हज़रत मुहम्मद ﷺ (भाग १०)

हुनैन की लड़ाई

      ‘फ़तहे अज़ीम’ (भारी जीत के बाद अरब के मुशरिकों की शौकत और दबदबा का लगभग ख़ात्मा हो गया और अब अरब क़बीले गिरोह-दर-गिरोह इस्लाम में दाख़िल होने लगे यह देखकर दो कबीलों की जाहिलियत-हमियत भड़क उठी और वे इस्लाम की तरक्की को बरदाश्त न कर सके-हवाज़िन और सकीफ़ इन दोनों कबीलों के सरदारों की मीटिंग हुई और उन्होंने आपस में मशवरा किया कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपनी कौम (क़ुरैश) को मग्लूब करके मुतमइन हो गए हैं इसलिए अब हमारी बारी है।

      पस क्यों न हमी पेशक़दमी करके मुसलमानों पर हमलावार हो जाएं और उनकी जड़ें उखाड़ दें। दोनों ने यह मंसूबा बांधा और मालिक बिन औफ़ नज़री को अपना बादशाह मान कर के हसद की आग को मुसलमानों के खून से बुझाने की कोशिश की। मालिक ने बहुत से क़बीलों को अपने साथ मिला कर जंग की तैयारी शुरू कर दी।

      नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब यह मालूम हुआ तो सहाबा को जमा फरमाया और मशवरों के बाद, बचाव के लिए तैयार होकर हुनैन को रवाना हो गए उस वक्त इस्लामी फ़ौज में बारह हज़ार जॉनिसार मौजूद थे। उनमें से दस हज़ार मुहाजिर व अंसार और मदनी जाननिसार थे और दो हज़ार वे थे जो फ़तहे मक्का के वक़्त मुसलमान हुए थे और अस्सी वे मुशरिक (तुलका) थे जो इस्लाम न कुबूल करने के बावजूद रहमतुल-लिल-आलमीन के मुजाहरे देखकर खुद अपनी ख्वाहिश से मुसलमानों के जंग के साथी बन गए थे।

      10 शब्वाल, 8 हिजरी मुताबिक़ फ़रवरी 630 ई० के ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ इस्लामी मुजाहिदों की क़ौम हुनैन जा पहुंची, आपने दुश्मन के मुकाबले में जब इस्लामी फ़ौज को सफ़ बनाने का हुक्म दिया तो मुहाजिरीन का झंडा हज़रत अली (रजि) को दिया और अंसार में से बनी ख़ज़रज का झंडा जनाब बिन मुज़िर को बख्शा और औस का उसैद बिन हुजैर को इनायत फ़रमाया और इसी तरह अलग-अलग कबीलों के सरदारों को उनकी फौज का झंडा थमा दिया।

      नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुद भी हथियार सजाये, दो जिरह (कब्ल) पहने, खूद सर पर रखे अपने मशहूर खच्चर पर सवार इस्लामी फ़ौज की कमान कर रहे थे।

      अभी लड़ाई ने मरने-मारने की सूरत नहीं देखी थी कि मुसलमानों के दिलों में अपनी फ़ौज की भारी तायदाद और उसकी फ़रावानी इस दर्जा असर कर गई कि कुछ मुसलमानों की ज़ुबान से ‘इन्शाअल्लाह’ कहे बग़ैर ही अपनी ताकत के घमंड पर यह निकल गया कि आज हमारी ताकत को कोई नहीं हरा सकता।

      मुसलमान, एक अल्लाह का पुजारी, एक ख़ुदा पर भरोसा करने के बजाए अपनी तायदाद की ज़्यादती पर घमंड करे यह उसकी भूल है इसलिए ख़ुदा को मुसलमानों का यह घमंड पसन्द न आया और इसलिए उन पर यह सबक़ का कोड़ा लगा कि जब लड़ाई शुरू हुई और मुसलमानों की फौज ने पेशकदमी की तो अचानक दुश्मन की इन टोलियों ने जो गोरिल्ला जंग लड़ने के लिए पहाड़ की अलग-अलग घाटियों में घात लगाए बैठी थीं हर तरफ़ से इस्लामी फ़ौज पर बारिश की तरह तीर चलाना शुरू कर दिया।

