गाय के ज़िब्ह का वाकिया:
एक बार ऐसा हुआ कि बनी इसराईल में एक कत्ल हो गया, मगर क़ातिल का पता न चला। आखिर शुबहा ने तोहमत की शक्ल अख्तियार की ली और आपसी इख्तिलाफ़ की ख़ौफ़नाक शक्ल पैदा हो गई। हज़रत मूसा (अ.स.) ने अल्लाह तआला की तरफ़ रुजू किया और अर्ज़ किया इस वाक़िये ने क़ौम में सख्त इख़्तिलाफ़ रुनुमा कर दिया । तू खुद जानने वाला और हिक्मत वाला है. मेरी मदद फ़रमा।
अल्लाह तआला ने हजरत मूसा (अ.स.) से फ़रमाया कि इनसे कहो, पहले एक गाय ज़िब्ह करें और इसके बाद गाय के एक हिस्से को मक्तूल के जिस्म से मस करें। अगर वे ऐसा करेंगे तो हम उसको जिंदगी बख्श देंगे और यह मामला साफ़ हो जाएगा।
हज़रत मूसा (अ.स.) ने बनी इसराईल से जब ‘गाय के ज़िब्ह करने के बारे में फ़रमाया तो उन्होंने अपनी टेढ़ी बातों और बहानेबाजियों की आदत के मुताबिक़ बहस शुरू कर दी और कहने लगे, “मूसा ! तू हमसे मज़ाक करता है? यानी मक्तूल के वाक़िए से गाय ज़िब्ह करने के वाकिए से क्या ताल्लुक? अच्छा, अगर यह वाक़ई अल्लाह का हुक्म है तो यह गाय कैसी हो? उसका रंग कैसा हो? इसकी कुछ और तफ़सीली बातें मालूम होनी चाहिए।”
हज़रत मूसा (अ.स.) ने जब अल्लाह की वह्य की मारफ़त उनके तमाम सवालों के जवाब दे दिए और बहानेबाज़ी का उनके लिए कोई मौक़ा न रहा, तब वे हुक्म की तामील पर तैयार हुए और अल्लाह की वह्य के मुताबिक मामला पूरा किया।
अल्लाह तआला के हुक्म से वह मक्तूल जिंदा हो गया और उसने तमाम वाकिए, जैसे कि वे थे, बयान कर दिए। और इस तरह न सिर्फ यह कि क़ातिल का पता चल गया, बल्कि क़ातिल को भी इक़रार के बग़ैर चारा न रहा और आपस के इज़िलाफ़ दूर हो गए और इन मामलों का अच्छे ढंग से ख़ात्मा हुआ।
कुरआन ने इस वाक़िये से मुताल्लिक सिर्फ इसी क़दर बतलाया है और बेशक यह वाक़िया अल्लाह की उन मुसलसल निशानियों में से एक निशानी थी जो यहूदियों की सख़्त, तेज़ तबियत व आदत के मुकाबले में हक़ की ताईद के लिए अल्लाह की हिकमत के पेशेनज़र ज़ुहूर में आयी।
हजरत मूसा (अ.स.) और क़ारून:
बनी इसराईल में एक बहुत बड़ा धनवान आदमी था। कुरआन ने उसका नाम क़ारून बताया है। उसके ख़ज़ाने ज़र व जवाहर से भरे हुए थे और बेइंतिहा मज़बूत मज़दूरों की जमाअत मुश्किल ही से उसके ख़ज़ाने की कुंजियां उठा सकती थी। इस खुशहाली और सरमायादारी ने उसको बेहद मगरूर (घमंडी) बना दिया था। क़ारून दौलत के नशे में इस क़दर चूर था कि वो अपने अजीज़ों, रिश्तेदारों और क़ौम के लोगों को हकीर और ज़लील समझता और उनसे हकारत के साथ पेश आता था।
हज़रत मूसा (अ.स.) और उनकी क़ौम ने एक बार उसको नसीहत की कि अल्लाह तआला ने तुझको बेपनाह दौलत और पूंजी दे रखी है और इज़्ज़त और हश्मत अता फरमाई है, इसलिए उसका शुक्र अदा कर और माली हक़ ‘ज़कात व सदाक़त‘ देकर ग़रीबों, फ़कीरों और मिस्कीनों की मदद कर, ‘अल्लाह को भूल जाना और उसके हुक्मों की खिलाफवर्ज़ी करना’ अख़्लाक़ व शराफ़त दोनों लिहाज से सख्त नाशुक्री और सरकशी है। उसकी दी हुई इज़्ज़त का बदला यह नहीं होना चाहिए कि तू कमज़ोरो और बूढ़ों को हक़ीर व ज़लील समझने लगे और घमंड और नफरत में चूर होकर ग़रीबों और अज़ीजों के साथ नफ़रत से पेश आए।
