि) ने अर्ज़ किया –
“ख़ुदा के रसूल! हम तो बैतुल्लाह के इरादे से निकले हैं लड़ाई या क़त्ल व किताल हमारा मक़सद नहीं है इसलिए हम बैतुल्लाह की ज़ियारत को अपना मक़सद समझते हुए ज़रूर आगे बढ़ते रहेंगे और जो जमाअत खामखाह रास्ते की रुकावट बनेगी उससे मजबूरी में लड़ना पड़ेगा।
मशवरे के बाद ज़ाते अक़दस ने इर्शाद फ़रमाया- ‘अब ख़ुदा का नाम ले कर बढ़े चलो।’ (बुख़ारी)
बैतुल्लाह की ज़ियारत करने वाले ख़ुदा के इश्क में चूर और बैतुल्लाह की ज़ियारत में मसरूर मक्का की तरफ कदम बढ़ाए चल रहे थे कि अल्लाह के रसूल सल्ल० ने फ़रमाया- ‘खालिद बिन वलीद फ़ौज का दस्ता लिए अतीम में घात लगाए तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहा है इसलिए मुनासिब यह है कि इस ओर से कावा काट कर दाहिनी तरफ़ चलें और अचानक बेख़बरी में उनके सामने पहुंच जाएं।’
जब मुसलमान अचानक खालिद बिन वलीद की फ़ौजी टुकड़ी के सामने आ गए तो अपनी घाट को नाकाम देखकर खालिद घबरा गए। दस्ते को लेकर तेज़ी के साथ मक्का के मुशरिकों के पास जा पहुंचे और उनको मुसलमानों के आने की खबर दी।
नबी अकरम जब उस टीले पर पहुंचे कि उसके बाद घाटी में उतर कर मक्का पहुंच जाना था तो अचानक आपकी ऊंटनी क़सवा बैठ गई। सहाबा ने यह देखकर उसको चौके दिए, भड़काया और कोशिश की किसी तरह उठ खड़ी हो मगर वह न उठी। लोग जब बार-बार हल-हल (ऊंटनी को बिठाने के लिए बोलते हैं) कहकर थक गए तो कहने लगे- ‘कसवा नाफरमान हो गई।’
नबी अकरम ﷺ ने यह सुना तो फ़रमाया- ‘कसवा हरगिज़ नाफरमान नहीं हुई और न यह इसकी आदत है बल्कि इसको उस ख़ुदा ने रोक दिया था जिसने हाथी वालों को रोक दिया था यानी कुरैशे मक्का की बेहूदगी और जंगी ज़हनियत की वजह से चूंकि जंग की हालत पैदा हो गई है इसलिए ख़ुदा की मर्ज़ी यह है कि हम उस वक़्त तक आगे न बढ़ें जब तक कि क़ाबे की हुर्मत का अहद न कर लें।
चुनांचे इस इर्शाद के बाद ज़ाते अक़दस ﷺ ने फ़रमाया- ‘उस ख़ुदा की कसम जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है वे मुझसे जो भी ऐसी बात चाहेंगे कि उसमें अल्लाह की हुर्मतों की अज़मत उनके पेशेनज़र हो तो ज़रूर उसको पूरा करूंगा।’
हुज़ूरे अक्दस जब यह एलान फ़रमा चुके तो अब जो कसवा को खड़ी होने के लिए डपटा, वह फ़ौरन खड़ी हो गई और चल पड़ी और हुदैबिया के मैदान में जा पहुंची।
जब बैतुल्लाह की ज़ियारत करने वालों का मुकद्दस काफिला हुदैबिया में जा ठहरा तो मशवरे मे यह तय पाया कि हज़रत उस्मान रज़ि० को मक्का भेजा जाए ताकि वे मक्का के मुशरिकों पर यह वाज़ेह करें कि हमारा इरादा बैतुल्लाह की ज़ियारत के अलावा और कुछ नहीं इसलिए तुमको रोकना मुनासिब नहीं है।
हज़रत उस्मान (रजि) जब मक्का में दाख़िल हुए और अबू सुफ़ियान वग़ैरह ने मिलकर बातचीत की तो उन्होंने एक न सुनी और कहने लगे कि तुम अगर चाहते हो कि अकेले बैतुल्लाह का तवाफ़ कर लो तो कर लो वर्ना हम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उनके दूसरे साथियों को हरगिज़ मक्का में दाख़िल नहीं होने देंगे।
हज़रत उस्मान (रजि) ने फ़रमाया- ‘यह तो मैं हरगिज़ नहीं कर सकता कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बग़ैर तवाफ़ और उमरा को अदा कर लूं। कुरैश ने हज़रत उस्मान (रजि) का यह इसरार देखा तो उनको वापस जाने से रोक लिया।’
बैअते रिज़वान
यह ख़बर मुसलमानों तक इस तरह पहुंची कि हज़रत उस्मान (रजि) क़त्ल कर दिए गए। मुसलमानों के लिए यह ख़बर एक बहुत बड़ा सानहा था जिससे हर आदमी बेचैन और बेकाबू हुआ जा रहा था। नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसी वक्त एक पेड़ के नीचे बैठकर मुसलमानों से इस बात पर बैअत ली कि मर जाएंगे मगर हममें से कोई एक भी फ़रार का रास्ता नहीं इख़्तियारर करेगा। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब सब मुसलमानों से बैअत ले चुके तो उनमें हैरत में डालने वाला ज़बरदस्त जोश व ख़रोश पैदा हो गया जिसकी ख़बर धीरे-धीरे मक्का भी पहुंच गई।
