हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम (भाग ४)

हज़रत ईसा (अलै.) से मुताल्लिक कुछ तफसीरे

हज़रत ईसा (अलै.) से मुताल्लिक कुछ तफसीरी और दुसरे अहम मस्अले कुरआन के वाज़ेह बयान व मा क-त-लूहु व मास-ल-बूहु के बाद ‘वलाकिन शुब्बि-ह लहुम’ की तफ्सीर

      अब एक बात बाकी रह जाती है कि सूरः निसा की आयत 4:157 व मा क-त-लूहु व मास-ल-बूहु के बाद ‘वलाकिन शुब्बि-ह लहुम‘ की नसीर क्या है? यानी वह क्या चीज़ थी जो यहूदियों पर छा गई तो कुरआन इसका जवाब इस जगह पर भी और आले इमरान में भी एक ही देता है और वह र-फ़-अ इलस्सामाई’ है। आले इमरान में इसको वायदे की शक्ल में जाहिर किया ‘व राफ़िउ-क इलैय’ (3-55) और निसा में वायदा पूरा करने की सूरत में यानी ‘बल र-फ़-अ-ल्लाहु इलैहि’ (4:158)

      जिसका खुलासा यह निकलता है कि घेराव के वक्त जब हक़ का इन्कार करने वाले गिरफ्तारी के लिए अन्दर घुसे तो वहां ईसा को न पाया। यह देखा तो सहन हैरान हए और किसी तरह अन्दाज़ा न लगा सके कि सूरतेहाल क्या पेश आई और इस तरह ‘वला किन शुब्बि-ह लहुम’ जैसे बनकर रह गए। इसके बाद कुरआन कहता है –

      ‘इन्नल्लज़ी-नख्नतलफू फ़ीही लफ़ी शक्किम मिन्हु मालहुम बिही मिन इलिमन इल्लत्तिबाइज्जन्नि व मा क़-त-लूह यक़ीना (4:157) इसमें एक जैसी हालत जो पेश आई उसका नक्शा बयान किया गया है और इससे दो बातें खुलकर सामने आती हैं –

      एक यह कि यहूदी इस सिलसिले में इस तरह शक में पड़ गए थे कि गुमान और अटकल के सिवा उनके पास इल्म व यक़ीन की कोई शक्ल बाकी नहीं रह गई थी और दूसरी बात यह कि उन्होंने किसी को क़त्ल करके यह मशहूर किया कि उन्होंने मसीह को क़त्ल कर दिया या फिर आयत मुहम्मद सल्ल० के ज़माने के यहूदियों का हाल बयान कर रही है।

      पस कुरआन के इन वाज़ेह एलानों के बाद जो हज़रत मसीह (अलै.) की हिफाज़त के सिलसिले में किए गए हैं और जिनको तफ़्सील के साथ ऊपर की सतरों में बयान कर दिया गया है इन दोनों छोटी-छोटी चीज़ों की तफ़सील का ताल्लुक़ सहाबा के आसार और तारीखी रिवायतों पर रह जाता है की सिलसिले में सिर्फ उन्हीं रिवायतों और आसार को माना जाएगा जो सेहत और रिवायत के साथ-साथ इन बुनियादी तफ्सीलों से न करता जिनका ज़िक्र कुरआन मजीद ने अलग-अलग जगहों पर खुल कर किया है ‘कुरआन का बाज़-बाज़ की तफ्सीर कर देता है‘ के उसूल पर, जिनसे साबित होता है कि हज़रत ईसा (अलै.) को दुश्मन हाथ तक न लगा सके और वह महफूज़ मला-ए-आला की तरफ़ उठा लिए गए और जैसा कि हयाते ईसा की बहस में अभी कुरआनी नस्स (आयतों) से साबित होगा कि वह क़यामत वाले होने के लिए ‘निशान‘ हैं और इसलिए दो बार इस दुनिया में वापस आकर और ज़िम्मेदारी की खिदमत अंजाम देकर फिर मौत से दो चार होंगे।

      क़त्ल किए गए और फांसी पर चढ़ाए गए शख्स से मुताल्लिक आसार व तारीख़ की जो मिली-जुली रिवायतें हैं उनका हासिल यह है कि सनीचर की रात में हज़रत ईसा (अलै.)  बैतूल मुक़द्दस के एक बन्द मकान में अपने हवारियों के साथ मौजूद थे कि बनी इसराईल की साज़िश से दमिश्क के बुतपरस्त बादशाह ने हज़रत ईसा (अलै.) की गिरफ्तारी के लिए एक दस्ता भेजा। उसने आकर घेराव कर लिया। इसी बीच अल्लाह तआला ने ईसा को मला-ए-आला की जानिब उठा लिया। जब सिपाही अन्दर दाखिल हुए तो उन्होंने हवारियों में एक ही शख्स को हज़रत ईसा (अलै.) की जैसी शक्ल का पाया और उसको गिरफ्तार करके ले गए और फिर उसके साथ वह सब कुछ हुआ जिसका ज़िक्र पिछले पन्नों में हो चुका है। 

