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हज़रत मुहम्मद (ﷺ) और क़ुरआन मजीद
क़ुरआन कलामे इलाही है और आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद सल्ल० पर उतरा है। क़ुरआन इल्म व यक़ीन की रोशनी है और ज़ाते अक़दस उनका अमली नमूना, आदर्श और नक्शा हैं- “ल कद का-न लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उस्ततुन ह-स-ना’
क़ुरआन रुश्द व हिदायत और मुहम्मद (ﷺ) राशिद व हादी, क़ुरआन हक़ व सदाक़त के लिए दावत व पैगाम है और नबी अकरम (ﷺ) उसकी दावत देने वाले और पैगम्बर हैं, इसलिए क़ुरआन का हर एक जुम्ला और उसकी एक-एक आयत किसी-न-किसी हैसियत में ज़ाते कुदसी सिफ़ात (अल्लाह) से ताल्लुक़ रखती है, तो अब किस तरह यह कहा जाए कि क़ुरआन में इतनी जगह उसकी मुक़द्दस हस्ती का ज़िक्र है।
एक बार हज़रत आइशा (अलै.) से कुछ सहाबा ने अर्ज़ किया कि आप नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (ﷺ) की ज़िंदगी के कुछ हालात हमें सुनाएं। हज़रत आइशा सिद्दीका (अलै.) ने ताज्जुब के साथ मालूम किया। तुम क़ुरआन नहीं पढ़ते जो मुझसे नबी अकरम (ﷺ) के अख़्लाक़ के बारे में सवाल हो? बेशक उनका अख़्लाक़ तो क़ुरआन ही था। आपकी तमाम अखलाक़ी ज़िंदगी क़ुरआन के सांचे में ढली हुई थी। क़ुरआन जो कुछ कहता है, मुहम्मद (ﷺ) ने उसी को कर दिखाया। पस क़ुरआन के किसी हिस्से को सामने लाना गोया हयाते तैयबा को सामने लाना है।
अलबत्ता क़ुरआन ने जिन आयतों में आप के मुबारक नाम या बुलंद औसाफ़ का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया, ‘ऐ नबी‘ या ‘ऐ रसूल‘ कह कर मुख़ातिब किया, उसकी तफ़सील नीचे के नक्शे से ज़ाहिर होती है। इस नक़्शे में जो जम्हूर के नज़दीक मानी हुई बातें हैं, (नबी और रसूल के अलावा जिन नामों और सिफ़तों की तफ्सील चाहिए थी) वे यह हैं –
1. मुहम्मद, 2. अहमद, 3. अब्दुल्लाह, 4. शाहिद, 5. बशीर, 6. नज़ीर, 7. मुबश्शिर, 8. मुज़क्किर, 9. अज़ीज़, 10. रऊफ़, 11, रहीम, 12. अमीन, 13. मुज़म्मिल, 14. मुद्दस्सिर, 15. मुन्ज़िर, 16. हादी, 17. यासीन, 18. रहमत, 19. नेमत, 20. ता-हा, 21. नूर, 22. हक़, 23. सिराजे मुनीर, 24. शहीद, 25. दाई इलल्लाहि (अल्लाह की तरफ़ दावत देने वाला), 26. ख़ातूमुन्नबीयीन, 27. नबी, 28. रसूल, 29. अब्दुहू
क़ुरआन और सहीह हदीसों में नबी अकरम (ﷺ) के नामों और सिफ़तों का ज़िक्र है, इस्लामी उलेमा ने उस पर मुस्तकिल किताबें लिखी हैं। मशहूर मुहद्दिस अबूबक्र बिन अरबी ने शरहे तिर्मिज़ी में उनकी गिनती चौंसठ बताई है, कुछ ने निन्नानवे और कुछ इल्म वालों ने उसको एक हज़ार तक पहुंचाया है (फत्हुलबारी)
बुख़ारी शरीफ़ की एक मरफूअ हदीस में है कि आपने इर्शाद फरमाया-
मेरे पांच नाम हैं –
