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क़ुरआन और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम
जिस तरह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम खातमुल अंबिया व रुसुल हैं, उसी तरह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ख़ातमुल अंबिया बनी इसराईल हैं और मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत ईसा (अलै.) के दर्मियान कोई दूसरा नबी नहीं भेजा गया। दर्मियान का यह ज़माना वह्य़ी के रुक जाने का ज़माना रहा है।
हज़रत ईसा (अलै.) मुजद्दिद अंबिया बनी इसराईल है, क्योंकि क़ानूने रब्बानी (तौरात) के बाद बनी इसराईल की रुश्द व हिदायत के लिए इंजील से ज़्यादा मर्तबे वाली कोई किताब नाज़िल नहीं हुई जिससे असल में तौरात के क़ानून की तकमील हुई है। यह भी कि हज़रत ईसा (अलै.) सरवरे कायनात मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सबसे बड़े मुनाद (पुकारने वाले) और मुबश्शिर (खुशखबरी देने वाले) हैं।
क़ुरआन ने हज़रत ईसा (अलै.) के हालात को बड़ी ततफ़सील से बयान किया है और उनकी पाक ज़िदंगी को तम्हीद के तौर पर और उनकी मां हज़रत मरयम (अलै.) की ज़िंदगी के वाकियों को रौशन किया है ताकि क़ुरआन की याददहानी का मक़सद ‘बिअय्यामिल्लाह‘ पूरा हो। हज़रत ईसा (अलै.) को क़ुरआन में किसी जगह ‘मसीह‘ और ‘अब्दुल्लाह‘ के लक़ब से और किसी जगह ‘कुन्नियत‘ (उपनाम) ‘इब्ने मरयम’ के नाम से ज़ाहिर करते हुए याद किया गया है।
इमरान व यूहन्ना
हज़रत ज़करिया और हज़रत याहया के हालात में गुज़र चुका है कि बनी इसराईल में इमरान एक इबादत गुज़ार और दीनदार शख्स थे और अपनी इबादत और दीनदारी की वजह से नमाज़ की इमामत भी उन्हीं के सुपुर्द थी और उनकी बीवी हन्ना भी बहुत पारसा और आबिदा थीं। इमरान औलाद वाले न थे और उनकी बीवी हन्ना औलाद की बहुत ज़्यादा तमन्ना करती थीं।
कहते हैं कि एक बार हन्ना ने देखा कि एक परिन्दा अपने बच्चे को खिला रहा है। यह देख कर औलाद की तमन्ना ने बहुत जोश मारा और बेचैनी की हालत में अल्लाह के दरबार में दुआ के लिए हाथ उठा दिए और अर्ज़ किया, परवरदिगार! इसी तरह मुझको भी औलाद अता कर कि वह हमारी आंखों का नूर और दिल का सुरूर बने। दिल से निकली हुई दुआ मक़बूल हुई और हन्ना ने कुछ दिनों बाद महसूस किया कि वह हामिला (गर्भवती) हैं। क़ुरआन में यह वाक़िया इस तरह बयान हुआ है –
तर्जुमा- ‘जब इमरान की बीवी ने कहा, ऐ अल्लाह! मैंने नज़र मान ली है कि मेरे पेट में जो बच्चा है, वह तेरी राह में आज़ाद है, पस तू उसको मेरी ओर से क़ुबूल फ़रमा, बेशक तू सुनने वाला और जानने वाला है। फिर जब उसने जना तो कहने लगी, परवरदिगार! मेरे लड़की पैदा हुई है और अल्लाह खूब जानता है जो उसने जना है, लड़का और लड़की बराबर नहीं हैं (यानी हैकल की खिदमत लड़की नहीं कर सकती, लड़का कर सकता है) और मैं ने तो उसका नाम मरयम रखा है और मैं उसको औलाद को) शैतान रजीम के फितने से तेरी पनाह में देती हूं।’ (3:36)
