हज़रत मुहम्मद ﷺ (भाग ४)

मेराज

      ‘इसरा’ (मेराज) के मानी रात में ले जाने के है। नबी करीम ﷺ का वह बेमिसाल और हैरत में डालने वाला वाकिया जिसमें अल्लाह ने अपने रसूल को मस्जिदे हराम (मक्का) से मस्जिदे अक्सा (बैतुल मक्दिस) और वहां से मला-ए-आला तक जिस्म के साथ (सशरीर) अपनी निशानियां दिखाने के लिए सैर कराई चूंकि रात के एक हिस्से में पेश आया था, इसलिए ‘इसरा‘ कहलाता है।

      ‘मेराज’ उरूज से निकला है जिसके मानी चढ़ने और बुलन्द होने के हैं और इसीलिए मे राज ज़ीना को भी कहते हैं। नबी अकरम ﷺ ने चूंकि इस रात में मला-ए-आला की बढ़ती मंज़िलें तय फ़रमाते हुए सातों आसमान, सिदरतुल-मुंतहा और उससे भी बुलन्द होकर अल्लाह की निशानियां अपनी आंखों देखी और इन वाकियों के ज़िक्र में वह्य के तर्जुमान ने ‘अ-र-ज बी‘ का जुम्ला इस्तेमाल फ़रमाया इसलिए इस अज़ीम वाक़िए को मेराज के नाम से याद किया जाता है। 

वाकिया सिर्फ एक ही बार हुआ

      इसलिए दो अलग-अलग ताबीरों और वाकियों की तफ्सील में थोड़े-थोड़े इख़्तिलाफ़ को सामने रखते हुए रिवायतों में मेल पैदा करने की ग़रज़ से इस वाकिए की ज़्यादा तायदाद का कायल होना तारीख़ी और तहकीकी निगाह से हरगिज़ सही नहीं है। मशहूर मुहक्किक, ज़लीलुल क़द्र मुहद्दिस, मुफस्सिर और तारीख़दां हाफ़िज़ इमादुद्दीन इब्ने कसीर का यह फरमाना कि ‘इन तमाम रिवायतों को जमा करने से यह बात अच्छी तरह साफ़ हो गई कि मेराज का वाकिया सिर्फ एक ही बार पेश आया, हक़ीक़त खोल देती है।

तारीख़ व सन् की तारीख़

      यह वाकिया कब पेश आया इस बारे में बहुत से कौल हैं लेकिन इन दो बातों पर सब मुत्तफिक हैं –

      एक यह कि मेराज का वाकिया हिजरत से पहले पेश आया। दूसरी बात यह कि हज़रत ख़दीजा (रजि) के इंतिकाल के बाद वाके हुआ और जबकि हिजरत के वाकिए पर सब मुत्तफ़िक हैं कि 13 नबवी को पेश आया और जैसा कि बुख़ारी में ज़िक्र है, हज़रत आयशा रजि० की रिवायत के मुताबिक हज़रत ख़दीजा (रजि) का इंतिकाल हिजरत से तीन साल पहले, और एक दूसरी रिवायत के पेशेनज़र पांच वक़्त की नमाज़ के फ़र्ज़ होने से पहले हो चुका था तो अब मेराज के वाकिए को हिजरत से पहले के इन तीन वर्षों के अन्दर ही होना चाहिए।

      तो अब यह कहना आसान है कि मेराज का वाकिया हिजरत से एक साल या डेढ़ साल पहले पेश आया। क़ौल यह है कि महीना रजब का था और तारीख़ 29 थी। चुनांचे इब्ने अब्दुल बर्र, इमाम नबवी और अब्दुल ग़नी मुकद्दसी रह० जैसे मशहूर हदीस के माहिरों व रुझान इसी तरफ़ है कि रजब था और बाद के तो फरमाते हैं कि 27 थी और दावा करते हैं कि उम्मत में हमेशा से इसी पर इत्तिफाक रहा है।