1. मुहम्मद हूं, 2. अहमद हूं, 3. माही यानी कुफ़्र व शिर्क को मिटाने वाला हूं, 4. हाशिर हूं, इसलिए कि क़यामत के दिन तमाम कायनात से पहले अल्लाह के दरबार में हाज़िर हूंगा, और 5, आक़िब हूं (इमाम ज़ोहरी के क़ौल के मुताबिक आख़िरी पैगम्बर हूं।)
हाफिज़ इब्ने हजर अस्कलानी रह० के मुताबिक़ इस्लाम के उलेमा का जिन पर इत्तिफ़ाक़ है यानी क़ुरआन में आपके जिन नामों और सिफ़तों का ज़िक्र किया गया है, वे यह हैं –
1. अश-शाहिद, 2. अल-बशीर, 3. अन-नज़ीर, 4. अल-मुबीन, 5. अद्दाई इलल्लाहि, 6. अस्सिराजुल मुनीर, 7. अल मुज़क्किर, 8. अर-रहमत, 9. अन-नेमत, 10. अल-हादी, 11. अश-शहीद, 12. अल-अमीन, 13. अल-मुजम्मिल, 14. अल मुदस्सिर और हदीसों में ज़िक्र किए गए आपके नामों और सिफ़तों में नीचे लिखी सिफ़तें ज़्यादा मशहूर हैं।
1. अल-मुतवक्किल, 2.अल-मुख्तार, 3. अल-मुस्तफ़ा, 4. अश-शफ़ीउल मुशफ्फ़िआ, 5. अस्सादिकुल मस्दूक।
बहरहाल मुहम्मद और अहमद दो अस्मा (नाम) हैं और बाकी अस्मा-सिफ़ात व अलक़ाब और कुरआन में आपके पाक नाम से जुड़े हुए एक सूरः का नाम सूरः मुहम्मद है जिसके शुरू ही में आपके इस्मे गिरामी का ज़िक्र है –
व आमिनू बिमा नुज्जि-ल अला मुहम्मदि-बहुवल हककु मिर्रब्बिहीम, और सिर्फ एक जगह सूरः सफ्फ़ में अहमद नक़ल किया गया है। यानी हज़रत मसीह (अलै.) है की इस बशारत के तज़किरे में यह नाम आया है जो आपके आने से मुताल्लिक़ उन्होंने बनी इसराईल को सुनाई थी –
‘व मुबशिशरम बिरसूलिंय्याती मिम बादी इस्मुहू अहमद’
यह हक़ीक़त भुलाने लायक नहीं है कि आपके नाम और सिफ़तें सिर्फ रस्मी नहीं हैं कि मां-बाप ने जो चाहा नाम रख दिया, दोस्तों और साथियों ने जिस सिफ़त व लक़ब से चाहा पुकार लिया बाल्कि उन नामों और सिफ़तों का आपकी जिंदगी और आपके अख्रलाक व आमाल के साथ बहुत गहरा ताल्लुक है जैसा कि अभी माही, हाशिर और आक़िब के बारे में खुद तर्जुमाने वह्य की जुबान से सुन चुके हो या जैसे मुहम्मद उस हस्ती को कहते हैं जिसके तज्किरे हमेशा खूदी और नेकी के साथ होते हों, ये पिछले नबियों की बशारतें और मुस्तक़बिल में जिंदगी के तज़किरों की तरफ़ इशारा है।
और अहमद उसे कहते हैं जो सबसे ज्यादा अल्लाह की हम्द (गुण-गान) करता और मुबारक ज़ात की कामिल बन्दगी और कामिल इंसान होने को जाहिर हैं। बेशक आप खुदापरस्त इंसानों के लिए खुशखबरी सुनाने वाले और डराने वाले, और फ़ितना पैदा करने वाले फ़सादियों, काफ़िरों और मुशरिकों के लिए मंज़िर व नज़ीर (सज़ा से डराने वाले) हैं।
क़यामत के दिन, सच्चे और झूठे दोनों पर शाहिद हैं, हक के लिए खुली आंख वाले और हक के लिए कान खुले रखने वालों के लिए याददेहानी कराने वाले हैं। राहे हक से हटे हुए के लिए हादी (हिदायत का रास्ता बताने वाले) और ख़ुदा से भागे हुओं के लिए पुकारने वाले हैं। उनका वजूद रहमत है कायनाते आलम के लिए और उनकी हस्ती कायनात के निज़ाम के लिए नगमा है।