हज़रत मरयम जब सूझ-बूझ वाली उम्र को पहुंची तो सब की राय से ‘यह सईद अमानत‘ हज़रत ज़करिया (अलै.) के सुपुर्द कर दी गई। तो हज़रत ज़करिया ने हज़रत मरयम (अलै.) के सिनफ़ी (लैंगिक) एहतरामों का लिहाज़ करते हुए हैकल के करीब एक हुजरे को उनके लिए ख़ास कर दिया, ताकि वे दिन में वहां रहकर अल्लाह की इबादत करती रहें और जब रात आती तो उनको अपने मकान पर उनकी ख़ाला ‘अल यशाअ‘ के पास ले जाते और वह वहीं रात गुज़ारती।
हज़रत मरयम का ज़ुहद व तक़वा (संयम व ईश-भय)
हज़रत मरयम दिन व रात अल्लाह की इबादत में लगी रहती और जब हैकल की खिदमत के लिए उनकी बारी आती, तो उसको भी अच्छी तरह अंजाम देती थीं, यहां तक उनका ज़ुहद व तक़वा बनी इसराईल में एक कहावत बन गया। अल्लाह तआला ने फ़रिश्तों के ज़रिए उनको यह खुशखबरी सुनाई –
तर्जुमा- ‘(ऐ पैगम्बर! वह वक्त याद कीजिए) जब फ़रिश्तों ने कहा, ऐ मरयम! बेशक अल्लाह तआला ने तुमको बुज़ुर्गी दी और पाक किया और दुनिया की औरतों पर तुमको बरगज़ीदा किया। ऐ मरयम! अपने पालनहार के सामने झुक जा और सज्दा कर और नमाज़ पढ़ने वालों के साथ नमाज़ अदा कर। (3:42-43)
ऊपर की आयत में हज़रत मरयम (अलै.) की फज़ीलत ने उनकी ज़ात से मुतल्लिक़ कई मस्अले बहस में पैदा कर दिए हैं, जैसे –
1. क्या औरत नबी हो सकती है?
2. क्या हज़रत मरयम (अलै.) नबी थीं?
3. अगर नबी नहीं थी तो फज़ीलत की आयत का क्या मतलब है?
(हजरत मौलाना हिफज़ुर्रहमान स्योहारवी रह० ने) इन तीनों सवालों पर तफ्सीली बहस के बाद इस ख्याल का इज़हार किया है कि–
1. औरत नबी हो सकती है और
2. हज़रत मरयम (अलै.) का नबी होना क़तई तौर पर सही है,
3. इसलिए फ़ज़ीलत की आयत का मतलब भी साफ़ हो जाता है, वह यह कि हज़रत मरयम (अलै.) को कायनात की तमाम औरतों पर फ़ज़ीलत हासिल है। जो औरतें नबी नहीं हैं, उन पर इसलिए कि हज़रत मरयम (अलै.) नबी हैं और जो औरतें नबी हैं (जैसे हज़रत हब्बा, हज़रत सारा, हज़रत हाजरा वगैरा) इन पर इसलिए कि वे इन क़ुरआनी बुनियादों की वजह से, जो उनकी फ़ज़ीलतों और कमालों से ताल्लुक़ रखती हैं, बाक़ी नबी औरतों पर बरतरी रखती हैं। (तफ्सील के ख्वाहिशमंद असल किताब की तरफ़ रुजू करें-मुरत्तिब)
हज़रत मसीह (अलै.) के हालात
यहूदी अपनी मज़हबी रिवायतों की बुनियाद पर जिन उलुलअज्म पैगम्बरों के आने के इंतिज़ार में थे, उनमें मसीह (अलै.) भी थे और हज़रत याहया (अलै.) ने उनको बताया था कि वह न एलिया हैं, न वह नबी और न मसीह, बल्कि मसीह को भेजे जाने को बताने वाले और मुबश्शिर हैं। क़ुरआन ने भी हज़रत ज़करिया और हज़रत याहया (अलै.) के वाक़िये को हज़रत ईसा (अलै.) की बशारत देने वाला और पता देने वाला बताया है, जैसा कि सूरः बकरः 2:37 से वाज़ेह है। क़ुरआन ने हज़रत ईसा (अलै.) की पैदाइश के वाक़िये को इस तरह बयान किया है –
तर्जुमा- ‘(वह वक्त ज़िक्र के क़ाबिल है,) जब फ़रिश्तों ने मरयम से कहा, ऐ मरयम ! अल्लाह तुझको अपने कलिमे की बशारत देता है, उसका नाम मसीह ईसा बिन मरयम होगा। वह दुनिया व आखिरत में वज़ाहत, रौब व दबदबा वाला और हमारे क़रीबों में से होगा और वह गोद में और दूध पीने के ज़माने में लोगों से कलाम करेगा और वह नेकों में से होगा।
मरयम ने कहा, ‘मेरे लड़का कैसे हो सकता है जबकि मुझको किसी मर्द ने हाथ तक न लगाया?’
