बैतुल मुक़द्दस और यहूद

बैतुल मुक़द्दस और यहूद

(604 क़ब्ल मसीह से 561 क़ब्ल मसीह तक और 70 ई. से 18 हि. यानी 639 ई. तक) 

      तम्हीद- पिछले पन्नों में यह बात साफ़ की जा चुकी है कि कुरआन पिछली क़ौमों के तारीख़ी वाक़ियों यानी उनके रुश्द व हिदयत के क़बूल व इंकार और नेक व बद नतीजों के हालात सामने लाने और सबक़ और नसीहत हासिल करने की जगह-जगह तर्ग़ीब देता और ख़ुद भी इसीलिए पिछली क़ौमों के इन वाकियों को ज़्यादा से ज़्यादा बयान करता है।

      पिछली क़ौमों के इन हालात व वाक़ियात में से जो बदकिरदार और नेक किरदार इंसानों के दर्मियान फ़र्क पैदा करते और क़ौमों की इंफ़िरादी और इज्तिमाई इस्लाह व इन्क़िलाब के सबक़ व नसीहत का सरमाया साबित होते हैं, एक अहम वाक़िया वह भी है जो यहूदी इसराईल की लगातार शरारतों और फ़सादों के कामों की वजह से दो बार मुक़द्दस हैकल और यरूशलमं व बैतुल मक़्दिस की तबाही व बर्बादी और ख़ुद उनकी ग़ुलामी और रुसवाई की शक्ल में ज़ाहिर हुआ और जिसने उनकी क़ौमी ज़िल्लत और इन्तिमाई हलाकत पर हमेशा के लिए मुहर लगा दी।

बैतुल मक़्दिस

      बैतुल मक़्दिस की तामीर का वाक़िया हज़रत सुलैमान (अलै.) के वाक़ियों के ज़िम्न में तफ़्सील के साथ बयान हो चुका है। यह पाक जगह अपने हैकल (मस्जिद) की वजह से बनी इसराईल का क़िब्ला रही है और यह मुकद्दस मकाम बनी इसराईल के बेशुमार नबियों के दफ़न होने की जगह है और इसकी अज़मत न सिर्फ यहूदियों और ईसाइयों ही की निगाह में है, बल्कि इसको मुसलमान भी मुक़द्दस जगह मानते और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मेराज के वाक़िए ने इसके तक़द्दुस को और भी चार चांद लगा दिए हैं। जब भी कोई मुसलमान सूरः इसरा की तिलावत करता है, उसके दिल में इस जगह का तक़द्दुस व जलाल असर किए बग़ैर नहीं रहता।

      तर्जुमा- ‘पाकी है उस ज़ात के लिए जिसने अपने बन्दे (मुहम्मद ﷺ) को रातों रात मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा तक सैर कराई, वह मस्जिदे अक़्सा जिसके हर तरफ़ हमने बड़ी बरकत दी है और इसलिए सैर कराई कि अपनी निशानियां दिखाएं। बेशक वही ज़ात है जो सुनने वाली, देखने वाली है।’ (17:1) 

बनी इसराईल को तंबीह (चेतावनी)

      कुरआन कहता है कि हमने किताब (सुहुफे अंबिया अलैहिमुस्सलाम) में पहले से बनी इसराईल को आगाह कर दिया था कि तुम दो बार सख़्त फ़ित्ना व फ़साद और सरकशी व बग़ावत करोगे और उनके इस मुक़द्दस जगह पर फ़ित्ने पैदा करोगे और उसके बदले में दोनों बार तुमको ज़िल्लत व हलाकत का मुंह देखना पड़ेगा और जिस सरज़मीन को तुम बहुत ज़्यादा महबूब रखते हो. वह भी दो बार ज़ालिमों के हाथों तबाह व बर्बाद होगी।

      इसके बाद हम फिर एक बार तुम पर रहम करेंगे और सआदत व फ़लाह की तरफ़ दावत देंगे, पस अगर तुमने पिछले वाक़ियों से इबरत व मौअज़त हासिल करके हक़ की उस दावत को लब्बैक कहा और उसको ख़ुशदिली से कुबूल किया, तो दुनिया की कोई ताक़त तुम्हारी इस सआदत को नहीं छीन सकती और अगर तुम्हारी तारीख़ी टेढ़ और सरकशी और हक़ के साथ बग़ावत और मुखालफ़त ने तुम्हारा साथ न छोड़ा और गुज़रे हुए वाक़ियों की तरह इस बार भी तुमने फ़सादगुमराही को अपनाया, तो हमारी ओर से भी अमल के बदले का क़ानून उसी तरह फिर दोहराया जाएगा और इसके बाद तुम पर हमेशा के लिए ज़िल्लत व रुसवाई की मुहर लगा दी जाएगी और यह सब कुछ तो दुनिया का मामला है और ऐसे सरकशों के लिए आख़िरत में बहुत बुरा ठिकाना जहन्नम ही है।

