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उहुद की लड़ाई
उहुद मदीना मुनव्वरा के एक पहाड़ का नाम है। यही वह जगह है जहां शव्वाल 03 हि0 625 ई० में मुसलमानों और मुशिरकों के दर्मियान हक़ व बातिल की लड़ाई हुई। बद्र में जो घाव कुरैश को लग चुका था उसका इंतिकाम लेने के लिए अबू सुफियान की सरबराही में तीन हज़ार सूरमाओं की भारी फौज मक्का से निकली और उहुद के सामने आकर जम गई।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब अबू सुफियान की तैयारियों का हाल मालूम हुआ तो सहाबा (रजि) से मशवरा फ़रमाया-उम्र वाले और तजुर्बेकार सहाबा (रजि) ने यह राय दी कि हमको बाहर निकल कर लड़ाई की ज़रूरत नहीं है बल्कि फ़ायदेमंद तरीका यह है कि हम मदीना के अन्दर ही रह कर दुश्मन का इन्तिज़ार करें और जब वह मदीने पर हमलावर हो तो उसका ज़ोरदार मुकाबला करें।
हमारे इस तरीके में एक तो दुश्मन को हिम्मत न होगी कि मदीने पर हमलावर हो और अगर उसने कदम उठाया तो बिला शुबहा जबदस्त हार का सामना करके भागने का रास्ता इख़्तियार करेगा मगर उन सहाबा (रजि) ने जो बद्र में शरीक नहीं हुए थे और जो बद्र की फ़ज़ीलत को इस वक्त हासिल करना चाहते थे, यह राय पसन्द नहीं आई और नवजवानों ने भी उनका साथ दिया और अक्सरीयत की राय यह करार पाई कि हमको दुश्मनों का मुकाबला मैदान ही में करना चाहिए।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब अक्सरीयत का रुझान यह पाया तो उसका साथ दिया और मुबारक हुजरे में तशरीफ़ ले गए तो तजुर्बेकार और बड़े सहाबा (रजि) ने अपने छोटों को उनकी राय पर मलामत की उन्होंने नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के रुझान के ख़िलाफ़ क्यों अपनी आज़ाद राय से आपको परेशान किया। चुनांचे जब आप बाहर तशरीफ़ लाए तो उन नवजवानों और इस्लामी शमा के परवानों ने अपनी राय पर नदामत ज़ाहिर की और अर्ज किया कि आप मदीना ही के अन्दर दुश्मन का मुकाबला करें, यही मुनासिब है।
यह सुनकर हुजूरे अक़दस ﷺ ने इर्शाद फरमाया, ‘नबी की शान के यह ख़िलाफ़ है कि जब खुदा की राह में हथियार सज कर तैयार हो जाए तो फिर हक़ व बातिल के मारके के बगैर ही उनको उतार दे। अब ख़ुदा का नाम लेकर मैदान में निकलो।’
नबी अकरम (ﷺ) जब मदीने से निकले, तो साथ में एक हज़ार कर लश्कर था। इस तश्कर में तीन सौ मुनाफ़िक़ अब्दुल्लाह बिन उबई की रहनुमाई में साथ थे। ये मदीना ही में मक्का के मुश्रिकों के साथ साज़िश कर चुके थे कि पुलिस मुसलमानों को बुज़दिल बनाने के लिए यह तरीक़ा इख़्तियार करेंगे कि पहले मुसलमानों के लश्कर के साथ निकलेंगे और राह से ही उनसे कट कर मदीना बापस आ जाएंगे। चुनांचे मुनाफ़िकों का सरदार बहाना करके इस्लामी फ़ौज से कटकर जुदा हो गया और मदीना वापस आ गया कि जब मबी अकरम ने हम जैसे तजुर्बेकारों की बात न मान कर अल्हड़ नवजवानों की राय को तर्जीह दी तो हमको क्या ज़रूरत है कि ख़ामखाह अपनी जानो को हलाकत में डालें।