फ़रिश्ते ने कहा, अल्लाह तआला जो चाहता है, उसी तरह पैदा कर देता है। वह जब किसी चीज़ के लिए हुक्म करता है तो कह देता है, ‘हो जा‘ और वह हो जाती है और अल्लाह उसको किताब व हिकमत और तौरात व इंजील का इल्म अता करेगा और वह बनी इसराईल की तरफ़ अल्लाह का रसूल होगा।’ (3:45-48)
तर्जुमा- ‘और ऐ पैग़म्बर! किताब में मरयम का वाकिया ज़िक्र करो, उस वक्त का ज़िक्र, जब वह एक जगह पूरब की तरफ़ थी, अपने घर के आदमियों से अलग हुई, फिर उसने उन लोगों की तरफ से पर्दा कर लिया। पस हमने उसकी तरफ़ अपना फरिश्ता भेजा और वह भले-चंगे आदमी के रूप में नुमायां हो गया। मरयम उसे देख कर घबरा गई, वह बोली, अगर तू नेक आदमी है, तो, मैं रहमान ख़ुदा के नाम पर तुझसे पनाह मांगती हूं।’
फ़रिश्ते ने कहा, मैं तेरे परवरदिगार का भेजा हुआ हूं और इसलिए नमूदार हुआ हूँ कि तुझे एक पाक फ़रज़न्द (बेटा) दे दूं।’
मरयम बोली, ‘यह कैसे हो सकता है कि मेरे लड़का हो, हालांकि किसी मर्द ने मुझे छुआ नहीं और न मैं बद-चलन हूं?’
फ़रिश्ते ने कहा, होगा ऐसा ही। तेरे परददिगार ने फ़रमाया, यह मेरे लिए कुछ मुश्किल नहीं। वह कहता है, यह इसलिए होगा कि उस (मसीह) को लोगों के लिए निशान बना दूं और मेरी रहमत उसमें ज़ाहिर हो और यह ऐसी ही बात है, जिसका होना तै हो चुका है (19:16-21)
जिब्रील अमीन ने हज़रत मरयम (अलै.) को यह खुशखबरी सुना कर उनके गरेबान में फूंक दिया और इस तरह अल्लाह तआला का कलिमा उन तक पहुंच गया। अल्लाह तआला ने इसकी तफ़सील को सूरः अंबिया, सूराः तहरीम और सूरः मरयम में ज़िक्र फ़रमाया है।
तर्जुमा-और उस औरत (मरयम) का मामला, जिसने अपनी पाक दामनी को क़ायम रखा, फिर हमने उसमें अपनी रूह को फूक दिया और उसको और उस लड़के को जहानवालों के लिए निशान’ ठहराया है। (21:91)
तर्जुमा- ‘ओर इमरान की बेटी मरयम कि जिसने अपनी अस्मत को बरक़रार रखा, पर हमने उसमें अपनी रूह को फूंक दिया। (66:12)
तर्जुमा- ‘फिर उस होने वाले फ़रज़न्द का हमल ठहर गया। (अपनी हालत छुपाने के लिए लोगों से अलग होकर दूर चली गई, फिर उसे दर्दज़ेह (बच्चा जनने के वक्त का दर्द) का इज़्तिराब खजूर के एक पेड़ के नीचे ले गया। (वह उसके तने के सहारे बैठ गई) उसने कहा, काश! मैं इससे पहले मर चुकी होती। मेरी हस्ती को लोग भूल गए होते, उस वक्त (एक पुकारने वाले फ़रिश्ते ने) उसे नीचे से पुकारा, ग़मगीन न हो, तेरे परवरदिगार ने तेरे तले नहर जारी कर दी है और खजूर के पेड़ का तना पकड़ कर अपनी तरफ़ हिला, ताज़ा और पके हुए फलों के खोशे तुझ पर गिरने लगेंगे, खा पी (और अपने बच्चे के नज़ारे से) आंखें ठंडी कर, फिर अगर कोई आदमी नज़र आए (पूछ-गछ करने लगे) तो (इशारे से) कह दे, मैंने खुदा-ए-रहमान के हुज़ूर रोज़े की मन्नत मान रखी है, मैं आज किसी आदमी से बात-चीत नहीं कर सकती।
