۞ बिस्मिल्लाहिररहमानिरहीम ۞
तम्हीद
कुरआन पाक इन तारीख़ी वाक़ियों को सिर्फ़ इसलिए नहीं बयान करता कि वे वाकिये हैं, जिनका एक तारीख़ में लिखा होना ज़रूरी है, बल्कि इसका एक ही मक़्सद है, वह यह कि वह इन वाक्रियों से पैदा होने वाले नतीजों से इंसान की हिदायत व रहनुमाई के लिए नसीहत और इबरत बनाए और इंसानी अक़्ल व जज़्वांत से अपील करें कि वे फ़ितरत के क़ानूनों के सांचे में ढले हुए इन तारीखी नत्तीजों से सबक़ हासिल करें।
और ईमान लाएं कि अल्लाह की हस्ती एक इंकार न की जा सकने वाली हक्रीकत है और कुदरत का यही हाथ ईस कायनात पर कारफ़रमा है और इसी मज़हब के हुक्मों की पैरवी में फ़लाह व नजात ओर हर किस्म की तरक़्क़ी का राज़ छिपा हुआ है, जिसका नाम ‘फ़ितरत का मजहब’ या इस्लाम हैं।
– कससुल कुरआन’ से लिया गया
पहला इंसान
हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के बारे में कुरआन मजीद ने जो हक़ीक़तैं बयान की हैं, उनके तफ़सीली तज़्किरे से पहले यह साफ़ हो जाना ज़रूरी है कि इंसान के आलमे वजूद में आने का मसअला आज इल्मी निगाह से बहस का एक नया दरवाज़ा खोलता है, यानी Evolution (विकास) का यह दावा है कि मौजूदा इंसान अपनी शुरूआती पैदाइश ही से इंसान पैदा नहीं हुआ, बल्कि मौजूद कायनात में उसने बहुत से दर्जे तय करके मौजूदा इंसानी शक्ल हासिल की इसलिए कि ज़िंदगी की शुरूआत ने कंकड़-पत्थर, पेड़-पीधों की अलग-अलग शक्लें अख्तियार करके हज़ारों-लाखों वर्ष बाद एक-एक दर्जा तरक़्क़ी करते-करते पहले लबूना (पानी की जोंक) का जामा पहना और फिर ऐसी ही लम्बी मुद्दत के बाद जानदारों के अलग-अलग छोटे-बड़े तब॒कों से गुज़र कर मौजूदा इंसान की शक्ल अपनाई।
और मज़हब यह कहता है कि कायनात के पैदा करने वाले ने पहला इंसान हज़रत आदम की शक्ल ही में पैदा किया और फिर उसकी तरह एक हमजिंस मख्लूख हव्वा को वजूद देकर दुनिया में इंसानी नस्ल का सिलसिला क़ायम किया और यही वह इंसान है जिसको कायनात के पैदा करने वाले ने तमाम पैदा की हुईं चीज़ों पर बरतरी और बुजुर्गी अता फ़रमाई और अल्लाह की अमानत का भारी बोझ उसके सुपुर्द फ़रमाया और कुल कायनात को उसके हाथ में सधा कर जमींन के ख़लीफ़ा और नायाब होने का शरफ़ उसी को बख्शा।
बेशक, हमने इंसानो को बेहतरीन अन्दाज़ से बनाया है। अत-तीन 95.4
बेशक हमने आदम की नस्ल को तमाम कायनात पर बुजुर्गी और बरतरी बख्शी (क़ुरान 17)
मैं (अपना) एक नाएब ज़मीन में बनानेवाला हूँ। अल-बक्रर: 2:30
हमने अमानत के बोझ को आसमानों और ज़मीन पर पेश किया तो उन्होंने (यानी कुल कायनात ने) अल्लाह की अमानत के बोझ को उठाने से इंकार कर दिया, और इससे डर गए और इंसान ने उस भारी बोझ को उठा लिया। अल-अहंज़ाब 33:72
