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याजूज व माजूज
तफ़्सीर लिखने वालों और इस्लाम की तारीख़ लिखने वालों ने झूठी-सच्ची रिवायतों का वह तमाम ज़ख़ीरा नक़ल कर दिया है जो इस सिलसिले में बयान की गई हैं और साथ ही यह भी वाज़ेह कर दिया है कि कुछ रिवायतों के अलावा इस सिलसिले की तमाम रिवायतें झूठ और ख़ुराफ़ात का मज्मूआ है, जो न अक़्ल के एतबार से भरोसे के लायक़ है, न और किसी एतबार से और ये इसराईली रिवायतों का बे-मतलब का भंडार हैं।
इन तमाम रिवायतों में जो सब में पाई जाती है, वह यह है कि याजूज और माजूज एक ऐसे क़बीलों का मजमूआ (योग) है जो जिस्मानी और समाजी एतबार से अजीब व ग़रीब ज़िंदगी जीते हैं, जैसे वे बालिश्त या डेढ़ बालिश्त या ज़्यादा से ज़्यादा एक हाथ का क़द रखते हैं और कुछ ग़ैर मामूली लम्बे हैं और उनके दोनों कान इतने बड़े हैं कि एक ओढ़ने और दूसरा बिछाने के काम में आता है, चेहरे चौड़े चकले और कद से कोई मेल नहीं खाते।
इनके खाने के लिए कुदरत साल भर में दो बार समुन्दर से ऐसी मछलियां निकाल कर फेंक देती है जिनके सर और दुम का फासला इतना लम्बा होता है कि दस दिन व रात अगर कोई उस पर चलता रहे, तब उस फासले को तय कर सकता है या एक ऐसा सांप उनका खाना है जो पहले आस-पास के ख़ुश्की के जानवरों को हज़म कर जाता है और फिर कुदरत समुन्दर में उसको फेंक देती है और वहां मीलों तक समुन्दरी जानवरों को चट कर लेता है और फिर एक बादल आता है और फ़रिश्ता उस मारी-भरकम जिस्म वाले अजगर को उठाकर उस पर रख देता है और बादल उनको इन क़बीलों में ले जा डाल देता है और यह कि याजूज व माजूज एक ऐसी ही बरज़ख़ी मख़्लूक़ हैं जो आदम की नस्ल से तो हैं, मगर हव्वा (अलैहस्सलाम) के पेट से नहीं हैं।
लेकिन इन तहक़ीक़ करने वालों के क़ौलो से, जो हदीस, तफ़्सीर और तारीख़ के इल्म के माहिर हस्तियां हैं, यह बात क़तई तौर पर साफ़ हो जाती है कि याजूज-माजूज आम इंसानी मख़लूक की तरह दुनिया के बाशिंदे और उनकी नस्ल बनी आदम की आम नस्ल की तरह है। वह कोई अनोखी मख्लूक्र नहीं है और यह कि याजूज-माजूज उन वहशी क़बीलों को कहा जाता रहा है जो रूस और यूरोप की क़ौमो की असल और जड़ हैं।
और चूंकि उनकी पड़ोसी क़ौम उन कबीले में से दो बड़े कबीलों को मोग और योची कहती थी, इसलिए यूनानियों ने उनकी तक़्लीद में उनको मेक या मेगांग और लोगॉग कहा और इबरानी और अरबी में तसर्रुफ़ करके उनको याजूज-माजूज के नाम से याद किया गया यानी याजूज-माजूज भी अगरचे मंगोली (तातारी) हैं मगर पहाड़ों के दर्रे के जो तातारी क़बीले अपने मर्क़ज़ से हटकर आज़ाद हो गए थे और मुतमद्दिन (सभ्य) बन गए थे, एक ही नस्ल होने के बाद भी दोनों में इतनी दूरी हो गई कि एक दूसरे से अनजान, बल्कि हरीफ़ (दुश्मन) बन गए और एक ज़ालिम कहलाए और दूसरे मज़लूम और उन्हीं क़बीलों ने ज़ुलक़रनैन से सद्द बनाने की फ़रमाइश की।
और कुछ तारीख़दानों ने तो ‘तुर्क‘ नाम पड़ने की वजह ही यह बयान कर दी कि ये वे क़बीले हैं जो याजूज माजूज के हमनस्ल होने के बाद भी सद्द से परे आबाद थे और इसलिए जबज़ुलक़रनैन ने सद्द क़ायम की और उनको उसमें शामिल नहीं किया तो इस छोड़ दिए जाने से वे तर्क (तुर्क) कहलाए।
नाम पड़ने की यह वजह अगरचे एक चुटकुला है, फिर भी इस बात का सबूत ज़रूर पहुंचाती है कि तमद्दुन वाले क़बीले तमद्दुन व तहज़ीब पाने के बाद अपने हमनस्ल मर्कज़ी क़बीलों से अनजाने हो जाते थे और वह याजूज माजूज नहीं कहलाते थे और लफ्ज़ याजूज माजूज सिर्फ उन्हीं क़बीलों के लिए ख़ास हो गए हैं जो अपने मर्क़ज़ में पहले की तरह अब भी वहशत व बरबरीयत और दरिंदगी के साथ जुड़े हुए हैं।
सद्द
याजूज माजूज के इस तरह तय हो जाने के बाद दूसरा मामला ‘सद्द‘ का सामने आता है, यानी वह सद्द किस जगह वाक़े है जो ज़ुलक़रनैन ने याजूज व माजूज के फ़ित्ने व फ़साद को रोकने के लिए बनाई और जिसका ज़िक्र कुरआन में भी किया गया है –