      इस्लामी फ़ौज को इस भारी तीर-वर्षा की उम्मीद न थी इसलिए उनकी सफें डगमगा गई और थोड़ी ही देर में मुसलमानों के क़दम उखड़ गए और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मशहूर मुहाजिर व अंसार सहाबा के अलावा तमाम बदवी क़बीलों और मदनी फ़ौज की अक्सरीयत ने भागने का रास्ता इख़्तियार किया।

      नबी अकरम सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम इस हालत में भी यह रजज़ (जोश दिलाने वाले जुमले) पढ़ते और बहादुरी का मुज़ाहिरा करते जाते थे –

अनन्नबीयु ला कज़िब अननु अब्दिल मुत्तलिब

(इसमें तनिक भी झूठ नहीं, मैं नबी हूं। मैं हूं अब्दुल मुत्तलिब का बेटा)

      ग़रज उसी वक़्त नबी अकरम के इशारे पर हज़रत अब्बास (रजि) ने ऊंची आवाज से भागते मुसलमानों को ललकारा, ‘ऐ अंसार क़बीले के लोगो!’ ‘ऐ बैअते रिज़वान के लोगो!’

      हज़रत अब्बास (रजि) की हक़ की आवाज़ गूंजी ही थी कि एक-एक मुसलमान अपनी हालत पर अफ़सोस करता हुआ पलट पड़ा और मिनटों में तमाम जानिसार नबी अकरम के गिर्द जमा हो गए और बहादुरी से लड़ने लगे नतीजा यह निकला कि हार,जीत में तब्दील हो गई और अल्लाह के फ़ज़ल व करम ने हार को ‘जीत‘ में बदल दिया।

      मुशरिकों की जमाअत में एक मशहूर राय देने वाले दरीद बिन समद नामी शख्स था। उसने मालिक के इस तरीके की ज़बरदस्त मुखालफ़त की थी कि मैदान में औरतों, बच्चों और माल व दौलत के ख़ज़ानों को साथ ले जाए मगर मालिक ने उसकी राय पर अमल न किया और सबको साथ लाया था, चुनाचे यह सब माले ग़नीमत मुसलमानों के हाथ लगा और मुशिकों की रही-सही ताकत का भी खात्मा हो गया।

      बहुत से मुशरिकों और उनके कबीलों पर अगरचे इस्लाम की सच्चाई रोशन हो चुकी थी मगर फिर भी वह अपने ख्याल में मादी शौकत को सब कुछ समझते थे चुनांचे मुसलमानों पर अल्लाह तआला के इस फ़ज़ल व करम को जब उन्होंने इस तरह देख लिया तो अब वे भी अपनी मर्जी और चाव से इस्लाम की गोद में आ गए।

हुनैन की लड़ाई और कुरआन

      हुनैन की लड़ाई में मुसलमानों का अपनी भारी तायदाद पर घमंड और उसके नतीजे में शुरू ही में हार और फिर अल्लाह के फ़ज़ल से फ़तह व नुसरत का हाल कुरआन ने सूरः तौबा में अपने खास अंदाज़ के साथ इस तरह बयान किया है।

      तर्जुमा- ‘बेशक अल्लाह बहुत मैदानों में तुम्हारी मदद कर चुका है और हुनैन के दिन (भी) जब तुम अपनी बड़ी तायदाद पर इतरा गए थे तो देखो वह बड़ी तायदाद तुम्हारे कुछ काम न आई और ज़मीन अपने पूरे फैलाव के बावजूद तुम पर तंग हो गई और आखिरकार ऐसा हुआ कि तुम मैदान को पीठ दिखाकर भागने लगे फिर अल्लाह ने अपने रसूल पर और ईमान वालों पर अपनी ओर में दिल से सुकून व क़रार नाज़िल फ़रमाया और ऐसी फ़ौज उतार दी जो तुम्हें नज़र नहीं आई थी और उन लोगों को अजज़ाब दिया जिन्होंने कुफ़्र की राह इख़्तियार की थी और जो कुफ़्र की राह इख़्तियार करते हैं उनका बदला यही है। इसके बाद अल्लाह जिस पर चाहेगा अपनी रहमत से लौट आएगा और अल्लाह बड़ा ही बख्शने वाला रहमत वाला है।’ (9:25-26-27) 