कुरआन और मेराज का वाकिया

      कुरआन में इसरा या मेराज का वाकिया दो सूरतों-बनी इसराईल और अन-नज्म-में ज़िक्र किया गया है। सूरः बनी इसराईल में मक्का (मस्जिदे हराम) से बैतुल मक्दिस (मस्जिदे अक्सा) तक सैर का ज़िक्र है और सूरः नज्म में मला-ए-आला के सैर व उरूज का भी जिक्र मौजूद है। अगरचे आमतौर पर यह समझा जाता है कि बनी इसराईल की सिर्फ़ शुरू ही की आयतों में इस वाकिए का ज़िक्र है मगर हक़ीक़त यह है कि पूरी सूरः इसी शानदार वाकिए से मुताल्लिक है और सूरः की तमाम आयतें इसी को पूरा करती हैं।

      और इस दावे के लिए एक साफ़ और खुली दलील ख़ुद इसी सूरः में यह मौजूद है कि बीच सूरः में आयत ‘व मा ज-अलनरोंया अल्लती अरै ना-क इल्ला फ़ित-न-तल्लिन्नास’ में मेराज के इसी वाकिए का तज़्किरा हो रहा है। इससे पहले हज़रत मूसा (अलै.) और हज़रत नूह (अलै.) के दावत व तब्लीग़ के वाकिए इसी सिलसिले में गवाह और नज़ीर के तौर पर पेश किए गए हैं कि इंकार करने वालों ने हमेशा इसी तरह ख़ुदा की सच्चाइयों को झुठलाया है जिस तरह आज मेराज के वाकिए को झुठला रहे हैं। 

हदीसें और मेराज के वाकिए का सबूत 

      मशहूर मुहद्दिस ज़रक़ानी (रह.) कहते हैं कि मेराज का वाकिया 45 सहाबा से नकल किया गया है और फिर उनके नाम गिनाए हैं। इन सहाबा में मुहाजिरीन भी हैं और अंसार भी और यह हरगिज़ नहीं समझना चाहिए कि चूकि अंसार सहाबा मक्का में मौजूद नहीं थे इसलिए उनकी रिवायतें सिर्फ सुनी हुई हैं। इसलिए कि ऐसे अहम वाकिए को जिसका इस्लाम की तरक्की के साथ बहुत गहरा ताल्लुक और हिजरत के वाकिए के साथ ख़ास ताल्लुक है, सहाबा ने सीधे-सीधे नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मालूम किया होगा और अगर मुहाजिरों से भी सुना होगा तो फिर ज़ाते अक्दस से तस्दीक ज़रूर की होगी। चुनांचे शद्दाद बिन औस रज़ि० की रिवायत में ये लफ्ज़ मौजूद हैं –

      हमने (सहाबा ने) अर्ज़ किया- ‘ऐ अल्लाह के रसूल! मेराज किस तरह हुई?’ [तिर्मिज़ी]

      अरबी लफ़्ज़ ‘क़ुलना‘ यह साबित कर रहा है कि बेशक मेराज से मुताल्लिक सहाबा रज़ि० के आम मज्मे में नबी अकरम सल्ल० से पूछा जाता था जिनमें मुहाजिरीन व अंसार सब ही शरीक होते थे और मालिक बिन सअसआ रज़ि० अंसारी सहाबी है। उनकी रिवायतें मेराज में है –

      नबी अकरम (ﷺ) ने उनसे (सहाबा से) यह वाकिया बयान किया। [बुख़ारी, किताबुल मेराज]

वाकिए की शक्ल

      चूंकि यह वाकिया अपनी अहमियत के साथ-साथ लम्बा भी था, इसलिए बशर होने की वजह से वाकिए के असल तफसीली हालात में इत्तिहाद व इत्तिफ़ाक़ और तवातुर की हद तक रिवायतों के नक़ल किए जाने के बावजूद कई रिवायतों में कुछ जगहों पर पाये जाने वाले इज़िलाफ़ से असल वाकिए की हक़ीक़त पर बिल्कुल कोई असर नहीं पड़ता।

      खासतौर से जबकि कुरआन ने इन अजीब और हैरत में डालने वाले वाकियों को क़तई नस्स से वाज़ेह कर दिया है जिनके बारे में मुलहिंद अपने हलहाद के ज़रिए बातिल तावील गढ़ करके इस वाकिए की मोज़ाना हैसियत का इंकार करते हैं। 

