बाग़ वाले

बाग़ वाले

कुरआन में बागवालो का ज़िक्र

      कुरआन की सूरः अल-कलम में अल्लाह तआला ने मक्का के काफ़िरों के हस्बे हाल एक मिसाल बयान फ़रमाई है, जो इस तरह है –

      तर्जुमा- ‘बेशक हमने इन (मक्का के काफिरों) को इसी तरह आज़माया है जिस तरह बाग़ वालों को आज़माया, जबकि उन्होंने यह कसम खा ली कि हम सुबह होते इन( के फलो) को काट लेंगे और वे ‘इन्शाअल्लाह‘ भी न कहते थे। पस वे अभी सो ही रहे थे कि (उनके बाग़ पर) तेरे परवरदिगार की तरफ़ से फिरने वाला फिर गया, (यानी) अल्लाह के अज़ाब से वह बाग बर्बाद हो गया) पस सुबह को ऐसा हो गया, गोया जड़ से काट कर फेंक दिया गया है।

      (सुबह हुई तो उन्होंने एक दूसरे को पुकारा कि अगर खेती काटना चाहते हो तो सवेरे चले चलो और वे चलते-चलते आपस में चुपके-चुपके बातें करते जाते थे (कि जल्दी करो), ऐसा न हो कि काटते वक़्त तुमको फ़क़ीर आ धरे और अपने बुख़्ल की वजह से बहुत सवेरे (बाग-खेत) पर पहुंचे। अन्दाज़ा लगाकर (कि उस वक्त तक फ़क़ीर न पहुंच सकेंगे), पस जब उसको (इस हाल में देखा तो कहने लगे, हम राह भूल गए हैं। (यह वह जगह नहीं है, मगर जब ग़ौर से देखा, तो कहने लगे) बल्कि हम (बाग के नफ़ा से) महरूम रह गए।

      उनमें से एक भले आदमी ने कहा, क्या मैंने तुमसे पहले ही न कहा था कि (अल्लाह की इस नेमत) पर क्यों अल्लाह की पाकी बयान नहीं करते? (अब बुरे अंजाम के बाद) कहने लगे, हमारे परवरदिगार के लिए पाकी है। बेशक हमने खुद ही अपने नफ्स पर ज़ुल्म किया और आपस में एक दूसरे को मलामत करने लगे (यह कि तूने ही हमको पहले से क्यों न समझाया) और कहने लगे, हाय बदकिस्मती, बेशक हम सरकश थे।

      जल्द उम्मीद है कि हमारा परवरदिगार हमको इससे बेहतर बदला अता फरमाए, बेशक (अब) हम् अपने परवरदिगार ही की तरफ़ मुतवज्जह हैं। (ऐ मक्का वालो! अल्लाह का अज़ाब इसी तरह (अचानक आ जाता है और आखिरत का अज़ाब तो बहुत ही हौलनाक है, काश! कि वे जान लेते।’ (68:17-23)

वाक़िए से मुताल्लिक़ क़ौल

      हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) फ़रमाते हैं कि यह मक्का के काफ़िरों के हालात के मुताबिक़ कुरआन ने एक मिसाल दी है, कोई वाक़िया नहीं है। सईद बिन जुबैर रजि० फ़रमाते हैं कि यह वाक़िया है, जो यमन के एक बस्ती ज़रवान में पेश आया जो कि सुनआ से छ: मील पर वाके थी।

      यह मिसाल हो या वाक़िया, कुरआन ने उसके बयान में याददेहानी और डरावे का जो पहलू रखा है, वह बहरहाल अपनी जगह है। इसलिए कि इन आयतों से पहले मक्का के कुरैश की नाफरमानी और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नबी बनाए जाने से इंकार और ढिटाई का जिक्र करते हुए, खास तौर पर उनके एक सरदार वलीद बिन मुगीरह की बद-आमालियों का तज़किरा हो रहा है।