मक्का के मुशरिक बहुत घबराए और ख़ौफ़ खाकर मुसलमानों तक यह खबर पहुंचाई कि हज़रत उस्मान (रजि) के क़त्ल की ख़बर ग़लत है और हज़रत उस्मान (रजि) सही व सलामत हुदैबिया वापस तशरीफ़ ले आए।
चूँकि जिहाद की यह बैअत बहुत ही अहम और नाज़ुक मौके पर ली गई थी और मुसलमानों ने पूरे वलवले और जोश के साथ यह बैअत की थी इसलिए अल्लाह तआला ने मुसलमानों की इस फ़िदाकारी की कद्र फ़रमाई और सूरः फ़तह में रज़ा और खुशनूदी का परवाना देकर उनके इस कारनामे को हमेशा के लिए ज़िन्दा बना दिया और इसी हक़ीक़त के पेशेनज़र इस्लामी तारीख़ में उसका नाम ‘बैअते रिज़वान‘ करार पाया –
तर्जुमा- ‘बेशक अल्लाह राज़ी हुआ ईमान वालों से जबकि वह तेरे हाथ पर उस पेड़ के नीचे बैअत करने लगे और जान लिया अल्लाह ने जो उनके जी में था पस उतारा उन पर इत्मीनान व सुकून और इनाम में दिया उनको एक करीबी फ़तह।’ (18:49)
मुसलमानों के फ़िदाकाराना जोश और वालिहाना जज़्बे ने मक्का के मुशरिकों पर ऐसा असर किया कि अब वे ख़ुद सुलह पर तैयार हो गए और आगे बढ़कर सुहैल बिन उमर को सफ़ीर बनाकर भेजा कि वह नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से सुलह की शर्ते तय करें ताकि यह झगड़ा ख़त्म हो जाए मगर यह शर्त हर हाल में रहेगी कि मुसलमान इस साल नहीं बल्कि अगले साल उमरा करेंगे।
समझौता
सुहैल बिन उमर जब मुसलमानों के कैम्प में पहुंचा तो हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सुलह के ख्याल से पसंदीदगी की नज़र से देखा और लम्बी बात-चीत के बाद नीचे की धाराओं पर दोनों तरफ़ से समझौते कि तस्दीक़ व तौसीक़ अमल में आई।
1. इस साल मुसलमान मक्का में दाख़िल हुए बग़ैर ही वापस चले जाएं।
2. अगले साल मक्का में उमरे की ग़रज़ से इस तरह दाख़िल होंगे कि मामूली हिफाज़ती हथियारों के अलावा कोई जंगी हथियार नहीं होगा और तलवारें नियाम के अन्दर ही रहेंगी और सिर्फ तीन दिन कियाम करेंगे और जब तक वे रहेंगे हम मक्का छोड़कर पहाड़ों पर चले जाएंगे।
3. समझौते की मुद्दत के अन्दर दोनों तरफ़ अम्र व आफ़ियत के साथ आने-जाने का सिलसिला जारी रहेगा।
4. अगर कोई आदमी मक्का से अपने वली की इजाज़त के बग़ैर मुसलमान होकर भी मदीना चला जाएगा तो उसको वापस करना होगा और अगर मदीना से कोई मक्का भाग आएगा तो हम उसे वापस नहीं करेंगे।
5: तमाम कबीले आज़ाद हैं कि दो फ़रीक़ में से जो जिसका दोस्त बनना पसन्द करे उसका दोस्त (हलीफ़) बन जाए।
6. यह समझौता दस.साल तक कायम रहेगा और कोई फ़रीक़ इस मुद्दत के अन्दर इसकी ख़िलाफ़वर्जी नहीं करेगा।
समझौता लिखते वक्त मुबारक नाम के साथ रसूलुल्लाह लिखने पर सुहेल ने एतराज़ किया था।
आपने फ़रमाया कि- ‘है तो यह वाकिया और ऐसी हक़ीक़त जिससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन हमको चूंकि सुलह चाहिए है इसलिए तुम अगर यह पसन्द नहीं करते तो मुझको इसरार नहीं और यह फरमा कर आपने समझौता लिखने वाले हज़रत अली रज़ि० को हुक्म दिया कि वह इस जुम्ले को मिटा दें। हज़रत अली (रजि) से यह कब मुम्किन था कि वह अपने हाथ से इस जुमले को मिटाएं जिससे कि ताल्लुक़ ने सारी कायनात में इंकिलाब पैदा करके अंधेरे को रोशनी से, शिर्क को ईमान से और जहालत को इल्म (अज्ञानता को ज्ञान) से बदल डाला। नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब यह महसूस किया तो लिखे की जगह को मालूम करके अपने मुबारक हाथों से जुमले को महब कर दिया। (मिटा दिया)
समझौता जब मुकम्मल हो गया तो मुसलमानों ने यह महसूस किया कि इसमें हमारा पहलू कमज़ोर रहा और सूरतेहाल यह हो गई कि गोया हमने दब कर सुलह की है यहां तक कि हज़रत उमर रज़ि० से ज़ब्त न हो सका और अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने और इस्लाम की सरबुलन्दी के जज़्बे ने मजबूर किया कि रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खिदमते-अक़दस मे अर्ज़ करें, ‘ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल०! क्या यह हुदैबिया का वाकिया फ़तह है?