जेहल व शिर्क के लिए नूर हैं और अल्लाह के पैगाम के लिए नबी व रसूल, मुसीबतों और परेशानियों में अज़ीज़ हैं और इंसानों की जिंदगी के हर हिस्से के लिए रऊफ़ व रहीम, उनकी आवाज़ हक़ की आवाज़ है और उनकी ज़ात सच्ची और अमानतदार, कुरआन खुदा क आखिरी पैगाम है, इसलिए वह आख़िरी नबी हैं, उनका भेजा जाना पूरी दुनिया के लिए है इसलिए ताहा व यासीन हैं और नुबूवत के आसमान के चमकते सूरज हैं और रिसालत की कायनात के बशीर (बशारत देने वाले) व नज़ीर (डराने वाले), दीन व मिल्लत की सुलतानी के बावजूद गदाए कमलीपोश हैं, इसलिए मुजम्मिल हैं और मुद्दस्सिर, फिर कमाल यह कहना कि ‘मैं तो इंसान हूं, अल्लाहुम-म सल्ले व सल्लिम व बारिक अलैहि।
ख़ुदा पर तवक्कुल उसकी बहुत बड़ी सिफत और वह ख़ुदा का बरग़जीदा और मुख्तार है, अल्लाह के दरबार में अबरार व मुक़र्रिबों से भी ज़्यादा मुस्तफ़ा, मुज्तबा, नेकी करने वालों और सालेहीन के लिए अश-शफ़ी व मुशफ्फअ और जिंदगी के हर शोबे में अस्सादिक व मस्दूक्र है। सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम।
नबी ﷺ की बशारतें (ख़ुशख़बरिया)
मौलाना ख्वाजा अलताफ़ हुसैन हालीने ‘मुसद्दस पद्द व जले इस्लाम में एक जामे (काव्य) बन्द में तमाम बशारतों की तरफ तवज्जोह दिलाई है –
यकायक हुई ग़ैरते हक़ को हरकत
बढ़ा जानिबे बूक्रबीस अबरे रहमत
अदा ख़ाके बहा ने की वह वदिअत
चले आते थे जिसकी देने शहादत,
हुई पहलू-ए-आमना से हुबैदा
दुआ-ए-ख़लील और नवेदे मसीहा।
‘चले आते थे जिसकी देने ‘शहादत‘ की तफ़सील के लिए हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह० ने तौरात व इंजील से लम्बे टुकड़े और क़ुरआन पाक से उसका खुले तौर पर मिलना पेश किया है जिसका खुलासा करना मुश्किल है इसलिए इस बन्दे के सिर्फ आख़िरी शेर की तफ्तील पेश की जाती है। (मुरत्तिब)
एक बार ख़ुद नबी अकरम सल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने इन्हीं बशारतों की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया –
‘(यानी) मैं अपने बाप इब्राहीम की दुआ हूँ और ईसा मसीह की बशारत हूं (यानी) ख़लील की दुआ और मसीह का नवेद।’
क़ुरआन मजीद ने हज़रत इब्राहीम (अलै.) की दुआ का ज़िक्र इस तरह किया है –
तर्जुमा- ‘ऐ हमारे परवरदिगार! इन (अरबों) ही में एक रसूल भेज जो इन पर तेरी आयतें पढ़े और इनको किताब व हिकमत सिखाए और इनको (हर क़िस्म की बुराइयों से) पाक करे। बेशक तू ग़ालिब और हिकमत वाला है।’ [2:129]
और हज़रत मसीह (अलै.) की बशारत का ज़िक्र सूरः सफ्फ में इस तरह नक़ल किया गया है –
