वफ़ाते रसूल ﷺ
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त क़ुरआने करीम में फरमाता है –
तर्जुमा- “यानी ‘मौत’ इस हक़ीक़त का नाम है जो नबी मुर्सल बल्कि खातमुल मुरसलीन को भी पेश आकर रहेगी और हक़ीक़ी बक़ा तो ज़ाते अहदियत की ही बिला शिर्कते गैरे खास शान के साथ हासिल है।” (3:11)
अल्लाह! अल्लाह! वह कैसा अजीब मंज़र था कि जब नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ‘अल्लाहुम-मर्र-फीकुल आला’ फरमाते हुए इस दुनिया से रुखसत हो गए तो तमाम सहाबा रंज, ग़म-सदमे में इतने डूब गए ये कि उनके होश व हवास तक बजा न थे। इसी हाल में हज़रत उमर (रजि) ने ग़म के भारी बोझ से दबकर तलवार सौंत कर यह नारा लगाया कि जो कहेगा, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इंतिकाल हो गया तो इसी तलवार से उसकी गर्दन उड़ा दूंगा।
ऐसी बेचैनी और परेशानी की हालत में खुदा का एक बन्दा सिद्दीक़े अकबर (रजि) आता हुआ नज़र आता है। सबसे पहले वह हज़रत आइशा (रजि) के हुजरे में पहुंचता और टूटे दिल और भीगी आंखों के साथ सरवरे दो आलम के चमकते माथे को बोसा देता और रसूल के फिराक़ से सदमे और बेचैनी का इज़हार करता है और मुहब्बत के इस फ़र्ज़ से फारिग होकर जब बाहर आता है तो सहाबा की इस हालत का जायज़ा लेकर कि जिसमें जाहिलियत और इस्लाम दोनों दौरों की बेमिसाल शख्सियत हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (रजि) भी शामिल हैं तो आगे बढ़कर कहता है, “ऐ ख़त्ताब के बेटे! बैठ जा।” हज़रत उमर (रजि) वहीं बैठ जाते हैं और बड़े दुख और ग़म के साथ हज़रत अबूबक्र (रजि) का मुंह ताकने लगते हैं।
सिद्दीक़े अकबर (रजि) अब नबी सल्ल० के मिंबर पर खड़े होकर हक़ की आवाज़ बुलन्द करते हुए सहाबा के मज्मे को यूँ खिताब करते हैं –
“लोगो! जो शख्स मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की परस्तिश करता था, उसको मालूम होना चाहिए ‘इनन मुहम्मदन क़द ‘मा त’ (बेशक महम्मद इन्तिक़ाल फ़रमा गए) कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मौत का मज़ा चख लिया है और जो एक अल्लाह का परस्तार है, तो बेशक ‘इन्नल्ला-ह हय्युन ला यमूतु’ (अल्लाह ज़िन्दा जावेद है और मौत से पाक और बरी, उसको मौत नहीं है)।
अबूबक्र सिद्दीक़ (रजि) की यह हक़ की सदा जब फिज़ा में गूंजी तो सबसे पहले हज़रत उमर (रजि) और उनके बाद तमाम सहाबा पर सुकून व इत्मीनान छा गया और वे समझ गए कि बेशक सरदारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपना फर्ज़े रिसालत पूरा करके ‘रफ़ीके आला‘ से जा मिले और अब इस्लाम मुकम्मल हो चुका, इसलिए अब हमारा फ़र्ज़ है कि रसूले पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक नमूने और ज़िन्दा जावेद मोजज़े कलामुल्लाह ‘क़ुरआन‘ को पेशवा बनाकर इस्लाम की खिदमत का फ़र्ज़ अंजाम दें।
हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (रजि) की कैफियत तो यह हुई कि फरमाने लगे, क़सम खुदा की सिद्दीक़े अकबर (रजि) ने हक़ की यह सदा बुलन्द करते हुए जब यह आयत तिलावत की – ‘व मा मुहम्मदुन इल्ला रसूल कद ख-लत मिन कब्लिहिरुसुल’ (मुहम्मद तो रसूल थे, इससे पहले भी रसूल हुए जो गुज़र गए) तो मुझे ऐसा मालूम हुआ गोया अभी यह आयत उतर रही है और रसूल की मुहब्बत ने रसूल की जुदाई से मबहूत (सन्न) कर दिया था। क़ुरआन और तालीमे रसूल की रोशनी में जो कुछ मोहतरम साथी ने कहा, वह यकायक सूरज की तरह मेरे सामने आ गया।
हदीस और सीरत की तमाम रिवायतें मुत्तफ़िक़ है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की वफ़ात माह रबीउल-अव्वल दिन दो शंबा (Monday) को हुई, अलबत्ता किस तारीख को हुई? इस बारे में बहुत से क़ौल हैं। मशहूर व मारूफ़ क़ौल यही है कि 12 रबीउल-अब्बल को हुई।
सबक़ और नसीहत