      अब उनको एक मिसाल देकर या वाक़िया सुनाकर यह बताया जा रहा है कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और अल्लाह की नेमत (कुरआन) के खिलाफ़ आपस में सरगोशियां करने, कुरआन की अता की हुई तालीम से मुताल्लिक अल्लाह के हुक़ूक़ और बन्दों के हुक़ूक़ से बचकर अपनी ताक़त व क़ुव्वत पर इतराते और घमंड करते।

      मासूम पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों को हक़ारत की नज़र से देखने का अंजाम वहीं होने वाला है जो ‘बाग़ वालों‘ का हुआ और यह इसलिए कि एक तो अल्लाह की तरफ से इम्हाल के कानून (मोहलत देने का कानून) घमंड करने वालों को ढील देता है और हालत में सुधार लाने के लिए मौका जुटाता है, मगर जब कोई क़ौम उससे फायदा नहीं उठाती, बल्कि अल्लाह की उस मोहलत को अपनी बातिल परस्ती के लिए सच्चाई की दलील ठहरा कर सच्चों को और उसकी सच्चाई को हक़ीर व ज़लील करने पर तैयार हो जाती है, तो फिर पकड़ का कानून अपना सख़्त पंजा उन पर जमा देता है और उनको हलाक़ व बर्बाद करके कायनात की इबरत व नसीहत का सामान जुटा देता है, बल्कि न उस वक्त हसरत काम आती है, न नदामत और न उस घड़ी ईमान लाना फायदेमंद होता है और न अल्लाह की इताअत व फ़रमारबरदारी का एलान।

सबक़ 

      अल्लाह तआला ने इस कायनात में इंसान को इज्तिमाई जिंदगी जीने के लिए पैदा किया है और इंसानी ज़रूरतों को एक दूसरे से इस तरह जोड़ दिया है कि यह कारखाना आपसी मेल-मदद के बग़ैर नहीं चल सकता और चूंकि इज्तिमाई ज़िंदगी फ़र्द ही से बनती और संवरती है, इसलिए बहुत ज़रूरी है कि उनके आगे बढ़ने और जिंदगी को बाक़ी रखने का ऐसा कानून मुक़र्रर किया जाए जिसकी बदौलत इंसानों के दर्मियान भाईचारा और रहम व मुरव्वत कायम हो सके और किसी वक़्त भी हसद और ज़िद न पैदा होने पाए, इसलिए अल्लाह तआला ने उस निज़ाम को पूरा करने के लिए मआशी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ दो हक़ मुक़र्रर फ़रमाए- एक मईशत का हक़ और दूसरा मईशत के दर्जे।

      मईशत के हक़ का कानून यह है कि इस दुनिया में एक जानदार भी ऐसा नहीं रहना चाहिए जो मईशत के हक से महरूम हो। यह हर आदमी का अपना हक़ है कि वह ज़िंदा रहे। इसलिए मईशत के हक में यहां सब बराबर हैं और किसी को किसी पर बुलन्दी और बरतरी हासिल ‘नहीं।

      दसरी मईशत के दर्जों का मसला है यानी यह ज़रूरी है कि मआशी ज़िंदगी के लिए सबको मिले, मगर यह ज़रूरी नहीं कि सबको बराबर मिले।

      तर्जुमा- ‘और अल्लाह तआला ने तुमको कुछ को कुछ पर रोज़ी में फ़ज़ीलत दी है।’ (16:71)

      लेकिन मआश के दर्जों में इस कमी-बेशी और बरतरी का यह मतलब है कि उसने जो कुछ कमाया है, वह सब उसका इफिरादी हक़ है, नहीं, बल्क़ि जो जितना ज़्यादा कमाएगा उतना ही उसकी दौलत में इज्तिमाई हक अल्लाह का हक़ और बन्दों का हक) ज़्यादा होगा। जो इंफ़िरादी मिल्क समझ कर इन हकों का इंकार करेगा, उसका अंजाम भी बख़ैर न होगा और वह अल्लाह के ग़ज़ब का हक़दार करार पाएगा।

To be continued …