मेराज का वाकिया और कुरआन

      सूरः बनी इसराईल में वाकिया इसरा बैतुल मक्दिस तक की सैर से मुताल्लिक है –

      तर्जुमा- ‘पाकी है उस ज़ात के लिए जिसने अपने बन्दे को (यानी पैग़म्बरे इस्लाम) को रातों रात मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक्सा तक कि उसके आस-पास को हमने बड़ी ही बरकत दी है, सैर कराई और इसलिए सैर कराई ताकि अपनी निशानियां उसे दिखाएं। बेशक वही ज़ात है जो सुनने वाली और देखने वाली है।’ (17:1)

      तर्जुमा- ‘और वह दिखलाया जो तुझको हमने दिखाया, सो लोगों की आज़माइश के लिए (दिखलाया)।’ (19:59) 

      और सूरः नज्म में मला-ए-आला तक उरूज का ज़िक्र भी मौजूद है –

      तर्जुमा- ‘गवाह है सितारा जबकि डूबे, तुम्हारा साथी न गुमराह हुआ और न भटका और नहीं बोलता अपने नफ्स की ख्वाहिश से, यह नहीं है मगर हुक्म जो उसको भेजा गया है उसको बतलाया है सख्त ताकतों वाले ज़ोरावर (फरिश्ते) ने (कि यह खुदा की वह्य है) जो सीधा बैठा और था वह आसमान के ऊंचे किनारे पर, फिर वह करीब हुआ, पस झुक आया, फिर रह गया (दोनों के दर्मियान) दो कमान बल्कि उससे भी नज़दीक का फर्क पस ख़ुदा ने अपने बन्दे (मुहम्मद ﷺ) पर वह्य नाज़िल फ़रमाई, जो भी वह्य भेजी, उस (बन्दे) ने जो देखा उसके दिल ने झूठ नहीं कहा, (यानी आंख की देखी, बात को झुठलाया नहीं, बल्कि तस्दीक की) तो क्या तुम उससे इस पर झगड़ते हो जो उसने खुद देखा है (यानी वाकिए पर झगड़ते हो) और उस (बन्दे) ने ख़ुदा को देखा एक (ख़ास) नुज़ूल के साथ जबकि वह बन्दा सिदरतुल मुन्तहा के नज़दीक मौजूद था जिसके पास आराम से रहने की बहिश्त (जन्नतुल मावा) है उस वक्त सिदरा (बेरी का पेड़ पर छा रहा था जो कुछ छा रहा था। उसके देखने के वक्त निगाह न बहकी और न हद से आगे बढ़ी बेशक उस (बन्दे) ने (इस हालत में) अपने परवरदिगार के बड़े-बड़े निशान देखे।’ (53:1-18)

सूरः बनी इसराईल और वाकिया मेराज

      यहां बनी इसराईल और सूरः नज्म की तफ़सीर का मौका नहीं सिर्फ इशारे ही काफ़ी मालूम होते हैं क्योंकि अगर एक तरफ़ ये आयतें अपने मुकम्मल तफ़सीरी हक़ की मांग करती हैं तो दूसरी ओर अपने-अपने आगे-पीछे की बातों को देखते हुए थोड़े ही में सब कुछ चाहती हैं। बहरहाल ज़रूरत के मुताबिक दोनों का ख्याल करते हुए इतनी गुज़ारिश है कि बनी इसराईल की शुरू की आयत में मेराज के वाकिए से मुताल्लिक़ जो कुछ कहा गया उसे अगर परखा जाए तो आसानी से यह फैसला किया जा सकता है कि जहां तक कुरआन का ताल्लुक है उसका फ़ैसला यही है कि मेराज का वाकिया जागते में पूरे जिस्म के साथ पेश आया है और इस मतलब से हट कर जब इसको सोते का ख्वाब या रूहानी ख़्वाब कहा जाता है तो मज़बूत तावीलों के बगैर दावे पर दलील कायम नहीं हो सकती क्योंकि कुरआन या सहीह हदीसें किसी की वज़ाहत के साथ यह ज़ाहिर करती हैं कि इसरा-मेराज का वाकिया जिस्म के साथ जागते में पेश आया है और इन दलीलों की फहरिस्त के तौर पर इस तरह गिनाया जा सकता है –

      1. सूरः बनी इसराईल की आयत ‘असरा बिअब्दिही’ में असरा के मानी वही है जो हज़रत मूसा (अलै.) और हज़रत लूत (अलै.) से मुताल्लिक आयतों में हैं यानी बेदारी की हालत में और जिस्म के साथ रात में चलना।