      तर्जुमा – और हमने किताब (सुहफ़े अंबिया) में बनी इसराईल को इस फैसले की ख़बर दे दी थी कि तुम ज़रूर मुल्क में शर व फ़साद फैलाओगे और बहुत ही सख़्त दर्जे की सरकशी करोगे, फिर जब दो वक़्तों में से पहला वक्त आ गया, तो ऐ बनी इसराईल! हमने तुम पर अपने ऐसे बन्दे भेज दिए जो बड़े ही ख़ौफ़नाक थे, पस वे तुम्हारी आबादियों के अन्दर फैल गए और अल्लाह का वायदा तो इसीलिए था कि पूरा होकर रहे, फिर (देखो) हमने ज़माने की गर्दिश तुम्हारे दुश्मनों के ख़िलाफ़ और तुम्हारे मुवाफ़िक़ कर दी और माल व दौलत और औलाद के ज़्यादा होने से तुम्हारी मदद की और तुम्हें फिर ऐसा बना दिया कि बड़े जत्थे .वाले हो गए। अगर तुमने भलाई के काम किए तो अपने ही लिए किए और अगर बुराइयां की तो भी अपने ही लिए की। फिर जब दूसरे वायदे का वक़्त आ गया (तो हमने अपने दूसरे) बन्दों को भेज दिया था कि तुम्हारे चेहरों पर रोशनाई की कालिख फेर दें और उसी तरह (हैकल) मस्जिद में दाख़िल हो जाए, जिस तरह पहली बार हमलावर पर घुसे थे और जो कुछ पाएं, तोड़-फोड़ कर बर्बाद कर डालें। कुछ अजब नहीं तुम्हारा परवरदिगार तुम पर रहम फ़रमाए, (अगर अब भी बाज़ आ जाओ) लेकिन अगर तुम फिर सरकशी-फ़साद की तरफ़ लौट आओगे तो हमारी तरफ़ से अमल का बदला लौट आएगा और हमने हक़ के इंकारियों के लिए जहन्नम का क़ैदखाना तैयार कर रखा है।’ (17-814)

      यहां ‘अल-किताब‘ से मुराद बनी इसराईल के नबियों के वे सहीफ़े हैं जिनमें यहूदियों के दो बार सख़्त  फ़साद और सरकशी करने और उसकी बदौलत बैतुल मक़्दिस की बर्बादी और उनके हलाक़ और ग़ुलाम बनकर ज़लील व रुसवा होने के बारे में वे पेशेनगोइयां की गई थीं, जो इलहाम व वह्य के ज़रिए उनको अल्लाह की जानिब से मालूम हुई थीं। चुनांचे मौजूदा तौरात में यसइयाहु हिज़क़ील, यरमियाह और ज़करीया के सहीफ़ों में उनका अब भी ज़िक्र किया गया है और इन सहीफ़ों के बड़े हिस्से में इस क़िस्म की पेशीनगोइयां पाई जाती हैं और इन तीनों सहीफ़ों में दो बार के इन फ़सादों और फ़सादों से मुताल्लिक़ अल्लाह तआला की तरफ़ से सख़्त सज़ा का जिस तफ़सील के साथ जिक्र है उसके एक-एक हर्फ़ से कुरआन के इर्शाद की तस्दीक होती है। इसलिए अब सवाल यह पैदा होता है कि ये पेशीनगोइयां किस-किस ज़माने में और किस तरह ज़ाहिर हुईं, इस बारे में तफ़्सीर लिखने वालों की राएं अलग-अलग हैं।

      एक राय यह है कि यहूद की पहली शरारत और उसके बदले का मामला बख़्त नस्र (Nebuchadnezzar) के बैतुलमक़्दिस के हमले से ताल्लुक़ रखता है और दूसरी बार का मामला तितूस (Titus) रूमी के हमले से मुताल्लिक़ है और यही राय सही और कुरआन की आयतों और तारीख़ी नक़लों के मुताबिक़ है यह इसलिए कि कुरआन ने इस मामले से मुताल्लिक़ जो कुछ कहा है उससे नीचे लिखी जा रही बातें ख़ास तौर से ज़ाहिर होती हैं

      1. ‘अल-किताब’ में यह ख़बर दे दी गई थी कि यहूदी दो बार सख़्त तौर पर शरं फैलाएंगे और फ़साद करेंगे।

      2. जब उन्होंने पहली बार शर्र व फ़साद किया तो हमने उन पर ऐसी ज़बरदस्त ताक़त मुसल्लत कर दी कि उसने उसके घरों में घुसकर उनको और उनके घरों को तबाह व बर्बाद कर डाला।

      3. इस तबाही के बाद (उनकी तौबा और गिड़गिड़ाहट पर) हमने उनको पहले की तरह फिर हुकूमत और ताक़त बख़्शी और माल व मताअ की बहुतात से भी फ़ैज़ पहुंचाया।

