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हिजरत
लफ़्ज़ ‘हिज्र‘ से लिया गया है जिसके मानी छोड़ देने के हैं और इस्लाम के नज़दीक अल्लाह के लिए वतन छोड़ देना ही हिजरत कहलाता है।
हब्शा की हिजरत
अल्लाह के दीन पर जमाव और कलिमा-ए-हक़ की हिफाज़त के लिए इस्लाम के फ़िदाकारों को वतन छोड़ देने की पहली आज़माइश उस वक्त पेश आई, जबकि मक्का के कुफ्फार और कुरैशी मुशरिकों ने हर क़िस्म के ज़ुल्म व सितम का निशाना बना कर मुसलमानों के लिए उनके महबूब वतन (मक्का) में दीने हक़ पर क़ायम रहते हुए ज़िंदगी गुज़ारना नामुमकिन बना दिया और वतन छोड़ देने के अलावा कोई रास्ता बाक़ी न छोड़ा।
पस मुट्ठी भर मुसलमानों पर मुशरिकों के बरदाश्त न करने के क़ाबिल ज़ुल्म और मुसलमानों को हैरत में डाल देने वाले जमाव ने, दुनिया की तारीख में एक नया बाब बढ़ा दिया, जो हब्श की हिजरत के नाम से जाना जाता है।
उस वक़्त हब्शा का फ़रमारवा अस्हमा ईसाई था और ईसाई धर्म का आलिम भी, इसलिए नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुसलमानों को इजाज़त दे दी कि वे अभी हब्शा को हिजरत कर जाएं, उम्मीद है कि अस्हमा की हुकूमत उनका स्वागत करेगी और वे बिना किसी रुकावट के दीने हक़ पर क़ायम रह सकेंगे और जमे भी रहेंगे।
हिजरत के उस दौर की नुमायां शख्सियत हज़रत उस्मान (रजि) और उनकी बीवी, अल्लाह के रसूल सल्ल० की लड़की हज़रत रुकैया (रजि) हैं। नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस मुक़द्दस जोड़े को विदा करते हुए इर्शाद फ़रमाया कि हज़रत लूत (अलै.) और हज़रत इब्राहीम (अलै.) के बाद यह पहला जोड़ा है जो अल्लाह के रास्ते में हिजरत कर रहा है। फिर धीरे-धीरे यह तायदाद अस्सी तक पहुंच गई।
इन मुहाजिरों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चचेरे भाई हज़रत जाफ़र (रजि) भी थे। यही वह निडर और हक़ बात कहने वाले शख्स हैं, जिन्होंने कुरैश के वफ्द की मुहाजिरों से मुताल्लिक़ वापसी की मांग के सिलसिले में इस्लाम पर बेमिसाल तक़रीर फ़रमाई और जिसका ज़िक्र पीछे के पन्नों में हो चुका है।
मदीना की हिजरत की वजहें
सन् 11 नबवी हज के मौसम के मौक़े पर अल-हिरा और मीना के दर्मियान अक़बा नामी जगह में यसरिब (मदीना) के कुछ लोगों ने रात की तन्हाई में नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हक़ का पैगाम सुना और इस्लाम कुबूल कर लिया। ये छः या आठ आदमी थे। दूसरे साल कुछ पिछले और कुछ दूसरे लोगों ने जो तायदाद में बारह थे, खिदमत में हाज़िर होकर इस्लाम पर बातें कीं और मुसलमान हो गए। उनके नाम मुहम्मद बिन इसहाक की रिवायत के मुताबिक़ ये हैं–
