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हज़रत ईसा (अलै.) की इस्लाह की दावत और बनी इसराईल के फ़िरक़े
पीछे यह बताया जा चुका है कि अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलै.) को इंजील अता की थी और यह इलहामी किताब असल में तौरात का तुक्मिला (Suppierment) थी। यानी हज़रत ईसा (अलै.) की तालीमी बुनियाद अगरचे तौरात पर ही क़ायम थी, मगर यहूद की गुमराहियों, मज़हबी बगावतों और सारकशियों की वजह से, जिन सुधारों की ज़रूरत थी, अल्लाह तआला ने हज़रत मसीह (अलै.) की मारफत इंजील की शक्ल में उनके सामने पेश कर दिया था।
हज़रत मसीह (अलै.) को नबी बनाए जाने से पहले यहूदियों की एतकादी और अमली गुमराहियां अगरचे बहुत ज़्यादा हो गई थी और हज़रत मसीह (अलै.) ने नबी बनाए जाने के बाद इन सबके सुधार के लिए क़दम उठाया भी, फिर कुछ अहम बुनियादी बातें खास तौर पर इस्लाह के क़ाबिल थीं, जिन्हें सुधारने के लिए हज़रत मसीह (अलै.) बहुत ज़्यादा सरगर्म अमल रहे।
1. यहूदियों की एक जमाअत कहती थी कि नेक बद की जज़ा-सज़ा दुनिया में मिल जाती है, बाकी क़यामत, आखिरत, आखिरत में जज़ा-सज़ा, हश्र व नश्र ये सब बातें गलत है। ये ‘सदूकी‘ थे।
2. दूसरी जमाअत अगरचे इन तमाम चीज़ों को हक़ समझती थी, मगर साथ ही यह यक़ीन रखती थी कि अल्लाह से मिलने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी है कि दुनिया की लज्ज़तों और दुनिया वालों से किनाराकश होकर सन्यासी का जीवन अपनाया जाए, चुनाचे वे बस्तियों से अलग ख़ानक़ाहों और झोपड़ियों में रहना पसन्द करते थे, मगर यह जमाअत हज़रत मसीह (अलै.) के नबी बनाए जाने से कुछ पहले अपनी यह हैसियत भी खो चुकी थी और अब ‘दुनिया त्याग देने’ के परदे में दुनिया की हर क़िस्म की गन्दगी में लथ-पत नज़र आती थी। ज़ाहिरी तौर पर रस्म व रिवाज ज़ाहिदों का-सा होता, मगर ये तंहाइयों में वह सब कुछ नज़र आता जिनसे खुले गुनाहगार भी एक बार शर्म से आंखें बंद कर लें, ये ‘फ़रीसी‘ कहलाते थे।
3. तीसरी जमाअत मज़हबी रस्मों और हैकल की खिदमत से मुताल्लिक थी, लेकिन उनका भी यह हाल था कि जिन रास्तों और खिदमों को ‘अल्लाह के लिए’ करना चाहिए था और जिन आमाल के नेक नतीजे खुलूस पर टिके हुए थे, उनको तिजारती करोबार बना लिया था और जब तक हर एक रस्म और हैकल की खिदमत पर भेंट और नज़र न ले लें, क़दम न उठाएं, यहां तक कि इस मुक़द्दस कारोबार के लिए उन्होंने तौरात के हुक्मों में भी घट-बढ़ कर दी थी, ये ‘काहिन‘ थे।
4. चौथी जमाअत इन सब पर हावी और मज़हब की ठेकेदार थी। इस जमाअत ने जनता में धीरे-धीरे यह अक़ीदा पैदा कर दिया था कि मज़हब और दीन के उसूल व एतक़ाद कुछ नहीं हैं, मगर ‘वह‘ जिनको वे संही कह दें, उनको यह अख्तियार हासिल है कि वे हलाल को हराम और हराम को हलाल बना दें, दीन के हुक्मों में इजाफ़ा या कमी कर दें, जिसको चाहें जन्नत का परवाना लिख दें और जिसकों चाहें जहन्नम की तहरीर दे दें। अल्लाह के यहाँ उनका फैसला अटल और अमिट है। ग़रज़ बनी इसराईल के ‘अरबाबम मिन दुनिल्लाह’ बने हुए थे और तौरात के लफ्ज़ी और मानवी हर क़िस्म की घट-बढ़ में इस दर्जा बहादुर थे कि उसको दुनियातलबी का मुस्तकिल सरमाया बना लिया था और आम व ख़ास की खुशनूदी के लिए ठहराई हुई क़ीमत पर दीन के हुक्मों को बदल डालना उनका दीनी काम था, ये ‘अहबार‘ या ‘फकीह‘ थे।