      4. और उनको यह भी बता दिया कि सरकशी और फ़साद से परहेज़ और अम्न व आश्ती और अल्लाह तआला की फ़रमाबरदारी कुबूल करने पर हमको कोई फ़ायदा या नुक्सान नहीं पहुंचता, बल्कि उसकी खिलाफ़वर्जी में तुम्हारा अपना ही नुक्सान और उसकी इताअत से तुम ही को फायदा पहुंचता है।

      5. मगर उन्होंने दूसरी बार फिर बद अहदी की, तो हमने पहले की तरह उन पर एक ज़ालिम ताक़त को मुसल्लत कर दिया, जिसने पिछले ज़ालिम हुक्मरां की तरह दोबारा बैतुलमक़्दिस और उसके हैकल (मस्जिद) को भी बर्बाद कर दिया और उनको भी ज़लील व रुसवा करके उनकी सरकशी का सर कुचल दिया।

      और अगरचे यहूदियों की यह तबाही देखने में भले ही अबदी (सदा सर्वदा) की हो, लेकिन अल्लाह तआला की यह रहमत तीसरी बार और मौक़ा देगी कि वे इज्ज़त और सरबुलन्दी हासिल करें, लेकिन अगर उन्होंने उसको भी ठुकरा दिया तो बेशक फिर उसका कानून ‘अमल का बदला’ भी ज़रूर उनको सज़ा देगा और फिर यक़ीनन रहती दुनिया तक ज़लील व ख़्वार रहेंगे और आख़िरत के घर में तो जहन्नम ऐसे ही तकब्बुर (घमंड) करने वालों के लिए तैयार की गई है।

      इन तफ़्सीलों से यह ज़ाहिर होता है कि यहूद की शरारतों पर सज़ा और अज़ाब कि शक्ल जिन जाबिर व क़ाहिर बादशाहों पर मुसल्लत की गई, उन्होंने दोनों बार बैतुलमक़्दिस (Jerusalem) को ज़रूर तबाह व बर्बाद किया और तौरात (नबियों के सहीफ़ों) और सीरत और तारीख़ की नलों के एक राय होने पर यह साबित होता है कि फ़लस्तीन और यहूदाह की सरज़मीन की तबाही और हैकल की बर्बादी सिर्फ दो बादशाहों के हाथों हुई है और न सिर्फ शहरों की बर्बादी बल्कि यहूदी क़ौमियत की वह तबाही और बर्बादी, जो दुनिया के इंकिलाबों की तारीख़ में अहम जगह रखती है।

      एक बाबिल क़ाहिर बादशाह बनू कद नज़्र (बख़्त नस्र) के हाथ से यह लगभग 104 क़ब्ल मसीह का वाक़िया है और दूसरी तैतूस रोमी के हाथों से और यह वाक़िया मसीह (अलै.) के उठाए जाने से लगभग सत्तर साल बाद पेश आया और हर इन ही दो वाक़ियों में यहूद और यहूदी क़ौमियत और यहूदी मज़हब पर वह काम हो गुज़रा जिसकी इत्तिला पहले तौरेत (नबियों के सहीफ़ों) में दे दी गई थी और जिसकी तस्दीक़ के लिए कुरआन भी गवाही दे रहा है।

      इसलिए रद्द किए जाने के खौफ़ के बग़ैर यह कहना सही है कि यहूद की बद-किरदारियों के नतीजे में जाबिर व क़ाहिर बादशाहों के हाथों उनकी तबाही व बर्बादी के जो दो सानहे पेश आए और जिनका ज़िक्र सूरः इसरा (बनी इसराईल) में है, वह बेशक बख़्त नस्र और तैतूस (Tatus) ही से ताल्लुक़ रखते हैं तो अब बिल्कुल ज़रूरी है कि इन हर दो वाक़ियों की तफ़्सील बयान करके यह दिखाया जाए कि उस ज़माने में यहूद की शरारतें और फ़साद भरी कारगुज़ारियां इस हद तक बढ़ गई थीं कि उन दोनों तबाह कर देने वाले हादसों में उन पर जो कुछ गुज़रा, वह उनकी बदआमालियों ही का नतीजा था और अमल के नतीजे ही ने इन दो ताक़तों की शक्लों में अपने को ज़ाहिर किया था।

यहूद की शरारत का पहला दौर

      अल्लाह तआला के बनाए हुए कुदरती क़ानून का हमेशा से यह अटल फ़ैसला रहा है कि जब बद-अख़्लाक़ी, फ़ित्ना व फ़साद, ख़ूंरेज़ी, जब्र व ज़ुल्म और हक़ के मुकाबले में बुग़्ज़ व हसद किसी जमाअत का क़ौमी मिजाज़ बन जाते हैं और कुछ लोगों में नहीं, बल्कि पूरी क़ौम के अन्दर ये बातें जड़ पकड़ लेती है तो फिर हक़ कुबूल करने की सही सलाहियत उनसे छीन ली जाती है और वे इस दर्जा बेख़ौफ़ और बेबाक हो जाते हैं कि अगर उनके पास अल्लाह के सच्चे पैग़म्बर हक़ की दावत देने और अल्लाह का पैग़ाम सुनाने आते हैं तो वे सिर्फ उस दावत से मुंह ही नहीं मोड़ लेते हैं बल्कि उन रसूलों और नबियों को क़त्ल तक कर देने से नहीं झिझकते और शिर्क व तुग़यान को राहे अमल बनाकर रहमान के औलिया की जगह शैतान के औलिया बन जाते हैं।