1. सद्द के तय होने से पहले यह हक़ीक़त सामने रहनी चाहिए कि याजूज माजूज की तोड़-फोड़ और शर व फ़साद का दायरा इतना बड़ा था कि एक तरफ़ काकेशिया के नीचे बसने वाले उनके ज़ुल्म व सितम से नालां थे, दूसरी तरफ़ तिब्बत और चीन के बाशिंदे भी उनके उत्तरी छेड़-छाड़ से बचे हुए न थे, इसलिए सिर्फ एक ही ग़रज़ के लिए यानी क़बीलों-याजूज-माजूज के शर व फ़साद और लूट-मार से बचने के लिए अलग-अलग तारीख़ी ज़मानों में कई ‘सद्द‘ बनाई गई इनमें से पहली सद्द वह है जो दीवारे चीन के नाम से मशहूर है। यह दीवार लगभग एक हज़ार मील लम्बी है। इस दीवार को मंगोली अतकोदा कहते हैं और तुर्की में इसका नाम बोकोरका है।
2. दूसरी सद्द बीच एशिया में बुख़ारा और तुर्की के करीब वाके है और उसके वाक़े होने की जगह का नाम दरबन्द है। यह सद्द मशहूर मुगल बादशाह तैमूर लंग के ज़माने में मौजूद थी और शाहे रूम के नदीम ख़ास सेलाबरजर जर्मनी ने भी इसका जिक्र अपनी किताब में किया है और उन्दुलुस के बादशाह कस्टील के क़ासिद कलामचू ने भी अपने सफ़रनामे में इस का जिक्र किया है और यह 1403 ई. में अपने बादशाह का सफ़ीर होकर जब तैमूर साहिबारां की खिदमत में हाज़िर हुआ है तो उस जगह से गुज़रा है। वह लिखता है कि बाबूल हदीद की ‘सद्द’ मूसल के उस रास्ते पर है जो समरकंद और हिन्दुस्तान के दर्मियान वाले है।
3. तीसरी ‘सद्द‘ रूसी इलाके दागिस्तान में वाक़े है। यह भी दरबंद और बाबुल अबवाब के नाम से मशहूर है और कुछ तारीखदां इसको ‘अल-बाब‘ भी लिख देते हैं। याकूत हमवी. ने मोजमुलबुलदान में, इदरीसी ने जुगराफ़िया में और बुस्तानी ने दाइरतुल मआरिफ़ में इसके हालात को बहुत तफ़सील के साथ लिखा है आर इन सब का खुलासा यह है कि –
‘दाग़िस्तान दरबन्द‘ एक रूसी शहर है, यह शहर बहे ख़ज़र (Caspian Sea) के ग़रबी (पश्चिमी) किनारे पर वाक़े है। इसकी चौड़ाई अर्जुलबलद 3-45० उत्तरी और तूलुल बलद 15-48° पूर्वी है और इसको दरबन्द अनुशेरवां भी कहते हैं और बाबुल अबवाब के नाम से बहुत मशहूर है और उसके आस-पास को पुराने ज़माने से चारदीवारी घेरे हुए है, जिसके पुराने तारीख़दां अबवावे अलबानिया कहते आए हैं और अब यह टूटी-फूटी हालत में है और इसको दाबुल हदीद इसलिए कहते हैं कि उसकी सद्द की दीवारों में लोहे के बड़े-बड़े फाटक लगे हुए थे।
4. जब उसी बाबुल अबवाब के पश्चिम की तरफ़ काकेशिया के भीतरी हिस्सों में बढ़ते हैं तो एक दर्रा मिलता है जो दर्श दानियाल के नाम से मशहूर है और यह काकेशिया के बहुत ऊपरी हिस्सों से गुज़रा है। यहां एक चौथी सद्द है, जो कफ़क़ाज़ या जबले कूका या जबले काफ़ की सद्द कहलाती है और यह सद्द दो पहाड़ों के दर्मियान बनाई गई है। बस्तानी इसके मुताल्लिक लिखता है –
और उसी के करीब एक और सद्द है, जो पश्चिम की ओर बढ़ती चली गई है, शायद उसको फ़ारस वालों ने उत्तरी बरबरों से हिफ़ाज़त के लिए बनाया होगा, क्योंकि उसकी बुनियाद डालने वालों का सही हाल नहीं मालूम हो सका। कुछ ने उसका ताल्लुक़ सिकन्दर से जोड़ दिया और कुछ ने किसरा और नौशेरवां की ओर मोड़ दिया। याकूत कहता है कि यह तांबा पिघला कर उससे तैयार की गई है। इंसाइक्लोपेडिया ब्रिटैनिका में भी ‘दरबन्द‘ के आर्टिकल में लोहे की दीवार का हाल क़रीब-करीब इसी तरह बयान किया गया है।’
चूंकि ये सब दीवारें उत्तर ही में बनाई गई हैं और एक ही ज़रूरत के लिए बनाई गई हैं इसलिए ज़ुलक़रनैन की बनाई हुई सद्द के तय करने में उलझनें पैदा हो गई हैं और इसीलिए हम तारीख़ के माहिरों में इस जगह ज़बरदस्त इख़्तिलाफ़ पाते हैं और इस इख़्तिलाफ़ ने एक दिलचस्प शक़्ल इख़्तियार कर ली है इसलिए कि दरबन्द के नाम से दो जगहों का ज़िक्र आता है और दोनों जगहों में सद्द या दीवार भी मौजूद है और ग़रज़ भी दोनों की एक ही नज़र आती है।
तो अब चीन की दीवार को छोड़कर बाक़ी तीन दीवारों के बारे में बहस की बात यह है कि ज़ुलक़रनैन की सद्द इन तीनों में से कौन-सी है और इस सिलसिले में जिस दरबन्द का ज़िक्र आता है वह कौन-सा है।