क़ारून के अपने बड़े होने के जज़्बे को हज़रत मूसा (अ.स.) की यह नसीहत पसन्द न आई और उसने गुरूर भरे अंदाज़ में कहा –
“मूसा ! मेरी यह दौलत व सरवत तेरे खुदा की दी हुई नहीं है, यह तो मेरे अक्ली तजुर्बो और इल्मी काविशों का नतीजा है। मैं तेरी नसीहत को मानकर अपनी दौलत को इस तरह बर्बाद नहीं कर सकता।”
मगर हज़रत मूसा (अ.स.) बराबर तब्लीग़ का अपना फ़र्ज़ अंजाम देते रहे और क़ारून को हिदायत का रास्ता दिखाते रहे। क़ारून ने जब यह देखा मूसा (अ.स.) किसी तरह पीछा नहीं छोड़ते तो उनको ज़च करने और अपनी दौलत व हश्मत के मुज़ाहरे से मरऊब करने के लिए एक दिन बड़े कर्र व फ़र्र के साथ निकला।
हज़रत मूसा (अ.स.) बनी इसराईल के मज्मे में अल्लाह का पैग़ाम सुना है कि क़ारून एक बड़ी जमाअत और ख़ास शान व शौकत और खज़ानों की नुमाइश के साथ सामने से गुजरा, इशारा यह था कि अगर हज़रत मूसा (अ.स.) की तब्लीग़ का यह सिलसिला यों ही जारी रहा, तो मैं भी एक भारी जत्था रखता हूं और ज़र व जवाहर का भी मालिक हूं। इसलिए इन दोनों हथियारों के जरिए मूसा (अ.स.) को हरा कर रहूंगा।
बनी इसराईल ने जब क़ारून की इस दुनियावी सरवत व अज़मत को देखा तो उनमें से कुछ आदमियों के दिलों में इंसानी कमज़ोरी ने यह जज़्बा पैदा कर दिया कि वे बेचैन होकर यह दुआ करने लगे, ‘ऐ काश! यह दौलत व सरवत और अज्मत व शौकत हमको भी नसीब होती।’
मगर बनी इसराईल के सूझ-बूझ वाले अहले इल्म ने फ़ौरन मुदाख़लत की और उनसे कहने लगे, ‘ख़बरदार! इस दुनियावी ज़ेब व ज़ीनत पर न जाना और उसके लालच में गिरफ्तार न हो बैठना, तुम बहुत जल्द देखोगे कि इस दौलत व सरवत का बुरा अंजाम कैसा होने वाला है।’
आख़िरकार जब क़ारून ने किब्र व नखवत के खूब-खूब मुज़ाहरे कर लिए और हज़रत मूसा (अ.स.) और बनी इसराईल के मुसलमानों की तहक़ीर व तज़लील में काफ़ी से ज़्यादा ज़ोर लगा लिया तो अब गैरते हक़ हरकत में आई और ‘अमल का बदला’ के फितरी कानून ने अपना हाथ आगे बढ़ाया।
और क़ारून और उसकी दौलत पर अल्लाह का यह अटल फैसला सुना दिया ‘फलसफ़ना बिही व बिदारिहिलअर्ज’ (हमने क़ारून को और उसके सरमाए को ज़मीन के अन्दर धंसा दिया) और बनी इसराईल का आंखों देखते न ग़रूर बाकी रहा और न सामाने ग़रूर, सबको ज़मीन ने निगल कर इबरत का सामान मुहैया कर दिया। क़ुरआन मजीद ने कई जगहों पर इस वाकिए को तफ्सील से भी और मुख्लसर भी बयान किया है।फिर हमने क़ारून और उसके महल को ज़मीन में घसा दिया, पस इसके लिए कोई जमाअत मददगार साबित न हुई, जो अल्लाह के अज़ाब से उसको बचाए, और वह बेयार व मददगार ही रह गया।’ क़सस 28-81
क़ारून का वाक़िया कब पेश आया?
तफसीर लिखने वाले उलेमा को इसमें तरहुद है कि क़ारून का वाकिया कब पेश आया? मिस्र में फ़िरऔन के ग़र्क होने से पहले या ‘तीह’ के मैदान में फ़िरऔन के गर्क होने के बाद। क़ुरआन ने इस वाकिए को फ़िरऔन के ग़र्क होने से मुताल्लिक वाकियों के बाद किया है। इसलिए हमारे नज़दीक यह वाक़िया ‘तीही मैदान का है।
इंशा अल्लाह उल अजीज! अगले पार्ट 11 में हम हज़रत मूसा (अ.स.) और हज़रत ख़िज़्र के बारे में तफ्सील में जिक्र करेंगे।
To be continued …