      2. ‘वमाज़-अलना-क रोयल्लती अरैना-क’ में रोया आंखों से देखना है न कि ख्वाब, या रूहानी तौर पर देखना और अरब भाषा में यह यानी मजाज़ नहीं बल्कि हकीकत है।

      3. आयत ‘इल्ला फित-न-तल्लिन्नास’ में कुरआन ने इस वाकिए को इकरार व इंकार की शक्ल में ईमान व क़ुफ्र के लिए मेयार करार दिया है और अगरचे नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के रूहानी मुशाहदे या ख्वाब पर भी मुशिरकों और मुन्किरों का साफ इंकार मुम्किन और साबित है लेकिन इस जगह कलाम यही ज़ाहिर करता है कि वाकिए की अज़मत को सामने रखकर इंकार करने वालों का इन्कार इसलिए तेज़ से तेज़तर हुआ कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस वाकिए को आंखों देखे की तरह बयान किया है।

      4. सूरः नज्म की आयत ‘मा ज़ाग़ल ब-सरु व मा तग़ा’ में जिब्रील का देखना नहीं बल्कि इसरा के व इख़्तियार की और न दिल के देखने ने इस हक़ीक़त का इंकार किया बल्कि दोनों के मेल ने इसकी सच्चाई पर तस्दीक़ की मुहर लगा दी।

      5. सहीह हदीस में है कि जब मुशिरकों ने इस वाकिए के इंकार पर यह हुज्जत क़ायम की कि अगर यह सही है तो नबी अकरम ﷺ बैतुल मक्दिस की मौजूदा छोटी-छोटी तफ्सील बताएं क्योंकि हमको यकीन है कि न उन्होंने बैतुल मक्दिस को कभी देखा है और न बिन देखे छोटी-छोटी तफ़सीले बताई जा सकती हैं। तब नबी अकरम ﷺ के सामने से बैतुल मक्दिस के बीच के परदे अल्लाह की ओर से उठा दिए गए और आपने एक-एक चीज़ को देखते हुए मुशरिकों के सवालों के सही जवाब दिए जिनमें मस्जिद की तामीरी तफ़सील भी आ गई। यह दलील है इस बात की कि मुशरिक यह समझ रहे थे कि आप इसरा को बेदारी की हालत में और जिस्म के साथ होना बयान फरमा रहे है और नबी अकरम ﷺ ने उनके ख्याल को रद्द नहीं किया है बल्कि उसकी ताईद के लिए मोजज़ों वाली तस्दीक़ का मुज़ाहिरा फ़रमा कर उनको ला जवाब बना दिया।

      6. तर्जुमानुल कुरआन हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि० से सही सनद के साथ नक़ल किया गया है कि कुरआन में ज़िक्र किए गए रोया से मुराद ‘ऐन रोया‘ (आंखों देखा) है न कि ख्वाब या रूहानी मुशाहदा।

      7. आयत ‘व मा जअलनल रो यल्लती अरैना-क इल्ला फ़ित-न-तल-लि न्नासि, वश-श-ज-र-तु ल-मल ऊनतुन फ़िल कुरआन’ में इसका ज़िक्र है कि इसरा का वाकिया और जहन्नम के अन्दर सेढ के पेड़ का मौजूद होना और आग में न जलना ये दोनों वाकिए इकरार व इंकार की शक्ल में ईमान व कुफ्र के लिए आज़माइश हैं। पस जबकि महीनों की गिज़ा के लिए एक माद्दी कांटेदार पेड़ का मौजूद होना, हरा-भरा रहना और आग से न जलना मुशरिकों के इंकार की वजह बनी बेशक इसरा के वाक़िये में भी आज़माइश का पहलू यही है कि नबी अकरम ﷺ ने जिस ज़मान का मकान की कैदों को तोड़कर जिस्म के साथ और बेदारी की हालत में वह सैर कर ली जिसका ज़िक्र सूरः बनी इसराईल और व न्नज्म में है और सही हदीसों में है और यकीनन मुश्रिकों ने उसका इंकार किया जिसके रद्द में कुरआन ने उसको ‘इल्ला फ़ित-न-तल-लिन्नास‘ कह कर इतनी अहमियत दी वर्ना तो नबियों के रूहानी मुशाहदों और ख्वाब के वाकिआत का इंकार तो उनके लिए एक आम बात थी।