कुरआन और सद्द
ज़ुलक़रनैन के सद्द के बारे में कुरआन ने दो बातें साफ़-साफ़ बयान की हैं, एक यह कि वह सद्द दो पहाड़ों के दर्मियान तामीर की गई है और उसने पहाड़ों के उस दरें को बन्द कर दिया है जहां से होकर याजूज-माजूज इंस तरफ़ के बसने वालों को तंग करते थे।
तर्जुमा- यहां तक कि जब ज़ुलक़रनैन दो पहाड़ों के दर्मियान पहुंचा तो इन दोनों के इस तरफ़ ऐसी क़ौम को पाया जिनकी बात वह पूरी तरह नहीं समझता था, वे कहने लगे, ऐ ज़ुलक़रनैन! बेशक याजूज-माजूज उस सरज़मीन में फ्रसाद मचाते हैं। (18:94)
दूसरे यह कि वह चूने या ईट-गारे से नहीं बनाई गई है, बल्कि लोहे के टुकड़ों से तैयार की गई है, जिसमें तांबा पिघला हुआ शामिल किया गया था–
तर्जुमा- मैं तुम्हारे और उनके (यानी याजूज व माजूज) के दर्मियान एक मोटी दीवार क़ायम कर दूंगा। तुम मेरे पास लोहे के टुकड़े ला कर दो, यहां तक कि पहाड़ के दोनों फाटकों (चोटियों) के दर्मियान जब दीवार को बराबर कर दिया तो उसने कहा कि धौंको- यहां तक कि जब धौंक कर उसको आग कर दिया। कहा- लाओ मेरे पास पिघला हुआ तांबा कि उसपर डालूं। (18:95)
कुरआन की बताई हुई इन दोनों सिफ़तों को सामने रखकर अब हमको यह देखना चाहिए कि बिना किसी तावील के ऐसी कौन-सी सद्द हो सकती है और किस सद्द पर ये सिफ़ते ठीक बैठती हैं।
ज़ुलक़रनैन की सद्द (दीवार)
आज के देखने से भी यह बात साबित है कि दारियाल का यह दर्रा पहाड़ों की दो चोटियों के दर्मियान घिरा हुआ है और तारीखी हक़ीक़तें भी इसको मानती और वाज़ेह करती हैं साथ ही वासिक़ बिल्लाह के कमीशन ने अपना देखा हुआ यह बयान किया है कि यह लोहे और पिघले हुए तांबे से तैयार की गई है। बेशक यह मान लेना चाहिए कि यही दिवार ज़ुलक़रनैन की वह दिवार है, जिसका ज़िक कुरआन ने सूरःकहफ़ में किया है क्योंकि कुरआन की बताई हुई दोनों खूबियाँ सिर्फ इसी दीवार के लिए सही साबित होती हैं इसलिए वहब अबू हैय्यान, इब्ने ख़रदाद, अल्लामा अनवर शाह और मौलाना आज़ाद जैसे तहकीक़ करने वालों की यही राय है कि ज़ुलक़रनैन का सद्द क़फ़क्राज़ के इसी दर्रे की सद्द का नाम है।
इन वज़ाहतों के बाद अब हमको कहने दीजिए कि दारियाल दरें की यह सद्द (यानी चौथी सद्द) साइरस (गोरशया के ख़ुसरो) की तामीर की हुई है और जैसा कि हम याजूज व माजूज की बहस में बयान कर चुके हैं, यह उन वहशी क़बीलों के लिए उसने बनाई थी जो काकेशिया के इंतिहाई इलाक़ों से आकर और इस दर्रे से गुज़र क़र क़फक़ाल के पहाड़ों के इस तरफ़ बसने वालों पर लूट-मार मचात थे और यही के क़बीले थे जो साइरस के ज़माने में हमलावर हो रहे थे और उस वक़्त के याजूज-माजूज जैसे यही कबीले थे और इन्हीं की रोक-थाम की ज़रूरत से साइरस की कौम की शिकायत पर यह ‘सद्द’ तैयार की और अरमनी नविश्तों में इस सद्द का जो पुराना नाम ‘फाक को राई (कोर का दरी) लिखा चला आता है इस कोर से मुराद शायद केरश है जो साइरस ही का फारसी नाम है।
दूसरी सद्दे
ऊपर दर्ज की गई सद्द के करीब दरबन्द (बहे खज़र) की दीवार इसके बाद इसी गरज़ से किसी दूसरे बादशाह ने बनवाई है और अनुशेरवां ने अपने ज़माने में उसको दोबारा साफ़ और दुरुस्त कराया है, जैसा कि इंसाइक्लोपेडिया ऑफ़ इस्लाम में ज़िक्र किया गया है और इस तीनों दीवारों (सद्द) में से सिकन्दर की बनाई हुई कोई एक सद्द भी नहीं है, इसलिए कि सिकन्दर की जीतों की तारीख जो कि सामने है, उससे किसी तरह यह साबित नहीं होता कि सिकन्दर को इस गरज़ के लिए किसी सद्द क़ायम करने की ज़रूरत पेश आई हो।
क्योंकि उसकी हुकूमत के सारे दौर में याजूज व माजूज कबीलों का कोई हमला तारीख़ में मौजूद नहीं है और न दखन्द (हिसार) तक पहुंचने पर किसी कौम का इस किस्म के वहशी कबीलों से दो-चार होना और सिकन्दर से उसकी शिकायत करना तारीखी हक़ीक़तों में कहीं नज़र आता है।
याजूज व माजूज का खुरूज