फिर ऐसा हुआ कि वह लड़के को साथ लेकर अपनी क़ौम के पास आई, लड़का उसकी गोद में था। लोग दिखते ही) बोल उठे, ‘मरयम तूने अजीब बात कर दिखाई और इतनी बड़ी तोहमत का काम कर गुज़री। ऐ हारून की बहन! न तो तेरा बाप बुरा आदमी था, न तेरी मां बदचलन थी, (तू यह क्या कर बैठी?) इस पर मरयम (अलै.) ने लड़के की तरफ़ इशारा किया (कि यह तुम्हें बतला देगा कि हक़ीक़त क्या है?) लोगों ने कहा, भला हम इससे क्या बात करें जो अभी गोद में बैठने वाला दूध पीता बच्चा है।’
मगर लड़का बोल उठा, मैं अल्लाह का बन्दा हूं। उसने मुझे किताब दी और नबी बनाया, उसने मुझे बाबरकत किया, भले ही मैं किसी जगह हूं। उसने मुझे नमाज़ और ज़कात का हुक्म दिया जब तक ज़िन्दा रहूं, यही मेरा शिआर हो। उसने मुझे अपनी मां का खिदमत गुज़ार बनाया, ऐसा नहीं कि खुदसर और नाफरमान होता, मुझ पर उसकी तरफ़ से सलामती का पैगाम है। जिस दिन पैदा हुआ, जिस दिन मरूंगा और जिस दिन फिर ज़िदा उठाया जाऊंगा। (19:22-23)
नोट : कहते हैं कि हारून मरयम के ख़ानदान में एक आबिद व ज़ाहिद इंसान और बहुत नेक नफ़स. मशहूर था। (तफ्सीर इब्ने कसीर)
क़ौम ने जब एक दूध पीते बच्चे की ज़ुबान से हिकमत भरी बातें सुनी तो हैरत में पड़ गई और उसको यक़ीन हो गया कि हज़रत मरयम (अलै.) का दामन बिला शुबहा हर क़िस्म की बुराई और खोट मे पाक है और इस बच्चे की पैदाइश का मामला यकीनन अल्लाह की तरफ से एक ‘निशान‘ है।
यह ख़बर ऐसी नहीं थी कि छिपी रह जाती, क़रीब और दूर सब जगह इस हैरत में डाल देने वाले वाक़िये और हज़रत ईसा (अलै.) की मोजज़े वाली विलादत के चर्चे होने लगे और इंसानी तर्बियत ने इस मुक़द्दस हस्ती से मुताल्लिक़ शुरू ही से अलग-अलग करवटें बदलनी शुरू कर दी। अस्हाबे खैर ने इसके वजूद को अगर सआदत व बरकत का चांद समझा तो शरीर लोगों ने उसकी हस्ती को अपने लिए बुरा फाल जाना और बुग्ज़ व हसद के शोलों ने अन्दर ही अन्दर उनकी फितरी इस्तेदाद को खाना शुरू कर दिया।
ग़रज़ इसी टकराने वाली फ़िज़ा के अन्दर आल्लाह तआला अपनी निगरानी में मुक़द्दस बच्चे की तर्बियत और हिफ़ाज़त करता रहा, ताकि उसके हाथो बनी इसराईल के मुर्दा दिलों को ताज़ा ज़िदंगी बख्शे और उनकी रूहानियत के सूखे पेड़ को एक बार फिर फलदार बनाए।
तर्जुमा- ‘और हमने ईसा बिन मरयम और उसकी मां (मरयम) को अपनी कुदरत का निशान बना दिया और उन दोनों का एक ऊंचा मुक़ाम (बैतुल्लम) पर ठिकाना बनाया, जो ठहरने के काबिल और चश्मे वाला है। (25:50)
क़ुरआन मजीद ने हज़रत ईसा के बचपन के हालात में से सिर्फ इसी अहम वाकिए का ज़िक्र किया है। बाकी बचपन के दूसरे हालात को जिनका ज़िक्र कुरआन के वाज़ और नसीहत के ख़ास मक़सद से ताल्लुक नहीं रखता था नज़रंदाज़ कर दिया।
मुबारक हुलिया
मेराज की हदीस (बुख़ारी शरीफ़) के मुताबिक़ नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फरमाया कि मेरी मुलाक़ात हज़रत ईसा से हुई तो मैंने उनको दर्मियानी क़द वाला सुर्ख व सफ़ेद पाया। बदन ऐसा साफ़ व शफ्फाफ़ था, मालूम होता था अभी हम्माम से नहा कर आए हैं और कुछ रिवायतों में है कि आपके बाल कंधे तक लटके हुए थे और कुछ हदीसों में है कि रंग खिलता हुआ गेहुआ था।