मगर मुनाफ़िकों का मक़सद पूरा न हुआ और इस्लाम के इन फ़िदाकारों पर उन के पलट जाने का कतई तौर पर कोई असर न हुआ और इस्लाम के ऐसे जांबाज़ और निसार होने वालों पर असर ही क्या पड़ता जिनके बच्चों की जांबाज़ी और इस्लाम पर फ़िदाकारी का जज्बा और वलवला यह हो कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना से बाहर जब इस्लामी फ़ौज का जायज़ा लिया और कमसिन लड़कों को वापसी का हुक्म दिया तो राफेअ बिन ख़दीज जो, अभी नवउम्र ही थे, यह देखकर पंजों के बल खड़े हो गए कि लम्बे कद के बनकर जंग के सिपाही रह सकें। चुनांचे उनकी तदबीर कारगर हो गई।
इसी तरह समुरा बिन जुन्दुब छोटी उम्र के समझे गए तो रोने लगे और अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! अगर राफेअ लड़ाई में शरीक हो सकते हैं, तो मैं क्यों ख़ारिज किया जा रहा हूं, जबकि में राफेअ को कुश्ती में पछाड दिया करता हूं। आख़िर दोनों की कुश्ती कराई गई और समुरा ने राफेअ को पछाड़ दिया और वे मुजाहिदीन में शामिल कर लिए गए, अलबत्ता मुसलमानों के दो क़बीले बनू सलपा, बनू हारिसा.में कुछ बद-दिली सी पैदा हो चली थी, मगर फ़िदाकार मुसलमानों के जोश और बलवले को देखकर उनकी हिम्मत भी बुलन्द हो गई।
नबी अकरम ने इस्लामी फ़ौज की इस तरह सफें बनाई कि उहुद को पीछ ले लिया और पचास तीरंदाज़ों को हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रजि) की कमान में पहाड़ की एक घाटी पर मुक़र्रर फ़रमा दिया कि हार-जीत किसी हाल में भी अपनी जगह से हरकत न करें, ताकि पीछे की ओर से दुश्मन हमलावर न हो सके।
अब लड़ाई शुरू हो गई और दोनों सफें आमने-सामने खड़े होकर वीरता के जौहर दिखाने लगी। अभी लड़ाई को कुछ ज़्यादा देर नहीं लगी थी कि मुसलमानों का पलड़ा भारी हो गया और मक्का के मुशिरकों का लश्कर बिखर कर भागने लगा। लड़नेवाले मुसलमानों ने जब गनीमत का माल जमा करने का इरादा किया तो तीरदाज़ों से सब न हो सका और वे घाटी छोड़ने पर तैयार हो गए। कमान अफ़सर हज़रत अदुल्लाह बिन जुबैर (रजि) ने बहुत रोका और फ़रमाया, नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म की खिलाफ़वर्ज़ी न करो, मगर उन्होंने यह कह कर जगह छोड़ दी कि आपका हुक्म लड़ाई तक था, जब लड़ाई ख़त्म हो गई तो ख़िलाफ़वर्जी कैसी?
ग़नीमत के हासिल करने के शौक़ ने उधर मुसलमान तीरंदाज़ों से जगह खाली करा दी, इधर ख़ालिद बिन वलीद (जो अभी मुसलमान नहीं हुए थे) अपने जंगी दस्ते के साथ मैदान खाली देखकर घाटी की जानिब से मुसलमानों पर टूट पड़े। अब मुसलमान घबराए और इस अचानक हमले से उनके पैर उखड़ गए और इस तरह यकायक जीत हार में बदल गई। अगरचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के गिर्द व पेश हज़रत अबूबक्र (रजि), हज़रत उमर (रजि), हज़रत अली (रजि), हज़रत तलहा (रजि) और हज़रत जुबैर (रजि) जैसे फ़िदाकार मौजूद थे, फिर भी मुसलमानों के भागने से दुश्मनों को मौका मिल गया।