ज़ुलक़रनैन, याजूज व माजूज और सद्द की बहस के बाद सबसे ज़्यादा अहम मस्अला याजूज व माजूज के उस खुरूज का है, जिसका ज़िक्र कुरआन ने किया है। इस मसअले की अहमियत इसलिए और भी बढ़ जाती है कि इस मसअले का ताल्लुक क़यामत की निशानियों से है। यह एक हकीक़त है कि याजूज व माजूज के खुरूज़ (निकलने) का मसअला कि जिसकी खबर कुरआन मजीद ने पेशीनगोई के तौर पर दी है ऐसा मसअला नहीं है कि जिसको सिर्फ गुमान और अन्दाज़े की बुनियाद पर हल कर लिया जाए और जबकि इस मस्अले का ताल्लुक कुरआनी गैबों की ख़बरों में से है तो फिर इससे मुताल्लिक फैसला करने का हक़ भी कुरआन ही को पहुंचता है, न कि अन्दाज़े और गुमान को।
कुरआन ने इस वाक़िए को सूरःकहफ़ और सूरःअंबिया में बयान किया है और इस मस्अले से मुताल्लिक जो कुछ भी है, उनका सिर्फ दो सूरतों में ज़िक्र किया गया है।
सूरः कहफ़ में इस वाकिए का इस तरह ज़िक्र है –
तर्जूमा : ‘पस नहीं ताकत रखते वे (याजूज व माजूज) इस सद्द पर चढ़ने की और न वे उसमें सूराख करने की ताकत रखते हैं। (ज़ुलक़रनैन) ने कहा, यह मेरे परवरदिगार की रहमत है, फिर जब मेरे रब का वायदा आएगा, तो उसको गिरा कर रेज़ा-रेज़ा कर देगा और मेरे परवरदिगार की फ़रमाई हुई बात. सच है।’ कहफ़ 97-98)
और सूरःअंबिया में इस वाक़िए को इस तरह बयान किया गया है –
तर्जुमा– ‘यहां तक कि जब खोल दिए जाएंगे याजूज और माजूज और ज़मीन की बुलन्दियों से दौड़ते हुए उतर आएंगे और अल्लाह का सच्चा वायदा करीब आ जाएगा तो उस वक्त अचानक ऐसा होगा कि जिन लोगों के कुल किया है, उनकी आंखें खुली रह जाएंगी और वे पुकार उठेंगे, हाय कमबख्ती हमारी कि हम बेखबर रहे। (अंबिया 96-97)
इन दोनों जगहों पर कुरआन ने एक तो. यह बताया है कि जिस ज़माने में ज़ुलक़रनैन ने याजूज माजूज पर सद्द कायम की तो उसकी मज़बूती की हालत यह थी कि ये कौमें न उसको फांद कर इस ओर आ सकती थीं और न उसमें सुराख़ पैदा करके उसको पार कर सकती थीं और सद्द की इस मज़बूती और पायदारी को देखकर ज़ुलक़रनैन ने अल्लाह का शुक्र अदा किया और यह कहा कि यह सब कुछ अल्लाह की रहमत का करिश्मा है कि उसने मुझसे यह नेक खिदमत करा दी।
और दूसरी बात यह बयान की है कि क़यामत का ज़माना करीब होगा तो याजूज व माजूज अनगिनत फ़ौज पर फ़ौज निकलकर दुनिया में फैल जाएंगे और लूटमार और तबाही व बर्बादी मचा देंगे।
इन दोनों बातों से आमतौर से तफ़्सीर लिखने वालों ने यह समझा है कि याजूज व माजूज ज़ुल्क़रनैन की सद्द में इस तरह घिर गए हैं कि यह सद्द क़यामत तक इसी तरह सही व सालिम खड़ी रहेगी और जब याजूज व माजूज के खुरूज का वक़्त आएगा और वह क़यामत के करीब और क़यामत की निशानियों में से होगा तो उस वक्त एकबारगी सद्द गिर कर रेज़ा-रेज़ा हो जाएगी और इसलिए उन्होंने दोनों जगहों में उसी के मुताबिक आयतों की तफसीर की है।
चुनांचे उन्होंने सूरः अबिया की इस आयत का ‘हता इज़ा फुतिहत याजूजु व माजूजु‘ का यह तर्जुमा करके, ‘यहां तक कि जब याजूज और माजूज सद्द तोड़कर खोल दिए जाएंगे’ इस इशदि इलाही को ज़ुल्क़रनैन के इस क़ौल कौल के साथ जोड़ दिया जिसका सूरः कफ़ में ज़िक्र है, ‘फ़ इज़ा जा-अ वादुरब्बी ज-अ-लहू दक्का’, (फिर मेरे रब का वायदा आएगा तो वह उसको रेज़ा-रज़ा कर देगा।’
मगर आयतों के आगे-पीछे और उनके मतलब पर गहरी नज़र डालने से यह तफ़सीर कुरआनी आयतों का हक अदा नहीं करती।
इस इज्माल की तफ़सील यह है कि कुरआन ने सूरः क़हफ़ में तो सिर्फ़ इसी का जिक्र किया है कि याजूज व माजूज पर जब ज़ुलक़रनैन ने सद्द तामीर कर दी तो उसकी मज़बूती का जिक्र करते हुए यह भी कह दिया कि जब मेरे अल्लाह का वायदा आ जाएगा तो यह सद्द रेज़ा-रेज़ा हो जाएगी और अल्लाह का वायदा बर-हक है और उसके खिलाफ़ होना मुश्किल बल्कि नामुम्किन मगर इस जगह याजूज व माजूज के निकलने का कोई जिक्र नहीं है जो क़यामत के करीब वाके होगा और होता भी कैसे क्योंकि यह तो ज़ुलक़रनैन का अपना क़ौल है जो सद्द के मज़बूत और मुस्तहक्म होने के सिलसिले में कहा गया है और याजूज और माजूज का निकलना ग़ैब की उन चीज़ों में से है जो क़यामत की निशानी के तौर पर अल्लाह तआला की ओर से बयान किया गया है और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़रिए से दुनिया की क़ौमों के लिए तंबीह है कि अल्लाह की यह ज़मीन अपने आख़िरी लम्हों में एक सख्त और हौलनाक आलमी हादसे से दो चार होने वाली है।