      इन्हीं रिवायतों में कुछ उसका नाम यूदस बिन करियायूता बयान करते हैं और कुछ जरजस और दूसरे दाऊद बिन लोज़ा कहते हैं। ये और दूसरी तफ़सील न कुरआन में ज़िक की गई है और न मफूअ हदीसों में इसलिए ज़ौक़ वालों को इख़्तियार है कि वे सिर्फ कुरआन ही की इन थोड़ी-सी बातों पर भरोसा करें कि हज़रत ईसा (अलै.) का आसमान पर उठाया जाना और हर तरह दुश्मनों से हिफ़ाजत के साथ ही साथ यहूदियों पर मामला मुश्तबह होकर किसी दूसरे को क़त्ल करना यहूदियों और ईसाइयों के पास इस सिलसिले में इल्म व यक़ीन से महरूम होकर गुमान और शक व शुबहा में मुब्तला हो जाना और क़ुरआन का हकीकते वाक्रिया को इल्म व यकीन की रोशनी में ज़ाहिर कर देना ये सभी साबित की हुई हक़ीक़तें हैं।

      ‘वलाकिन शुब्बि-हलहुम’ और मल्लल्लजी-नख्तलफू- फ़ोहि लफ़ी शक्किम मिन्हु (आयत) की तफ्सीर में इन आयतों की तफ़सील को मान लें और यह समझ कर मानें कि इन आयतों की तफ़सीर उन तफ़्सीलों पर टिकी हुई नहीं है बल्कि यह बात ज़्यादा है जो आयतों की सही तफ्सीर की ताईद में है-

हज़रत ईसा अलैहिसल्लाम की ज़िन्दगी

      सूरः आले इमरान, माइदा और निसा की इन आयतों से यह साबित हो का है कि हज़रत ईसा (अलै.) से मुताल्लिक़ अल्लाह की हिक़मत का यह फैसला हुआ कि उनको ज़िन्दा हालत में ही मला-ए आला की ओर उठा लिया जाए और वह दुश्मनों और काफ़िरों से महफूज़ उठा लिए गए लेकिन कुरआन ने इस मसले में सिर्फ इसी को काफ़ी नहीं समझा बल्कि मौके-मौके से उनकी जिंदगी पर आयतों के ज़रिए कई जगह रोशनी डाली है और उन जगहों में इस ओर भी इशारे किए हैं कि हज़रत मसीह (अलै.) की लम्बी जिंदगी और आसमान की तरफ उठाए जाने में क्या हिक्मत काम कर रही थी ताकि हक़ वालों के दिल ईमान की ताज़गी से खिल जाएं और बातिल वाले अपनी दिल की तंगी पर शरमाए। 

ल यूमिनन-न बिही कब-ल मौतिही 

      तर्जुमा- ‘और कोई अहले किताब में से बाकी न रहेगा मगर यह कि वह ज़रूर ईमान लाएगा ईसा पर और उस (ईसा) की मौत से पहले और वह (ईसा) कयामत के दिन उन पर (अहले किताब पर) गवाह बनेगा।’ (4:159)

      इस आयत से पहले की आयतों में वही ज़िक्र किया गया वाकिया आया है-जो ऊपर आया है कि ईसा को न सूली पर चढ़ाया गया और न क़त्ल किया गया बल्कि अल्लाह तआला ने अपनी ओर उठा लिया, यह यहूदियों और इसाइयों के उस अक़ीदे के रद्द में है जो उन्होंने झूठे तरीके से और अटकल से कायम कर लिया था, उनसे कहा जा रहा है कि हज़रत मसीह (अलै.) के मुताल्लिक़ फांसी पर चढ़ाए जाने और क़त्ल किए जाने का दावा लानत के क़ाबिल है क्योंकि बोहतान और लानत जुड़वां हैं।