ये थी वे जमाअतें और ये थे उनके अक़ीदे और अमल जिनके दर्मियान हज़रत मसीह (अलै.) भेजे गए ताकि वह उन की इस्लाह करें। उन्होंने हर एक जमाअत के गलत अक़ीदों और अमलों का जायज़ा लिया, रहम व मुहब्बत के साथ उनके ऐबों और खराबियों पर उंगली उठाई, उनको सुधरने पर उभारा और उनके ख्यालों, अकीदों और उनके अमलों और किरदारों की गन्दागियों को ढेर करके उनका रिश्ता कायनात के पैदा करने वाले अल्लाह के साथ दोबारा कायम करने की कोशिश की, मगर इन बदबख्तों ने अपनी काली करतूतों में सुधार लाने से साफ इंकार कर दिया और न सिर्फ यह बल्कि उनको ‘मसीह ज़लालत’ कह कर उनकी हक़-व इर्शाद की दावत के दुश्मन और उनके खिलाफ़ साज़िशें करके उनकी जान को लग गए।
चारों इंजीलें
हज़रत मसीह (अलै.) पर जो इंजील नाज़िल हुई थी, उसके बारे में तमाम इल्म वालों का, जिनमें ख़ुद नसारा भी शामिल हैं, इत्तिफ़ाक़ है कि उनमें से कोई एक भी हज़रत मसीह (अलै.) पर उतरी हुई इंजील नहीं है, बल्कि यूनानी और उनसे नक़ल किए गए दूसरी ज़ुबानों के तर्जुमे हैं जो तब्दीली और घट-बढ़ का बराबर शिकार होते रहे हैं और सिर्फ यही नहीं कि ये चारों इंजीलें, इंजीले मसीह नहीं हैं, बल्कि किसी इल्मी, तारीख़ी और मज़हबी सनद से उनका हज़रत मसीह (अलै.) के शागिर्दो का लिखा होना भी साबित नहीं है, बल्कि बाद के लिखने वालों की लिखी हुई हैं, अलबत्ता इन तर्जुमों में बाज़ नसीहतों और हिकमतों के मुक़ामों के सिलसिले में एक हिस्सा ऐसा ज़रूर है जो हज़रत मसीह (अलै.) के इर्शाद से लिया गया है, इसलिए नक़ल में कहीं कहीं असल की झलक नज़र आ जाती है।
(मौलाना हिफ्जुर्रहमान स्योहारवी ने मौजूदा इंजील के बारे में ज़ोरदार तहक़ीक़ पेश की है, जिसका यह हासिल है। मोरस बकाई ने की साइंस और क़ुरआन’ में भी इंजील से मुताल्लिक़ तहकीकी बातें की है जिसपर तवज्जोह दी जानी चाहिए)
क़ुरआन और इंजील
क़ुरआन मजीद की बुनियादी तालिम यह है कि जिस तरह अल्लाह एक है, उसी तरह उसकी सच्चाई भी एक ही है और वह कभी किसी खास क़ौम खास जमाअत और खास गिरोह की विरासत नहीं रही, बल्कि हर कौम और हर मुल्क में अल्लाह की रुश्द व हिदायत का पैगाम, एक ही बुनियाद पर क़ायम रहते हुए उसके सच्चे पैगम्बरों या उसके नायबों के ज़रिए हमेशा दुनिया के लिए सीधे रास्ते की दावत देने वाला और उस तरफ़ बुलाने वाला रहा है और उसी का नाम ‘सीधा रास्ता‘ और ‘इस्लाम‘ है और क़ुरआन इसी भूले हुए सबक़ को याद दिलाने आया है और यही वह आखिरी पैगाम है जिसने तमाम पुराने मज़हब की सच्चाइयों को अपने अन्दर समो कर पूरी ज़मीनी कायनात की हिदायत का बेड़ा उठाया है। और अब इसलिए उसका इंकार गोया अल्लाह की तमाम सच्चाइयों का इंकार है।
