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इफ्क़ का वाकिया
(हज़रत आइशा रजि. पर बोहतान और अल्लाह की गवाही)
शाबान 05 हिजरी मुताबिक़ दिसम्बर सन् 626 ई० में बनी-मुस्तक़ के सरदार हारिस बिन ज़रार के फ़ितनों की वजह से बनू मुस्तलक़ की लड़ाई पेश आई। मुनाफ़िक़ो का यह दस्तूर बन गया था कि जिस लड़ाई के ज़ाहिरी असबाब से गुमान गालिब फ़तह का होता उससे माले ग़नीमत की लालच से ज़रूर साथ हो जाते। चुनांचे इस लड़ाई में भी मुनाफ़िक़ो का गिरोह मय अपने सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई के मौजूद था, वापसी पर एक मामूली हादसा पेश आ गया।
बुख़ारी में इस वाकिए की जिस तफसील का ज़िक्र है, उसका हासिल यह है कि जब नबी अकरम (ﷺ) कामयाबी के साथ ग़ज़वा बनी मुस्तलक़ से वापस हुए तो मदीना के क़रीब एक मंज़िल पर पड़ाव था कि रात के आखिरी हिस्से में कूच का एलान हुआ।
हज़रत आइशा (रजि) एलान सुन कर ज़रूरत पूरी करने के लिए तेज़ी के साथ कियामगाह से दूर चली गईं। फ़ारिग़ होने के बाद वापस हुईं तो गले में जो हार पहने हुए थीं, वह सीने पर न पाया, वह यह समझ कर कि टूट कर वहीं गिर गया होगा, जहां ज़रूरत पूरी करने के लिए गई थीं, उसको तलाश करने के लिए वापस गईं। इसी बीच जो जमाअत उनके हौदज को ऊंट पर सवार कराती थी, उसने हौदज उठा कर ऊंट पर कस दिया और चूंकि उस ज़माने में कम खाने की वजह से औरतें आमतौर पर मोटी नहीं होती थीं, और इसलिए वह भी बहुत दुबली थी, इसलिए हौदज पर लगी टीम ने उनके न होने का मुतलक़ एहसास नहीं किया और ऊंट पर हौदज रख कर रवाना हो गए।
हज़रत आइशा (रजि) जब हार को तलाश करती हुई वापस हुई तो क़ाफिला जा चुका था और अब हार भी हौदज के करीब ही मिल गया। वह बहुत परेशान हुई फिर सोचा कि ज्योंही मुसलमानों को यह महसूस होगा कि मैं हौदज में नहीं हूं तो फ़ौरन नबी अकरम (ﷺ) इसी जगह सवारी भेज देगे, इसलिए मुनासिब यह है कि क़ाफिले का पैदल पीछा करने के बजाए उसी जगह इंतिज़ार किया जाए। रात का आखिरी हिस्सा था, उजाला होने वाला था कि उनकी आंख लग गई।
उधर सफ़वान बिन मुअत्तल सहमी इस खिदमत पर लगे हुए थे कि क़ाफ़िले से बहुत पीछे रह कर निगरानी करते हुए और जो चीज़ भी क़ाफिले की रह जाए उसको लेते हुए आएं। वह पीछे से चलते हुए जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने महसूस किया कि यहां कोई इंसान मौजूद है। क़रीब आए तो उनको पहचान लिया, क्योंकि हिजाब की आयत से पहले वह उनको देख चुके थे।
उन्होंने देखते ही फ़ौरन बुलंद आवाज़ से ‘इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन’ पढ़ा। हज़रत आइशा (रजि) आवाज़ सुन कर बेदार हो गई और सिमट कर बैठ गईं। सफ़वान ने एक लफ़्ज़ कहे बगैर ऊंट को बिठाया और वह ख़ामोशी के साथ ऊंट पर हौदज में सवार हो गई और सफ़वान महार पकड़े हुए रवाना हुए और दोपहर के करीब लश्कर में जा पहुंचे।
जब यह खबर अब्दुल्लाह बिन उबई को मालूम हुई तो उसने और उसकी जमाअत ने मौक़े को ग़नीमत जाना और तेज़ी के साथ इफ्तिरा और बोहतान को फ़ौज में फैला दिया मगर मुसलमानों ने किसी तरह उसको बावर नहीं किया अलबत्ता सिर्फ तीन मुसलमान (दो मर्द और एक औरत) हस्सान बिन साबित, मिस्तह बिन असासा और हमना बिन्त जहश अपनी सादगी से मुनाफ़िकों के जाल में फंस गए।