और एक शक़ी अज़ली ने नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पत्थर खींचकर मारा जिससे आपका मुबारक दांत शहीद हो गया, आप पत्थर के सदमे से करीब की एक घाटी में गिर गए। अभी आप संभले भी न थे कि एक मुश्रिक ने पुकारा दिया, “इन-न मुहम्मदन कद मा-त” (मुहम्मद सल्ल० का इंतिकाल हो गया) इस आवाज़ ने मुसलमानों में और ज़्यादा इतिशार और सख्त बेचैनी पैदा कर दी मगर मुसलमान फ़ौरन संभले और साबित कदम सहाबा ने ललकारा कि अगर यह ख़बर सही है, तो अब हम जिंदा रहकर क्या करेंगे, आओ और जंग का फैसला करके दम लो।
इस हक़ की सदा ने मुसलमानों के दिल में ग़ैरत का जज़्बा पैदा किया। वे सब पलट पड़े और हमलावर होने की गरज़ से सिमट कर इकट्ठा हो गए, मगर जंग का नक्शा बदल चुका था और कुरैश अपनी कामयाबी पर नाज़ा होकर मैदान से अलग हो चुके थे। मुसलमानों ने आंख उठाकर देखा तो आप पर नज़र पड़ते ही उनके दिल में भी सुकून पैदा हो गया और परवानावार आपके गिर्द जमा हो गए। गार में गिर जाने से खूद सर में घुस गया और जिरह की कड़ियों की ज़द में चेहरा मुबारक और बाजुओं पर भी हल्के घाव आ गए थे। हज़रत अली (रजि) और हज़रत फ़ातिमा (रजि) ने खूद को सर से निकाला और घावों को धोया और बोरिया जलाकर राख को घाव के भीतर भर दिया, जिससे खून बंद हो गया।
हज़रत हमज़ा (रजि) की शहादत
इस गजवे में सत्तर मुसलमान शहीद और बहुत से ज़ख्मी हुए। नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सगे चधा, दूध शरीक भाई, बेतकल्लुफ़ दोस्त और जानिसार सहाबी हज़रत हमज़ा (रजि) की शहादत इस
वाक़िये का जबरदस्त सानहा है, वहय की जुबान में उन्हें ‘सैयदुश-शुहदा’ का लकब अता फरमाया।
मक्का के मुशरिकों ने इस लड़ाई में परिंदों और खूखार हैवानों की तरह मुरदा लाशों तक के नाक-कान काट डाले और पेट चाक करके दिल व जिगर को नेज़ों की अनी में छेद-छेद कर दिल का बुखार निकाला। अबू सुफ़ियान की बीवी हिन्दा ने तो सैयदुश शुहदा का जिगर चाक करके दांतों से चबा डाला। हज़रत हमजा (रजि) को हब्शी गुलाम वहशी ने शहीद किया था जिसकी ख़ुशी में हिन्दा ने उसको अपना सोने का हार अता किया।
अबू सुफ़ियान अपनी कामयाबी की मसर्रत में कह रहा था ‘आला हुबलुन आला हुबलुन‘ (हुबल की जय हो, हुबल की जय हो) नबी अकरम (ﷺ) ने हज़रत उमर (रजि)से फ़रमाया- तुम इसके जवाब में यह पुकारो, अल्लाह, आला व अजल्ल, अल्लाहु आला व अजल्लु’ (अल्लाह ही सबसे बुलंद व आला बुजुर्ग है)
अबू सुफ़ियान ने फिर तैश में आकर कहा, ‘लनल उज्जा, वला उज्ज़ा लकुम‘ [हमारी मददगार उज्जा देवी है और तुम्हारे पास उज्ज़ा का हमसर (बराबर का) कोई नहीं है।
हुजूरे अक़दस (ﷺ) ने इर्शाद फ़रमाया- ‘ऐ उमर! तुम यह जवाव दो, ‘अल्लाहु मौलाना, व ला मौला लकुम’ (हमारा वाली व मददगार अल्लाह तआला है और तुम्हारा कोई भी मददगार नहीं है)
बहरहाल अबू सुफ़ियान यह कह कर कि अगले साल फिर बद्र में मारका होगा, अपनी फ़ौज -लेकर वापस चला गया।
कुरआन और गजवा-ए-उहुद