     8. इसरा का जब वाकिया पेश आया तो सुबह को नबी अकरम ﷺ ने जिन सहाबा रज़ि० की महफ़िल में इस वाकिया का ज़िक्र किया उन सबकी यही राय है कि वह वाकिया जिस्म के साथ हुआ और बेदारी की हालत में हुआ। जैसे हज़रत अनस रजि० हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि० वगैरह और इसके ख़िलाफ़ नीचे लिखे लोगों में हज़रत अमीर मुआविया रज़ि० और हज़रत आइशा रज़ि० के नाम हैं जिनका इस्लाम या हरमे नबवी से ताल्लुक इस वाकिए से वर्षों बाद मदीने की पाक ज़िदंगी से जुड़ा हुआ है इसलिए वाकिए के दिनों में मौजूद सहाबियों के क़ौल को तर्जीह दी जाएगी। मेराज के वाकिए की तफ़्सील अगरचे मुस्तनद और मक्बूल रिवायतों और हदीसों से साबित है लेकिन खुद क़ुरआन में (सूरः नज्म) में उन तफ़्सीलों का खुलकर ज़िक्र हुआ है जिनको सूरः बनी इसराईल के इज़्माल की तफ़सीर कहना चाहिए।

मेराज शरीफ़ से मुताल्लिक़ तफ्सील 

बुखारी व मुस्लिम में नकल कि गई मशहूर और मक्बूल रिवायतों का मजमूई बयान

     नबी अकरम ﷺ ने एक सुबह इर्शाद फ़रमाया –
     ‘पिछली रात मेरे ख़ुदा ने मुझको अपने खास मज्द व शरफ़ से नवाजा जिसकी तफ़सील यह है कि पिछली रात जबकि मैं सो रहा था रात के एक हिस्से में जिब्रील (अलै.) आए और मुझको जगाया। अभी पूरी तरह जाग भी न पाया था कि हरमे काबा में उठा लाए और थोड़ी देर लेटा था कि पूरी तरह बेदार करके पहले तो मेरा सीना चाक किया और (मला-ए-आला के साथ) पूरी मुनासिबत पैदा करने लिए दुनिया की कदूरतों को) धोया और ईमान व हिक्मत से भर दिया।

     इसके बाद हरम के दरवाज़े पर लाया गया और वहां जिब्रील (अलै.) ने मेरी सवारी के लिए खच्चर से कुछ छोटा जानवर बूर्राक पेश किया जो सफ़ेद रंग का था। जब मैं उस पर सवार हो कर रवाना हुआ तो उसकी हल्की चाल का हाल था कि निगाह की हद और रफ़्तार की हद बराबर नजर आती थी कि अचानक बैतूल-मक्दिस जा पहुंचे। यहां जिब्रील (अलै.) के इशारे पर बूर्राक को मस्जिद के दरवाज़े के उस हिस्से से बांध दिया जिससे बनी-इसराईल के नबी मस्जिदे-अक्सा की हाज़िरी पर अपनी सवारिया बांधा करते थे (और जो उस वक्त यादगार के तौर पर कायम था) फिर मैं मस्जिदं-अक्सा में दाखिल हुआ और दो रक्अत नमाज़ पढ़ी।

     अब यहां से मला-ए-आला की तैयारी शुरू हुई तो पहले तो जिब्रील (अलै.) ने मेरे सामने दो प्याले पेश किए उनमें एक शराब (ख़म्र) से लबालब भरा हुआ और दूसरा दूध से। मैंने दूध का प्याला कुबूल किया और शराब का प्याला रद्द कर दिया।

     जिब्रील (अलै.) ने यह देखकर कहा- आपने दूध का प्याला कुबूल करके फ़ितरत के दीन को कुबूल किया, यानी अल्लाह की ओर से आपको जो मैंने ये दो प्याले पेश किए तो दरअसल यह तफ़सील (मिसाल की शक्ल में) थी दीने फितरत (प्राकृतिक दीन) और दीने ज़ैग़ (टेढ़ वाला दीन) की मगर आपने इस हक़ीक़त को पहचान लिया और दूध के प्याले को कुबूल फ़रमाया जो दीन फितरत की मिसाल की शक्ल थी दीने फ़ितरत को कुबूल फ़रमा लिया)