तबूक की लड़ाई और तौबा के कुबूल होने का अजीब वाकिया

      तबूक शाम का एक मशहूर शहर है। सन् 9 हि० में सरदारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह ख़बर मिली कि कैसरे रूम हिरक़ल एक शानदार फ़ौज मुसलमानों पर चढ़ाई के लिए तैयार कर रहा है और कई लाख ज़ोरावर वालेंटियर अब तक भर्ती हो चुके थे।

      यह कड़ी आज़माइश का वक़्त था। सैकड़ों मील की राह, हवा के गर्म झोंके और तपती हुई रेत से वास्ता, मगर इस्लाम के फ़िदाकार, दुनिया के ऐश और मौसम की मुसीबतों से बेपरवा और बे-ख़ौफ़ होकर परवानावार इस्लाम पर निसार होने के लिए मदीना में जमा हो रहे थे।

      नबी अकरम का यह दस्तूर था कि जब किसी लड़ाई का इरादा फ़रमाते तो आम तरीके से यह ज़ाहिर न होने देते कि कहां का कस्द है, ताकि दुश्मन सही हालात न पा सके लेकिन तबूक की लड़ाई में चूँकि सख्त मौसम था, हिजाज़ में अकाल, हालात की नासाज़गारी और दुश्मन की ज़बरदस्त ताक़त का मुकाबला करना था, इसलिए इस कड़ी आजमाइश में ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अरब के तमाम कबीलों में असल हक़ीक़त का एलान करा दिया ताकि जो आदमी भी इस कांटे भरी वादी में कदम रखे सोच-समझ कर रखे।

माली मदद

      ऊपर लिखे नाज़ुक हालात के पेशेनज़र यह पहली लड़ाई है जिसमें नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुजाहिदों की माली मदद करने पर उभारा और बड़े-बड़े इस्लाम के जांनिसारों को अपनी माली फ़िदाकारी का सबूत देने के लिए मौका दिया चुनांचे हज़रत उस्मान (रजि) ने दस हज़ार दीनार सुर्ख, तीन सौ ऊंट और पचास घोड़े पेश किए और ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके इस इख्लास भरे जज़्बे पर यह दुआ फ़रमाई –

      ‘ऐ अल्लाह! तू उस्मान (रजि) से राज़ी हो, इसलिए कि मैं उससे राज़ी हू।

      हज़रत उमर (रजि) ने अपना आधा माल पेश कर दिया, हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रजि) ने सौ औकिया और हज़रत आसिम बिन अदी (रजि) ने साठ वसक़ खजूरें पेश की और हज़रत अब्बास (रजि) व हज़रत तलहा (रजि) ने सारी दौलत पेश की और औरतों ने भी अपने हौसले से ज़्यादा ज़ेवर पेश किए यहां तक कि हज़रत अबूबक्र (रजि) ने अपना कुल माल ही इस्लाम पर कुर्बान कर दिया। सिद्दीके अकबर रज़ि० जब अपना माल ले कर खिदमत में हाज़िर हुए तो नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मालूम किया, अबूबक्र! तुम अपने घर वालों के लिए भी कुछ छोड़कर आए हो? अबूबक्र रज़ि० ने अर्ज़ किया-हां, ऐ अल्लाह के रसूल ! मैं अपने घर में अल्लाह और उसके रसूल सल्ल० का नाम छोड़ आया हूं।’

      ग़रज़ शानदार तैयारियों के बाद जब मुसलमानों का भारी लश्कर अल्लाह के कलिमे को बुलंद करने के लिए फ़िदाकाराना वलवले और जोश के साथ तबूक की तरफ बढ़ा तो हिरक़ल को भी जासूसों ने ख़बर कर दी। हिरक़ल या तो भारी भरकम फ़ौज के साथ लड़ाई की तैयारियों में मशगुल था या यह ख़बर सुनते ही होश व हवास खो बैठा और ‘रूमी‘ मुसलमानों के बेनजीर ईसार व फ़िदाकारी के जज़्बेa से मुतारिसर होकर और डर कर तबूक में मुसलमानों के पहुंचने से पहले ही बिखर गए और नबी अकरम सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम रास्ते के कुछ ईसाई सरदारों को अम्र का परवाना देते और समझौता करते हुए कामयाबी के साथ वापस आ गए। 