मुसलमानों का ग़ज़वा उहुद (उहुद की लड़ाई) के लिए तैयार होना, मुनाफ़िक़ों का इस्लामी फ़ौज से जुदा होकर मुसलमानों में बिखराव पैदा करने की कोशिश करना, मुसलमानों की एक बात यह कि अल्लाह की मदद से कामयाब होना और फिर अपनी ग़लतकारी और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म की खिलाफवर्ज़ी के बदले में हार खा जाना और जीत का हार में बदल जाना, अल्लाह तआला का मुसलमानों की तसल्ली करना, इन तमाम बातों को कुरआन ने आले इमरान में थोड़ी तफसील के साथ बयान किया है, चुनांचे मुहम्मद बिन इसहाक से नक़ल किया गया है –
अल्लाह तआला ने उहुद की लड़ाई की शान में आले इमरान की साठ आयतें नाज़िल फ़रमाई हैं।
और इब्ने अबी हातिम ने मिस्वर बिन मखरमा के वास्ते से रिवायत किया है कि वे कहते थे, मैंने अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रजि) से अर्ज़ किया, आप उहुद की लड़ाई का अपना किस्सा बयान फ़रमाएं। उन्होंने फ़रमाया- तुम आले इमरान की एक सौ बीस आयतें पढ़ो तो तुमको सारा वाकिया मालूम हो जाएगा। ये आयतें यहां से शुरू होकर ‘इज़ ग़दव-त मिन अहिलक….’ पर ख़त्म होती हैं
तर्जुमा- ‘और (ऐ पैग़म्बर! ज़िक्र के काबिल है वह बात) जबकि तुम सुबह सवेरे अपने घर से निकले थे (और उहुद के मैदान में) लड़ाई के लिए मोचों पर मुसलमानों को बिठा रहे थे और अल्लाह सब कुछ सुननेवाला, जानने वाला है फिर जब ऐसा हुआ था कि तुममें से दो जमाअतों ने इरादा किया था कि हिम्मत हार दें (और वापस लौट चलें) हालाकि अल्लाह मददगार था और जो ईमान रखने वाले हैं उनको चाहिए कि हर हाल में अल्लाह ही पर भरोसा रखें। (3:121-122)
तर्जुमा- ‘और देखो, न तो हिम्मत हारो, न गमगीन हो, तुम ही सबसे बरतर व आला हो, बशर्ते कि तुम सच्चे मोमिन हो। अगर तुमने (उहुद) में ज़ख्म खाया तो दूसरों को भी वैसे ही ज़ख्म (बद्र में) लग चुके हैं। असल में ये (हार-जीत) के औकात हैं जिन्हें हम इंसानों में इधर-उधर फिराते रहते हैं।
इसके अलावा यह इसलिए था ताकि इस बात की आज़माइश हो जाए कौन सच्चा ईमान रखने वाला है, कौन नहीं और इसलिए कि तुममें से एक गिरोह को (इन वाकियों और दिनों के नतीजों का) गवाह बना दे और यह ज़ाहिर है कि अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को दोस्त नहीं रखता।’ (3:139-140)
अह्ज़ाब की लड़ाई (खंदक की लड़ाई)
अह्ज़ाब की लड़ाई तमाम लड़ाइयों में खास अहमियत रखती है और शक्ल के एतबार से निराली है। इसलिए कि इस गज़वे में मुसलमानों को तमाम काफ़िर जमाअतों से एक ही वक्त में वास्ता पड़ा था और अरब क़बीले यहूदी और उनके मित्र सबके सब जमा होकर मुसलमानों को ख़त्म करने निकले थे और मदीने के अन्दर भी मुनाफ़िकों का गिरोह खुफ़िया उनकी मदद कर रहा था। “हिज्ब‘ के मानी चूंकि गिरोह हैं और अज़ाब उसकी जमा (यानी बहुवचन) है, इसलिए यह अह्ज़ाब की लड़ाई कहलाया और जबकि हज़रत सलमान(रजि) के मशवरे से मुसलमानों ने पहली बार खंदक खोद कर मदीना को दुश्मन से महफूज़ रखने की तदबीर अपनायी, इसलिए इसको खंदक़ का गज़वा या खंदक की लड़ाई भी कहते हैं।