      इसके बाद इस आयत में पहली बात की तस्दीक में इस जानिब तवज्जोह दिलाई जा रही है कि आज अगर इस  मलऊन अकीदे पर फक्र कर रहे हो तो वह वक्त भी आने वाला है जब ईसा बिन मरयम (अलै.) अल्लाह तआला की हिक्मत व मस्लहत को पूरा करने के लिए ज़मीनी कायनात पर वापस तशरीफ़ लाएंगे और उसे आंखों से देखने के वक्त अहले किताब (यहूदी-ईसाई) में से हर एक मौजूद हस्ती को कुरआन के फैसले के मुताबिक हज़रत ईसा (अलै.) पर ईमान लाने के सिवा कोई चारा-ए-कार बाकी न रहेगा और फिर जब वे अपनी जिंदगी की मुद्दत ख़त्म करके मौत की गोद में चले जाएंगे तो क़यामतके दिन अपनी उम्मत (अहले किताब) पर उसी तरह गवाह होंगे जिस तरह तमाम नबी और रसूल अपनी-अपनी उम्मतों पर गवाह बनेंगे।

      यह हकीकत कुछ छिपी हुई नहीं है कि हज़रत ईसा (अलै.) के बारे में अगरचे यहूदी व ईसाई दोनों फांसी और क़त्ल के वाकिए से इत्तिफ़ाक़ करते हैं लेकिन इस सिलसिले में दोनों के अक़ीदे की बुनियाद कतई तौर पर आपस में टकराने वाले उसूल पर कायम है। यहूदी हज़रत मसीह (अलै.) को गढ़ कर बातें बनाने वाले और झूठा कहते और दज्जाल समझते हैं और इसलिए फ़ख्र करते हैं कि उन्होंने यसूअ मसीह को फांसी पर भी चढ़ाया और फिर इस हालत में मार भी डाला।

      इसके खिलाफ ईसाइयों का अकीदा यह है कि दुनिया का पहला इंसान आदम गुनाहगार था और सारी दुनिया गुनाहगार थी इसलिए ख़ुदा की सिफ़त ‘रहमत’ ने इब्नियत (बेटा होने) की शक्ल इख़्तियार की और उसको दुनिया में भेजा ताकि वह यहूदियों के हाथों सूली पर चढ़े और मारा जाए और इस तरह कायनात माज़ी (भूतकाल) और मुस्तक़बिल (भविष्य) के गुनाहों का’ क़फ्फारा’ बनकर दुनिया की नजात की वजह बने।’

      सूरः निसा की आयतों में कुरआन ने साफ़-साफ कह दिया कि हज़रत मसीह (अलै.) के क़त्ल के दावे की बुनियाद किसी भी अक़ीदे की बुनियाद पर हो’ लानत के काबिल और ज़िल्लत और घाटे की वजह है। खुदा के सच्चे सर को झूठा समझकर यह अकीदा रखना भी लानत की वजह और खुदा के बन्दे और मरयम के पेट से पैदा इंसान को खुदा का बेटा बना कर और ‘क़फ्फारे‘ का झूठा अक़ीदा गढ़ कर हज़रत मसीह (अलै.) को फांसी पाया हुआ और कत्ल किया हुआ मान लेना भी गुमराही और इल्म व हकीकत के खिलाफ़ अटकल का तीर है और इस सिलसिले में सही और हकीकत पर मब्नी फैसला वही है जो कुरआन ने किया है और जिसकी बुनियाद ‘इल्म व यक़ीन और वह्य इलाही‘ पर कायम है। 

हज़रत ईसा (अलै.) की ज़िन्दगी और उनका उतरना और सहीह हदीसें

      क़ुरआन ने जिन मोजज़ों भरे इख्तिसार के साथ हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने, आज की जिंदगी और क़यामत की अलामतें बन कर आसमान से उतरने के बारे में साफ़ किया है, हदीसों के सही ज़खीरे में इन आयतों की ही तफ्सील बयान करके इन हक़ीक़तों को रोशन किया गया है। चनांचे इमामे हदीस बुखारी व मुस्लिम, दोनों ही ने (सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम) हज़रत अबू हुरैरह रजि० से यह रिवायत सनद के कई तरीकों से नकल की है

      “अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया – ‘उस ज़ात की क़सम, जिस के कब्जे में मेरी जान है, ज़रूर वह वक़्त आने वाला है कि तुम में ईसा बिन मरयम, हाकिम व आदिल बन कर उतरेंगे, वह सलीब को तोड़ेंगे और खिंजीर (सूअर) को क़त्ल करेंगे (यानी मौजूदा ईसाई धर्म को मिटाएंगे और जिज़या उठा देंगे (यानी अल्लाह के निशान को देख लेने के बाद इस्लाम के सिवा कुछ भी कुबूल नहीं होगा।