बहाने बनाए

      जब आप मदीना तशरीफ़ लाए तो मुनाफ़िकों ने इस शानदार आज़माइश में शरीक न होने के झूठे बहाने खोज कर ख़िदमते अक़दस में रखा और ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस्लाम के जमाअती निज़ाम के मस्लहतों के पेशे नज़र उनसे दर-गुज़र फ़रमाया।

      मगर उज्र करने वाले ग्रुपों में तीन इस्लाम के मुख्लिस लोग भी थे औ वे थे काब बिन मालिक, हिलाल बिन उमैया और मुरारा बिन रुबै जैसी हस्तियां थीं।

      उन्होंने मुनाफिकों की तरह हाज़िर होकर झूठ से काम नहीं लिया औ साफ़-साफ़ अर्ज कर दिया, ऐ दीन व दुनिया के बादशाह! मैं चाहता तो मुनाफ़िकों की तरह कोई झूठा उज्र पेश करके आपकी पकड़ से बच जाता लेकिन अगर किसी दुनियादार से ऐसा मामला पेश आता तो कर भी लेता मगर ख़ुदा के नबी के साथ ऐसा नहीं कर सकता। सच बात यह है कि सिर्फ अपनी काहिली की वजह से जिहाद से महरूम रहा।

      हर दिन यह ख्याल करता रहा कि आज अपने बागों के लुत्फ से और सैर हो लूं, कल ज़रूर रवान हो जाऊंगा और इस्लाम की फ़ौज को एक दो मंज़िल ही पर जा पकडूंगा आख़िरकार इस काहिली का नतीजा महरूमी की शक्ल में ज़ाहिर हुआ अब जो हुक्म हो उसके लिए हाज़िर हूं। यही हिलाल और मुरारा ने कहा और इस तरह तीनों मुजरिमों की तरह अल्लाह के रसूल (ﷺ) का हुक्म सुनने के लि कान लगा लिए।

सोशल बाइकाट (Social Boycott)

      ये तीनों इस्लाम के फ़िदाई, खुलूस के पैकर और रसूल सल्ल० के आशिक थे, इसलिए इसका मामला मुनाफ़िकों जैसा नहीं था कि वे जमात निज़ाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर गुज़रें और जिहाद जैसे मिल्लत के बहुत बड़े रुक़ को सिर्फ काहिली और सुस्ती पर कुरबान कर दें और फिर उनको मामूली माज़रत पर माफ़ कर दिया जाए। इसलिए ज़रूरत थी कि इस मामले में ऐसा फैसला दिया जाए कि आगे किसी मुख्लिस मुसलमान को ऐसी गलतफ़हमी और निज़ाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी की जुर्रत न हो सके। चुनांचे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया- ‘तुमने सच-सच बात कह दी अब जाओ और ख़ुदा के फैसले का इंतिज़ार करो।’

      तीनों इस हुक्म के बाद घर वापस आ गए और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तमाम सहाबा को हुक्म फ़रमा दिया कि इन तीनों से कलाम व सलाम सब तर्क कर दिया जाए। चुनांचे तमाम मुसलमानों ने उनका सोशल बाईकाट कर दिया। 

नज़्म व ज़ब्त की ज़ोरदार मिसाल

      हज़रत काब (रजि) ख़ुद फ़रमाते हैं कि इस वाकिए ने हम तीनों पर जो कुछ असर किया उसका अंदाजा दूसरा कोई नहीं कर सकता मेरे दोनों साथियों पर तो इस दर्जा असर पड़ा कि उन्होंने बाहर निकलना ही छोड़ दिया मगर मैं सख्त जान था बराबर नमाज़ों के वक़्तों में मस्जिदे नबवी में हाज़िर होता रहा।