      जब उनकी हालत इस दर्जे तक पहुंच जाती है तो अब अल्लाह का क़ानून ‘अमल का बदला‘ सामने आ जाता है और आख़िरत के दर्दनाक अज़ाब के अलावा दुनिया ही में उनको ऐसी हलाकत व बर्बादी से दोचार कर देता है कि उस क़ौम का तमाम किब्र व ग़ुरूर, शर व फ़साद के शोलों में ज़िल्लत व ख़्वारी के साथ ख़ाक कर दी जाती हैं और उनकी क़ौमी ज़िंदगी को ज़िल्लत के गढ़े में झोंक दिया जाता है, ताकि उनकी आंखें देख लें और सबक़ लेने वाले दिल भी यह समझ लें कि हक़ीक़ी इज़्ज़त व सरबुलन्दी के मालिक तुम नहीं हो और ज़िल्लत व इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में नहीं है।

      बल्कि उस क़ादिरे मुतलक़ हस्ती के क़ब्ज़े में है जो पूरी कायनात का पैदा करने वाला और मालिक है और जिसका यह एलान है कि बदकारों के लिए अंजामेकार ज़िल्लत व रुसवाई के सिवा और कुछ नहीं है और हक़ीकी इज़्ज़त नेक लोगों के लिए ही है और वही इस हकीक़त को सामने रखकर जिसको चाहता है इज़्ज़त बख़्शता है और जिसको चाहता है ज़िल्लत देता है।

      पस जब हम फ़ितरत के इस क़ानून को नज़रों में रखकर बनी इसराईल के यहूदियों के उस अह्द की तारीख पढ़ते हैं जो ऊपर दर्ज किए गए वाक़ियों से मुताल्लिक़ हैं तो यह बात चमकते दिन की तरह साफ़ नज़र आती है कि उनकी क़ौमी ज़िंदगी का क़िवाम ऊपर लिखी बद-अख़्लाक़ियों से ही बना था और उन्हें अपनी इस ज़िंदगी पर घमंड भी था, चुनांचे हज़रत दाऊद (अलै.) व हज़रत सुलैमान (अलै.) के बाद उनकी मज़हबी और अख़्लाक़ी पस्ती का यह हाल था कि झूठ, फ़रेब, ज़ुल्म व सरकशी और फ़साद व फ़ित्ना उनका तरीका बन गया था, यहां तक कि शिर्क व बुतपरस्ती तक उनमें रच गई थी, लेकिन इसके बावजूद एक लम्बी मुद्दत तक अल्लाह के ‘मोहलत के क़ानून‘ ने उनको मोहलत दी कि वे अपनी हालत की इस्लाह करें और उसकी सिफ़त ‘रहमत‘ ने उनसे मुंह नहीं मोड़ा।

      बल्कि उनकी रुश्द व हिदायत और इस्लाहे अख़्लाक व आमाल के लिए नबियों और पैग़म्बरों का सिलसिला कायम रखा, जो बराबर उनको नेक कामों पर उभारते और बदकारी से बचने को कहते रहते थे, ताकि उनको दीन व दुनिया की सरबुलन्दी हासिल हो और वे नबियों और रसूलों की औलाद होने की हैसियत से दूसरों के लिए बेहतरीन नमूना बन सकें, मगर यहूदियों पर उनके इर्शाद व तब्लीग़ का क़तई कोई असर न हुआ और उनकी सरकशी और नाफ़रमानी बढ़ती गई और उनके उलेमा व अहवार ने सोने-चांदी के लिए अल्लाह तआला के हुक्मों में घट-बढ़ शुरू कर दी और हलाल को हराम और हराम को हलाल बनाने में निडर हो गए और आम लोगों ने किताबे इलाही को पीठ पीछे डालकर गुमराही को अपना इमाम बना लिया।

      और बेबाकी के साथ हर क़िस्म को बदअख़्लाक़ी को अपना लिया और आख़िरकार उसके ख़ास व आम इस इंतिहाई शकावत व बदबख़्ती पर उतर आए कि अल्लाह के मासूम पैग़म्बरों को क़त्ल करना शुरू कर दिया और उनको झुठला करके उनके ख़ून नाहक़ पर फ़ख़्र व मुबाहात करने लगे।