और सूरःअंबिया में सिर्फ यह ज़िक्र है कि क़यामत के करीब याजूज व माजूज का निकलना होगा और वे बहुत तेज़ी के साथ बुलन्दियों से पस्ती की तरफ़ फ़साद बरपा करने के लिए उमड पड़ेंगे और उस जगह सद्द का और सद्द के रेज़ा-रेज़ा होकर उससे याजूज व माजूज के निकलने का क़तई तौर पर कोई जिक्र नहीं है और लफ़्ज़ ‘फुतिहत‘ को ऐसा समझना सिर्फ कियासी व तहमीनी है जैसा कि बहुत जल्द वाज़ेह होगा।
पस सूरःक़हफ़ और सूरःअबिया दोनों में इस वाक़िए से मुताल्लिक आयतों का साफ़ और सादा मतलब यह है कि सूरः करूफ़ में तो पहले इस वाकिए की तफ्सीलें सुनाई गई हैं, जिनके बारे में यहूदियों ने नबी अकरम सल्ललाहु अलैहि व सल्लम से सीधे-सीधे या खुद या मुशिरकों के वास्ते से सवाल किया था कि ज़ुलक़रनैन की शाख्सियत से मुताल्लिक अगर कोई इल्म रखते हो तो उसको ज़ाहिर करो। कुरआन यानी वह्य इलाही ने उनको बताया कि ज़ुलक़रनैन नेक और सालेह बादशाह था। उसने जिक्र के क़ाबिल तीन मुहिमें सर की –
एक मशरिकी वुस्ता (मध्य पूर्व) की,
दूसरी मगिरबे अक्सा (दूर पश्चिम) की और
तीसरी उत्तर की ओर
और इस तीसरी मुहिम में उसको एक ऐसी क़ौम से वास्ता पड़ा जिसने याजूज-माजूज की मचाई तबाहियों का शिकवा करते हुए अपने और उनके दर्मियान ‘सद्द’ कायम करने की मांग की। ज़ुलक़रनैन ने उनकी मांग को इस तरह पूरा किया कि उस तरफ़ वे जिस दर्रे से निकल कर वे हमलावार हुआ करते थे उसको लोहे की तख़्तियों और पिघले हुए तांबे से बन्द कर दिया और दो पहाड़ों के दर्मियान दर्रे पर एक बेहतरीन ‘सद्द’ कायम कर दी और साथ ही अल्लाह का शुक्र बजा लाते हुए उसने यह भी ज़ाहिर किया कि यह ‘सद्द’ इतनी मुस्तहकम और मज़बूत है कि अब याजूज व माजूज न उसमें सूराख़ कर सकेंगे और न उस पर चढ़ कर इधर आ सकेंगे।
लेकिन मैं यह दावा नहीं करता कि यह सद्द हमेशा-हमेशा के लिए इसी तरह रहेगी, बल्कि अल्लाह को जब तक मंजूर है यह इसी तरह कायम है और वह चाहेगा कि यह रोक बाक़ी न रहे तो यह टूट-फूट जाएगी और अल्लाह का वायदा यानी हर चीज़ की तरह सद्द का भी फ़ना हो जाना पूरा हो कर रहेगा।
यहदियों ने चूंकि सिर्फ ज़ुलक़रनैन के बारे में सवाल किया था, इसलिए सुरह:क़हफ़ में उसी के बारे में तफ्सील से बताया गया और याजूज व माजूज का सिर्फ़ ज़िमनी ज़िक्र आ गया और सूरःअंबिया में अल्लाह तआलामुशरिक़ों का रद्द करते हुए फ़रमाते हैं कि जो बस्तियां हलाक कर दी गई अब उनके बाशिंदे दुनिया में ज़िंदा नहीं वापस आएंगे। हां, जब क़यामत आ जाएगी और वह जब आएगी कि उससे पहले याजूज-माजूज का फिला पेश आएगा’ तब अलबत्ता हश्र के मैदान में सब दोबारा ज़िंदा करके रबुल आलमीन के सामने जवाबदेह होने के लिए जमा किए जाएंगे।
फिर चूकि इस जगह याजूज-माजूज के ख़ारिज होने को क़यामत की निशानी बयान करके अहमियत दी गई है इसलिए उसके निकलने को सद्द के टूटने और रेज़ा-रेज़ा होने के साथ बांधा नहीं गया बल्कि सिरे से सद्द का ज़िक्र ही नहीं किया बल्कि यह कहा कि जब इनके निकलने का वक्त आ जाएगा तो तेज़ी के साथ बुलन्दियों से पस्ती की तरफ़ उमंड पड़ेंगे और तमाम इलाकों में फैल जाएंगे।
पस आयतों के इस मज्यूए से दो बातें मालूम हुई एक यह कि ‘ज़ुलक़रनैन’ की सद्द याजूज व माजूज के निकलने से पहले ज़रूर टूट-फूट चुकी होगी दूसरे यह कि याजूज व माजूज के खुरूज का वह वक्त होगा कि क़यामत का वक्त बिल्कुल क़रीब हो जाए और उसके बाद सूर के फूंके जाने ही का मरहला बाक़ी रह जाए। उस वक़्त याजूज व माजूज के तमाम क़बीले बेपनाह सैलाब की तरह उमंड पड़ेंगे और तमाम कायनात में बड़ा फ़साद बरपा करेंगे।