      जब मैं मस्जिद में हाजिर होता तो नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सलाम करता और देखता रहता कि मुबारक लब को हरकत हुई या नहीं मगर बदकिस्मती और महरूमी के सिवा कुछ न पाता। अलबत्ता यह महसूस करता था कि जब मैं नमाज़ में मश्गूल होता तो आप मेरी जानिब देखते रहते और जब मैं फ़ारिग़ होकर आपकी जानिब मुतवज्जह होता तो मेरी तरफ़ से मुबारक रुख फेर लेते।

      लेकिन इस पूरे वाकिए में मुसलमानों की इस्लाम दोस्ती और अल्लाह के रसूल सल्ल० के हुक्म पर ज़बरदस्त जमाव का यह हाल था कि जब मैं लोगों की इस सख्ती से उकता गया तो एक दिन अपने सबसे महबूब अज़ीम और चचेरे माई अबूकतादा के पास गया, उस अबूक़तादा के पास जो इससे पहले मुझ पर जान छिड़कता था और मेरा आशिक़ व जानिसार था। मैंने उसको सलाम किया मगर ख़ुदा की कसम उसने कोई जवाब न दिया।

      मैं इस हालत को देखकर तड़प गया और अबूक़तादा से कहा, अबूक़तादा! मैं ख़ुदा की क़सम देकर तुझ से मालूम करता हूं क्या तुझे मालूम नहीं कि मैं अल्लाह और उसके रसूल को दोस्त रखता हूं और मैं अल्लाह और रसूल का आशिक़ हूँ? अबूक़तादा फिर भी ख़ामोश रहा और कोई जवाब नहीं दिया। मैंने दो बार फिर इस बात को दोहराया, मगर उसने चुप्पी साध ली और कोई जवाब न दिया। आख़िर जब तीसरी बार कहा- तो सिर्फ यह कहकर चुप हो गया, ‘ख़ुदा और रसूल ही खूब जानता है।’

      यह सुनकर मुझसे ज़ब्त न हो सका और मेरी आंखें डबडबा आई कि अल्लाहु अकबर यह इंक़िलाब! और यहीं तक मामला ख़त्म नहीं हुआ बल्कि चालीस दिन गुज़रने पर रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हुक्म फ़रमाया कि इन तीनों की बीवियों को भी चाहिए कि शौहरों का बायकाट करके अलग हो जाएं। चुनांचे इन अल्लाह की बंदियों ने हमारे साथ दिली ताल्लुक़ के बावजूद रसूल के हुक्म को मुक़द्दम समझा और अपने मैके चली गई अलबत्ता हिलाल बिन उमैया की जीवन-साथी ने दरबारे रिसालत में जाकर अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के रसूल ! हिलाल बूढ़े हैं उनकी ख़िदमतगुजार सिर्फ़ मैं ही हूं दूसरा कोई नहीं अगर वे मेरी ख़िदमत से महरूम हो गए तो उनकी हलाक़त का अंदेशा है, अब क्या हुक्म ?

      तब आपने फ़रमाया – ‘ख़िदमत करती रहो बाक़ी ताल्लुक़ात को अभी रोक दो।‘ यह सुनकर उसने सर झुका दिया। बात मान ली और इसके बावजूद कि शौहर और बीवी या अज़ीज़ों और रिश्तेदारों के दर्मियान कोई दूसरा मौजूद नहीं होता था तब भी क्या मजाल कि एक लम्हे के लिए भी किसी ने रसूल के हुक्म से हटने की जुर्रत की हो, अल्लाह! अल्लाह! यह है सच्ची शाने इताअत ख़ुदा और रसूल की! 