रसूल बनाए गए
यहूदियों के अकीदे का और अमली ज़िंदगी का मुकम्मल नक्शा तो तौरात में मौजूद है, लेकिन इन हक़ीक़तों और इनके नतीजों को क़ुरआन में भी इस तरह बयान किया गया है –
तर्जुमा- ‘और बेशक हमने मूसा को किताब (तौरात) अता की और उसके बाद हम (तुम में) पैगम्बर भेजते रहे और हमने ईसा बिन मरयम को वाज़ेह मोजज़े देकर भेजा और हमने उनको रूहे पाक (जिब्रील) के ज़रिए कुव्वत व ताईद अता की। क्या जब तुम्हारे पास (खुदा का) पैगम्बर अपने हुक्म लेकर आया जिन पर अमल करने को तुम्हारा दिल नहीं चाहता था तो तुमने गुरूर को शेवा (नहीं) बना लिया? पस (पैगम्बरों की) एक जमाअत को झुठलाते हो तो एक जमाअत क़त्ल कर देते हो और कहते थे कि हमारे दिल (हक़ कुबूल करने के लिए मिलाफ में है। यह नहीं बल्कि इनके कुफ़्र करने पर ख़ुदा ने इनको मतकन कर दिया है पस बहुत थोड़े से हैं जो ईमान ले आए हैं। (2:87-88)
तर्जुमा-और (ऐ ईसा) जब हमने बनी इसराईल (की पकड़ और क़त्ल के इरादे) को तुमसे बाज़ रखा उस वक़्त जबकि तुम उनके पास खुले मोजज़े लेकर आया तो कहा बनी इसराईल में से इंकार करनेवालों ने यह कुछ नहीं है मगर खुला जादू है। (5:110)
तर्जुमा-‘और में तस्दीक करने वाला हूं तौरत की जो मेरे सामने है और (इसलिए आया ताकि तुम्हारे लिए कुछ चीजें हलाल कर दूं। जो तुम्हारे टेड़ेपन की वजह से तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की निशानी लेकर आया हूँ पस अल्लाह का खौफ करो और मेरी पैरवी करो। बेशक अल्लाह मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है। पस उसी की इबादत करो यही सीधी राह है। पस जबकि ईसा (अलै.) ने उनसे कुफ़्र महसूस किया तो फरमाया, ‘अल्लाह के लिए कौन मेरा मददगार है तो शागिर्दों ने जवाब दिया हम हैं अल्लाह के (दीन के) मददगार।’ (3:50-52)
तर्जुमा- फिर उनके बाद (नूह व इब्राहीम के बाद) हमने अपने रसूल भेजे और उनके बाद ईसा बिन मरयम को रसूल बना कर भेजा और उसको किताब (इंजील) अता की। (57:27)
तर्जुमा- (वह वक़्त याद करने के लायक़ है) जब अल्लाह ताला कयामत के दिन कहेगा, ऐ ईसा बिन मरयम! मेरी उस नेमत को याद करो जो मेरी ओर से तुम पर और तुम्हारी मां पर उतरी जबकि मैंने रुहुल कुद्स (जिब्रील के ज़रिए तुम्हारी ताईद की कि तुम कलाम करते थे मां की गोद में और बुढ़ापे में और जबकि मैंने तुमको सिखाई किताब, हिकमत, तोरात और इंजील। (5:110)
तर्जुमा- और (वह वक्त याद करो) जब ईसा बिन मरयम ने कहा, ऐ बनी इसराईल! बेशक मैं तुम्हारी तरफ भेजा हुआ अल्लाह का पैगम्बर हूं, तस्दीक करने वाला हूं तौरात की जो मेरे सामने है और बशारत सुनाने वाला हूं एक पैगम्बर की, जो मेरे बाद आएगा। उनका नाम अहमद है। (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) (61:6)
खुली निशानियां
क़ुरआन के किस्से
हर मौके पर मोजज़ों की बहस में गुज़र चुका है कि हक़ और सच्चाई के मानने और अपनाने में इसांनी फितरत हमेशा दो तरीकों से मानूस रही है-