      और इस्लामी अहकाम में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जिज़या का हुक्म उसी वक्त तक के लिए है) और माल इतना ज़्यादा होगा कि कोई उसके कुबूल करने वाला नहीं मिलेगा और खुदा के सामने एक सज्दा दुनिया और उसमें जो कुछ है उससे ज्यादा कीमत रखेगा (यानी माल की ज्यादती की वजह से खैरात व सदक्रात के मुकाबले में नफल इबादतों की अहमियत बढ़ जाएगी) हो, लानत के काबिल और ज़िल्लत और घाटे की वजह है। खुदा के सच्चे को झुठा समझकर यह अक़ीदा रखना भी लानत की वजह और खुदा और मरयम के पेट से पैदा इंसान को ख़ुदा का बेटा बना कर और ‘क़फ्फारे’ का झूठा अकीदा गढ़ कर मसीह को फांसी पाया हुआ और कत्ल किया हुआ मान लेना भी गुमराही और इल्म व हक़ीक़त के खिलाफ अटकल भी है और इस सिलसिले में सही और हकीकत पर मब्नी फैसला वही है जो क़ुरआन ने किया है और जिसकी बुनियाद ‘इल्म व यकीन और वह्य इलाही पर कायम है। 

      फिर हज़रत अबू हुरैरह रजि० ने फरमाया, अगर तुम (कुरआन से इसकी गवाही) चाहें तो यह आयत पढ़ो (व इम-मिन अहलिल किताब-आयत) और कोई अहले किताब में से न होगा, मगर (ईसा की) मौत से पहले उस पर (ईसा पर) ज़रूर ईमान ले आएगा और वह (ईसा) क़यामत के दिन उन पर ग़वाह होगा।

      बुखारी और मुस्लिम में नाफ़ेह मौला अदू क्रतादा अंसारी रजि० की सनद से हज़रत अबू हुरैरह रजि० की यह रिवायत नक़ल की गई है –

      अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया-’उस वक्त तुम्हारा क्या हाल होगा जब तुममें इब्ने मरयम उतरेंगे और इस हालत में उतरेंगे कि तुम्हीं में से एक आदमी तुम्हारी इमामत कर रहा होगा। (किताबुल अबिया)

      यह और इसी किस्म की हदीस का बहुत बड़ा ज़खीरा है जो हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) , पैगम्बर बनी इसराईल से मुताल्लिक हदीस और तफ़सील की किताबों में नकल की गई है और सनद की ताकत के लिहाज़ से सहीह और हसन से कम दर्जा नहीं रखी और शोहरत और तवातुर के एतबार से जिनका यह मत है कि इमाम तिर्मिज़ी के मुताबिक हदीस के हाफ़िज़ इमामुद्दीन बिन कसीर, हदीस के हाफ़िज़ इब्ने हजर अस्क्लानी और दूसरे हदीस के इमाम, सोलह जलीलुल कद्र सहाबा रजि० ने इनको रिवायत किया है जिनमें से कुछ साहबा का यह दावा है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ये बातें सैकड़ों सहाबा के मज्मा में खुत्बा देकर फरमाई।

      और ये सहाबा किराम बिना किसी इंकार और बेगानेपन के इन रिवायतों को खुलफ़ा ए राशिदीन की खिलाफत के दौर में एलानिया सुनाते थे। चुनांचे इन जलीलुल क़द्र सहाबा से जिन हज़ारों सहाबा ने सुना, उनमें से ये ऊंचे दर्जे की हस्तियां ज़िक्र के काबिल हैं जिनमें का हर आदमी हदीस की रिवायत में ज़ब्त व हिफ्ज़, सकाहत और इल्मी बड़प्पन को सामने रखकर इमामत व क़यामत का दर्जा रखता है। जैसे सईद बिन मुखय्यिब, नाफे मौला अबू कतादा, हंज़ला बिन अली अल-अस्लमी, अब्दुर्रहमान बिन आदम, अबू सलमा अबू बन, अता बिन बश्शार, अबू सुहैल, मूसिर बिन गिफारा, यस्या बिन अबी अम्र, ज़ुबैर बिन नुजैर, उर्वः बिन मसऊद सक़फ़ी, अब्दुल्लाह बिन ज़ैद अंसारी, अबू ज़रआ, याकूब बिन आमिर, अबू नसरा, अबुत्तुफैल रहमतुल्लाहि अलैहिम० 

      फिर इन बड़े उलेमा और नामी मुहद्दिसीन (यानी हदीस के नामी माहिर) जिन अनगिनत शार्गिदों ने सुना उनमें से हदीस-रिवायतों के तबक़े में, जिनकोi हदीस और कुरआन के इल्मों की जानकारी का बुलन्द रुतबा हासिल है और अपने-अपने वक़्त के ‘इमामुल हदीस’ और ‘अमीरुल मोमिनीन फ़िल हदीस’ मान लिए गए हैं, कुछ  के  नाम नीचे दिए जाते हैं –