हुज़ूरे अक़दस सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया- ‘हां, ख़ुदा की कसम! बेशक यह ‘तरह है। (फ़तहुलबारी)
यह वाकिया जो समझौते की धाराओं के एतबार से मुसलमानों के हक में देखने में हार और ज़िल्लत की वजह नज़र आता था ‘खुली फ़तह कैसे था तो इसका जवाब बुजुर्ग हदीस के माहिरों की जुबानी सुनिए। हदीस व सीरत के इमाम जुहरी रह० फ़रमाते हैं –
‘इस्लाम में जो शानदार फ़तहें गिनी गई हैं उनमें सबसे पहली ‘बड़ी फ़तह’ हुदैबिया की सुलह है इसलिए कि इससे पहले बराबर कुफ्फार और मुश्रिकों से जंग व पैकार का सिलसिला जारी था और जब यह सुलह अमल में आ गई तो इसकी वजह से हर दो फ़रीक को अन्म व इत्मीनान के साथ एक दूसरे से मिलने और बातें करने का मौका मयस्सर आया और ख्यालों के तबादले की आज़ादी नसीब हुई। नतीजा यह निकला कि जो आदमी भी इस्लाम को अपनी सही अक्ल से जांचता और उसकी हक़ीक़त पर गौर करता उसके लिए इसके अलावा कोई चारा बाक़ी न रहता था कि वह तुरन्त इस्लाम कुबूल कर ले।
चुनांचे इन दो सालों में (जब तक समझौते पर अमल रहा और मुशरिकों ने अपनी तरफ़ से उसकी खिलाफ़वर्ज़ी नहीं की) लोग इतने ज़्यादा मुसलमान हुए कि इससे पहले की पूरी मुद्दत में उतने ही या उससे कम मुसलमान हुए थे। (फ़ितहुलबारी)
और हाफ़िज़ इब्ने हजर अस्क़लानी इर्शाद फ़रमाते हैं –
“इस जगह ‘फ़तहे-मुबीन‘ से मुराद हुदैबिया का वाकिया है। हुदैबिया के समझौते ने हक़ीक़त में फ़तहे-मुबीन, फतह-मक्का के लिए रास्ता खोल दिया, यह इसलिए कि जब लड़ाई का ख़तरा बीच में जाता रहा और अम्न और इत्मीनान की शक्ल पैदा हुई तो मक्का और मदीना के दर्मियान आने-जाने का सिलसिला बिना किसी ख़ौफ़ और ख़तरे के होने लगा और हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (रजि) और हज़रत अम्र बिन आस रज़ि० जैसे बहादुर और सूझ-बूझ वाले लोगों का इस्लाम कुबूल करना इसी सुलह का कारनामा है और तरक्की की यही वजहें धीरे-धीरे ‘मक्का की जीत’ की वजह बनी। (फ़तहुलबारी)
और इब्ने हिशाम और इमाम जुहरी तौजीह की ताईद करते हुए लिखते हैं – ज़ुहरी के क़ौल के मुताबिक़ ताईद इस हकीक़ते हाल से अच्छी तरह हो जाती है कि हुदैबिया के वाक़िये में जब नबी अकरम निकले हैं तो चौदह सौ मुसलमान साथ थे और दो साल बाद जब मक्का जीतने के लिए निकले हैं तो दस हज़ार की तायदाद थी। (फ़तहुलबारी)
To be continued …