एक यह कि ‘हक़ की दावत‘ देने वाले की हक़परस्ती और सच्चाई, दलीलों की ताकत और उनकी रोशनी के ज़रिए साबित और वाज़ेह हो जाए और दूसरा तरीक़ा यह कि दलीलों के साथ-साथ अल्लाह की ओर से उसके सच होने की ताईद में, कुदरत के आम क़ानून से अलग, अस्बाब व वसाइल के बगैर और इल्म व फन हासिल किए बगैर उसके हाथ पर अजीब मामलों का मुजाहरा इस तरह हो कि आम व खास उसके मुकाबले में आजिज़ और पिछड़ जाएं और उनके लिए अस्वाब व वसाइल के बगैर उन मामलों की ईजाद नामुमकिन हो।
पहले तरीके के साथ यह दूसरा तरीका इंसान की अक्ल व फ्रिक और उसकी नफ्सियती कैफियतों में ऐसा इंक़िलाब पैदा कर देता है कि उनका विजदान यह मानने पर मजबूर हो जाता है कि हक़ की दावत देने वाले (नबी, पैग़म्बर) का यह अमल असल में खुद उसका अमल नहीं है बल्कि उसके साथ खुदा की ताक़त काम कर रही है और बेशक यह उसके सच्चे होने की एक और दलील है। चुनांचे क़ुरआन मजीद में आयत –
तर्जुमा- ‘और न फेंका था तूने जिस वक़्त कि फेंका था, लेकिन अल्लाह ने फेंका था।’ (8:17)
में यही हक़ीक़त ज़ाहिर करनी मक्सूद है मगर इन हर दो तरीकों में से उन सोचने-समझने वालों पर जो सोचने-समझने की ताक़त में ऊंचा मकाम रखते है पहला तरीका ज़्यादा असरदार साबित होता है और वे दूसरे तरीके को पहले तरीके की ताईद व तकिवयत की हैसियत से कुबूल करते और हकीकी दावत देने वाले (नबी व पैगम्बर) की नुबुवत व रिसालत के दावे के सच होने का और ज्यादा अमली सबूत समझ कर उस पर ईमान ले आते हैं।
और इन सोचने-समझने वालों के खिलाफ कुव्वत व इक्तिदार वाले और उनकी ज़हनियत से मुतास्सिर आम इंसानी दिल तस्दीक के दूसरे तरीक़े से ज़्यादा मुतास्सिर होते और नबी और पैग़म्बर के मोजज़े भरे कामों को कायनात की ताक़त व कुव्वत के दायरे से ऊपर वाली हस्ती का इरादा क़ुव्वत यक़ीन करने पर मजबूर हो जाते हैं और उन मामलों को ‘खुदाई निशान‘, समझ कर हक़ व सदाकत की दावत के सामने सर झुका देते हैं।
मुख़्तसर यह कि अल्लाह की किताब और उसके जुम्लों पर आयत और आयतों के इतलाक से तो क़ुरआन की कोई लम्बी सूर: ही खाली होगी तमाम क़ुरआन में जगह-जगह इस ज़्यादती के साथ उसका इस्तेमाल हुआ है कि उसकी सूची मुस्तकिल मौजू बन सकती है।
इसी तरह ‘खुली निशानियों से मुराद अगरचे अल्लाह की किताब (क़ुरआन, तोरात, ज़बूर, इंजील) और उनकी आयतों को ही समझा गया है, मगर किसी-किसी जगह उसको मोजज़ो के लिए भी इस्तेमाल किया गया है।
तवज्जोह के काबिल बात और मोजज़ों की हक़ीक़त
नबी और रसूल के भेजे जाने का मक़सद कायनात की रुश्द व हिदायत और दीन व दुनिया की फ़लाह व खैर की रहनुमाई है और वह अल्लाह की ओर से आई वह्य़ी की रोशनी में इस मंसबी फ़र्ज़ को अंजाम देता और इल्म व क़ुरआन और हक़ की हुज्जत के ज़रिए सच्चाई का रास्ता दिखाता है। वह यह दावा नहीं करता कि फितरत (प्रकृति) और फ़ितरत से परे के मामलों में हिस्सा लेना भी उनका मंसबी काम है बल्कि वह बार-बार यह एलान करता है कि मैं खुदा की ओर से खुशखबरी देने वाला और डराने वाला और अल्लाह की ओर बुलाने वाला बनकर आया हूं।