इसी बुनियादी तालीम के पेशेनज़र उसने हज़रत मसीह (अलै.) की शान की बड़ाई को सराहा और यह माना कि बेशक इंजील इलहामी किताब और अल्लाह की किताब है, लेकिन साथ ही जगह-जगह दलीलों के साथ यह भी बतलाया कि अले किताब उलेमा ने इसकी सच्ची तालीम को मिटा डाला, बदल डाला और हर क़िस्म की तब्दीली करके इसकी तालीम को शिर्क व कुफ़्र की तालीम बना दिया।
लेकिन किसी किसी जगह पर अहले किताब को तौरात और इंजील के खिलाफ़ अमल पर मुलज़िम बनाते हुए मौजूदा तौरात व इंज़ील के हवाले भी देता है जिससे मालूम होता है कि क़ुरआन नाज़िल होते वक़्त असल नुस्खे भी, अगरचे बिगड़ी हुई शक्ल में ही क्यों न हो, पाए जाते थे, बहरहाल उस वक़्त भी ये दोनों किताबे लफ्ज़ी और मानवी दोनों क़िस्म की तहरीफ़ात से इतनी बिगड़ चुकी थीं कि वे हज़रत मूसा (अलै.) की तौरात और हज़रत ईसा (अलै.) की इंजील कहलाने की हक़दार नहीं रही थी, चुनांचे क़ुरआन ने असल किताबों की अज़मत और अहले किताब के हाथों की तहरीफ़ और उनका बिगाडा जाना दोनों को खोल कर बयान किया है।
तर्जुमा- (ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम!) अल्लाह ने तुमपर किताब को उतारा हक़ के साथ, जो तस्दीक़ करने वाली है उन किताबों की को उनके सामने हैं और उतारा उसने तौरत और इंजील को (क़ुरआन से) पहले जो हिदायत हैं लोगों के लिए और उतारा फुरक़ान (हक़ व बातिल में फ़र्क करने वाली) (3-3,4)
तर्जुमा- ‘और सिखाता है वह किताब को, हिकमत को, तौरात को, इंजील को।’ (3:48)
तर्जुमा- ऐ अहले किताब! तुम किस लिए हज़रत इब्राहीम (अलै.) के बारे में झगड़ते हो और हाल यह है कि तौरात और इंजील का नज़ूल नहीं हुआ, मगर हज़रत इब्राहीम (अलै.) के बाद, पस क्या तुम इतना भी नहीं समझते? (3:65)
तर्जुमा- ‘और पीछे भेजा हमने हज़रत ईसा बिन मरयम को, जो तस्दीक करने वाला है उस किताब की जो सामने है तोरात और दी हमने उसको इंजील जिसमें हिदायत और नूर है और अपने से पहली किताब की तस्दीक़ करती है और पूरी तरह हिदायत और नसीहत है परहेज़गारों के लिए और चाहिए कि अहले इंजील उसके मुताबिक़ फ़ैसले दें जो हमने इंजील में उतार दिया और जो अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुवाफिक़ फैसला नहीं देता, पस यही लोग फ़ासिक़ हैं।’ (5:46-47)
तर्जुमा- ‘और अगर वे तौरात व इंजील को क़ायम रखते, (घटा-बढ़ा कर उनको बिगाड़ न डालते) और उसको क़ायम रखते, जो उसकी जानिब उनके परवरदिगार की जानिब से उतारा हुआ है तो अलबत्ता वे (फारिगुल बाली के साथ) खाते अपने ऊपर से और अपने नीचे से, कुछ उनमें बीच का रास्ता अपनाने वाले अच्छे लोग हैं और अक्सर उनके बद-अमल है। (5-66)
तर्जुमा- ‘(ऐ मुहम्मद ﷺ कह दीजिए, ऐ अहले किताब! तुम्हारे लिए टिकने की कोई जगह नहीं है, जब तक तौरात और इंजील और उस चीज़ से जिसको तुम्हारे परवरदिगार ने तुम पर नाज़िल किया, क़ायम न करो (ताकि उसका नतीजा क़ुरआन की तस्दीक निकले)
तर्जुमा- ‘और जब मैंने तुझको (ऐ ईसा) सिखाई किताबे हिकमत तौरात और इंजील। (5-110)