बख़्त नस्र 

      सातवीं सदी क़ब्ल मसीह के आख़िरी दौर में बाबिल (इराक़) की हुकूमत के तख़्त पर एक ज़बरदस्त बहादुर और ज़ालिम व जाबिर बादशाह बैठा। उसका नाम बनू कद नज़्र या बनू कदज़ार (Nebuchadnezzar) था। अरब उसको बख़्ते नस्र कहते थे। बनू कद नज़्र अगरचे एक शानदार बादशाह था, पर उसकी नज़रें शाम व फलस्तीन पर पड़ने लगी। चुनांचे वह उस इलाक़े की ओर बढ़ा। नतीजा यह निकला कि वह फ़लस्तीन व शाम के शहरों और आबादियों को तबाह करता हुआ यरूशलम के दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ।

      बादशाह, सरदारों और अमीरों (बड़ों) को कैद कर लिया। शहर की ईंट से ईंट बजा दी, हैकल की तमाम चीज़ो को लूट लिया गया। तौरात के तमाम नुस्खों (प्रतियों) को जलाकर ख़ाक कर दिया गया और रिवायत में इख़्तिलाफ़ के साथ एक लाख से ज़्यादा यहूदियों को भेड़-बकरियों की तरह हंकाता हुआ पैदल बाबिल ले गया और सबको लौंडी-ग़ुलाम बना लिया। उसने दमिश्क में भी अनगिनत यहूदियों को जान से मार दिया, यहां तक कि ख़ुद यहूदियों की ज़ुबान पर यह था कि नबियों के नाहक़ खून की सज़ा है, जो हमको बाबुल के बादशाह की खुली तलवार के ज़रिए दी जा रही है।

ग़ुलामी से निजात

      बाबिल की ग़ुलामी के उस ज़माने में यहूदियों के लिए उम्मीद की एक झलक यसइियाह और यर्मियाह (अलैहिमुस्सलाम) की उन पेशेनगोइयों में देखी जा सकती है जिनकी सच्चाई का वे तजुर्बा कर चुके थे और जिनमें यह ख़बर भी दी गई थी कि यहूदी बाबिल में सत्तर वर्ष ग़ुलाम रहेंगे और यह मुद्दत गुज़रनेके बाद फ़ारस से एक बादशाह ज़ाहिर होगा, जो अल्लाह का मसीह और उसका चरवाहा कहलाएगा और वह यहूदियों और यरूशलम का निजात दिलाने वाला होगा और उसका नाम ख़ोरस होगा।

      यह पेशेनगोई हज़रत यसइयाह (अलै.) (lsiah) के वाक़िए से लगभम एक सौ साठ वर्ष और हज़रत यर्मियाह (अलै.) (Jeremia) ने साठ साल पहले यहूदाह को उनकी तबाही व बर्बादी की पेशेनगोई के साथ-साथ सुना दी थी, यहां तक कि बाबिल के क़ियाम के दौरान में पेशेनगोई ज़ाहिर होने से थोड़ा पहले दानियाल (Daniel) ने अपने ख़्वाब में फ़ारस के उस बादशाह को एक ऐसे मेंढ़े की शक्ल में देखा था जिसके दो सींग हैं और जिब्रील ने उससे यह नतीजा बताया है कि इससे मुराद यह है कि वह बादशाह मादा (मीडिया) और फ़ारस दो बादशाहियों को मिला कर बादशाही करेगा।

      और इसी ख्वाब में उन्होंने यह भी देखा कि एक और बकरा है जिसके माथे पर सिर्फ एक सींग है और उसने दो सींग वाले मेंढे को मग़्लूब कर दिया और फिर जिब्रील ने उसकी ताबीर यह दी कि यह एक ऐसा ज़बरदस्त बादशाह होगा जो ईरान की उस शहनशाही का ख़ात्मा करके उस पर काबिज़ हो जाएगा (यानी सिकन्दर यूनानी Alexander)।

तौरात के बयान और तारीख़

      तारीख़ से पता चलता है कि 559 कब्ल मसीह (ईसा पूर्व) में अचानक मीडिया के रईस कम्बूचा के जानशीं अरश (ख़ोरस) गैरमामूली हालात के तहत ज़ाहिर हुआ और कुछ ही दिनों में मीडिया (ईरान का उत्तरी-पश्चिमी हिस्सा) और फ़ारस (ईरान का दक्खिनी हिस्सा) की रियासतों ने अपनी खुशी से उसको अपना अकेला शहंशाह मान लिया और वह एक ज़बरदस्त और ख़ुद मुख़्तार बादशाह हो गया (फ़ारस वाले उसको अरश और गोरख कहते हैं लेकिन यह यूनानी में साइरस और इब्रानी में ख़ोरस और अरबी में ख़ुसरो के नामों से मशहूर है) यह वह वक़्त था कि बाबिल की सल्तनत बनू कद नज़्र (बख़्त नस्र) के एक जानशीं बेल शाज़ार (Belteshazzar) के हाथ में थी।