तर्जुमा- ‘और (वह वक़्त ज़िक्र के क़ाबिल है) जब हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) ने कहा, ‘ऐ बनी इसराईल! मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूं। तस्दीक करने वाला हूं तौरात की जो मेरे सामने मौजूद है और बशारत देने वाला हूं एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा और उसका नाम अहमद (फारक़लीत) होगा पस जब उनके पास वह (खुदा का पैग़म्बर) दलीलें लेकर आया तो वे कहने लगे, ‘यह तो खुला जादू है।’ [61:6]
इन दुआओं के नतीजे में सआदत की जो सुबह आई उसके लिए मुरत्तिब (संग्रहकर्ता) की ओर से ज़ौक वालों के लिए सीरतुन्नबी भाग-1 से एक ईमान बढ़ाने वाले हिस्से को बढ़ाकर पेश किया जाता है।
जुहूरे कुद्सी
दुनिया के चमन में रूह परवर बहारें आ चुकी हैं। चर्खें नादराकारने कभी-कभी बज़्मे आलम को इस सर व सामान से सजाया कि निगाहें खीरा होकर रह गई।
लेकिन आज की तारीख़ वह तारीख़ है जिसके इन्तिज़ार में पीरे कुहन साल दह ने करोड़ों साल लगा दिए। सय्यारगाने फ़लक इसी दिन के शौक़ में अज़ल से चश्म बराह थे, चर्खे कुइन मुद्दत हाए दराज़ से उसी सुबहे जाँ-नवाज़ के लिए लैल व नहार की करवटें बदल रहा था। कारकुनाने क़ज़ा व क़द्र की बज़्म आराइयां, अनासिर की शिद्दत तरज़ियां, माह व खुर्शीद की फ़रोग अंगेज़ियां, अब्र व वाद की तरदस्तियां, आलमे क़ुदसी के अनफ़ासे पाक, तौहीदे इब्राहीम, जमाले यूसुफ़ मोजज़ तराज़ी मूसा, जॉनवाज़ी मसीह, सब इसीलिए था कि यह क़ीमती मताए शंहशाहे कौनैन (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दरबार में काम आएंगे।
आज की सुबह वही सुबहे जानबाज़, वहीं साअते हुमायूं, वही दौरे फ़र्रुख फ़ाल है।
अरबाबे सियर अपने महदूद पैराए बयान में लिखते हैं कि, ‘आज की रात ऐवाने किसरा के चौदह कंगूरे गिर गए, आतशकदा फ़ारस बुझ गया, दरिया-ए-सादा खुश्क हो गया, लेकिन सच यह है कि ऐवाने किसरा नहीं, बल्कि शाने अज्म, शौकते रूम, औजे चीन के कस्र हाए फ़लक बोस गिर पड़े, आतशे फ़ारस नहीं, बल्कि जहीमे शर, आतशक्दा-ए कुफ़्र, आज़र कदा-ए-गुमराही सर्द होकर रह गए, सनम ख़ानों में खाक़ उड़ने लगी, बुतकदे खाक़ में मिल गए, मजूसियत का शीराज़ा बिखर गया, नसरानियत के औराक़े ख़ज़ांदीदा एक-एक करके झड़ गए।’
तौहीद का ग़लग़ला उठा, पनिस्ताने सआदत में बहार आ गई, आफ़ताबे हिदायत की शुआएं हर-हर तरफ़ फैल गईं। अखलाके इंसानी का आईना परतवे कुदस से चमक उठा।
मुबारक सुबह
दीमों और मिल्लतों की तारीख़ गवाह है कि हज़रत ईसा (अलै.) के ज़ाहिर होने पर लगभग छह सदियां बीत चुकी हैं और दुनिया ख़ुदा के पैग़म्बरों की मारफ़त हासिल की हुई हक की सच्चाई को भुला चुकी है, तमाम इंसानी दुनिया खुदापरस्ती के बजाए मज़ाहिर परस्ती में पड़ी हुई है और हर मुल्क में इसान से लेकर पेड़-पौधों तक की परस्तिश फ़ख्र करने की चीज़ बनी हुई है। कोई इंसान को अवतार (खुदा) कह रहा है, तो कोई खुदा का बेटा।