      इने शहाब ज़ोहरी, सुफ़ियान बिन ऐनीया, लैस, इले अबी जेब, औज़ाई, क़तादा, अब्दुर्रहमान बिन अबी उम्र, सुहैल, जबला बिन सुहैल, अली बिन ज़ैद, अब राफेअ, अब्दुर्रहमान बिन जुबैर, नोमान बिन सालिम, मामर, अब्दुल्लाह बिन उबैदुल्लाह (रहमहुमुल्लाह) ।

      ग़रज़ इन रिवायतों और सही हदीसों को सहाबा, ताबिईन, तबा लाबिईन, यानी वक्त के बेहतरीन तबके में इस दर्जा जगह मिल चुकी थी और वह बगैर किसी इंकार के इस दर्जा कुबूल करने के लायक हो चुकी थी कि हदीस के इमामों के नज़दीक हज़रत ईसा (अलै.) की जिंदगी और उतरने से मुताल्लिन इन हदीसों के मानी व मतलब के लिहाज़ से तवातुर का दर्जा हासिल था और इसीलिए वे बे-झिझक इस मसले को ‘अहादीसे मुतवातिरा‘ से साबित और मुसल्लम कहते थे और हक़ीक़त भी यह है कि रिवायते हीस के तमाम तबकों और दों में इन रिवायतों को ‘तलक्का बिल कुबूल’ का यह दर्जा सिल रहा है कि हर दौर में उसके रावियों में “हदीस के इमाम‘ और रिवायते हदीस के ‘मदार‘ (आधार) नज़र आते हैं।

      यही वजह है कि सहाबा पर मौकूफ़ मरफूल हदीसों और रिवायतों के नक़ल करने वालों में इमाम अहमद, इमाम बुखारी, इमाम मुस्लिम, अबू दाऊद, नसई, तिर्मिजी, इब्ने माजा जैसे हदीस के इमामों के नाम शामिल हैं और वे सब इन रिवायतों के सहीह और हसन होने पर एक राय रखते हैं और यही वजह है कि हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने और जिदंगी और आसमान से उतरने पर उम्मत मुत्तफ़िक़ हो चुकी है, चुनांचे अकाइद व कलाम के इल्म की मशहूर किताब ‘अकीदा सफ़ारीनी में उम्मत के इस इत्तिफाक को खोलकर बयान किया गया है।

      ‘और कयामत की निशानी में से तीसरी निशानी यह है कि (मसीह) ईसा बिन मरयम (अलै.) आसमान से उतरेंगे और उनका आसमान से किताब (कुरआन) सुन्नत (हदीस) और इज्मा-ए-उम्मत से कतई तौर साबित है। (कुरआन व हदीस से उतरना साबित करने के बाद फरमान जहां तक उम्मत के इज्मा का ताल्लुक़ है, तो इसमें ज़रा शुबहा नहीं है हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान से उत्तरने पर उम्मत का इज्माअ है और हम बारे में इस्लामी शरीअत के मानने वालों में से किसी एक का भी इख्तिलाफ़ मौजूद नहीं, अलबत्ता फलसफ़ियों और मुलहिदों (अल्लाह के न मानने वालो ने हज़रत ईसा (अलै.) के उतरने का इंकार किया है और इस्लाम में उनका इंकार बिल्कुल बे-मानी है।

उतरने के वाक़िये सहीह हदीसों की रोशनी में

      हज़रत ईसा (अलै.) के उतरने से मुताल्लिक सहीह हदीसों से जो तफ़सील सामने आती है उनको तर्तीब के साथ यूँ बयान किया जा सकता है-

      क़यामत का दिन अगरचे तय है मगर अल्लाह के अलावा किसी को इसका इल्म नहीं है और यह अचानक वाक़े होगा और उनके पास क़यामत का इल्म है।’ (31:34) ‘और क़यामत का इल्म खुदा ही को है।’ ‘हत्ता इज़ा जाअत हुमुस्साअतु बगततन’ (6:31) (यहां तक कि उन पर अचानक क़यामत की घड़ी आ जाएगी) ‘ला तातीकुम इल्ला बग़ततन’ (7:187) ‘क़यामत तुम पर नहीं आएगी, मगर अचानक।’ और जिब्रीलं की हदीस में है, “मल मसऊलु अन्हा बि आलम मिन साइल’ (जिब्रील से फ़रमाया) क़यामत के बारे में आपसे ज़्यादा मुझे भी इल्म नहीं। जो थोड़ा बहुत इल्म आपको है उसी क्रदर मुझको भी इल्म है। और एक हदीस में है, तुम मुझसे क़यामत के बारे में सवाल करते हो तो इसका इल्म तो अल्लाह की हो है।’ अलबत्ता कुरआन ने और सहीह हदीसों ने कुछ ऐसी निशानियों बयान की हैं जो क़यामत के करीब पेश आएंगी और उनसे सिर्फ उसके नज़दीक हो जाने का पता चलता सकता है। क़यामत की शर्तों में एक बड़ी निशानी हज़रत ईसा (अलै.) का मला-ए-आला से उतरना है,जिसकी तफ़सील यह है –