ख़ुदा का करम व फज़ल देखिए कि ज़्यादा दिन न गुजरे थे कि अल्लाह तआला ने वह्य़ (क़ुरआन) के ज़रिए मुनाफ़िक़ो की खबासत को आशकारा कर दिया और हज़रत आइशा (रजि) की पाक दामनी पर मुहर लगा कर बोहतान लगाने वालों पर कोड़ों की सज़ा जारी करने का हुक्म दिया और इस तरह झूठ बोलने वाले और बुहतान लगाने वाले अपने नतीजे को पहुंचे।
क़ुरआन ने इस वाकिए पर मुसलमानों को साफ तौर पर बतला दिया कि झूठ और बुहतान पर गढ़ी यह दास्तान सुन कर तुमने ख़ुद ही क्यों न कह दिया कि यह सिर्फ झूठ और बोहतान है।
तर्जुमा- “जिन लोगों ने बोह्तान का यह तूफ़ान उठाया है, वह तुममें से ही एक जमाअत (मुनाफ़िकों की जमाअत) है। (ऐ पैग़म्बर!) तुम इसको अपने हक़ में बुरा न समझो बल्कि यह तुम्हारे हक़ में बेहतर है (यानी अल्लाह की मस्लहत के राज़ ने इसमें तुम्हारी बहतरी का अंजाम पोशीदा रखा है। इनमें से हर एक आदमी के लिए वह सब कुछ है, जो उसने गुनाह कमाया है और जिसने इस गुनाह का बड़ा बोझ उठाया है, उसके वास्ते बहुत बड़ा अज़ाब है। जब तुमने इस बुहतान को सुना था, क्यों न ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरतों ने अपने लोगों पर नेक ख्याल क़ायम कर लिया और क्यों यह न कह दिया कि यह खुले बुहतान का तूफ़ान है।
वे (तूफ़ान उठाने वाले अपने बोहतान पर) क्यों चार गवाह न लाए, पस जब वे गवाह न पेश कर सके तो यही लोग अल्लाह के यहां बिल्कुल ही झूठे हैं और अल्लाह का फज़ल और उसकी रहमत दुनिया और आखिरत दोनों में तुम पर न होती तो पड़ जाती इस झूठी चर्चा करने में तुम पर कोई बड़ी आफत, जबकि तुम इस (बोहतान) को अपनी ज़ुबानों पर जारी करने लगे और ऐसी बात मुंह से निकालने लगे, जिसकी तुमको ख़बर तक नहीं और तुम इसको हल्की बात समझते हो, हालांकि (बोह्तान और इफ्तिरा) अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ी बात है और जब तुमने उसको सुना था तो क्यों न कहा कि हमारे लिए मुनासिब नहीं कि ऐसी झूठी बात मुंह से निकालें, ‘अल्लाह ही के लिए पाकी है। यह तो बहुत बड़ा बहुतान है।’ अल्लाह तुमको समझाता है कि ऐसा काम फिर कभी न कर बैठना, अगर तुम वाकई सच्चे ईमान वाले हो और अल्लाह तुम्हारे लिए पते की बातें वाज़ेह करता है और अल्लाह खूब जानने वाला, हिकमत वाला है।।
जो लोग चाहते हैं कि बदकारी की चर्चा हो ईमान वालों में, उन चाहने वालों के लिए दर्दनाक अज़ाब है दुनिया में भी, आखिरत में भी। बेशक अल्लाह (हक़ीक़ते हाल का) जानने वाला है और तुम जानने वाले नहीं हो और अगर अल्लाह का फज़ल न होता और उसकी रहमत न होती तुम पर और यह बात न होती कि वह नर्मी करने वाला है और मेहरबान है तो क्या कुछ न हो जाता।” (24:11-20)
सूरः की इन आयतों ने हज़रत आइशा (रजि) की तहारत और पाकदामनी का ही सिर्फ़ एलान नहीं किया, बल्कि मुसलमानों को यह तंबीह भी की कि उनको एक लम्हे का इन्तिज़ार किए बगैर इस क़िस्म के झूठ बोलने वालों के झूठ बोलने पर साफ़-साफ़ कह देना चाहिए था कि यह सिर्फ झूठ और बोहतान है।