      यह बादशाह अगरचे बख़्त नस्र की तरह बहादुर और वीर नहीं था, मगर ज़ुल्म और अय्याशी में उससे भी आगे था, यहां तक कि ख़ुद उसकी अपनी प्रजा (रियाया) उसके बुरे कामों से परेशान और उसके ज़ुल्म से आजिज़ और हर वक़्त इन्क़िलाब चाहने वाली रहती थी, चुनांचे बाबिल की रियाया ने कुछ अफ़सरों को इस बात पर तैयार किया कि वे ख़ोरस के पास जाएं और उसको दावत दें कि आप हमको बेलशाज़ार के ज़ुल्मों से निजात दिला कर अपनी रियाया बना लीजिए।

      खोरस के पास यह वफ़्द उस वक़्त पहुंचा जबकि वह पूरब की मुहिम सर करने में लगा हुआ था। उसने वफ़द की दरख्वास्त को सुना और कुबूल किया और पूर्वी मुहिम से फ़ारिग़ होकर बाबिल पहुंचा और उसकी मज़बूत और न तसगीर होने वाली दोहरी शहर पनाह को गिराकर बाबिल की हुकूमत का ख़ात्मा कर दिया और तमाम रियाया को अमन देकर उनको बेलशाज़ार के ज़ुल्म से नजात दिलाई जिसका, बाबिल की रियाया ने बेहद शुक्रिया अदा किया और खुशी से उसकी इताअत कुबूल कर ली।

      जब खोरस बाबिल के शहर में फतह करने वाले की शक्ल में दाखिल हुआ तो दानियाल ने उसको तौरात (नबियों के सहीफे) की वे पेशीनगोइयां दिखाई जो हज़रत यसईयाह (अलै.) और हज़रत यर्मियाह(अलै.)ने यहूदियों को गुलामी से निजात दिलाने वाली हस्ती के बारे में की थीं। ख़ोरस उनको देखकर बेहद मुतास्सिर हुआ और उसने ऐलान कर दिया कि तमाम यहूदी आज़ाद हैं कि वे शाम व फ़लस्तीन मुल्क को वापस चले जाएं और वहां जाकर अल्लाह के मुक़द्दस घर यरूशलम (बैतुलमक़्दिस) और उसके हैकल (मस्जिद) को दोबारा तामीर करें और इस सिलसिले के तमाम ख़र्चे सरकारी खजाने से अदा किए जाएं। यह भी एलान किया कि यही दींन ‘दीने हक़’ है और यरूशलम का ख़ुदा ही सच्चा खुदा है।

अज़रा की किताब‘ में है कि अगरचे ख़ोरस की बदौलत यहूदियों को दोबारा आज़ादी और खुशहाली नसीब हुई और हैकल की तामीर भी शाही ख़ज़ाने से शुरू हो गई, मगर अभी काम पूरा नहीं हुआ था कि ख़ोरस का इन्तिक़ाल हो गया और उसका बेटा केक़बाद (कम्बूचा) भी जल्द मर गया, तब आठ साल के अन्दर ही दारा जो ख़ोरस का चचेरा भाई था, उसका जानशीं हुआ और जल्द ही इस तामीर को मुकम्मल करा दिया। 

      बनी इसराईल यहूदियों को अब फिर एक बार अम्न व इत्मीनान नसीब हआ, उन्होंने अपनी हुकूमत को दोबारा जमाया और चूंकि शाहे बाबिल ने तौरेत के तमाम नुस्ख़ों को जलाकर ख़ाक कर दिया था, इसलिए उनके बार-बार कहने पर हज़रत उज़ैर (अलै.) (अज़रा) ने अपनी याददाश्त से नए सिरे से उसको लिखवाया।

      क्या यह बात हैरान कर देने वाली नहीं हो सकती कि इतनी सख़्त ठोकर खाने और ज़िल्लत व रुसवाई की इस सबक़ भरी सज़ा बरदाश्त करने के बावजूद, जिनकी तफ़सील अभी लिखी जा चुकी है, उनकी आंख खोलने और कानों को हरकत देने में कामयाबी न हुई और उनकी हालत इस आयत के मुताबिक़ साबित हुई कि ‘उनके दिल थे, लेकिन वे समझते न थे, आंखें थीं, लेकिन देखते न थे, कान थे, लेकिन सुनते न थे।‘ यानी धीरे-धीरे उन्होंने फिर जुल्म व फ़साद और बग़ावत व सरकशी पर कमर बांध ली और पिछली बद-आमालियों और बदकिरदारियों को ज़ाहिर करना शुरू कर दिया।