मैं इंसान हूं और खुदा का नबी इससे ज़्यादा और कुछ नहीं हूँ, तो फिर उसके सच्चाई के इस दावे के इम्तिहान और परख के लिए उसकी तालीम, उसकी तर्बियत और उसकी शख्सियत का बहस में आ जाना यकीनी तौर पर माकूल, लेकिन उससे फितरत से परे और आदत के खिलाफ अजीब व गरीब चीजों की मांग अक्ल के खिलाफ और बेजोड़ बात मालूम होती है और यह नज़र आता है जैसे किसी अच्छे तबीब (हकीम, डॉक्टर) की हकीमी के दावे पर उससे यह मांग की जाए कि वह जादुई खटके की एक उम्दा अलमारी या लकड़ी का एक अजीब क़िस्म का खिलौना बना कर दिखाए। तबीब ने यह दावा नहीं किया था कि वह माहिर लोहार या बड़ई है, बल्कि उसका दावा तो जिस्मानी मर्ज़ों के इलाज का है। इसी तरह पैग़म्बरे खुदा का वह दावा नहीं होता कि वह तमाम रूहानी मर्ज़ों के लिए काबिल तबीब और माहिर हकीम है।
बहरहाल ‘अल्लाह की सुन्नत’ यह जारी रही है कि जब किसी कौमी हिदायत या तमाम इंसानी कायनात की कामयाबी के लिए नबी और पैग़म्बर भेजा जाता है, तो उसको अल्लाह की तरफ से मज़बूत दलीलों और अल्लाह की आयतों (मोजज़ों) से यानी दोनों से नवाज़ा जाता है वह एक ओर अल्लाह की वहय के ज़रिए कायनात को मआश व मआश (खाने पीने) से मुताल्लिक करने न करने के हुक्मों से नवाज़ा जाता है और बहतरीन दस्तूर व निज़ाम पेश करता है तो दूसरी तरफ अल्लाह की मस्लहत के मुताबिक ‘खुदाई निशानों‘ का मुज़ाहिरा (प्रदर्शन) करके अपने सच्चे होने और अल्लाह की तरफ से होने का सबूत देता है साथ ही हर एक पैग़म्बर को इसी तरह के मोजज़े और निशानियां दी जाती हैं जो उस ज़माने की इल्मी तरक्कियों या कौमी और मुल्की खुसूसियत के मुनासिब होने के बावजूद टकराने वालों को मजबूर करें और पछाड़े और कोई उनके मुकाबले में आने कि हिम्मत न कर सके और अगर तास्सुब और ज़िद दर्मियान में रोक न बनें तो अपनी कोशिशों से की गई तरक्कियों और खुसूसियतों के हकीकतों से आगाह होने की वजह से यह मानने पर मजबूर ले जाएं कि यह जो कुछ सामने है, इंसानों की कुदरत से ऊपर, उसकी पहुंच से बाहर और सिर्फ एक खुदा ही की जानिब से है।
जैसे हज़रत इब्राहीम (अलै.) के ज़माने में ज्योतिषशास्त्र (इल्मे कुजूम astronomy) और इल्मे कीमिया (chemistry) का बहुत ज़ोर था और साथ ही उनकी क़ौम तारों के असरात को उनके निजी असर समझती और उनको सही असरंदाज़ होने वाले यकीन करके एक अल्लाह की जगह उनकी परस्तिश करती थी और उनका सबसे बड़ा देवता शम्स (सूरज) था, क्योंकि वह रोशनी और हरारत (गर्मी) दोनों रखता था और यही दोनों चीजें उनकी निगाह में कायनात की बक़ा और फलाह के लिए असल बुनियाद थीं और इसी वजह से दुनिया में ‘आग‘ को उसका मज़हर मान कर उसकी भी पूजा की जाती थी। इसके अलावा उनको चीज़ों के रखवास व असरात और उनके रद्दे अमल (Reaction) पर काफ़ी पकड़ थी गोया आज की इल्मी दुनिया के लिहाज़ से वे अमल के केमिकल तरीके को भी बड़ी हद तक जानते थे।