अब सांचने की बात यह है कि Evolution और धर्म के बीच इस ख़ास मसअले में इल्मी तज़ाद (विरोधाभास) है या ततवीक़ (मेल) की गुंजाइश निकल सकती है, ख़ास तौर से जबकि इल्म आर तजुर्बे ने यह सच्चाई खोल कर रख दी है कि दीनी और मज़हबी हक़ीकतों और इल्म के दर्मियान किसी मी मामले में टकराव नहीं है। अगर ज़ाहिरी सत्तह पर कहीं ऐसा नज़र भी आता है तो वह इल्म की हकीकतों के छुपे होने की वजह से नज़र आता है।
क्योंकि बार-बार यह देखा गया है कि जब भी इल्म की छुपी हक़ीक़तों पर से परदा उठा, तो उसी वक्त तज़ाद भी जाता रहा और वहीं हक़ीक़त निखर कर सामने आ गई जो अल्लाह की वह्य के ज़रिए ज़ाहिर हो चुकी थी। दूसरे लफ़्ज़ों में कह दीजीए कि इल्म और मज़ह़ब के दर्मियान अगर किसी वक़्त भी तज़ाद नज़र आया, तो नत्तीजे के तौर पर इल्म को अपनी जगह छोड़नी पड़ी और अल्लाह की वह्य का फ़ैसला अपमी जगह अटल रहा।
इस बुनियाद पर इस जगह भी कुदरत्ती तौर पर यह सवाल सामने आ जाता है की इस ख़ास मसअले में हक्रीक़ते हाल क्या है और किस तरह है? जवाब यह है कि इस मामले में भी इल्म और मज़हब के दर्मियान कोई टकराव नहीं है, अलबत्ता यह मसअला चूंकि बारीक और गूढ़ बातें अपने भीतर समोए हुए है, फिर भी यह हक़ीक़त इस जगह हमेशा नज़रों में रहनी चाहिए कि पहला इंसान, (जों कि मौजूदा इंसान की नस्ल का बाबा आदम है, भले ही तरक्की (Evolution) के नजर्ये के मुताबिक दर्जा बा दर्जा इंसानी शक्ल तक पहुंचा हो या पैदाइश की शुरूआत ही में इंसानी शक्ल में वजूद में आया हो इल्म और मज़हब दोनों का इस पर इत्तिफ़ाक़ (सहमति) है कि मौजूदा इसान ही इस कायनात की सबसे बेहतर मख्लूख है।
और अक्ल और सूझ बुझ ढांचा ही अपने अमल और किरदार के लिए जवाबदेह है और दस्तूर व कानून का मुकल्लफ़ है या इस तरह समझ लीजिए कि इंसानी किरदार और उसके इल्मी और अमली, साथ ही अख्लाकी किरदार को देखते हुए इस बात की कोई अहमियत नहीं है कि इसके पैदा होने, ढलने और वजूद की दुनिया में आने की तफ़्सील क्या है, बल्कि अहमियत की बात यह है कि इस पैदा हुई दुनिया में उसका वजूद यूँ ही बेमतलब और बेमक्सद है या उसकी हस्ती अपने भीतर बहुत बड़ा मकसद लेकर वजूद में आई है? क्या उसके अफआल व अक़्वाल और किरदार व गुफ़्तार (कर्म-कथन, चरित्र-आचरण) के असरात (प्रभाव) बहुत अधिक हैं? क्या उसकी माही और रूहानी कुदरतें सब की सब बेकार और बे-नतीजा हैं या क्रीमती फलों से लदी हुई और हिक्मत से भरी हुई हैं? और क्या उसकी ज़िंदगी अपने भीतर कोई रौशन व ताबनाक हकीकत रखती है और घोर अंधेरे वाले भविष्य (मुस्तक्रिबिल) का पत्ता देती है और उसका माज़ी व हाल अपने मुस्तक़िबल को नहीं जानता?