तर्जुमा- (भले लोग) वे शख्स हैं जो पैरवी करते है रसूल की जो नबी उम्मी है और जिसका ज़िक्र अपने पास तौरात और इंजील में लिखा पाते है (7:157)
तर्जुमा– बेशक अल्लाह ने खरीद लिया है मोमिनों से उनकी जाने और उनके मालों को इस बात पर कि उनके लिए जन्नत है, वे अल्लाह के रास्ते में जंग करते हैं, पस क़त्ल करते हैं और क़त्ल होते हैं, उनके लिए अल्लाह का वायदा सच्चा है जो तौरात और इंजील में किया गया है। (9:111)
गरज़ यह तारीफ़ व तौसीफ़ है उस तौरात और इंजील की जो ‘तौराते मूसा‘ और ‘इंजीले ईसा’ कहलाने की हक़दार और हक़ीक़त में अल्लाह की किताब थीं, लेकिन यहूदियों और ईसाइयों ने इन इलहामी (आसमानी) किताबों के साथ क्या मामला किया, इसका हाल भी क़ुरआन ही की ज़ुबान से सुनिए।
तर्जुमा- क्या तुम उम्मीद रखते हो कि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, हालाकि उनमें एक गिरोह ऐसा था, जो अल्लाह का कलाम सुनता था, फिर उसको बदल डालता था बावजूद इस बात के कि वह उसके मतलब को समझता था और जान-बूझ कर घट-बढ़ करते थे। (2:75)
तर्जुमा- पस अफ़सोस उन (इल्म के दावेदारों) पर जिनका शेवा यह है कि खुद अपने हाथ से किताब लिखते हैं, फिर लोगों से कहते हैं, यह अल्लाह की तरफ से है और यह सब कुछ इसलिए करते हैं ताकि उसके मुआवज़े में एक हक़ीर सी क़ीमत दुनियावी फायदे की हासिल करें। पस अफ़सोस उस पर जो कुछ वे लिखते हैं और अफ़सोस इस पर जो कुछ वे इसके ज़रिए से कमाते (2:78)
तर्जुमा– वे अहले किताब अल्लाह की किताब (तौरात और इंजील) के वाकियों को उनकी सही जगह से बदल डालते हैं, यानी लफ्ज़ों में और उनके मानी में दोनों में तहरीफ़ यानी बिगाड़ पैदा करते हैं। (5:13)
इनके अलावा ‘समने क़लील‘ (मामूली पूंजी) के बदले अल्लाह को बेच देने से मुताल्लिक़ तो वक़र, आले इमरान, निसा और तौबा में कई आयतें मौजूद हैं जिनका हासिल यह है कि यहूदी-ईसाई तौरात-इंजील को दोनों तरह बेचा करते थे, लफ़्ज़ों में बदलाव के ज़रिए भी और मानी में बदलाव के सिलसिले से भी, गोया सोने-चांदी के लालच मे आम व खास की ख्वाहिशों के मुताबिक़ अल्लाह की किताब की आयतों में लफ्ज़ और मानी दोनों पहलुओं से बदलाव उनके बेच देने की हैसियत रखती है, जिससे बढ़कर बदबख्ती का दूसरा कोई अमल नहीं और जो हर हाल में लानत के लायक़ है।
क़ुरआन और तस्लीस का अक़ीदा
क़ुरआन नाज़िल होने के वक्त तमाम मसीही जिन बड़े फ़िरकों में तक़सीम थे सालूस के मुताल्लिक़ उनका अक़ीदा तीन अलग-अलग उसूलों पर टिका हुआ था, एक फ़िरका कहता था कि हज़रत मसीह (अलै.) ही ख़ुदा है और ख़ुदा ही हज़रत मसीह (अलै.) की शक्ल में दुनिया में उतर आया है और दूसरा फ़िरक़ा कहता था कि हज़रत मसीह (अलै.) इब्नुल्लाह (खुदा का बेटा) है और तीसरा कहता था कि एक का भेद तीन में छिपा हुआ है – बाप, बेटा, मरयम और इस जमाअत में भी दो गिरोह ये और दूसरा गिरोह हज़रत मरयम (अलै.) की जगह ‘रूहुल-क़ुद्स‘ को ‘अक्नूमे सालिस‘ कहता था, गरज़ वे हज़रत मसीह (अलै.) को ‘सालिसे सलासा‘ (तीन का तीसरा) तस्लीम करते थे।