यह ग़ज़वा शब्बाल 05 हि० मुताबिक़ फ़रवरी 629 ई० में पेश आया, जबकि अबू सुफ़ियान दस हज़ार लोगों पर मुश्तमिल भारी फौज के साथ मदीने पर चढ़ाई के लिए मक्का से निकला। मुख़्तसर तौर पर वाकिआत की तफसील यह है कि जब नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दुश्मनों की चलत-फिरत मालूम हुई, तो दस्तूर के मुताबिक़ आपने सहाबा से मशवरा फ़रमाया। हज़रत सलमान फ़ारसी रज़ि० ने अर्ज़ किया, हम फ़ारस वालों का यह दस्तूर है कि ऐसे मौक़े पर खंदक खोद कर दुश्मन से खुद को महफूज़ कर लेते हैं और उसको मजबूर बना देते हैं।
नबी अकरम ﷺ ने इस मशवरे को कुबूल फरमा कर खंदक़ खोदने का हुक्म दिया और कुदाल लेकर खुद भी शिर्कत फ़रमाई। इंसानी कायनात की तारीख में आक़ा और गुलाम, हाकिम और महकूम, अफसर और मातहत, मखदूम और खादिम के दर्मियान यह पहला मंजर था जो आंखों ने देखा और कानों ने सुना कि दो जहां के सरदार हाथ में कुदाल लिए तीन दिन के फ़ाक़े से पेट पर पत्थर बांधे, मुहाजिरीन व अंसार के साथ खंदक खोदने में बराबर का शरीक नज़र आते हैं, बल्कि एक सख्त पत्थर को रोक बन जाने पर जब सब सहाबा ने ज़ोर लगाया और उसने अपनी जगह से हरकत न की और खिदमते अक़दस में इस वाक़िये को पेश किया गया तो आपने ‘बिस्मिल्लाह‘ कहकर कुदाल की एक चोट से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
आपके साथ सहाबा भी तीन रात-दिन भूख से पेट पर पत्थर बांधे दीने हक़ की हिमायत और अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने लिए लगे हुए थे।
एक तरफ़ अगर ‘हमने तीन दिन ऐसे गुज़ारे कि कुछ चखा नहीं था’ का मुज़ाहिरा था तो दूसरी तरफ़ ज़ुबान पर दुआ के ये “कलमे‘ जारी थे, ऐ खुदा! ऐश तो आखिरत का ऐश है। पस तू अंसार और मुहाजिरीन की मग़फिरत फ़रमा’, और जब तौहीद पर निसार होने वाले, शमा नुबूवत के परवाने यह सुनते तो वाक़ई परवानों की तरह पूरे जोश में आकर यह कह-कह कर क़ुरबान होने लगते-
“हम वह हैं जिन्होंने ज़िंदगी भर के लिए मुहम्मद(ﷺ) के हाथ पर जिहाद की बैअत कर ली है ‘ऐ अल्लाह! खैर व नेकी तो आख़िरत ही की है, पस तू अंसार और मुहाजिरों के दर्मियान अपनी बरकत नाज़िल फ़रमा।’
और बरा बिन आज़िब फ़रमाते हैं, कि ग़ज़वा-ए-खंदक़ में खुदा के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हालत यह थी कि खंदक़ से मिट्टी उठाकर इधर-उधर मुंतक्किल कर रहे थे और मुबारक जिस्म गर्द से अट रहा था और यह रजज (वीर-गाया) पढ़ते जाते थे ‘खुदा की क़सम, अगर खुदा की हिदायत रहनुमाई न करती तो हमको हिदायत नसीब होती और न सदक़ा व नमाज़, पस ऐ खुदा! तू हम पर इत्मिनान उतार और जंग के मैदान में हमको साबित क़दम रख और जिन लोगों ने हम पर सरकशी करते हुए चढ़ाई की है, जब उन्होंने फितने का इरादा किया तो हमने इंकार कर दिया (उनको नाकाम कर दिया)। और तन्हा जोश के साथ ‘अना’ को ऊंची आवाज़ से कहते जाते थे।
खंदक़ की खुदाई का काम कुछ दिन जारी रहा और इस तरह दुश्मन से हिफ़ाज़त का पूरी तरह सामान हो गया लेकिन जब घेराव को बीस दिन हो गए, तो बनू कुरैज़ा के यहूदियों की अहद शिकनी और लगातार घेराव से कुछ उकताने और बेचैनी महसूस करने लगे। हुआ यह कि काफिरों की फौज में एक आदमी नुऐम बिन मसऊद नखई था, यह यों अभी तक मुसलमान नहीं हुआ था, लेकिन उसके दिल में इस्लाम की सच्चाई घर कर चुकी थी, इसलिए उसने अपनी होशियारी से मक्का के मुशरिकों और मदीना के यहूदियों के दर्मियान बे-एतमादी पैदा कर दी और लड़ाई के मामले में दोनों फ़रीन में ऐसा इख्तिलाफ़ पैदा हो गया कि एक ने दूसरे के साथ मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ाई करने से इंकार कर दिया।