1. क़रआन की सूरः फ़ातिहा में है, ‘चला हमको राह सीधी’ राह उन लोगों की जिन पर तूने फज़ल किया, और दूसरी जगह सूरः निसा में ‘तो ऐसे लोग भी इन हज़रात के साथ होंगे जिन पर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया है यानी नबी, सिद्दीक़, शहीद और सालेह क़िस्म के लोग, ये लोग बड़े अच्छे साथी हैं, यही वे साथी हैं जिनके बारे में नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ‘अल्लाहुम-म अर्रफ़ीकुल आला’ कहकर आखिरी वक़्त में इशारा फ़रमाया।
2. ‘मौत’ अल्लाह का वह अटल फैसला है जिससे नबी व रसूल और ख़ातमुल अंबिया वर्हसुल भी अलग नहीं है और हमेशा की ज़िंदगी सिर्फ ज़ाते हक़ ही के लिए ख़ास है।
3. सिद्दीक़े अकबर की अज़मत व जलालते मर्तबा के इस वाकिए से भी खुला एलान हो जाता है कि नबी सल्ल० की वफ़ात के करीबी वक्त में हालात की नज़ाकत ने सहाबा (रजि) की अक्ल व ख्रिरद पर जो असर डाला अगर ख़ुदा न ख्वास्ता वह देरपा हो जाता तो इस्लाम अपनी हक़ीक़त से ख़ाली होकर रह जाता। (अयाज़न बिल्लाह) मगर यह सआदत अबूबक्र (रजि) ही के हिस्से में थी कि मुसलमानों की उस डगमगाती कश्ती को क़ुरआन की रोशनी में पार लगा दिया और ‘इस्लाम’ को एक शानदार फितने से बचा लिया।
तर्जुमा- ‘बड़ाई अल्लाह की है, देता है जिसको चाहे और अल्लाह का फज़ल बड़ा है। (62:4)
नुबूवत व रिसालत का ख़ात्मा
नुबूवत व रिसालत का यह सिलसिला जो हज़रत आदम (रजि) से शुरू होकर हज़रत ईसा (रजि) तक पहुंचा था, रुश्द व हिदायत के उस्लूब व नेहज़ के लिहाज़ से इस मानी में एक जैसा है कि इस तमाम सिलसिले में नुबूवत व रिसालत जुग़राफ़ियाई हुदूद में महदूद रही है, इसलिए अलग-अलग ज़ुबानों में एक ही वक्त में कई नबियों की बेसत रिसालत की ज़िम्मेदारियां अदा करती रही है-यहां तक कि हज़रत ईसा (रजि) के हक़ के पैग़ाम ने अगरचे कुछ फैलाव इख्तियार किया और बनी इसराईल की रास्ते में गुम हुई भेड़ों के अलावा भी कुछ इंसानी हलक़े इस दावत के मुखातब बने, फिर भी उन्होंने आलमी दावत व पैग़ाम का दावा नहीं किया और इंजील गवाह है कि खुद ज़ाते क़ुदसी ने खुलकर कह दिया कि उनकी बेसत के जो लोग मुखातब हैं, वे महदूद हैं।
लेकिन यह सिलसिला आखिर कब तक हदों के अन्दर महदूद रह सकता था। दावत व इर्शाद तो धीरे-धीरे तरक्क़ी कर रहा था और उसमें फैलाव आ रहा था, वह क़ुदरत के क़ानून के आम उसूल के ख़िलाफ़ किस तरह हमेशा के लिए रह सकता था।
अलबत्ता इन्तिज़ार था तो इसका कि वह वक्त क़रीब आ जाए जबकि इस फैली और लम्बी-चौड़ी दुनिया में ऐसा तालमेल पैदा हो जाए कि न एक के फ़ायदे और नुक़सान दूसरे हिस्सों से ओझल हो सकें और न बेगाना व बेताल्लुक़ रह सकें, बल्कि ख़ुदा की यह फैली हुई कायनात माद्दी (भौतिक) असबाब (साधनों) के बहुत होने के बावजूद एक ‘कुंबा‘ बन जाए और इंसानी दुनिया के तमाम देश एक दूसरे के साथ इस तरह जुड़ जाएं कि एक का नफा व नुक़सान दूसरे के नफा व नुक़सान पर असर अंदाज़ होने लगे, बल्कि फ़ितरत का क़ानून अपना मुज़ाहरा करे और माद्दी दुनिया की हमागीर हम आहंगी के ज़ाहिर होने से पहले रूहानी पैग़ामे सआदत को आलमगीर वुसअत और हमागीर अज़मत अता फ़रमाए।
चुनांचे इस दुनिया में फ़ितरत के आम क़ानून की तरह रुश्द व हिदायत की जो शुरूआत पहले इंसान के ज़रिए हुई थी, उसका अंजाम उस मुक़द्दस हस्ती तक पहुंच कर कामिल व मुकम्मल हो गया जिनका नाम ‘मुहम्मद’ और ‘अहमद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) है।
तर्जुमा- ‘आज के दिन तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को मैंने कामिल कर दिया और मैंने तुम पर अपना इनाम पूरा कर दिया और मैंने इस्लाम को तुम्हारा दीन बनने के लिए पसन्द कर लिया।’ (5:3)
बहरहाल हजरत मुहम्मद ﷺ की मुबारक ज़िन्दगी सीरत उन नबी सीरीज की तरतीब में विलादत से लेकर फतह मक्का तक पढ़ने के लिए - देखे : सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज
वा आखीरु दावाना , अलहम्दुलिल्लाही रब्बिल आलमीन।