रसूल के इश्क और इस्लाम की सच्चाई का हैरत में डाल देने वाला मेयार

      काब बिन मालिक (रजि) का चालीस दिन से लगातार समाजी बाइकाट है। ग़ैरों का ज़िक्र ही क्या, करीबी अज़ीज़ व रिश्तेदार, यहां तक कि जीवन-साथी भी इस्लाम और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म पर परवानावार निसार होते हुए काब का बाइकाट किए हुए हैं गोया इस तरह काब पर ख़ुदा की ज़मीन तंग हो गई है। वह इस मायूसी और हैरानी की हालत में मदीना के बाज़ार से गुज़र रहे हैं कि अचानक शाम का एक नबती पुकारता हुआ नज़र आया, मुझको कोई काब बिन मालिक तक पहुंचा दे।’

      लोगों ने हाथ के इशारे से बताया कि काब यह जा रहे हैं, नबती आगे बढ़ा और काब की राह रोक कर उनकी खिदमत में एक ख़त पेश किया। काब ने पढ़ा तो शाहे ग़स्सान का ख़त था, उसमें लिखा था –

      अम्मा बाद! मुझको मालूम हुआ है कि तुम्हारे साथी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तुम पर बड़ा ज़ुल्म कर रखा है। ख़ुदा ने तुम जैसी हस्ती को इस ज़िल्लत और बरबादी के लिए नहीं बनाया पस तुम फौरन यहां चले आओ हम तुम्हारी ख़ातिरख्वाह इज़्ज़त करेंगे। (फ़तहुलबारी)

      हज़रत काब रज़ि० फ़रमाते हैं –
      ख़त पढ़ते ही मुझको सख्त रंज व मलाल हुआ और मैंने दिल में कहा कि यह आज़माइश व बला पहली आज़माइश से भी ज़्यादा कठिन है। मैं और शाहे ग़स्सान को मेरे बारे में यह गुमान कि इस इम्तिहान से घबरा कर उसके पास भाग जाऊं और ख़ुदा और ख़ुदा के रसूल से मुंह मोड़ लूं। आह, यह बहुत ही तक्लीफ़ देने वाली सूरतेहाल है। बहरहाल शाहे ग़स्सान की इस ज़लील हरकत पर मुझे ऐसा गुस्सा आया कि मैं एक तन्दूर के सामने पहुंचा और उसके ख़त को उसमें झोंक कर नबती से कहा- यह है तेरे बादशाह के ख़त का जवाब और मैं खिदमते अक़दस में हाज़िर होकर बेचैनी के साथ अर्ज़ करने लगा- शाहे हर दूसरा, आख़िर यह एराज़ (मुंह फेरना) क्या इस दर्जे को पहुंच गया कि अब मुश्रिक भी मुझे फुसलाने की जुर्रत करने लगे।

      ग़रज़ इसी तरह पचास रातें गुज़र गई और हमारी महरूमी की गिरह न खली और अल्लाह के इर्शाद के मुताबिक़ ख़ुदा की ज़मीन फैली होने के बावुजूद हम पर तंग हो गई और अपनी जान वबाल नज़र आने लगी कि यकायक सुबह की नमाज़ के बाद सलअ की चोटी पर से एक पुकारने वाले  ने पुकारा, ‘ऐ काब! बशारत हो।’

      मैं तो हालत में इन्किलाब आने के इंतिज़ार में ही था फ़ौरन समझ गया कि अल्लाह के दरबार में तौबा कुबूल हो गई। अब क्या था मारे खुशी के फूला न समाया और वहीं सजदे में गिर गया।

      अब गिरोह-दर-गिरोह लोग आ रहे हैं और तौबा के कुबूल होने की खुशख़बरी सुना रहे हैं और जीवन साथी की तरफ़ से भी मुबारकबाद पेश की जा रही है। सबसे पहले जिस आदमी ने मुझसे तौबा कुबूल करने की तफ़सील से खुशख़बरी सुनाई वह एक सवार था। मैंने इंतिहाई खुशी में जो कपड़े पहने हुए था उतार कर उसको दे दिए। खुदा की शान कि मेरे पास और कपड़े भी नहीं थे इसलिए उधार मांग कर पहने और रसूल सल्ल० के दरबार में हाज़िर हुआ राह में भी लोगों का तांता बंधा हुआ था और मुझ पर मुबारकबादियों और खुशख़बरियों के फूल बरसाए जा रहे थे।

      रसूल के दरबार में पहुंचा तो आप हज़रत सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम आगे बढ़े और मुझसे मुसाफ़ा किया और मुबारकबाद पेश की। इसी खुशी के साथ मैंने आपके चेहरे पर नज़र डाली तो देखा कि मुबारक चेहरा मारे खुशी के बिजली की तरह चमक रहा है, मुस्कराते हुए इर्शाद फ़रमाया- ‘इस मुबारक दिन में बशारत हासिल कर तेरी पैदाइश से आज तक इससे बेहतर कोई दिन नहीं आया।’

      मैंने अर्ज किया- ‘ऐ अल्लाह के रसूल ! तौबा का यह कुबूल होना आपकी तरफ से है या अल्लाह की तरफ़ से?