एक माद्दापरस्त है तो दूसरा खुद अपनी आत्मा को ही खुदा समझ रहा है। सूरज की पूजा है, चांद और तारों की पूजा है, जानवरों, पेड़ों और पत्थरों की इबादत है, आग, पानी, हवा, मिट्टी के सामने खड़े होकर मांगा जा रहा है। गरज़ कायनात की हर चीज़ पूजा के लायक है और नहीं है तो ज़ाते वाहिद पूजा के काबिल नहीं है और न उसके एक होने का ख्याल ही ख़ालिस है और न उसके हर चीज़ से बेनियाज़ होने का।
उसको अगर माना जाना भी है तो दूसरों की इबादत और परस्तिश के ज़रिए । वह अगर पैदा करने वाला है तो दूसरों के वास्ते और ज़रूरत के साथ माहा, रूह और तरक़ीब, सब ही बातों का मुहताज है। वह अगर तमाम चीज़ों का मालिक है भी तो इंसान, जानवर, पेड़, पत्थर के बलबूतं पर, गरज़ सारी दुनिया में असल कारफ़रमाई मज़ाहिर (ज़ाहिरी चीज़ों) की थी और ‘हक की ज़ात‘ सिर्फ नाम के लिए। हकीक़त से आंखें चुराई जा रही थीं मगर मजाज़ के साथ। इश्क का जौक़ ज़ाते हक से बाद में था मगर बज़ाहिर से कुरबत हक की सआदत का सरमाए से बेगानापन था मगर मख्लूक की इबादत का आम चलन था और हर तरफ़, ‘हम उनको नहीं पूजते, मगर इसलिए ताकि वे खुदा की तरफ़ हमारी कुर्बत का ज़रिया बन जाएं का मुज़ाहिरा नज़र आता था।’ (38:3)
यहीं वह तारीक दौर था जिसमें ‘अल्लाह की सुन्नत‘ यानी ख़ुदा की हिदायत व ज़लालत के कानून ने माज़ी की तारीख़ को फिर दोहराया और हक़ की गैरत न फ़ितरत के रद्दे अमल (Reaction) के कानून को हरकत दी यानी हिदायत का सूरज सआदत वाले बुर्ज से निकला और चारों तरफ़ छाई हुई शिर्क व जहानत और रस्म व रिवाज की अंधेरियों को फ़ना करके दुनिया को इल्म व यकीन की रोशनी से जगमगा दिया।
रबीउल अव्वल, मुताबिक 20 अप्रैल 571 ई० सुबह, वह सुबहे सआदत या जब तहज़ीब व तमद्दुन से महरूम बिन खेती की सरज़मीन मक्का के एक मुआज़ज़ क़बीले न क़ुरेश (बनी हाशिम) में अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब के यहां यानी आमना बिन्ते वहब के यहां आफ़ताब रिसालत मुहम्मद (ﷺ) पैदा हुए।
ऐ अल्लाह! वह सुबह कितनी सआदतों वाली थी जिसने कायनात को रूश्द व हिदायत के निकलने की जानदार खबर सुनाई और वह घड़ी कितनी मुबारक थी जो दुनिया के लिए खुशखबरी का पैगाम लाई। दुनिया का ज़र्रा-ज़र्रा जुबाने हाल से वे नगमे गा रहा था कि वक्त आ पहुंचा कि अब दुनिया से बदबख्ती दूर हो और खुशबख्ती से दुनिया भर जाए, शिर्क व क़ुफ्र का परदा चाक हो और हिदायत का सूरज रोशन हो और चमके, मज़ाहिर परली बातिल ठहरे और एक ख़ुदा की तौहीद जिंदगी का मक्सद करार पाए।
दुनिया तो क्या, मुल्क, कबीला और ख़ानदान को भी यह इल्म न था कि दुनिया के तमाम धर्म, जिस सूरज के निकलने के इंतिजार में हैं, वे इस और महज्जब सरज़मीन और अब्दुल मुत्तलिब के घराने से निकलेगा कि उसकी पैदाइश को खास अहमियत देते और विलादत की तारीख़ को अपने सीने में महफूज़ रखते मगर जिस पैदा करने वाले ने उसको मुक़द्दस हस्ती बनाने का फैसला किया उसी ने इसे एक मोजज़ा और तारीखी निशान भी ज़ाहिर कर दिया और वह हाथी वालों कावाकिया था।