      ‘मुसलमानों और ईसाइयों के दर्मियान जबरदस्त लड़ाई चल रही होगी मुसलमानों की कियादत व इमामत रसूलुल्लाह * में से एक ऐसे आदमी के हाथ में होगी जिसका लकब मेंहदी होगा। इस लड़ाई के दर्मियान ही में नसीह जलते दज्जाल का खुरूज होगा, यह यहूदी नस्ल का और काना होगा। क़ुदरत के करिश्मे ने उसकी पेशानी पर ‘का-फ़ि-र‘ (काफ़िर) लिख दिया होगा को ईमान वाले ईमानी फ़रासत (बुद्धि मत्ता) से पढ़ सकेंगे और उसके झूठ-फ़रेब से जुदा रहेंगे। यह पहले तो ख़ुदाई का दावा करेगा और शोबदे जजों की तरह शोबदे दिखाकर लोगों को अपनी तरफ़ मुतवजह करेगा मगर इस सिलसिले को कामयाब न देखकर कुछ दिनों के बाद ‘मसीहे हिदायत‘ होने का दावा करेगा।

      यह देख कर यहूदी बड़ी तायदाद में, बल्कि क़ौमी हैसियत से उसकी पैरवी करने वाले बन जाएंगे और यह इसलिए होगा कि यहूदी ‘मसीहे हिदायत’ का इन्कार करके उनके कत्ल का दावा कर चुके हैं और मसीहे हिदायत के आने के आज तक इंतिज़ार में है। इसी हालत में एक दिन दमिश्क (सीरिया) की जामा मस्जिद में मुसलमान मुंह अंधेरे नमाज़ के लिए जमा होंगे, नमाज़ के लिए इक़ामत हो रही होगी और मेहदी मौऊद इक़ामत के मुसल्ले पर पहुंच चुके होंगे कि अचानक एक आवाज़ सबको अपनी ओर मुतवज्जह कर लेगी। मुसलमान आंख उठाकर देखेंगे तो सफ़ेद बादल छाया हुआ नज़र आएगा और थोड़ी-सी देर में यह दिखाई देगा के ईसा दो पीली खूबसूरत चादरों में लिपटे हुए और फ़रिश्तों के बाजुओं पर सहारा दिए हुए मला-ए-आला से उतर रहे हैं। फ़रिश्ते उनको मस्जिद के मीनार पर उतार देंगे और वापस चले जाएंगे।

      अब हज़रत ईसा (अलै.) का ताल्लुक ज़मीनी कायनात के साथ दोबारा जुड़ जाएगा और वह फ़ितरत के आम कानून के मुताबिक मस्जिद के सहन में उतरने के लिए सीढ़ी तलब कर रहे होंगे, फ़ौरन तामील होगी और वह मुसलमानों के साथ नमाज़ की सफ़ों में आ खड़े होंगे। मुसलमानों का इमाम (मेहंदी मौऊद) ताज़ीम के तौर पर पीछे हटकर हज़रत ईसा (अलै.) से इमामत की दरख्वास्त करेंगे। आप फ़रमाएंगे कि यह इक़ामत तुम्हारे लिए कही गई है, इसलिए तुम ही नमाज़ पढ़ाओ।

      नमाज़ से फ़रागत के बाद जब मुसलमानों की इमामत हज़रत ईसा (अलै.) हाथों में आ जाएगी और वे हथियार लेकर मसीहे ज़लालत (दज्जाल) के क़त्ल लिए रवाना हो जाएंगे और शहर पनाह के बाहर उसको बाब लुद्द पर सामने पाएंगे। दज्जाल समझ जाएगा कि उसके फ़रेब और ज़िदंगी के खात्मे का वक्त आ पहुंचा, इसलिए डर की वजह से रांग की तरह पिघलने लगेगा और हज़रत ईसा (अलै.) आगे बढ़कर उसको क़त्ल कर देंगे और फिर जो यहूदी दजाल के साथ रहने से क़त्ल से बच जाएंगे वे और ईसाई सब इस्लाम कुबूल कर लेंगे और मसीहे हिदायत की सच्ची पैरवी के लिए मुसलमानों के कंधे से कंधा मिला कर खड़े नज़र आएंगे, उसका असर मुशिरक जमाअतों पर भी पड़ेगा और इस तरह उस ज़माने में इस्लाम के अलावा कोई मज़हब बाकी नहीं रहेगा।