     इसके बाद मला-ए-आला का सफ़र शुरू हुआ और जिब्रील (अलै.) के साथ बूर्राक ने आसमान की ओर उड़ान भरी। जब हम पहले आसमान तक पहुंच गए तो जिब्रील ने निगहेबान फ़रिश्तों से दरवाज़ा खोलने को कहा। निगहेबान फरिश्तों ने मालूम किया- कौन है? जिब्रील (अलै.) ने कहा- मैं जिब्रील हूं। फरिश्ते ने मालूम किया, तुम्हारे साथ कौन है? जिब्रील (अलै.) ने जवाब दिया- मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। फ़रिश्ते ने कहा- क्या ये बुलाने पर आए हैं? जिब्रील (अलै.) ने कहा, बेशक, फ़रिश्ते ने दरवाजा खोलते हुए कहा- ऐसी हस्ती का आना मुबारक हो। 

     जब हम अन्दर दाख़िल हुए तो हज़रत आदम (अलै.) से मुलाकात हुई। जिब्रील (अलै.) ने मेरी ओर मुख़ातिब होकर कहा – यह आपके वालिद (और इंसानी नस्ल के मूरिसे आला) आदम (अलै.) हैं। आप इनको सलाम कीजिए। मैंने उनको सलाम किया और उन्होंने सलाम का जवाब देते हुए फ़रमाया – ‘मरहबा सुआलेह बेटे और सुआलेह नबी को।

     इसके बाद दूसरे आसमान तक पहुंचे और पहले आसमान की तरह सवाल व जवाब होकर दरवाज़े में दाख़िल हुए तो वहां यहया (अलै.) व ईसा (अलै.) से मुलाकात हुई। जिब्रील (अलै.) ने उनका तआरुफ (परिचय) कराया और कहा कि आप सलाम में पहल कीजिए। मैंने सलाम किया और उन दोनों ने जवाब देते हुए फरमाया- ख़ुशआमदीद ऐ बरग़ज़ीदा भाई और बरगज़ीदा नबी।’

     फिर तीसरे आसमान पर पहुंच कर यही मरहला पेश आया और जब मैं तीसरे आसमान में दाख़िल हुआ तो हज़रत यूसुफ़ (अलै.) से मुलाकात हुई। जिब्रील (अलै.) ने सलाम में पहल करने के लिए कहा और मेरे सलाम करने पर हज़रत यूसफ़ (अलै.) ने भी सलाम के जवाब के बाद यही कहा, ‘खुशआमदीद ऐ बरग़ज़ीदा भाई और बरग़ज़ीदा नबी।’

     इसके बाद चौथे आसमान पर इस सवाल के साथ हज़रत इदरीस (अलै.) से मुलाकात हुई और पांचवें आसमान पर हज़रत हारून (अलै.) से और छठे आसमान पर हज़रत मूसा (अलै.) से इसी तरह मुलाकात हुई, लेकिन जब मैं वहां से रवाना होने लगा तो हज़रत मूसा (अलै.) पर रिक्क़त तारी हो गई (रुहांसे हो गए) जब मैंने वजह मालूम की तो फ़रमाया- मुझे यह रश्क हुआ कि अल्लाह की ज़ोरदार हिक्मत ने ऐसी हस्ती को जो मेरे बाद भेजी गई यह शरफ़ दे दिया कि उसकी उम्मत मेरी उम्मत के मुकाबले में कई गुना जन्नत का फैज़ हासिल करेगी! इसके बाद पिछले सवालों जवाबों का मरहला तय होकर जब मैं सातवें आसमान पर पहुंचा तो हज़रत इब्राहीम (अलै.) से मुलाक़ात हुई जो बैतुल-मामूर से पीठ लगाए बैठे थे और जिसमें हर दिन सत्तर हज़ार नए फ़रिश्ते (इबादत के लिए) दाखिल होते हैं।

     उन्होंने मेरे सलाम का जवाब देते हुए फ़रमाया- ’मुबारक, ऐ मेरे बरग़ज़ीदा बेटे और बरग़ज़ीदा नबी। यहां से फिर मुझे सिदरतुल-मुंतहा तक पहुंचाया गया। (तुम्हारी बोंल-चाल में यह एक इंतिहा की बेरी का पेड़ है) जिसका फल (बेर) हिज्र की ठेलिया के बराबर है और जिसके पत्ते हाथी के कान की तरह चौड़े हैं। इस पर अल्लाह के फ़रिश्ते जुगनू की तरह बेतायदाद चमक रहे थे और ख़ुदा की ख़ास तजल्ली ने उसको हैरतनाक तौर पर रोशन और कैफ वाला बना दिया था।