बहरहाल ज़ुलक़रनैन के क़ौल ‘इजा जा-अ वादु रब्बी ज-अ-लहू दक्का’ में ‘वाद‘ से मुराद याजूज व माजूज का निकलना नहीं है बल्कि मतलब यह है कि एक वक्त ऐसा ज़रूर आएगा कि बेशक सद्द तबाह हो जाएगी और वह टूट-फूट जाएगी और सूरःअबिया में अल्लाह तआल के इर्शाद ‘फुतिहत’ याजूजु व माजूज में फुतिहत से यह मुराद नहीं है कि वे सद्द तोड़ कर निकल आएंगे बल्कि मुराद यह है कि वे इस बड़ी तायदाद में फ़ौज दर फ़ौज निकल पड़ेंगे गोया कहीं बन्द थे और आज खोल दिए गए हैं।
चुनांचे अरब के लोग लफ़्ज़ ‘फ़तह’ को जब जानदार चीज़ों के लिए इस्तेमाल करते हैं तो उससे यह मुराद होती है कि ये किसी कोने में अलग-थलग पड़ी हुई थी और अब अचानक निकल पड़ीं इसलिए जब कोई शख़्स कहता है ‘फ़त्हुल ज़राद‘ तो इसका यह मतलब नहीं होता कि टिड्डियां किसी जगह बन्द थीं और अब उनको खोल दिया गया बल्कि यह मतलब लिया जाता है कि टिड्डी दल किसी पहाड़ी कोने में अलग-थलग पड़ा था कि अब अचानक फ़ौज दर फ़ौज बाहर निकल पड़ा। पस यहां भी यह बताया है कि याजूज व माजूज जैसे शानदार क़बीले जो अर्से से इतनी भारी तायदाद में हैं इतनी बड़ी दुनिया के एक कोने में अलग-थलग पड़े हुए थे उस दिन इस तरह उमडं आएगें गोया बन्द थे और अब अचानक खोल दिए गए।
नोट– (इस मरहले पर हज़रत मौलना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह० ने यांजूज व माजूज से मुताल्लिक नबी सल्ल० की हदीसों पर तफ्सील से बहस की है और हज़रत मौलाना अनवर शाह रह० की तफ़सीर की तरफ़ क्रौले फैसले के तौर पर रुजू किया है।)
हज़रत मौलाना अनवर शाह साहब कश्मीरी (रह०) की तफ़्सीर
हज़रत शाह साहब ने आयत ‘व त-रकना बानुहुम यौ-मइजिन यमूजु फ़ी वाज़’ की तफ़्सीर यह की है कि ज़ुलक़रनैन के इस वाक़िए में चूँकि याजूज व माजूज पर इस जानिब से रोक कायम हो जाने का तज़्किरा है इसलिए अल्लाह तआला ने ज़ुलक़रनैन के क्रौल के बाद अपनी तरफ से इस आयत में यह इर्शाद फरमाया है कि ऐ मुख़ातिब लोगो! तुम जिन याजूज व माजूज कबीलों के बारे में ये बातें सुन रहे हो यह भी सुन लो कि हमने उन कबीलों के लिए यह मुक़द्दर कर दिया है कि वे आपस में उलझते रहेंगे और मौज दर मौज आपस में दस्त व गरेवा होते रहेंगे यहां तक कि वह वक़्त आ जाए जव क़यामतबरपा होने में सूर फूंकने के अलावा और कोई मरहला बाक़ी न रहे और सुरह:अंबिया में यह इर्शाद फरमाया कि ‘सूर’ फुंकने से पहले क़यामत की शर्तों और निशानियों में से एक शर्त या निशानी यह पेश आएगी कि याजूज व माजूज के तमाम कबीले अपने निकलने के हर मक़ाम से एक साथ उमंड आएंगे और दुनिया की आम ग़ारतगिरी के लिए अपनी मक़ामी बुलन्दियों से तेजी के साथ उतरते हुए कायनात के कोने-कोने में फैल जाएंगे।
‘मिन कल्लि ह-दविय-यं सलून’ में हदब का मतलब है ऊपर से नीचे झुकना, इसलिए हदब के मानी ऊंची जगह से नीचे उतरने के होते हैं और ‘नस्लान’ अरबी भाषा में फिसलने को कहते हैं। इसलिए ‘यन्सलून’ के मानी यह हुए कि वे इस तेज़ी से उमंड आएंगे कि यह मालूम होगा, गोया वे किसी टीले से फिसल रहे हैं। चुनांचे हज़रत इमाम रागिब के ‘मुफ़रदात’ और इब्ने असीर के निहाया में ‘हदब’ और ‘नसलुन व नसलान’ की बहस में इसी तफ्सील का जिक्र है।
इसलिए इस तफ़्सीर से साफ़ हो जाता है कि कुरआन ने याजूज व माजूज के निकलने की जो हालत बताई है वह इन्हीं कबीलों पर फ़िट आती है जो कैस्पियन सागर से लेकर मंचूरिया तक फैले हुए हैं और जो दुनिया की बहुत बड़ी आबादी के महवर हैं और जगह के एतबार से आम सतह आबादी से जमीन के इस कदर बुलंद हिस्से पर मुक़ीम हैं कि जब कमी निकल कर मुहज्जब क़ौमों पर हमलावर होते हैं तो यह मालूम होता है कि गोया ऊपर से नीचे को फिसल रहे हैं पस आगे भी जब वक्त की शर्तों की शक्ल में उन का आख़िरी खुरूज होगा तो उनके तमाम कबीलों का सैलाब एक ही बार उमंड आएगा और ऐसा मालूम होगा कि इंसानों के समुन्दर का बांध टूट गया है और वह अपनी जगहों की हर बुलन्दी से नीचे की तरफ़ बह पड़ा है।
बुखारी और मुस्लिम की हदीसे