पस॒ अगर इन हृक़ीक़तों का जवाब “नहीं’ में नहीं, बल्कि हां! में है तो फिर कूदरती तौर पर यह मानना ही होगा कि उसकी पैदाइश की कैंफ़ियत (दशा) पर बहस की जाए, उसके बुजूद के मकसद पर पूरी निगाह रखी जाए और यह मान लिया जाए कि पैदा की हुई चीज़ों में सबसे बेहतर हस्ती का वुजूद बेशक बड़े मकसद का पता देता है और इसलिए उसकी अख्लाक़ी क्ंद्रों का ज़रूर कोई ‘मसले आला’ (बड़ी नंज़ीर) और उसकी पैदा करने का कोई मकसद है।
कुरआन पाक ने इसीलिए इंसान से मुताल्लिक्र पॉज़िटिव और निगेटिव हर दो पहलू को वाज़ेह करके इंसानी हस्ती के बड़प्पन का एलान किया और बतलाया है कि कायनात के पैदा करने वाले और बनाने-संवारने वाले की कुदरत में इंसान की पैदाइश ‘सबसे बेहतर’ का दर्जा रखती है और इसी वजह से वह तमाम कायनात के मुकाबले में “बड़े होने और अज़ीम होने’ का हक़दार है और अपने कामों और तरीक़ों की वजह से बेहतर वही अल्लाह की अमानत का अलमबरदार होकर “अल्लाह की जमींन का ख़लीफ़ा‘ के मंसब पर बने रहने का हक़ रखता है और जब यह सब कुछ उसमें मौजूद है तो फिर यह कैसे मुम्किन था कि उसकी हस्ती को यों ही बेमक्सद और बेनतीजा छोड़ दिया जाता।
क्या लोगों (इंसानों) ने यह गुमान कर लिया है कि वे बेमक्सद छोड दिए जाएंगे? अल-कियाम : 75:36
और ज़रूरी है कि अक़्ल व शऊर के इस पैकर को त्तमाम कायनात में नुमाया बनाकर नेकी व बुराई की तमीज़ अता की जाए और बुराई से परहेज और भलाई के अख्तियार का मुकल्लफ़ (ज़िम्मेदार) बनाया जाए।
अल्लाह ताला ने इंसान को पैदा किया और फ़िर नेकी और बदी की राह दिखाई। ताहा 20:50
फ़िर हमने इंसान को दोनों रास्ते (नेकी और बुराई) दिखाए। अल-बलद 90:10
गरज़ कुरआन मजीद की याददेहानी और दावत भलाइयों को करने और बुराइयों को रोकने और रुश्द व हिदायत का मुख़ातब और शुरु और आखिर का मेहवर मरकज सिर्फ यही हस्ती तो है , जिसको इंसान कहते है। और यही वजह है के कुरआन ने पहले इंसान की पैदाइश की कैफ़ियतों और तफ़्सीलों को नजरअंदाज करके उसके शुरू और आख़िर को ही यह अहमियत दी है।
इल्मी बहसों से मुतालिक इस्लामी नुक्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण):
असल में इसकी इल्मी बहसों के लिए इस्लाम की तालीम यह है कि जो मसअले यकिन और मुशाहदे के इल्म की हद तक पहुंच चुके हैं और क़ुरआनी इल्म और अल्लाह की वह्य इन हक़ीक़तों का इंकार नहीं करती, क्योंकि कुरआन मुशाहदे और हिदायत का कभी भी इंकार नहीं करता” तो उन को बिना किसी शक के मान लिया जाए,
इसलिए कि ऐसी हक़ीक़तों का इंकार बेजा तअस्सुब और तंगनज़री के सिवा और कुछ नहीं और जो पहले अभी तक यकींन की इन मंज़िलों तक नहीं पहुंचे जिनको मुशाहदा और हिदायत कहा जा सके जैसा कि बहस में आया मसअला है, तो इनके बारे में कुरआन के मतलबों में ताबील नहीं करनी चाहिए और ख़ामख़ाही उनको नई तहक़ीक़ के सांचे में ढालने की कोशिश हरगिज़ जायज़ नहीं, बल्कि वक़्त का इंतजार करना चाहिए कि वे मसअले अपनी हक़ीक़त को इस तरह जाहिर कर र्दे कि उनके इंकार मे मुशाहदा और हक़ीक़त का इंकार लाज़िम आ जाएं,
इसलिए कि यह हक़ीकत है कि इल्मी बहसों को तो बार-बार अपनी जगह से हटना पड़ा है। मगर क़रआनी इल्मों को कभी एक बार भी अपनी जगह से हटने की ज़रूरत पेश नहीं आयी और जब कभी इल्मी मसअले बहस व नज़र के बाद यकीन और मुशाहदे की हद तक पहुंचे हैं, वे एक नुक़्ता भी इससे आगे नहीं गए जिसको कुरआन ने पहले वाजेह कर दिया है।
To be continued …