अबू उमामा, औफ़ बिन हारिस, राफेअ बिन मालिक, कुत्बा बिन आमिर, मुआज़ बिन हर्स, जक्वान बिन अब्द कैस, ख़ालिद बिन मुखल्लद, उबादा बिन सामित, अब्बास बिन उबादा, अबुल हैसम, अदीम बिन साइमा।
हज़रत उबादा बिन सामित फ़रमाते हैं कि हमने पहले उक़बा में नीचे लिखी शर्तों के साथ इस्लाम पर बैअत की थी –
1. एक अल्लाह के सिवा किसी की परस्तिश नहीं करेंगे।
2. चोरी नहीं करेंगे।
3. ज़िना नहीं करेंगे।
4. अपनी औलाद को क़त्ल नहीं करेंगे।
5. किसी पर झूठी तोहमतें नहीं लगाएंगे और न किसी की गीबत करेंगे।
6.और किसी भी अच्छी बात में आपकी (नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की) नाफरमानी नहीं करेंगे। ‘
बैअत के बाद नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया, अगर तुमने इन शर्तों को पूरा किया तो तुम्हारे लिए जन्नत की बशारत है और अगर तुम इन बुराइयों में से कोई भी कर बैठे, तो फिर तुम्हारा मामला खुदा के हाथ में है, चाहे बख्श दे, चाहे जुर्म पर सज़ा दे।
इस वाकिए ने मदीना के हर घर में इस्लाम की चर्चा शुरू कर दी और धीरे-धीरे हर ख़ानदान में इस्लामी सूरज की किरणें पहुंचने लगीं और नतीजा यह निकला कि औस व खज़रज की तमाम शाखों में से 13 नबवी को तिहत्तर मर्द और दो औरतें इसी अक़बा नामी जगह पर हज के ज़माने में, रात की अंधियारी में नुबूवत के सूरज की रोशनी से फ़ैज़ हासिल करने जा पहुंचे। नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी अपने चचा अब्बास को साथ लेकर वहां पहुंच गए और उनके सामने इस्लाम पर एक असरदार वाज़ फ़रमाया, जिससे उनके दिल ईमान की रोशनी से जगमग हो उठे।
इसके बाद अंसारी और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दर्मियान इस मामले पर बातें हुई कि अगर ज़ाते अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना में तशरीफ़ ले आएं तो इस्लाम की इशाअत को भी फायदा पहुंचे और हमको भी फ़ैज़ पाने का अच्छी तरह मौक़ा हाथ आए और इस सिलसिले में दोनों तरफ़ से मुहब्बत और ताल्लुक़ के क़ौल व करार भी हुए, जिनकी तफ़्सील सीरत और तारीख़ की किताबों में ज़िक्र हो चुकी है। इन्हीं लोगों में से नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बारह लोगों को चुनकर दावत व इस्लाम की तालीम के लिए अपना नक़ीब (प्रतिनिधि) मुक़र्रर फ़रमाया।
यसरिब (मदीना) में इस्लाम की इशाअत ने जब इस तरह भारी तरक्की कर ली, तो अब अल्लाह की वह्य़ी ने नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़ुबानी इस्लाम के जॉनिसारों को इजाज़त दी कि वे मक्का के मुशरिकों की पहुंचाई हौलनाक तकलीफ़ों से बच जाने के लिए मदीना हिजरत कर जाएं और खुदा के लिए वतन तर्क कर लें, चुनाचे धीरे-धीरे मुसलमानों ने मदीने की हिजरत शुरू कर दी।