इसलिए क़ुरआन की हक़ की सदा ने तीनों जमाअतों को अलग-अलग भी मुखातिब किया है और एक साथ भी और दलीलों की रोशनी में मसीही दुनिया पर यह वाज़ेह किया है कि इस बारे में हक़ का रास्ता एक और सिर्फ एक है और वह यह कि हज़रत मसीह (अलै.) हज़रत मरयम (अलै.) के पेट से पैदा हुए हैं और इंसान और खुदा के सच्चा पैगम्बर और रसूल हैं।
बाकी जो कुछ भी कहा जाता है, महज़ बातिल है, चाहे इसमें घटाया गया हो, जैसा कि यहूदियों का अक़ीदा है कि अल अयाज़ बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) वह शोबदे बाज़ और झूठे थे या बढ़ाया गया हो जैसा कि ईसाइयों का अक़ीदा है कि वह खुदा है और खुदा के बेटे हैं या तीन में तीसरे हैं।
क़ुरआन ने सिर्फ यही नहीं कहा कि ईसाइयों के रद्द करने वाले पहलू को ही इस सिलसिले में वाज़ेह किया हो, बल्कि इसके अलावा हज़रत मसीह (अलै.) की बुलन्द शान की असल हक़ीक़त क्या है और अल्लाह के नज़दीक उनको क्या कुर्बत हासित है, इस पर भी नुमायां रोशनी डाली है, ताकि इस तरह यहूदियों के अक़ीदे का भी खंडन हो जाए और इफ़रात व तफ़रीत से जुदा राहे हक़ सामने नज़र आने लगे।
हज़रत मसीह (अलै.) अल्लाह के क़रीबी और बरगज़ीदा रसूल हैं –
तर्जुमा– हज़रत मसीह (अलै.) ने कहा बेशक मैं अल्लाह का बन्दा हूं और उसने मुझको नबी बनाया और मुझको मुबारक ठहराया, जहां भी मैं रहूं और उसने मुझको नमाज़ की और ज़कात की वसीयत फरमाई, जब तक भी ज़िन्दा रहू और उसने मुझे मेरी मां के लिए नेक और भला बनाया और मुझको सख्तगीर और बदबख्त नहीं बनाया, मुझ पर सलामती हो, जब मैं पैदा हुआ, जब मैं मर जाऊं और जब हश्र के लिए ज़िन्दा उठाया जाऊ (18:30-32)
तर्जुमा- ‘वह (मसीह) नहीं है, मगर ऐसा बन्दा, जिस पर हमने इनाम किया और हमने उसको मिसाल बनाया है बनी इसराईल के लिए और अगर हम चाहते तो कर देते हम तुम में से फ़रिश्ते ज़मीन में चलने-फिरने वाले और बेशक वह (मसीह) निशान है क़यामत के लिए, पस इस बात पर तुम शक न करो और मेरी पैरवी करो, यही सीधा रास्ता है। (43: 58-61)
तर्जुमा- ‘और (वह वक्त याद करो) जब हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) ने कहा बनी इसराईल! बेशक मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूं तस्दीक़ करने वाला हूं जो मेरे सामने है तौरात और खुशखबरी देने वाला हूं एक रसूल की, जो मेरे बाद आएगा, उनका नाम अहमद है।’ (61:6)
हज़रत मसीह न ख़ुदा हैं, न खुदा के बेटे
तर्जुमा- ‘बेशक उन लोगों ने कुफ्र इख़्तियार किया जिन्होंने यह कहा, बेशक अल्लाह वही हज़रत मसीह इब्ने मरयम (अलै.) है। कह दीजिए कि अगर अल्लाह यह इरादा कर ले कि मसीह बिन मरयम, मरयम और ज़मीनी कायनात पर जो कुछ भी है, सबको हलाक़ कर डाले, तो कौन आदमी है जो अल्लाह से (उसके खिलाफ़) किसी चीज़ के मालिक होने का दावा कर सके और अल्लाह के लिए ही बादशाही है आसमानों की और ज़मीन की, वह जो चाहता है, उसको पैदा कर सकता है और अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। (5:17)