ये आयतें इस वजह से ‘आयते बरअत’ भी कहलाती हैं कि उनमें हज़रत आइशा (रजि) की बरअत (छूट जाने) का एलान है और मुनाफ़िकों और दुश्मनों की ज़िल्लत व ख्वारी का इज़हार ।
सबक़ और नसीहत
इस वाकिए ने क़ुरआन में जिन सबक़ो और नसीहतों का सामान जुटाया है, उनमें ये ख़ुसूसियत के साथ तवज्जोह के क़ाबिल हैं –
1. फ़ासिक़ व फ़ाजिर या बद बातिन इंसानों की दी हुई ख़बर, खासतौर से जबकि वह इस्मत व इफ़्फ़त और तक़वा और खैर के खिलाफ़ हो, हरगिज़ तवज्जोह के क़ाबिल नहीं और इसके लिए सिर्फ इतना कह देना ही काफी है कि सिर्फ झूठ है, जब तक कि ख़बर देने वाला उस पर रोशन दलील व हुज्जत क़ायम न कर दे।
2. बेगुनाह पर इलज़ाम और तोहमत लगाना बहुत बड़ा गुनाह है और चूंकि इस गुनाह का करने वाला बन्दों के हक़ों में एक हक़ को निशाने पर रखता है और उसकी तौहीन करता है, इसलिए न सिर्फ़ अख़्लाक़ की निगाह में, बल्कि इन्तिमाई क़ानून की नज़र में भी हद-दर्जा मुजरिम है। क़ुरआन की आयतों ने इसके लिए “हद्दे कज़फ़ (बे-गुनाह पर तोहमत लगाने की सज़ा)” के लिए अस्सी कोड़े तजवीज़ किए हैं, ताकि आगे किसी को भी जुर्रात न हो सके कि वह एक पाकबाज़ इंसान पर तोहमत लगाए या बगैर गवाही के उसका प्रोपगंडा करे।
3. यह वाकिया जो शुरूआत के एतबार से नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए बहुत सख्त तकलीफ़ की वजह बना और अहले बैत को उसने बेहद परेशान ख़ातिर बनाया, लेकिन अंजाम के पेशेनजर अहले बैत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए यह पूरी तरह खैर साबित हुआ, क्योंकि इससे एक तरफ़ मुनाफ़िकों का भेद खुल गया और दूसरी तरफ़ हज़रत सिद्दीक़ा आइशा रज़ि० और अहले बैते रसूल की शान की अज़मत का बेनज़ीर मुज़ाहरा अमल में आ गया कि क़ुरआन की दस आयतों ने उनकी बरअत के लिए नाज़िल होकर उनकी इस्मत व अज़मत दोनों पर बेमिसाल मुहरे तस्दीक़ सब्त कर दी।
4. कभी-कभी गन्दे और शरीर (दुष्ट) इंसानों की गन्दी बातें इस दर्जा आब व रंग रखती हैं कि सादा-लौह मुसलमानों और नेक लोगों को भी ग़लतफ़हमियां और धोखे हो जाते हैं। इसके लिए मुसलमान का फ़र्ज़ है कि सुनी सुनाई बात पर उस वक़्त तक हरगिज़-हरगिज़ यकीन न करे जब तक कि इस्लामी शहादत के उसूल के मुताबिक़ सुनी सुनाई खबर की तस्दीक़ न हो जाए। अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया है कि बदगुमानी से बचो, क्योंकि कुछ बदगुमानियां गुनाह करने वाला बना देती हैं।
5. बन्दों के हक़ में अल्लाह ने जो हदें और क़सास और ताज़ीरात मुक़र्रर फ़रमा दिए हैं, जुर्मों के करने पर उन पर मुस्लिम और गैर-मुस्लिम का कोई फ़र्क नहीं है और इस्लामी क़ानून की निगाह में इस हैसियत से तमाम मुजरिम एक जैसे पकड़ के काबिल हैं, इसलिए इफ्क़ के वाक़िए में मुनाफ़िक झूठों के साथ तीन मुसलमान (मर्द व औरत) हज़रत हस्सान, हजरत मिस्तह और हज़रत हमना बिन्त जहश को भी झूठी तोहमत लगाने के इलज़ाम में कोड़े खाने पड़े।
To be continued …