कुछ तफ़्सीर लिखने वालों ने सूरःअंबिया की आयतों से मुराद तातार का फ़ित्ना लिया है और उसकी ताईद में बुख़ारी की मशहूर हदीस ‘वैलुल लिल हर्ब मिनशर्रीन क़दिक़-त-र-ब‘ को पेश किया है उनकी यह तफसीर गलत है और हदीस से इसकी ताईद बिल्कुल बेमेल है बल्कि बुखारी व मुस्लिम की दूसरी सहीह हदीसें जो कि बाबुल फ़ितन में ज़िक्र की गई हैं, इस तफ्सीर के ख़िलाफ़ साफ़-साफ़ यह बयान करती है कि क़यामत की अलामतों (निशानियों में जब आख़िरी अलामतें सामने आएंगी तो पहले हज़रत ईसा (अलै.) का आसमान से नुज़ूल (उतरना) होगा और दज्जाल का सख़्त फ़ित्ना बरपा करना होगा और आख़िरकार हज़रत ईसा (अलै.) के हाथों वह मारा जाएगा और फिर कुछ दिनों के बाद याजूज व माजूज निकलेंगे जो तमाम दुनिया पर शर व फसाद की सूरत में छा जाएंगे और फिर कुछ दिनों के बाद सूर फूंका जाएगा और दुनिया का यह कारखाना दरहम बरहम हो जाएगा।
इस बुनियाद पर यह ख्याल भी बातिल है कि अंग्रेज़ और रूस, बल्कि यूरोपीय हुकूमतों का कब्ज़ा याजूज व माजूज का निकलना है और यह इसलिए कि एक तो अभी ज़िक्र हो चुका कि मुतमदिन क़ौमों को याजूज व माजूज कहना ही ग़लत है दूसरे इसलिए कि याजूज व माजूज के इस फ़ित्ने व फसाद के पेशे नज़र जिसका ज़ुलक़रनैन के वाक़िए में सूरःक़हफ़ में जिक्र किया गया है और सहीह हदीसों की वज़ाहों के मुताबिक उनका वह खुरूज भी जिसका ज़िक्र सूरःअंबिया किया गया है और जिसको क़यामत की निशानी में से ठहराया गया है ऐसे ही फ़साद व शर के साथ होगा जिसका ताल्लुक तहज़ीब व तमद्दुन से दूर का भी न हो और जो ख़ालिस वहशियाना तरीके पर बरपा किया जाए। कहां साइंस की ईजादों और हथियारों की जंग का तरीका और कहां गैर तहज़ीबी और वहशियाना लड़ाई और जंग?
और यह बात इसलिए भी वाजेह है कि मुतमद्दिन क़ौमों के लड़ाई-झगड़े कितने ही वहशियाना अन्दाज़ क्यों न अपनाएं बहरहाल सांइस और लड़ाई के उसूल के मुताबिक होते हैं और यह सिलसिला क़ौमों और उम्मतों में हमेशा से है इसलिए अगर इस किस्म के जाबिराना और काहिराना कब्जे के बारे में कुरआन को पेशीनगोई करनी थी तो इसकी ताबीर के लिए हरगिज़ यह तरीका न इख़्तियार किया जाता जो माजूज व याजूज के निकलने के सिलसिले में सूरःअंबिया में इख़्तियार किया गया है बल्कि इनकी तरक्कीनुमा बरबरता की ओर ज़रूरी इशारों या वज़ाहतों का होना लाज़िम था।
हासिल यह कि सहीह हदीसों और कुरआनी आयतों के मुताबिक़ होने के साथ-साथ जब इस मसले पर ग़ौर व फ़िक्र किया जाता है तो खुलकर यह बात सामने आती है कि इस निशानी से पहले हज़रत ईसा (अलै.) के आने इंतिज़ार किया जाए। पस याजूज-माजूज का निकलना किसी हाल में भी इनक़ौमों पर सही नहीं उतरता जो तहज़ीब व तमुद्दन की राहों से ज़ोर-ज़बरदस्ती की जंगों के ज़रिए से दुनिया पर ग़ाबिल और काबिज़ होती रही हैं।
क्या ज़ुलक़रनैन नबी थे?
ज़ुलक़रनैन नबी हैं या नेक बादशाह तर्जीही बात तो यह है कि ज़ुलक़रनैन नेकों में से हैं और नेक नफ्स बादशाह । वह नबी या रसूल नहीं हैं।
नतीजे
1. अल्लाह तआला किसी को हुकूमत व दौलत इसलिए नहीं देता कि वह उसको निजी ऐश में लगाए बल्कि इसलिए अता करता है कि उसके ज़रिए मख्लूक ख़ुदा की खिदमत करे।
2. इंसाफ़ और नाइंसाफ़ी की हुकूमत के दर्मियान हमेशा से यह नुमायां फर्क चला आता है कि अदल वाली हुकूमत का मस्बुलऐन रियाया और पब्लिक की ख्रिदमत होता है इसलिए आदिल बादशाह का शाही खज़ाना पब्लिक की भलाई खिदमत और उनकी खुशहाली के लिए होता है और वे अपनी ज़ात पर ज़रूरी जरूरतों से ज़्यादा उसमें से ख़र्च नहीं करता और न जनता को टैक्सों की ज़्यादती से परेशान हाल बनाता है इसके खिलाफ़ जब व ज़ुल्म की हुकूमत का मंशा बादशाह और हुकूमत का इख्तिदार, निजी ऐश और उसकी मज़बूती होती है इसलिए न वह पब्लिक के दुख-दर्द की परवाह करता है और न उसकी राहत और आराम का ख़्याल रखता है और इस सिलसिले में अगर कुछ हो भी जाता है तो वह हुकूमत के फ़ायदों और मस्लहतों को देखते हुए गैर-ज़रूरी हो जाता है। साथ ही इस हुकूमत में पब्लिक हमेशा टैक्सों के बोझ से दबी रहती है और मुल्क की अकसरीयत इपलास व गुर्बत की शिकार रहती है