तर्जुमा- बेशक उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा, बेशक अल्लाह वही हज़रत मसीह बिन मरयम है, हालांकि हज़रत मसीह (अलै.) ने यह कहा, ऐ बनी इसराईल! अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है, बेशक जो अल्लाह के साथ शरीक ठहराता है, पस यक़ीनन अल्लाह ने उस पर जन्नत को हराम कर दिया है और उसका ठिकाना जहन्नम है और ज़ालिमों के लिए कोई मददगार नही है। (5:72)
तर्जुमा- और उन्होंने कहा, अल्लाह ने ‘बेटा‘ बना लिया है, वह तो इन बातों से पाक है, बल्कि (उसके खिलाफ़) अल्लाह के लिए ही है जो कुछ भी असमानों और ज़मीन में है, हर चीज़ अल्लाह के लिए ताबेदार है।’ (2:116)
तर्जुमा- ‘बेशक हज़रत ईसा (अलै.) की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम की सी है कि उसको मिट्टी से पैदा किया, फिर उसको कहा, हो जा, तो वह हो गया।’ (3:59)
तर्जुमा- ऐ अहले किताब! अपने दीनी मसअले में हद से न गुज़रो और अल्लाह के बारे में हक़ के अलावा कुछ न कहो, बेशक हज़रत मसीह बिन मरयम (अलै.) अल्लाह के रसूल हैं और उसका क़लमा हैं जिसको उसने मरयम पर डाला यानी बग़ैर बाप के उसके हुक्म से मरयम के पेट में वुजूद मिला और उसकी रूह हैं, पस अल्लाह पर और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और तीनों (अक़ानीम) ने कहा, इससे बाज़ आ जाओ, तुम्हारे लिए बेहतर होगा। बेशक अल्लाह एक है पाक है इससे कि उसका बेटा हो। उसी के लिए है (बिला और की शिर्कत के) जो कुछ भी है आसमानों और ज़मीन में और काफी है अल्लाह वकील’ हो कर। (4:171)
तर्जुमा- ‘वह (खुदा) मूजिद’ (नए सिरे से बनाने वाला) है आसमानों और ज़मीन का, उसके लिए बेटा कैसे हो सकता है और न उसके बीवी है और उसने कायनात की हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ को जानने वाला है। (6:102)
तर्जुमा- ‘मसीह बिन मरयम नहीं हैं मगर खुदा के रसूल, बेशक उनसे पहले रसूल गुज़र चुके हैं और उनकी वालिदा सिद्दीका हैं। ये दोनों खाना खाते थे। (यानी दूसरे इंसानों की तरह खाने-पीने वगरैह मामलों में भी वे मुहताज थे।’ (5:75)
तर्जुमा- ‘हरगिज़ हज़रत मसीह (अलै.) इससे नागवारी नहीं इख्तियार करेगा, कि वह अल्लाह का बन्दा कहलाए और न करीबी फ़रिश्ते, यहां तक कि रुहुल क़ुदस (जिब्रील) नाक भौं चढ़ाएंगे और जो इबादत से नागवारी ज़ाहिर करे और घमंड करे, तो करीब है कि अल्लाह तआला उन सबको अपनी तरफ़ इकठ्ठा करेगा यानी जज़ा व सज़ा के दिन सब हक़ीक़ते हाल खुल जाएगी।’ (4:172)
तर्जुमा- ‘और यहूदी कहते हैं कि उज़ैर खुदा का बेटा है और हज़रत ईसा (अलै.) कहते हैं कि हज़रत मसीह खुदा का बेटा है। ये उनके मुंह की बातें हैं, रेस करने लगे अगले काफिरों की बात की, अल्लाह उनको हलाक़ करे, कहां से फिरे जाते हैं।’ (9:30)
तर्जुमा– ‘(ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कह दीजिए, अल्लाह ‘एक है, अल्लाह बेनियाज़ हस्ती है, न किसी का बाप है और न किसी का बेटा और कायनात में कोई उस जैसा नहीं है।’ (112:1-3)