और अभी मक्का के मुशरिक वापस भी न हुए थे कि क़ुदरत की तरफ से तेज़ हवाओं का ऐसा तूफ़ान उठा कि जिसने आन की आन में दुश्मन की तमाम फौज को तहस-नहस कर दिया। ख्नेमे उखड़ कर गिरने लगे, चौपाए भड़क-भड़क कर भागने लगे और सारी फ़ौज में अबतरी फैल गई और दुश्मन के घेराव छोड़कर भागने का रास्ता इख़्तियार किया और इस तरह अल्लाह ने मुसलमानों को उनके फितने से नजात दी।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसी मौक़े पर इर्शाद फरमाया –
‘अल्लाह तआला की तरफ से मुझको पुरवा हवा के ज़रिए जीत अता की गई और आद पछुवा हवा से हलाक़ किए गए थे।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब दुश्मन की ख़बर मालूम करने की ज़रूरत पेश आई थी तो तीन बार आपने मालूम किया कि इस खिदमत को कौन अंजाम देगा और तीनों बार हज़रत ज़ुबैर बिन अव्वाम में आगे बढ़ कर अर्ज़ किया, इस खिदमत के लिए मैं हाज़िर हूं।
तब आपने ईशाद फरमाया- हर एक नबी के हवारी होते हैं और मेरे हवारी ज़ुबैर (रजि) हैं और इसी मौक़े पर हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह दुआ फरमाई –
‘ऐ किताब (क़ुरआन) के नाज़िल करने वाले खुदा! ऐ जल्द हिसाब लेने वाले! तू मुशिरकों की जमाअत को हरा दे, ऐ अल्लाह! उनको भगादे और उन को डगमगा दे।’
“कोई खुदा नहीं अल्लाह की ज़ात के सिवा, जो यक्ता व बेहमता है, उसने अपने लश्कर (मुसलमानों) को इज़्ज़त बख्शी और अपने बन्दे की मदद की और यक्ता ज़ात अह्ज़ाब (सब जमाअतों) पर गालिब है और उसके अलावा सब फ़ानी है।‘
यही वह लड़ाई है जिसमें जिहाद की मशगूली की वजह से हुज़ूरे अकरम ﷺ और सहाबा (रजि) की अस्र की नमाज़ कज़ा हो गई और आपने मगरिब के वक्त दोनों नमाज़ों को अदा किया। (बुखारी, बाबुल जिहाद)
क़ुरआन और अह्ज़ाब की लड़ाई
हज़रत आइशा सिद्दीका रज़ि० फ़रमाती हैं –
“यह आयत (जिस का तर्जुमा-नीचे दिया जा रहा है) खंदक़ की लड़ाई के बारे में ही नाज़िल हुई –
तर्जुमा- ‘और जब चढ़ आए (मुशरिक) तुम पर ऊपर की जानिब से और नीचे की जानिब से और जब फिर गई (दहशत की वजह से) आंखें और पहुंच गए दिल गलों तक (यानी कलेजे मुंह को आ गए)’ (33:10)
क़ुरआन में इसी ग़ज़वे के तअल्लुक़ से इस सूरः का नाम ही ‘अह्ज़ाब’ हो गया। इस सूरः के दूसरे और तीसरे रुकूअ में इसी वाक़िये का ज़िक्र है –
तर्जुमा- ‘ऐ ईमान वालों, अल्लाह की नेमत को याद करो जो तुम पर उस वक्त की गई जब तुम पर (मुशिरकों के) लश्कर चढ़े थे। पस हमने उन पर हवा को और ऐसी फौजों को भेज दिया, जिनको तुम नहीं देख रहे थे और जो काम भी तुम करते हो, अल्लाह उन कामों को देखने वाला है- ‘व कानल्लाहु अला कुल्लि शैइन कदीर’ तक।‘ (33:9-27)
To be continued …