नोट- (संग्रहकर्ता की ओर से) ज़ुलक़रनैन से मुताल्लिक़ हज़रत मौलाना हिफजुर्रहमान स्योहारवी रह० की रिसर्च 129 पृष्ठों पर छाई हुई है जो हज़रत मौलाना की कोशिश और खोज का नतीजा है। कोशिश की गई है कि इस लम्बी बहस को इस तरह छोटा किया जाए कि कोई अहम प्वाइंट रह न जाए फिर भी 40 पृष्ठों में उसको समेटा गया है। हो सकता है कि कुछ लोग इस तरह खुलासा करने में कुछ कमी महसूस करें तो उनसे गुजारिश है कि वे असल किताब से रुजू फ़रमाएं क्योंकि तौरात और तारीख के लम्बे हिस्से और उनकी रोशनी में अलग-अलग रायों पर बहस का खुलासा करना मुश्किल था इसलिए सिर्फ इन नतीजों को बुनियादी तौर पर पेश किया गया है जिन पर मौलाना इतनी तहक़ीक़ के बाद पहुंचे।
हज़रत मौलाना ने ‘बसाइर‘ में जो कुछ लिखा है उसके बड़े हिस्से का ताल्लुक ‘ज़ुलक़रनैन‘ के वाक़िए से सीधा नहीं है लेकिन वह अपनी जगह पर हद दर्जा अहम है यह हिस्सा असल में सोचने-समझने वालों के लिए ज़्यादा ज़रूरी है इसलिए उसको अलग पेश किया जाता है। (संग्रहकर्ता)
‘बसाइर’ के हिस्से
1. कुरआन के मतलब की समझ के लिए जिस तरह अरबी भाषा का मतलब बयान, ग्रामर, आसार हदीस और सहाबा के कौलों जैसे इल्मों का जानना ज़रूरी है उसी तरह तारीख के इल्म की मारफ़त भी ज़रूरी है, चुनांचे पिछली क़ौमों और उम्मतों के हालात व वाकियात का इल्म हासिल करके उनसे सबक लेने पर उभारने का काम ख़ुद कुरआन ने ज़ोरदार बयान के साथ किया है। इर्शाद है –
तर्जुमा- ‘कह दीजिए ज़मीन में घूमो-फिरो फिर देखो कि झुठलानेवालों का अंजाम क्या हुआ?’ (6:1)
तर्जुमा- ‘बेशक तुम से पहले खुदा की मुकर्रर की हुई राहें गुज़र चुकी हैं पस ज़मीन की सैर करो फिर देखो झुठलाने वालों का अंजाम क्या हुआ?’ (3:137)
2. जहां तक इस्लाम के बुनियादी मस्अलों का ताल्लुक है उनमें पुराने भले लोगों की राय ही बिना कुछ कहे-सुने राह की रोशनी है और उससे हटना टेढ़ और गुमराही है लेकिन जहां तक कुरआन के लतीफे, नुक्ते, मारफ़त और इल्म, असरार और इल्मी और तारीखी मतलबों का ताल्लुक्क है उसके लिए किसी ज़माने में भी तहक़ीक़ का दरवाज़ा बन्द नहीं है। चुनांचे नबी अकरम सल्ललाहु अलैहि व सल्लम का इर्शाद मुबारक है –
‘कुरआन के लताइफ़ व हकम (हिक्मत की गूढ़ बातें) कभी ख़त्म होने वाले नहीं हैं।’
ख़ासतौर पर जबकि तारीख़ का मतलब हासिल करने के लिए आज की मालूमात के ज़रिये तारीख़ के पुराने उलूम के ज़रिए (साधन) ज़्यादा फैल चुके हैं तो पुराने नेक लोगों के पुराने मसलक़ पर कायम रहते हुए कुरआनी हक़ीक़तों और उसकी तारीखी बहसों की तफ़्सील या ग़ैर तफ़्सील में पुराने लोगों की पाबन्दी न करते हुए कुरआन की ताईद के लिए तहक़ीक़ का कदम उठाना पुराने नेक लोगों की पैरवी है न कि उनके मस्लक से हटना।
क्या कोई अहले इल्म (विद्वान) और सूझ-बूझ रखनेवाला इस हक़ीक़त का इंकार कर सकता है कि इन तफ़्सीरी मतलबों के अलावा जिनके बारे में दलीलों से यह साबित हो चुका है कि ये नबी सल्ल० के इर्शाद हैं, सहाबा रजि० के ज़ाती क़ौलो के खिलाफ़ या उनसे अलग ताबिईन और तबञ् ताबिईन के कौल ज़्यादा से ज्यादा तफ़्सीर की किताबों में दर्ज हैं और बाद के तफ़्सीर के उलेमा पहलों के क़ौलों पर जिरह करते और उनकी रायों से इखिलाफ़ करते नजर आते हैं और इनमें से हर आदमी की तहक़ीक़ कुरआन के मतलब की खिदमत ही समझी जाती है।
अलबत्ता अहिलयत शर्त है और जो आदमी भी इस खिदमत के लिए कदम उठाए उसका फ़र्ज है कि ‘फ़ीमा बैनी व बैनल्लाह’ पर गौर व फ़िक्र करे कि वह जिस मस्अले में कोई राय इख़्तियार करता है हक़ीक़त में वह उसके तमाम आगे-पीछे की बातों को जानता है या नहीं और यह कि उसकी इस तहक़ीक़ से कुरआन की और ज़्यादा ताईद ही होती है और पुराने बुजुर्गों के बुनियादी पुराने मस्लक़ से क़तई तौर पर आगे बढ़ जाना लाज़िम नहीं आता।
To be continued …