क़ुरआन ने इस सिलसिले में अपनी सच्चाई और अक़ीदे और अमल की इस्लाह का जो दलीलों के साथ वाज़ेह एलान किया, उसके पढ़ने के साथ-साथ यह बात भी तवज्जोह के क़ाबिल है कि मौजूदा किताब मुक़द्दस इंजील में मिलावट पैदा करने और बिगाड़ने के बावजूद जिस शक्ल व सूरत में आज मौजूद है, वह किसी एक जगह पर भी सालूस (Trinity) के इस अक़ीदे का पता नहीं देती, इसलिए तसलीस के अक़ीदे में ईसाइयों के लिए मौजूदा किताबे मुकद्दस से भी कोई हुज्जत व दलील नहीं मिलती और इसलिए बगैर किसी शक व शुबहे के यह कहना हक़ है कि तसलीस का यह अक़ीदा बुतपरस्ती वाले अक़ीदों की मिलावट का नतीजा है।
कफ्फ़ारा
मौजूदा मसीहियत (ईसाई धर्म) का दूसरा अकीदा, जिसने मसीही दीन की हक़ीक़त को बर्बाद कर डाला, ‘कफ्फारे‘ का अक़ीदा है। इसकी बुनियाद इस कल्पना पर रखी गई है कि तमाम कायनात (जिसमें नेक लोग और नबी और रसूल सभी शामिल है) शुरू ही से गुनाहगार है। आखिर अल्लाह की रहमत को जोश आया और उसकी मशीयत ने इरादा किया कि बेटे को दुनिया की कायनात में भेजे और वह सूली पर चढ़ा हुआ होकर पहले और आखिरी तमाम कायनात के गुनाहों का कफ्फ़ारा हो जाए और इस तरह दुनिया को निजात और मुक्ति हासिल हो सके लेकिन इस अक़ीद को ज़ोरदार बनाने के लिए कुछ ज़रूरी हिस्सों की ज़रूरत थी, जिनके बगैर यह इमारत नहीं खड़ी की जा सकती थी।
इसलिए रसूल के ज़माने में सबसे पहले मसीही दीन ने यहूदी दीन के इस अक़ीदे को मान लिया कि उनको फांसी के तख्ते पर भी चढ़ाया गया और मार भी डाला गया और इसको मान लेने के बाद दूसरा क़दम यह उठाया कि ‘अल्लाह की सिफ़त रखने के बावजूद‘ हज़रत मसीह (अलै.) का फांसी पाना और क़त्ल होना अपने लिए नहीं, बल्कि कायनात की निजात के लिए था। चुनांचे जब उस पर यह हादसा गुज़र गया तो उसने फिर ‘अल्लाह होने’ की चादर ओढ़ ली और आलमे लाहूत में बाप और बेटे के दर्मियान दोबारा लाहुती रिश्ता क़ायम हो गया।
पस जब मज़हब में एक अल्लाह के साथ सही अक़ीदा और नेक अमली गुम हो जाए और निजात का दारोमदार अमल व किरदार के बजाए ‘कफ्फ़ारे पर क़ायम’ हो जाए, उसका नतीजा मालूम?
क़ुरआन ने इसी तरह जगह-जगह यह वाज़ेह किया है कि नजात के लिए अक़ीदे का सही होना यानी सही खुदापरस्ती और नेक अमली के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है और जो आदमी भी इस ‘सीधे रास्ते’ को तर्क करके ‘खुशगुमानी‘ और वहम व गुमान को आदर्श बनाएगा और नेक अमली और सही ख़ुदा परस्ती पर न चलेगा, बिला शुबहा गुमराह है और सीधे रास्ते से पूरी तरह महरूम।
तर्जुमा- जो लोग अपने को मोमिन कहते हैं और जो यहूदी हैं और जो ईसाई हैं और जो साबी हैं, उनमें से जो भी अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान ले आया और उसने नेक अमल किए, तो यही वे लोग हैं, जिनका बदला उनके परवरदिगार के पास है, न उन पर डर छायेगा और न वे गमगीन होंगे (2:62)