हज़रत याहया (अलै.) का क़त्ल 

      इस होश उड़ा देने वाले हादसे की तफ़्सील यह है कि बनी इसराईल के नबियों में से यह दौर हज़रत याहया (अलै.) की तब्लीग़ व दावत का दौर था और यहूदिया के इलाक़े में हज़रत याहया (अलै.) के वाजों का यह असर हो रहा या कि बनी इसराईल के दिल मुसख़्ख़र होते जाते थे और वे जिस तरफ़ भी निकल जाते थे, बहुत सारे लोग उन पर परवानों की तरह फ़िदा होने लगते थे। इधर तो यह हालत थी और दूसरी तरफ़ यहूदिया का बादशाह हीरोदेस (Herodias) निहायत ही बदकार और ज़ालिम था। वह हज़रत याहया (अलै.) की मक़बूलियत देख-देखकर कांप-कांप जाता था, डरने लगता था कि कहीं यहूदिया की बादशाही मेरे हाथ से निकल न जाए और हिदायत के रास्ते पर लगाने वाले इस शख़्स के पास न चली जाए ?

      बदकिस्मती कि हीरोदेस के सौतेले भाई का इंतिक़ाल हो गया। उसकी बीवी बहुत खुबसूरत थी और हीरोदेस की भाभी होने के अलावा उसकी रिश्ते की भतीजी भी थी। हीरोदेस उस पर आशिक़ हो गया और उससे निकाह कर लिया, चूंकि यह निकाह इसराईली मिल्लत के ख़िलाफ़ था, इसलिए हज़रत याहया (अलै.) ने भरे दरबार में उसकी इस हरकत पर मलामत की और अल्लाह के ख़ौफ़ से डराया।

      हीरोदेस की महबूबा ने यह सुना तो ग़म व गुस्से से बेताब हो गई और हीरोदेस को तैयार किया कि वह हज़रत याहया (अलै.) को क़त्ल कर दे। हीरोदेस अगरचे इस नसीहत से खुद भी खफ़ा था, मगर इस इरादे में उसे झिझक थी, लेकिन महबूबा के बार-बार कहने पर उसने हज़रत याहया (अलै.) का सर कलम करके उस तश्त में रखकर उसके पास भिजवा दिया। बड़े हैरत की जगह है कि हज़रत याहया (अलै.) से आम तौर पर मुहबत किए जाने के बावजूद किसी इसराईली को यह जुर्रत न हुई कि हीरोदेस की इस लानत भरी हरकत पर उसको रोके या मलामत करे, बल्कि एक जमाअत ने उसके इस लानत भरे अमल को अच्छी नज़र से देखा।

      अब हज़रत याहया (अलै.) की शहादत के बाद हज़रत ईसा (अलै.) की दावत व तब्लीग़ का वक़्त आ गया और उन्होंने ऐलानिया यहूदियों की बिदअतों, शिर्क भरी रस्मों, ज़ुल्म भरी ख़स्लतों और बद-दीनी के खिलाफ़ जुबान से जिहाद करना शुरू कर दिया। यहूदियों में यह सलाहियत कहां थी कि वे सही बात पर लब्बैक कहते। चुनांचे थोड़ी-सी तायदाद के सिवा भारी तायदाद ने उनकी मुखालफ़त शुरू कर दी। इसी दर्मियान नब्ती बादशाह हारिस ने जो हीरोदेस की पहली बीवी के रिश्ते से उसका ससुर था, उस पर चढ़ाई कर दी और सख़्त खून खराबा करके हीरोदेस को ज़बरदस्त तौर पर हराया जिसने हीरोदेस की ताक़त का ख़ात्मा कर दिया। फिर भी यहूदिया की रियासत रोमियो के बलबूते पर क़ायम रही।

      उस वक़्त अगरचे आम तौर पर यहूदिया कहते थे कि हीरोदेस और इसराईलियों को यह ज़िल्लत और हार हज़रत याहया (अलै.) के नाहक़ ख़ून के बदले में मिली, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इस हादसे से कोई सबक़ नहीं लिया और वे अपने ज़ुल्म भरे मक़्सद से बाज़ न आए और हज़रत ईसा (अलै.) की मुख़ालिफ़त में बुग़्ज़ व इनाद के साथ सरगर्म रहे, यहां तक कि शाह यहूदिया पिलाटेस (Pilate) से उनके क़त्ल की इजाज़त हासिल करके उनको घेर लिया, मगर अल्लाह ने उनके इरादों को नाकाम बनाकर हज़रत ईसा (अलै.) को ज़िंदा आसमान पर उठा लिया।

अमल का बदला

      आख़िर अमल का बदला सामने आया और अब ख़ुद यहूदियों की आपसी ख़ाना जंगी शुरू हो गई। वजह यह हुई कि इस दौर में यहूदियों के तीन फ़िर्क़े हो गए थे। एक फ़ुक़हा की जमाअत थी और उनको फ़रेसी (Pharisee) कहते थे और दूसरी जमाअत ज़ाहिर वालों की थी जो इलहामी लफ़्ज़ों के ज़ाहिर पर जम जाते थे, उनको सदूक़ी (Sadourcee) कहते थे और तीसरी जमाअत मुर्ताज़ राहिबों की थी। इनमें से फ़रेसी और सदूक़ी का इख़्तिलाफ़ इस दर्जा तरक़्क़ी पर गया था कि उनमें सख़्त खुरेज़ियां होने लगी शाहे यहूदिया जिस गिरोह का तरफ़दार हो जाता था वह दूसरे गिरोह को बेदरेग क़त्ल करता था।