मक्का के मुशरिकों ने यह देखकर मुसलमानों को हिजरत से रोकने के लिए ज़ुल्म व ज़्यादती में और बढ़ौतरी कर दी और हिजरत को रोकने के लिए मुमकिन ज़रियों को इख़्तिया किया, मगर इस्लाम के फ़िदाकारों का हिज़रत का जज़्बा थमा नहीं, बल्कि वे कसरत के साथ माल, जान, आबरू और औलाद की ज़िंदगी को खतरे में डालकर अल्लाह की राह में अज़ीज़ वतन को खैरबाद करते रहे। अक्सर ऐसा हुआ कि जब मक्का वालों ने उनके माल और बाल बच्चों के साथ ले जाने से रोक दिया तो इन जवानों ने सब्र आज़मा ज़िंदगी के साथ हक़ के लिए हिजरत की खातिर उनको भी वहीं छोड़ा और अकेले अल्लाह के भरोसे पर मदीना रवाना हो गए।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हिजरत
अब मक्काके मशहूर मुसलमानों में से सिर्फ हज़रत अबूबक्र रज़ि० और हज़रत अली रज़ि० ही बाक़ी रह गए थे और बहुत थोड़ी सी तायदाद बाक़ी मुसलमानों की थी, तब कुरैश ने सोचा कि मुहम्मद (ﷺ) को क़त्ल करके इस्लाम को मिटा देने का इससे बेहतर दूसरा कोई मौक़ा नहीं आएगा।
दारुन्नदवा
चुनांचे कुरैश के तमाम सरदार क़ुसई बिन किलाब के क़ायम किए हुए ‘गवर्नमेंट हाऊस‘ (दारुन-नदवा) में जमा हुए और सरवरे आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के क़त्ल से मुताल्लिक़ मश्विरे की साज़िशी मजलिस क़ायम की। इस मजलिस में उत्बा, शैबा, अबू सूफ़ियान, तुऐमा बिन अदी, क़ुबैर बिन मुतअम, हारिस बिन आमिर, नज्र बिन हारिस, अबुत्तसजज़ी, रफ़आ बिन असवद, हकीम बिन हिजाम, अबू जहल, मुनब्बह बिन हज्जाज, उमैया बिन खल्फ़ जैसे कुरेश-सरदार मश्विरे में शरीक थे। मशवरा शुरू होने वाला ही था कि एक शैतान शैख़ नज्दी दारुन्नदवा के दरवाज़े पर आ मौजूद हुआ और मजलिस में शिरकत की ख्वाहिश की। मक्का के कुरैश ने अपने ख्याल का पाकर खुशी से इजाज़त दे दी और अब मशवरा शुरू हुआ।
मुखालिफ़ राय देने वालों ने अलग-अलग राएं दी, लेकिन शैख नज्दी ने हर एक राय को गलत क़रार दिया, आखिर में एक आदमी ने कहा, तमाम क़बीलों में से एक-एक जवान लीजिए और उनसे कहिए कि वे एक ही वक्त में मुहम्मद सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम पर हमला करके क़त्ल कर दें। इससे काम भी बन जाएगा और बनू अब्द मुनाफ़ किसी से बदला लेने की जुर्रात भी न कर सकेंगे और सिर्फ़ खूबहा पर मामला तै हो जाएगा। शैख नज्दी ने इस राय को बहुत सराहा और यही राय तय पा गई।
इधर जिब्रील (अलै.) ने अल्लाह की वह्य़ के ज़रिए ज़ाते अक़दस के सामने इस पूरी दास्तान को कह सुनाया और अर्ज़ किया कि ख़ुदा की मर्ज़ी यह है कि आप आज रात अपने बिस्तर पर हज़रत अली (रजि) को सुलाकर खुद मदीना को हिजरत कर जाइए। चुनांचे अल्लाह की वह्य़ के मुताबिक़ आप (ﷺ) कुरैश के नवजवानों के घेरे के बावजूद सूरः यासीन की कुछ आयतें ‘फ़ अग़शैनाहुम फ़हुम ला मुबसिरून०’ पढ़ते हुए और ‘शाहतिल वजूह’ फरमाकर मुट्ठी भर ख़ाक उन के सरों पर डालते हुए साफ़ बचकर निकल गए और हज़रत अबूबक्र (रजि) के मकान पर जाकर और वह्य़ी इलाही की खुशखबरी सुनाकर उनको साथ लिए मदीना को रवाना हो गए।