इसलिए अल्लाह तआला ने इब्राहीम (अलै.) को उनकी कौम की हिदायत और ख़ुदा परस्ती की तालीम के लिए एक तरफ़ ऐसी रोशन दलीलें दी जिनके ज़रिए वे कौम के गलत अक़ीदों को झुठलाएं और हक़ को हक़ बताने की ख़िदमत अंजाम दें और मज़ाहिर परस्ती (ऊपरी चमक-दमक देख कर उनकी पूजा) की वजह से हक़ीक़त के चेहरे पर अंधेरे का जो परदा पड़ गया था उसको चाक करके रोशन चेहरे को नुमायां कर सकें।
तर्जुमा- ‘और यह हमारी दलील है जो हमने इब्राहीम को उसकी कौम के मुकाबले में अता की हम जिस का दर्जा बुलन्द करना चाहते हैं कर दिया करते हैं बेशक तेरा रब हिक्मत वाला और जानने वाला है। (6:83)
और दूसरी तरफ़ जब तारा-परस्त और बुत-परस्त बादशाह से लेकर क़ौम के आम लोगों ने उनकी दलीलों और सबूतों से ला-जवाब होकर अपनी माद्दी ताकत के घमंड पर उन्हें धधकती आग में झोंक दिया तो उसी बड़े पैदा करने वाले ने जिसकी दावत व इर्शाद की खिदमत हज़रत इब्राहीम (अलै.) अंजाम दे रहे थे।
तर्जुमा- ‘तू सर्द और सलामती बन जा।’ (21:69)
कह कर अपनी कुदरत का वह शानदार निशान (मोजज़ा) अता किया जिस ने बातिल के रोबदार ऐवान में ज़लज़ला पैदा कर दिया और तमाम क़ौम उस खुदाई मुज़ाहिरे से हैरान व परेशान और ज़लील व ख़ासिर (घाटे में) होकर रह गई।
तर्जुमा- ‘और चाहने लगे उसका बुरा फिर उन्हीं को डाला हमने नुक्सान में। (29:70)
और हज़रत मूसा (अलै.) के ज़माने में जादू मिस्री उलूम व फुनून में बहुत ज़्यादा नुमायां और इम्तियाज़ी शान रखता था और मिस्रियों को जादू के फन में कमाल हासिल था इसलिए हज़रत मूसा (अलै.) को कानूने हिदायत (तोरात) के साथ-साथ ‘यदे बैज़ा‘ और ‘असा‘ जैसे मोजज़े दिए गए और हज़रत मूसा (अलै.) ने मिस्र के जादूगरों के मुकाबले में जब उनका मुज़ाहिरा किया तो जादू के तमाम माहिर उसको देख कर एक साथ पुकार उठे कि बेशक यह जादू नहीं यह तो उससे अलग और इंसानी ताक़त से कहीं ऊंचा मुज़ाहिरा है जो हक़ीकी ख़ुदा ने अपने सच्चे पैगम्बरों की ताईद के लिए उनके हाथ पर कराया है क्योंकि हम जादू की हकीक़त को खूब अच्छी तरह जानते हैं और यह कह कर उन्होंने फ़िरऔन और कौमे फ़िरऔन के सामने बे-ख़ौफ़ी के साथ एलान कर दिया कि वह आज से मूसा और हारून अलैहिमस्सलाम के एक ख़ुदा की परस्तिश करेंगे।
तर्जुमा- और सब जादूगर सज्दे में गिर पड़े, कहने लगे, हम तो जहानों के परवरदिगार पर ईमान ले आए, जो मूसा और हारुन का परवरदिगार है। (8:120-122)
मगर फ़िरऔन और दरबार के सरदार अपनी बदबख्ती से यही कहते रहे –
तर्जुमा- फिरऔन ने दरबारियों से (जो आस-पास बैठे) थे, कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि यह बड़ा जादूगर है।’ (26:54)
तर्जुमा- ‘गरज़ जब उन लोगों के पास मूसा हमारी खुली दलीलें लेकर आए तो उन लोगों ने (मोजज़े देख कर) कहा कि यह तो (सिर्फ़) एक जादू है कि (खामखाह अल्लाह तआला पर) झूठ गढ़ा जाता है और हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी कि हमारे अगले बाप-दादों के वक्त में भी हुई हो।’ (20:36)
To be continued …