      इन वाकियों के कुछ दिनों के बाद याजूज माजूज निकलेंगे और अल्लाह की हिदायत के मुताबिक हज़रत ईसा (अलै.) मुसलमानों को उस फितने से बचाए रखेंगे। हज़रत ईसा (अलै.) की हुकूमत का ज़माना चालीस साल रहेगा और इस बीच वह इज़दवाजी जिंदगी (दाम्पत्य जीवन) बसर करेंगे और उनकी हुकूमत के दौर में अदल व इंसाफ और खैर व बरकत का यह हाल होगा कि बकरी और शेर एक घाट में पानी पिएंगे और बदी और शरारत के अनासिर (तत्त्व दब कर रह जाएंगे। (इब्ने असाकिर)

      नोट- और मुस्लिम में है कि हुकूमत का दौर सात साल रहेगा। 

मसीह (अलै.) की वफात

      हुकूमत के चालीस साल के दौर के बाद हज़रत ईसा (अलै.) का इंतिकाल हो जायेगा और नबी अकरम (ﷺ) के पहलू में दफ़न होंगे, हज़रत अबू हुरैरह रज़ि० की लम्बी हदीस में है कि –

      “फिर वह दुनिया की कायनात पर उतर कर चालीस साल कियाम करें और इसके बाद वफ़ात पा जाएंगे और मुसलमान उनके जनाज़े की नमाज़ पढ़ें और उनको दफन करेंगे। (इब्ने हिब्बा)

      और तिर्मिज़ी ने मुहम्मद बिन यूसुफ़ बिन अब्दुल्लाह बिन सलाम सनद हसन के सिलसिले से हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम (अलै.) से ये रिवायत नक़ल की है – ‘अब्दुल्लाह बिन सलाम ने फ़रमाया, तौरात में मुहम्मद (ﷺ) की सिफ़त (हुलिया व सीरत) का ज़िक्र किया गया है और यह भी लिखा है कि हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) उनके साथ (पहलू में) दफ़न होंगे।’

हज़रत ईसा और आखिरत का दिन

      सुर: माइदा में हज़रत ईसा (अलै.) के अलग-अलग हालात का ज़िक्र किया गया फिर सुरः का आख़िर भी उन्हीं के तज़किरे पर ख़त्म होता है। इस जगह अल्लाह तआला ने एक तो क़यामत के उस वाक़िये का नक्शा खींचा है, जब नबियों से उनकी उम्मतों के बारे में सवाल होगा और वे बड़े अदब से अपनी लाइल्मी ज़ाहिर करेंगे और अर्ज़ करेंगे, ‘ऐ ख़ुदा! आज का दिन तूने इसलिए की फरमाया है कि हर मामले में हक़ीक़तों को सामने रखकर फैसला सुनाए हम चूकि सिर्फ ज़ाहिरी चीज़ों ही पर हुक्म लगा सकते हैं और दिलों और हकीकतों को देखने वाला तेरे सिवा कोई नहीं, इसलिए आज हम क्या गवाही दे सकते है, सिर्फ यही कह सकते हैं कि हमें कुछ मालूम नहीं, तू गैब का जानने वाला हैं, इसलिए तू ही सब कुछ जानता है।

      तर्जुमा- वह दिन (ज़िक्र के क़ाबिल है) जबकि अल्लाह तआला पैगम्बरों को जमा करेगा, फिर कहेगा (अपनी-अपनी उम्मतों की जानिब से) क्या जवाब दिए गए? वे (पैगम्बर) कहेंगे, (तेरे इल्म के सामने) हम कुछ नहीं जानते। (5:109)

      अगली आयतों में हज़रत ईसा (अलै.) के जवाब का ज़िक्र किया गया है। उसके बयान का तरीक़ा नबियों के जवाब के साथ मेल खाता है –

      तर्जुमा-और (वह वक्त भी ज़िक्र के क़ाबिल है) जब अल्लाह तआला हज़रत ईसा बिन मरयम से कहेगा, क्या तूने लोगों (बनी इसराईल) से कह दिया था कि मुझको और मेरी मां को अल्लाह के अलावा खुदा बना लेना। हज़रत ईसा (अलै.) कहेंगे, पाकी तुझको ही शोभा देती है, मेरे लिए कैसे मुमकिन था कि मैं वह बात कहता जो कहने के लायक़ नहीं। अगर यह बात मैंने उनसे कही होती तो यकीनन तेरे इल्म में होती, इसलिए कि तू वह सब कुछ जानता है. जोर मेरे जी में है और मैं तेरा भेद नहीं पा सकता। बेशक तू गैब की बातों का जानने वाला है।