हिजरत का यह वाकिया रबीउल-अव्वल 13 नबवी दो शंबा के दिन पेश आया। यह वाक़िया अपने खसूसी हालात और मोजज़ाना असरात के साथ बहुत मशहूर और सहीह हदीसों और रिवायतों में ज़िक्र किया गया है और सिद्दीके अकबर की सफ़रे हिजरत में साथ देने की अज़मत व जलालत के लिए रहती दुनिया तक क़ुरआन इस तरह कहता है–
तर्जुमा- ‘दूसरा था दो का, जबकि वे दोनों ग़ार में थे कि यह अपने रफीक़ (हज़रत अबूबक्र (रजि) ) से कह रहे थे, अबूबक्र! ग़म न खा, बेशक खुदा हमारे साथ है। (9:39)
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस मौक़े पर हज़रत अबूबक्र रज़ि० को मुखातिब करते हुए ‘ला तहजन’ फ़रमाया, ‘ला तखफ’ नहीं फ़रमाया, यह इसलिए कि ‘ख़ौफ़‘ (भय) और हुज्न (गम) के मानी में एक फ़र्क यह भी है कि आमतौर पर ख़ौफ़ अपने नुक़सान के सिलसिले में हुआ करता है। इससे यह मालूम हुआ कि हज़रत अबूबक्र (रजि) को अपनी जान और अपनी ज़ात का ख़ौफ़ नहीं था, बल्कि ज़ाते अकदस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की गिरफ़्तारी और मुशरिकों के हाथों ज़ुल्म पहुंचने का गम उन पर सवार था।
पस हुज़ूर अक़दस की सिफ़ात ने अबूबक्र (रजि) की इस हालत का अन्दाज़ा लगाया तो ‘ला तख़फ़‘ की जगह ‘ला जहज़न‘ इर्शाद फ़रमाया और साथ ही ‘इन्नल्ला-ह मअना’ फ़रमा कर हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रजि) की रिफ़ाक़त की मक़बूलियत पर भी मुहर तस्दीक़ लगा दी। दुनिया अपने बुगज़-दुश्मनी से जो चाहे कहे, लेकिन रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत अबूबक्र (रजि) का ‘सच्चा साथ‘ के लिए क़ुरआन के जुमला (वाक्य) ‘इन्नल्ला-ह म-अ-ना’ (बेशक अल्लाह हमारे साथ है) की हक़ीक़त को सारी कायनात भी मिल कर मिटाना चाहे तो मिटा नहीं सकती।
‘ज़ालि-क फज्लुल्लाहि यूतीहि मंय-यशाउ वल्लाहु जुल फ्रज्लिल अज़ीम० (यह अल्लाह का फज़ल है, जिसे चाहे दे, अल्लाह बड़े फज़ल वाला है)
कुरआन मजीद और मदीने की हिजरत
मेराज के वाकिए में गुज़र चुका है कि हकीक़ते इसरा तम्हीद थी हिजरत के शानदार वाकिए की, यानी वाकिए इसरा की अजीब बातें इस बात की तम्हीद थी कि अब आपकी तब्लीगी ज़िंदगी का दौर एक दूसरा रुख इख़्तियार करने वाला है जो कामरानियों और कामियाबियों से भरपूर है, इसलिए बहुत ज़रूरी है कि पहले आपको किबलतैन (दोनों किबले-काबा और बैतुलमक्दिस) के रहस्यों को बता दिया जाए, ताकि मक्की ज़िंदगी जब मदनी ज़िंदगी में बदले तो इससे पहले नुबूवत व रिसालत के कमालात अपनी इंतिहा को पहुंच चुके हों और आपका हिदायत का मंसब उस बुलन्द मुक़ाम तक जा पहुंचा हो, जहां खुदा की सबसे बुलन्द मख्लूक़ का भी गुज़र न हुआ हो, ताकि आप ‘अल-यौ-म अक-मलतु लकुम दीनकुम व अत ममतु अलैकुम नेमती व रजीतु लकुमुल इस्ला-म दीना’ के शरफ़ को हासिल कर सकें।