     इसी सफर में मैंने चार नहरों का भी मुआयना किया। इनमें से दो ज़ाहिर नज़र आती थीं और दो बातिन में बह रही थीं, यानी दो नहरें जिनका नाम नील और फ़रात है दुनिया के आसमान पर नज़र पड़ी और दो नहरें जन्नत के अन्दर मौजूद पाई और इन सब चीज़ों के देखने के बाद मुहम्मद सल्ल० को शराब (ख्म्ज़), दूध और शहद के प्याले पेश किए गए और मैंने दूध को कुबूल कर लिया। इस पर जिब्रील (अलै.) ने मुझे बशारत सुनाई कि आपने ‘दीने फ़ितरत’ को कबूल कर लिया (यानी जो हर किस्म की कदूरतों से पाक और शफ्फाफ़ है, अमल में मीठा, और खुशगवार और नतीजे में हद दर्जा मुफीद और अहसन है।)

     फिर अल्लाह तआला का ख़िताब हुआ कि तुम पर रात व दिन में पचास नमाजें फ़र्ज़ करार दी गईं। जब मैं इन असरारे इलाही (ईश्वरीय मर्म) के देखने से फ़ारिग होकर नीचे उतरने लगा तो बीच में हज़रत मूसा (अलै.) से मुलाकात हो गई। उन्होंने मालूम किया – मेराज का क्या तोहफा लाए हो? मैंने कहा- पचास नमाज़ें। उन्होंने फ़रमाया- तुम्हारी उम्मत इस भारी बोझ को सह न सकेगी। इसलिए वापस जाइए और कम करने की दरख्वास्त कीजिए, क्योंकि मैं तुमसे पहले अपनी उम्मत को आज़मा चुका हूं।

     चुनांचे अल्लाह के दरबार में हाज़िर हुआ और अल्लाह की ओर से पांच नमाज़ों की कमी हो गई। मूसा तक लौट कर आया और उन्होंने फिर इसरार किया कि अब भी ज़्यादा है और कम कराओ और मैं इसी तरह कई बार आता जाता रहा, यहां तक कि सिर्फ पांच नमाजें रह गई, मगर हज़रत मूसा (अलै.) मुतमइन न हुए और फ़रमाया कि मैं बनी इसराईल का काफ़ी तजुर्बा और उनकी इस्लाह कर चुका हूं इसलिए मुझे अन्दाज़ा है कि आपकी उम्मत यह भी न बरदाश्त कर सकेगी इसलिए कम करने के लिए और कहिए। तब मैंने कहा- अब अर्ज़ करते शर्म आती है। मैं अब राज़ी ब-रज़ा और फ़ैसले के सामने सरे नियाज़ झुकाता हूं।

     जब मैं यह कह कर चलने लगा तो निदा आई – हमने अपना फर्ज़ लागू कर दिया और अपने बन्दों के लिए कमी कर दी यानी अल्लाह की मसलिहत पहले ही यह फैसला कर चुकी है कि मुहम्मद ﷺ की उम्मत पर अदा के तौर पर अगरचे पांच नमाज़ें फ़र्ज रहेंगी मगर उनका अजर व सवाब पचास ही के बराबर होगा और यह कमी हमारा फ़ज़ल व करम है।

     इन्हीं रिवायतों में है कि मैंने जन्नत व जहन्नम को भी देखा और फिर देखने की तफ़सील भी नक़ल की गई है।

मेराज में अल्लाह को देखना

     आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहाः जो कहे कि मुह़म्मद ﷺ ने अल्लाह को देखा है तो वह झूठा है। और जो कहे कि आप कल (भविष्य) की बात जानते थे तो वह झूठा है। तथा जो कहे कि आप ने धर्म की कुछ बातें छुपा लीं तो वह झूठा है। अगरचे आप ﷺ ने जिब्रील (अलैहिस्सलाम) को उन के रूप में दो बार देखा। (बुख़ारीः 4855) इब्ने मसऊद ने कहा कि आप ने जिब्रील को देखा जिन के छः सौ पंख थे। (बुख़ारीः 4856)

To be continued …