      मैंने उस बात के अलावा कि जिसका तूने मुझे हुक्म दिया उनसे और कुछ नहीं कहा, वह यह कि सिर्फ अल्लाह ही की पूजा करो जो मेरा और तुम्हारा सब का रब है।’ और मैं उन पर उस वक्त तक का गवाह हूँ जब तक मैं उनके दर्मियान रहा। फिर जब तूने मुझको कब्ज़ कर लिया, तब तु ही उन पर निगहबान था और तू हर चीज़ पर गवाह है। अगर तू इन सबको अज़ाब चखाए तो ये तेरे बन्दे हैं और अगर इनको बख्श दे, पस तू ही बेशक गालिब हिकमत वाला है (5:116-118) 

      हज़रत ईसा (अलै.) जब अपना जवाब दे चुकेंगे, तब अल्लाह तआला यह इर्शाद फ़रमाएगा –

      तर्जुमा- अल्लाह तआला फ़रमाएगा, यह ऐसा दिन है कि जिसमें सच्चों की सच्चाई ही काम आ सकती है। उन्हीं के लिए जन्नत है जिनके नीचे नहरें बहती हैं और जिनमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे और वे अल्लाह से राज़ी और अल्लाह उनसे राज़ी (का ऊंचा मुक़ाम पाएंगे) यह बहुत ही बड़ी कामयाबी है (15:119)

      हज़रत ईसा (अलै.) का जवाब एक जलीलुल क़द्र पैगम्बर की शान की अज़मत के ठीक मुताबिक़ है। वह पहले अल्लाह के दरबार में उज्र रखेंगे कि यह कैसे मुमकिन था कि मैं ऐसी नामुनासिब बात कहता जो कतई तौर पर हक़ के ख़िलाफ़ है ‘सुब-हा-न-क मा यकूनु ली अन अकू-ल मा लै-स ली विहक्क’ फिर अदब के लिहाज़ के तौर पर अल्लाह के हक़ीकी इल्म के सामने अपने इल्म को हेच बे-इल्मी जैसा ज़ाहिर करेंगे इन कुन्तु कुलतुहू फ-कद अलिम-तहू मा फ़ी नफ़्सी वाला आलमुमा फ़ी नफिस-क इन्न-क अन-त अल्लामुल गुयूब० और इसके बाद अपने फ़र्ज़ की अंजामदेही का हाल गुज़ारिश करेंगे, ‘मा कुल्तु लहुम इल्ला मा अमरतनी बिही अनि बुदुल्ला-ह रब्बी वा रब्बकुम’ और फिर उम्मत ने हक़ की इस दावत का क्या जवाब दिया, उसके मुताल्लिक़ ज़ाहिर बातों की गवाही का भी इस ढंग से ज़िक्र करेंगे जिसमें उनकी गवाही अल्लाह की गवाही के मुकाबले में बे कीमत नज़र आए।

      ‘व कुन-त अलैहिम शहीदम-मा दुमतु फ़ीहिम फ़लम्मा तवफ्फैतनी कुन-त अन्तर्रकी-ब अलेहीम व अन-त अला कुल्लि शैइन शहीद‘ और इसके बाद यह जानते हुए कि उम्मत में मोमिनीन क़ानितीन भी हैं और मुन्किरीन ज़ाहिदीन भी- अज़ाब वाक़े होने और मगफिरत तलब करने का इस अंदाज से ज़िक्र करेंगे जिससे एक तरफ़ अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए अमल के बदले के क़ानून की खिलाफ़वर्जी भी न मालूम हो और दूसरी ओर उम्मत के साथ रहमत व शफकत के जज़्बे का जो तकाज़ा है वह पूरा हो जाए। इन तुअज्जिब हुम फ़-इन्नहुम हबाटुक व इन ताग्फिर लहुम, फ़-इन्न-क अन्तल अज़िज़ुल हकीम० .

      जब हज़रत ईसा (अलै.) अर्जदाश्त या जवाब के मज़मून को खत्म कर चुके तो रब्बुल आलमीन ने अपने अदल के क़ानून का यह फैसला सुना दिया, ताकि रहमत व मगफिरत के हक़दार को मायूसी न पैदा हो, बल्कि मुसर्रत व शादमानी से उनके दिल रोशन हो जाएं और अज़ाब के हक़दार गलत उम्मीदें न क़ायम कर सकें। ‘कालल्लाहु हाज़ा यौमुन यनफ़उस्सादिक़ी-न सिदकहुम’ (5:119)

      इन तमाम तफसीलों का हासिल यह है कि इन आयतों का आगा-पीछा साफ़-साफ़ बता देता है कि यह वाकिया क़यामत के दिन पेश आएगा और हज़रत ईसा (अलै.) के मला-ए-आला पर उठाए जाने के वक़्त नहीं पेश हुआ।

To be continued …