पस सूरः बनी इसराईल शुरू से लेकर आखिर तक मदीना की हिजरत के ही राज़ो से भरी हुई है। चुनांचे शुरू की आयतों में असरा का बयान है और फिर ज़िक्र आ गया है रुश्द व हिदायत के उसूल का और बीच में पिछली उम्मतों और उनके रहबरों-नबियों और रसूलों के तब्लीगी वाकियों का तज़्किरा गवाह और नज़ीर बनकर सामने आ जाता है और इस सिलसिले में ये राज़ के हुक्म और असरा का भी ज़िक्र होता जाता है और उसके बाद “रब्बि अद् ख़िलनी मद-ख-ल सिदकिन” से मक्का से निकलने और मदीने की हिजरत का ज़िक्र शुरू हो जाता है और यह ज़िक्र सूरः के आखिर तक जारी रहता है। चुनांचे हज़रत अब्दुलल्लाह बिन अब्बास (रजि) और हज़रत क़तादा (रजि) ने लिखी गई हर दो आयत के मज़मूनों के सिलसिले को मदीना की हिजरत से ही जोड़ दिया है।
तर्जुमा- और करीब था कि वे (मुशरिक) अलबत्ता तुझको आजिज़ कर देते (मक्का) की सरज़मीन से, ताकि तुझको उससे निकाल दें और ऐसी हालत में उनकी हलाकत बहुत थोड़े अर्से में सामने आ जाती। (17:76)
यह मुशिरकों के हक़ में सख्त क़िस्म का इरादा और धमकी है कि जब भी तुम्हारे ज़ुल्मों की बदौलत नबी अकरम (ﷺ) को मदीना की हिजरत पेश आएगी, तुम्हारी इज्तिमाई ज़िंदगी की हलाकत क़रीब से क़रीबतर हो जाएगी, गोया मदीने की हिजरत, इस्लाम की हर दिन बढ़ती तरक्की और इस्लाम दुश्मनों की मौत व हलाकत के लिए लिखी तक़दीर है।
तर्जुमा- ‘और कहिए, ऐ मेरे परवरदिगार! मुझको दाखिल कर (मदीना में) अच्छा दाखिला और निकाल मुझको (मक्का) से इज़्ज़त के साथ और मेरे लिए अपनी तरफ से ज़बरदस्त मदद अता कर। (17:80)
इसी तरह सूरः अनफाल में कुछ वाकियों में मदीना की हिजरत का ज़िक्र मौजूद है।
तर्जुमा-और (वह वक्त ज़िक्र के क़ाबिल है) जब इंकार करने वाले लोग तेरे खिलाफ साज़िश कर रहे थे, ताकि तुझको क़ैद कर लें या मार डालें या (मक्का से) निकाल दें वे अपनी साज़िशों में लगे हुए थे, खुदा उसके खिलाफ तदबीर कर चुका था, और अल्लाह तदबीर करने वालों में सबसे बेहतर तदबीर करने वाला है। (8:30)
और इसी तरह सूरः तौबा में सिद्दीक़े अकबर की अज़मत व जलाल के तज़किरे के साथ-साथ मदीने की हिजरत का ज़िक्र इस तरह मौजूद है