      हुजूर सल्ल० ने फ़रमाया- “मेरी तरफ़ से नहीं, ख़ुदा की तरफ़ से है।

      आपने यह जवाब दिया और रुख अनवर चांद की तरह रोशन नज़र आने लगा। मैंने खुश होकर कहा- ‘ऐ अल्लाह के रसूल ! तौबा के मेरे कुबूल होने का एक हिस्सा यह भी हो जाए कि मैं अपना कुल माल अल्लाह के रास्ते में सदका कर दूं। 

      आपने इर्शाद फ़रमाया- ‘बेहतर यह है कि कुछ हिस्सा अपने लिए रख लो। 

      “मैंने अर्ज़ किया- खेबर का जो हिस्सा मेरे पास है उसे रोके लेता हूं। ‘मैंने यह भी अर्ज़ किया- ‘ऐ अल्लाह के रसूल! यह सच्चाई का सदक़ा है कि आज बेपनाह माल से मालामाल हूं इसलिए अहद करता हूं कि उम्र भर सच कहने के अलावा मेरा शिआर कुछ न होगा।’

      हज़रत काब (रजि) फ़रमाते हैं- मेरे इस मामले में रंज व ग़म के हर दो साथी का भी खुशी में यही हाल हुआ और हमारी तौबा कुबूल होने पर जो फ़ज़ल की आयतें उतरी थीं नबी अकरम सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने हमारे सामने उनकी तिलावत फ़रमाई।

तौबा का कुबूल होना और सूरः तौबा

      तर्जुमा- ‘बेशक अल्लाह अपनी खुशी से नबी पर मुतवज्जह हो गया और मुहाजिरों और अंसार पर भी जिन्होंने बड़ी तंगी और बेसर व सामानी की हालत में उसके पीछे कदम उठाया और उस वक़्त उठाया कि करीब था उनमें से एक गिरोह के दिल डगमगा जाएं फिर वह अपनी रहमत से उन सब पर मुतवज्जह हो गया बेशक वह मुहब्बत रखने वाला रहमत करने वाला है और उन तीन आदमियों पर भी (अपनी रहमत के साथ रुजू हुआ जो लटकी हालत में छोड़ दिए गए थे यहां तक कि नौबत यह आई कि)

      ज़मीन अपने तमाम फैलाव के बावजूद उन पर तंग हो गई थी और वे ख़ुद भी अपनी जान से तंग आ गए थे और उन्होंने जान लिया था कि अल्लाह से भाग कर उन्हें कोई पनाह नहीं मिल सकती मगर ख़ुद उसी के दामन में, पस अल्लाह उन पर अपनी रहमत के साथ लौट आया ताकि वह रुजू करें। बेशक अल्लाह ही बड़ा तौबा कुबूल करने वाला है बड़ा ही रहमत वाला है, ऐ ईमान वालो! अल्लाह का लिहाज़ करो, डरते रहो और सच्चों का साय इख़्तियार करो।’ (7:117-119)

क़ुरआन और तबूक की लड़ाई

      क़ुरआन ने सिर्फ इसी वाकिया का ज़िक्र नहीं किया, बल्कि तबूक की लड़ाई की अहमियत के पेशे नज़र उसकी बहुत-सी तफ़्सील बयान की और इस सिलसिले में चंद और नसीहत के ज़रिए मुसलमानों की रुश्द व हिदायत का सामान जुटाया है। चुनांचे इस सूरः में छठे रुकूअ से लेकर आख़िर सूरः तक इसी लड़ाई और लड़ाई से मुताल्लिक़ हालात और नसीहतों का ज़िक्र है।

To be continued …