एतबार करने लायक और मुस्तनद रियायतें गवाह हैं कि नबी अकरम ﷺ की विलादत इस वाकिए के कुछ महीने बाद हुई।
इस वाक़िये में जो खास बातें पाई जाती हैं उन्हें देखते हुए यह अरब के लिए आमतौर से और हिजाज़ियों के लिए खासतौर से बड़ा अजीब और हैरत में डालने वाला वाकिया था और इसलिए वे कभी उसको भुला नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने उनका नाम ही आमुलफ़ील (हाथियों वाला साल) रख दिया। मगर वे यह न समझ सके थे कि असल में यह वाकिया एक (निशान) है उस जलीलुल क़द्र हस्ती के ज़ाहिर होने का जो एक दिन तमाम दुनिया को तौहीद के मर्कज़ और इब्राहीमी किबले पर जमा कर देगी और इसको गैरुल्लाह (तो) की गन्दगियों से पाक करके तौहीद के नग्मों के लिए ख़ास कराएगी क्योंकि यही वह पहली जगह है जो सिर्फ एक अल्लाह की परस्तिश के लिए बनाया गया।
यह मन्दिर नहीं था कि मूर्ति की पूजा की जाए, यह गिरजा और कलीसा भी न था कि यसूअ मसीह और कुंवारी मरयम की मूर्तियों के सामने सर झुकाया जाए न यह आग का भंडारा था कि आग के नूर का महर करार कर उसकी पूजा की जाए और न यहूदियों का वज़ीफ़ा था कि हज़रत उज़ैर (अलै.) को ख़ुदा का बेटा बनाकर उसकी पाकी के नग्मे गाए जाएं तो खुदा और सिर्फ एक ख़ुदा की इबादत के लिए बनाया गया था।
तर्जुमा- ‘बेशक सबसे पहला घर जो बरक़रार हुआ लोगों के वास्ते यही है जो मक्का में है।’ [3:96]
गरज़ रसूल बनाए जाने के बाद जब कुदरत ने मोजज़ाना शान ‘आमुलफील‘ (हाथियों के साल) में आपकी विलादत का छिपा राज़ खोल दिया तब दुनिया ने यह समझा कि अबरहा और उसकी फ़ौज से अल्लाह के क़ाबे की यह हिफाज़त इसलिए थी कि वह वक्त करीब आ पहुंचा जब दोबारा यह मुक़द्दस जगह एक अल्लाह की इबादत और ख़ालिस तौहीद का मर्क़ज़ बनने का शरफ हासिल करनेवाला है। पस जो ताक़त भी इस बड़े मक्सद से टकराएगी ख़ुद ही टुकड़े-टुकड़े होकर रह जाएगी।
अबरहा ईसाई था और अरब के लोग (कुरैश) मुशरिक, फिर कौन कह सकता है कि अबरहा और उसकी फ़ौज की बर्बादी कुरैश की मदद और हिमायत के लिए थी। नहीं बल्कि इसलिए सब कुछ हुआ कि अल्लाह की मसलिहत के खिलाफ अबरहा की ख्वाहिश थी कि यमन (सनआ) में जो खूबसूरत गिरजा (अल-कलीस) बाप बेटारुहुल कुद्स (तसलीस-Trinity) के फ़रोग देने को बनाया गया था तौहीद के मर्कज़ ‘काबतुल्लाह‘ की जगह वह सबकी तवज्जोह का मर्कज़ बने और इस मक्सद के लिए उसने काबा ढाने के लिए फ़ौजी चढ़ाई की, इधर कुरैश यानी सारा अरब उसका मुकाबला नहीं कर सकता था।
