मस्जिदे ज़िरार (रजब सन् 06 हिजरी)
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मालूम हुआ कि तबूक के मैदान में जो कि मदीना से चौदह मंज़िल पर दमिश्क के रास्ते पर वाक़े था, हिरक़ल शाहे रूम ने मुसलमानों के मुक़ाबले के लिए भारी फ़ौज जमा कर ली है और उसके आगे का हिस्सा आगे बढ़कर बलक़ा तक आ पहुंचा है। आपने अरब में अकाल और गर्मी की तेज़ी के बावजूद जिहाद के लिए मुनादी कर दी और मुसलमान गिरोह-दर-गिरोह जिहाद के शौक़ में मदीना में जमा होने लगे।
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अभी तैयारियों में लगे हुए थे कि मुनाफ़िकों ने वक्त से फायदा उठाकर सोचा कि मस्जिदे क़ुबा के मुक़ाबले में जो हिजरत के बाद सबसे पहली मस्जिद थी, इस बहाने से एक मस्जिद तैयार करें कि जो लोग कमज़ोरी या किसी और मजबूरी की वजह से मस्जिदे नबवी में न जा सकें, तो यहां नमाज़ पढ़ लिया करें, क्योंकि इस तरह मुसलमानों को बहकाने का भी मौका हाथ आजाएगा और एक क़िस्म की फूट भी पैदा हो जाएगी।
यह सोचकर वह नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खिदमते अक़दस में हाज़िर हुए और कहने लगे कि हमने बूढ़े कमज़ोर और मजबूरों के लिए क़रीब ही एक मस्जिद बनाई है। अब हमारी ख्वाहिश है कि हुज़ूर वहां चलकर एक बार उसमें नमाज़ पढ़ लें, तो वह अल्लाह के नज़दीक मक़बूल हो जाए। आपने फ़रमाया कि इस वक्त तो मैं एक अहम ग़ज़वा के लिए जा रहा हूं वापसी पर देखा जाएगा।
मगर आप जब कामयाब होकर खैरियत से वापस आए तो अल्लाह की वह्य़ी के ज़रिए उस मस्जिद की तामीर की हक़ीक़ी वजहों को जान चुके थे, चुनावे वापस तशरीफ़ लाकर सबसे पहले सहाबा (रजि) को हुक्म दिया कि वे जाएं और उस मस्जिद को आग लगाकर खाक स्याह कर दें।
चूंकि हक़ीक़त में उस मस्जिद की बुनियाद ‘तक़वा‘ और ‘अल्लाह की रज़ा‘ की जगह ‘मुसलमानों में फूट‘ पर रखी गई थी इसलिए बेशक वह इसी की हक़दार थी और उसको ‘मस्जिद‘ कहना हक़ीक़त के ख़िलाफ़ था इसलिए क़ुरआन ने इसे देखने में ‘मस्जिद‘ और अन्दर से ‘बैतुश-शर्र’ (शरारतों का अड्डा) की तामीर के बारे में हक़ीक़ते हाल को रोशन करते हुए बतला दिया कि यह मस्जिदे तक़वा नहीं, बल्कि ‘मस्जिदे ज़रार’ कहलाने की हक़दार है।
तर्जुमा- “(और मुनाफ़िकों में से) वे लोग भी हैं जिन्होंने इस ग़रज से एक मस्जिद बना खड़ी की कि नुक़सान पहुंचाएं, कुफ़्र करें, मोमिनों में फूट डालें और उनके लिए एक पनाहगाह पैदा करें जो अब से पहले अल्लाह और उसके रसूल से लड़ चुके हैं, वे ज़रूर क़स्में खाकर कहेंगे कि हमारा मतलब इसके सिवा कुछ न था कि भलाई हो, लेकिन अल्लाह की गवाही यह है कि वे अपनी क़स्मों में बिल्कुल झूठे हैं।
(ऐ पैग़म्बर!) तुम इस मस्जिद में खड़े न होना, इस बात की कि तुम उसमें खड़े हो (और अल्लाह के बन्दे तुम्हारे पीछे नमाज़ पढ़ें) वहीं मस्जिद हक़दार है जिसकी बुनियाद पहले दिन से तक़वा पर रखी गई है (यानी मस्जिदे कुबा और मस्जिदे नबवी) इसमें ऐसे लोग आते हैं जो पसन्द करते हैं कि पाक व साफ़ रहें और अल्लाह भी पाक व साफ़ रहने वालों को ही पसन्द करता है।” (9:107-108)
सबक़
1. निफ़ाक़ एक ऐसा मरज़ है जो इंसानों की तमाम अच्छी फज़ीलतें और अच्छे अख़्लाक़ को तबाह व बर्बाद करके उसकी इंसानियत को हैवानियत से बदल देता है और उसके फ़िक्र व अमल में आपस में मेल न रहने से उसकी ज़िंदगी से ‘असफ़लुस्साफ़िलीन‘ (सबसे गहरे गढ़े) में गिरा देता है।
2. एक ही ‘अमल‘ अमल करने वाले की नीयत के फ़र्क से ‘पाक‘ भी हो सकता है और नापाक भी, तैयब भी बन सकता है और ‘खबीस‘ भी। मस्जिद की तामीर एक भला काम है और अज्र व सवाब की वजह, मगर जबकि अल्लाह की रिज़ा के लिए हो और इबादते इलाही का हक़ीक़ी मक़सद पेशेनजर रहे।
तर्जुमा– ‘अल्लाह की मस्जिदों को तो बस वही आबाद करता है जो अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान लाया और नमाज़ अदा की और ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से न डरा।’ (9:18)
और यही “भला काम‘ ‘बुरा काम‘ और नफरत भरा काम बन जाता है, जबकि उसका मक़सद शैतानी काम हो या मुसलमानों के दर्मियान फूट डालना या नमाज़ की आड़ में इस्लाम के खिलाफ़ पनाहगाह और जासूसी का मर्कज़ बनाना हो, इसीलिए यह भला काम जब काफ़िरों के हाथों अंजाम पाए तो गैर-मक़बूल और मर्दूद है।
तर्जुमा- ‘मुशरिक का हक़ नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिद को आबाद करें, हालांकि वे अपनी जानों पर कुफ़्र की गवाही देते हैं।’ (9:17)
To be continued …