यानी क़ुरआन की धर्मों और मिल्लतों में सुधार लाने की दावत का मक़सद यह नहीं है कि यहूदी, ईसाई और साबी गिरोहों की तरह एक नया गिरोह ‘मोमिन‘ के नाम से इस तरह इज़ाफ़ा कर दे कि गोया वह भी एक क़ौम, नस्ली या मुल्की गिरोहबन्दी है, चाहे उसकी खुदापरस्ती की ज़िंदगी और अमल की ज़िंदगी कितनी ही गलत और बर्बाद हो या सिरे से गायब हो मगर उस गिरोहबन्दी का आदमी होने की वजह से ज़रूर कामयाब और ख़ुदा की जन्नत व रज़ा का हक़दार है, क़ुरआन का मक़सद हरगिज़ यह नहीं है।
बल्कि वह यह ऐलान करने आया है कि उसकी सच्ची दावत से पहले कोई आदमी किसी भी गिरोह और मज़हबी जमाअत से ताल्लुक़ रखता हो अगर उसने (क़ुरआन की सच्ची तालीम) के मुताबिक़ ख़ुदापरस्ती और नेक अमली को इख़्तियार कर लिया है तो बेशक वह निजात पाया हुआ और कामयाब है, वरना तो वह गैर मुसलमान घर में पैदा हुआ, पला और बढ़ा और उसी सोसाइटी में ज़िंदगी गुज़ार कर मर गया, मगर क़ुरआन की सच्ची दावत के मुताबिक़ ख़ुदापरस्ती और नेक अमली दोनों से महरूम रहा या मुखालिफ़ (विरोधी), तो उसको न कामयाबी है, न फलाह, बाकी रहा मसीही धर्म के कफ्फारे का ख़ास मस्अला तो क़ुरआन ने उसे ग़लत करार देने के लिए यह रास्ता अपनाया कि जिन बुनियादों पर उसको क़ायम किया गया था, उसकी जड़ ही काट दी।
तवज्जोह करने की बात
यह बात कभी नहीं भूली जानी चाहिए कि पिछले धर्मों और क़ौमों के बिगड़ने और घटने-बढ़ने से घट-बढ़ करने वालों को बहुत ज़्यादा मदद मिली कि बुनियादी अक़ीदों में खुले लफ़्ज़ों के इस्तेमाल के बजाए वक़्त के ताबीर करने वालों, तफसीर लिखने वालों और तर्जुमानी करने वालों ने इशारों, इस्तिआरों और तश्बीहो से बहुत ज़्यादा काम लिया। इन ताबीरों का नतीजा यह निकला कि जब हक़ मज़हबों का मूर्ति पूजकों और फ़लसफ़ियों से वास्ता पड़ा और उन्होंने किसी न किसी तरह इस दीने हक़ को कुबूल कर लिया।
तो अपने फ़लसफ़ियाना और मुशिकाना अफ़्कार व ख़यालात के लिए उन्हीं इस्तियारों और तश्बीहों को सहारा बनाया और धीरे-धीरे मिल्लते हक़ीक़ी की सूरत बदल कर उसको माजूने मुरक्कब बना डाला। इसी हक़ीक़त को देखते हुए क़ुरआन ने वुजूद बारी, तौहीद, रिसालत, इलहामी किताबें, अल्लाह के फरिश्ते, गरज़ बुनियादी अकीदों में दोहरे लफ़्ज़, पेचदार तश्बीह और तौहीद में ख़लल डालने वाले इशारों-कनायों के बजाए खुले-साफ लफ़्ज़ों को अपनाया है ताकि किसी ख़ुदा के न मानने वाले और मुशरिक फ़लसफ़ी को ख़ालिस तौहीद में शिर्क और अटकलों की नई-नई बातों का मौका हाथ न आने पाए और अगर कोई आदमी इसके बाद भी बेजा हिम्मत करे तो खुद क़ुरआन की खुली आयतें ही उनके इलहाद के टुकड़े-टुकड़े कर दें।
नोट : मुरत्तिब की तरफ़ से हज़रत मरयम (अलै.), हज़रत ईसा (अलै.) की पैदाइश, ज़िंदगी और मोजज़े वगैरह से मुताल्लिक़ कई मसले बहस में आ गए हैं। हज़रत मौलाना स्योहारवी ने तमाम मसलों पर खुलकर बातें की हैं, लेकिन इन बहसों का खुलासा मुमकिन नहीं है, इसलिए मजबूरी में उन्हें छोड़ा जा रहा है, जो पाठक ख्याल महसूस करें उनसे दरख्वास्त है कि वे असल किताब से रुजू फ़रमावें।
To be continued …