अबरहा वक्त के तमाम जंगी हथियारों और साज़ व सामान का मालिक और कुरैश इन सबसे बिल्कुल महरूम, तब ग़ैरते हक़ हरकत में आई और दुनिया ने देख लिया कि दुनिया की ताकत के घमंड पर अल्लाह की मसलिहत से टकराने वाला खुद ही फ़ना के घाट उतर गया और तौहीद का मर्क़ज़ ‘काबा’ खुदाई हिफ़ाज़त के साए में उसी तरह कायम रहा –
तर्जुमा- ‘बेशक इस बात में बड़ा ही सबक़ है उस आदमी के लिए जो अल्लाह से खौफ़ रखता है।’ [79:26]
कुरान ने सूरः फ़ील में इसी हकीकत को मोजज़ाना ढंग से नक़ल किया है –
तर्जुमा- ऐ पैग़म्बर!) क्या तुझे नहीं मालूम कि तेरे पालनहार ने हाथियों के साथ क्या मामला किया? क्या उनके फ़रेब को नाकाम नहीं बना दिया? और उनपर फौज दर फ़ौज परिदे नहीं भेज दिए। वे परिंदे उन पर कंकाड़िया फेंकते थे, फिर खुदा ने) इन हाथियों वालों को खाए हुए भुस की तरह कर दिया। (105:1-5)
बहरहाल आमुल फ़ील नबी अकरम ﷺ की विलादत बा सआदत का साल है और यह वाकिया आपके ज़ुहूरे कुद्सी का बसे बड़ा करीबी निशान है और यह हक़ीक़त उस आदमी पर अच्छी तरह साफ़ है –
तर्जमा- ‘जिसके पास हक़ कुबूल करने वाला दिल है या वह हाज़िर दिमागी के साथ हक़ बात की ओर कान लगाए हुए है।’
विलादत की तारीख की तहकीक़
तारीख व सीरत लिखने वाले तमाम बड़े लोगों का तीन बातों पर इत्तिफाक़ है –
एक यह कि विलादत का साल आमुल फ़ील (हाथियों वाला साल) था, लेकिन सीरत और तारीख़ के माहिर इस बारे में अलग-अलग राय रखते हैं कि रबीउल-अव्वल की कौन सी तारीख थी।
आम लोगों में तो मशहूर क़ौल है यह कि 12 रबीउल अव्वल थी और कुछ कमज़ोर रिवायतें इसके पीछे हैं और अक्सर उलेमा 8 रबीउल अव्वल कहते हैं लेकिन सही और मुस्तनद कौल यह है कि 9 रबीउल अव्वल पैदाइश की तारीख है और तारीख व हदीस के बड़े उलेमा और दीन के जलीलुल क़द्र इमाम इस तारीख को सही और ‘असवत’ मानते है, चुनाचे हमीदी, अकील, यूनुस बिन यज़ीद, इब्ने अब्दुल्लाह, इब्ने हजम, मुहम्मद बिन मूसा ख्वारज़मी, अबुल ख़त्ताब बिन वहय, इब्ने तैमिया, इब्ने कैमिय, इब्ने कसीर, इब्ने हजर अस्कलानी, शैख बदरुद्दीन ऐनी जैसे बड़े उलेमा की यही राय है।
महमूद पाशा फ़लकी ने (जो कुस्तुन्तुन्या का मशहूर भूगोल शास्त्री गुज़रा है, सितारों के मुताबिक़ जो जायज़ा इस गरज़ से तैयार किया था कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने से अपने ज़माने तक के सूरज ग्रहण और चांद ग्रहण का सही हिसाब मालूम करके पूरी खोज के साथ साबित करें कि आपकी खिलाफत में किसी हिसाब से भी दोशंबा का दिन 12 रबीउल अव्वल सन् को नहीं आता है, इसलिए रिवायतों की ताक़त और उनके सही वगैरह होने कि हिसाब से और सूरज और तारों के हिसाब से मुस्तनद तारीख 8 रबीउल अव्वल है, असहाबे फ़ील के वाकिए के कितने अर्से बाद आप (ﷺ) की पैदाइश हुई। कई क़ौलों में मशहूर क़ौल यह है कि पचास दिन बाद आप (ﷺ) की पैदाइश हुई।
To be continued …