तर्जुमा- ‘अगर तुम अल्लाह के रसूल की मदद नहीं करोगे तो (न करो) उसकी अल्लाह तआला ने उस वक्त मदद फ़रमाई, जब उसको इंकार करने वालों ने (मक्का से) निकाला, जबकि वे दोनों (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत अबूबक्र रज़ि०) ग़ार में (हिरा में छिपे हुए थे) जब (रसूल अपने साथी हज़रत अबूबक्र रज़ि० से) कह रहा था, तू गम न खा, बेशक अल्लाह हमारे साथ है। पस अल्लाह ने उस पर अपना सकीना (तिमानियत) उतारी और उससे ऐसी फौज के ज़रिए कूव्वत पहुंचाई कि तुम उसको नहीं देख रहे थे और (इस तरह) खुदा ने काफिरों का कलिमा पस्त कर दिया और अल्लाह का कलिमा ही सबसे बुलन्द है और बेशक अल्लाह गालिब और हिकमत वाला है (9:40)
हिजरत
इस्लाम में हिजरत एक अहम फ़रीज़ा है। कौन नहीं जानता कि इंसान के लिए वतन, माल (बाल-बच्चे कितने प्यारे होते हैं और इन्हीं क़ीमती पूंजी पर) अपनी दुनिया का ऐश, राहत, और ज़िंदगी को बाक़ी रखने का मदार (आधार) समझता है, लेकिन उसकी इंसानियत और इंसानियत की तरक्क़ी ज़िंदगी के इन तमाम मकसदों से भी एक बुलन्द मक़सद चाहती है और वह है कायनात पैदा करने वाले और रब्बुल-आलमीन की मारफत जिसकी शफ़क़त और मुहब्बत ने उसको यह रुख दिया।
इसी मारफ़त का नाम ‘दीन और ‘मिल्लत’ है। इंसान जब इस हकीक़ी मक़सद को पा लेता है तो फिर उसकी निगाह में इस दर्जा फैलाव और बुलन्दी पैदा हो जाती है कि दुनिया की उन तमाम रंगीनियों और नैरंगियों का फैला हुआ दामन भी उसको तंग नज़र आता है और वह इस तंगदामनी से आजिज़ होकर आखिरकार ‘रूहानी जिंदगी‘ की गोद में ही तस्कीन पाता है और जब इस मरहले पर पहुँच जाता है तो फिर दीने हक़ के लिए वह दुनिया की तमाम कीमती पूंजी, तन-मन-धन यहां तक कि बाल-बच्चों को भी छोड़ देता है और उस क़ीमती मोती को आंच नहीं आने देता, जिसका नाम ‘ईमान‘ है। इसी हक़ीक़ते हाल को इस्लाम के मुक़द्दस ‘लफ़्ज़ों में हिजरत कहा जाता है।
इसी वजह से हिजरत’ एक सच्चे ईमान वाले और मुखिलस मुसलमान और मुनाफ़िक और काफ़िर हस्ती के दर्मियान फ़र्क पैदा करने के लिए बेहतरीन ‘कसौटी‘ और ‘मेयार‘ है, साथ ही रुहानी फ़िज़ा का दर्जा-हरारत मालूम करने के लिए ‘जिहाद‘ और हिजरत ही दो ऐसे पैमाने हैं जिनसे मोमिनों के ईमान की हरारत का सही अन्दाज़ा हो जाता है।
क़ुरआन ने हिजरत की अहमियत पर जगह-जगह तवज्जोह दिलाई है और उसको ईमान व इस्लाम की कसौटी करार दिया है, जिसके लिए ये जगहें ख़ास तौर से पढ़ने लायक हैं –
2 : 218, 3 : 194, 8 : 74, 9 : 20, 16 : 111, 23 : 58, 4 : 100. 16 : 41, 4 : 97
इस्लाम के शुरू में मक्का दारुल कुफ़्र और दारूल हर्ब था, इसलिए वहां से मदीने को हिजरत कर जाना इस्लाम के सबसे अहम फर्ज़ों में से था, ताकि मुसलमान मदीने में अम्न व आफ़ियत के साथ इस्लाम के हुक्मों की पैरवी कर सकें और न सिर्फ इसी क़दर बल्कि इस्लाम के बड़े मक़सद अम्र बिल मारूफ (भलाई का हुक्म देना) और नहिय अनिल मुन्कर (बुराइयों से रोकना) की या दूसरे लफ़्ज़ों में ‘ऐ लाए कलि मतुल्लाह’ (अल्लाह के कलिमा को बुलन्द करने) की सही खिदमत अंजाम दे सकें, मगर जब सन् 98 हिजरी में ‘फरहे मुबीन’ (खुली जीत) ने मक्का की इस हालत को बदल कर ‘दारुल इस्लाम’ बना दिया तो अब हिजरत का यह ख़ास फ़र्ज़ ख़त्म हो गया और वह्य़ी की ज़ुबान में “ला हिज-र-त बादल फ़हि’ (फतह के बाद कोई हिजरत नहीं) फ़रमाकर इस हक़ीक़त का एलान कर दिया, अलबत्ता अब भी तौहीद के मरकज़ से बेपनाह इश्क व मुहब्बत के जज़्बे में मक्का और मदीना हिजरत करके जाना अज्र व सवाब का ज़रूरी हक़ पैदा करता है।
और अगर किसी जगह और किसी देश में भी मुसलमानों के लिए ईमानी ज़िंदगी के पेशेनज़र वही सूरते हाल पैदा हो जाए जो इस्लाम के शुरुआती दौर (मक्की दौर) में थी तो उस वक़्त मुसलमानों के लिए वही हुक्म लागू हो जाएंगे जो ‘मक्की दौर‘ के मुताबिक़ क़ुरआन व हदीस और उससे निकले ‘इस्लामी फ़िक़्ह‘ में पाए जाते हैं और उसूली तौर पर उस वक़्त सिर्फ दो ही इस्लामी मांगें सामने आएंगी –
1. या ‘अल्लाह के रास्ते के जिहाद‘ के ज़रिए उस हालत में इंक़िलाब
2. या फिर ‘हिजरत’
और किसी तरह भी यह जायज़ नहीं होगा कि मौजूदा हालत पर क़नाअन करके इत्मीनान की ज़िदंगी गुज़ारी जाए।
मक्का जब दारुल कुफ़्र और दारुल हबर था तो उस वक्त मदीना की हिजरत को इस्लाम ने किस दर्जा अहमियत दी और इस ऊंचे मक़सद के लिए मुसलमानों से किस दर्जा क़ुरबानी और नफ़्स के ईसार की मांग की, नीचे की आयतों से इस हक़ीक़त का अच्छी तरह अन्दाज़ा हो सकता है –
तर्जुमा- जिन लोगों ने हिजरत की और जो अपने घरों से निकाले गए और मेरी राह में सताए गए और मेरी राह में लड़े और मारे गए, मैं ज़रूर उनके गुनाह उनसे दूर कर दूंगा और उनको ऐसी जन्नतों में दाखिल करूंगा जिनके (पेड़ों के) नीचे नहरे जारी हैं। यह बदला है अल्लाह की तरफ़ से और अल्लाह के पास अच्छा बदला है।’ (3:197)
तर्जुमा- ‘जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह की राह में अपने मालों और अपनी जानों से जिहाद किया, अल्लाह के नज़दीक बहुत बुलन्द रहने वाले हैं और यही कामयाब है। (9:20)
तर्जुमा- ‘बेशक जिनको फ़रिश्तों ने ऐसी हालत में मौत से दोचार किया कि वे अपनी जानों पर ज़ुल्म कर रहे थे, उनसे (फ़रिश्तों ने) पूछा कि तुम किस हालत में थे। उन्होंने जवाब दिया कि हम ज़मीन में कमज़ोर थे। फ़रिश्तों ने कहा, क्या अल्लाह की ज़मीन फैली नहीं थी कि तुम उसमें हिजरत कर जाते, सो यही हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरी जगह है, मगर वे कमज़ोर मर्द और औरतें और बच्चे जो हिजरत के लिए कोई हीला नहीं कर सकते और न (हिजरत के लिए) राह पाते हैं, तो ये वे हैं कि उम्मीद है अल्लाह तआला उनको माफ़ कर दे और अल्लाह बेशक माफ़ करने वाला बहाने वाला (4:97-99)
To be continued …