      आख़िर यह लड़ाई इतनी आगे बढ़ गई कि शाह यहूदिया को बाग़ियों के ख़िलाफ़ रूमियों से मदद लेनी पड़ती थी और बुतपरस्तों के हाथों यहूदियों को क़त्ल कराया जाता था। चुनांचे इस कशमकश में ईसा के उठाए जाने के लगभग सत्तर साल बाद यहूदियों के हक़ के दावेदार यूहन्नान और शमऊन के बीच ज़बरदस्त लड़ाई हुई। यह वह ज़माना था जबकि तख़्ते रूम पर उसका एक बहादुर जरनल असेबानूम कैसरी कर रहा था और अर्ज़े यहूदिया में यूहन्नान को कामयाबी हो गई थी जो निहायत ज़ालिम और बदकार था और उसके ज़ालिम साथियों के हाथों अर्ज़े मुक़द्दस की तमाम गली-कूचों में ख़ून की नदियां बह रही थीं।

      इस हालत में यहदियों ने अशेबानूस से मदद चाही और उसने अपने बेटे तैतूस (टेटस) को अर्ज़े मुक़द्दस को जीत लेने पर लगाया। वह आगे बढ़ा और अर्ज़े यहूदिया के क़रीब जाकर अपने एक क़ासिद नेक़ानूस को सुलह के लिए भेजा। यहूदियों का ज़ुल्म व सितम का पारा बहुत चढ़ा हुआ था, उन्होंने उसको भी क़त्ल कर दिया। अब तैतूस ग़ज़बनाक हो गया और उसने कहा, किसी फ़िर्क़े का लिहाज़ किए बग़ैर तमाम यहूदियों की जड़ें काट कर जाऊंगा ताकि हमेशा के लिए इस सरज़मीन का झगड़ा पाक हो जाए।

      चुनांचे तारीख़ लिखने वालों के मुताबिक उसने बैतुल मक़्दिस पर इतना ज़बरदस्त हमला किया कि शहर पनाह टूट गई हैकल की दीवारें बिखर गई, घेराव के लंबे हो जाने से हज़ारों यहूदी भूखे मर गए और हज़ारों फ़रार होकर बे-वतन हो गए और जो बचे थे, वे तलवार के घाट उतार दिये गए। रूमियों ने हैकल की बेहुर्मती की और जहां एक ख़ुदा की इबादत होती थी, वहां बुत ले जाकर रख दिए।

      ग़रज़ यह वह हार थी कि फिर यहूदी कभी न उभरे और अपनी कमीना और ज़ालिमाना हरकतों और ऐलानिया फ़िस्क व फुजूर और नबियों के क़त्ल के बदले में हमेशा के लिए ज़लील व ख़्वार होकर रह गए।

तीसरा सुनहरा मौक़ा और यहूदियों का मुंह मोड़ना

      कुछ दिनों के बाद रूमियों ने बुतपरस्ती छोड़कर ईसाइयत इख़्तियार कर ली और इस तरह उनके उरूज व तरक़्क़ी ने यहूदी क़ौमियत और मज़हब दोनों का मग़्लूब व मक़रूज़ बना दिया। आप अभी पढ़ चुके हैं कि जब तीतूश रूमी ने बैतुल मक़्दिस को बर्बाद कर दिया तो यहूदियों की एक बड़ी तायदाद वहां से भागकर आस-पास के इलाक़े में जा बसी, उन्हीं में कुछ वे कबीले भी हैं जो यसरिब (हिजाज़) और उसके आस-पास में जाकर आबाद हो गए थे।

      ये और इससे पहले और बाद के जो यहूदी क़बीले यहां आकर ठहर गए उनके इस बयान के मुताल्लिक़ तारीख़ लिखने वालों की राय यह है कि यहूदियों को तौरात और पुरानी किताबों (सहीफ़ों) से यह मालूम हो चुका था कि यह सरज़मीन नबी आख़िरुज़्ज़माकी दारुल हिजरत (हिजरत की जगह) बनेगी और यहूदी नबी आख़िरुज़्ज़मा के इतने इंतिज़ार में थे और उनके यहां उनके आने की इस क़दर शोहरत थी कि जब हज़रत याहया (अलै.) ने तब्लीग़ व दावत के ज़रिए पैग़ामे इलाही सुनाना शुरू किया तो यहूदियों ने जमा होकर उनसे साफ़ कहा कि हम तीन नबियों का इंतिज़ार कर रहे हैं –

      एक हज़रत मसीह (अलै.) का, दूसरे हज़रत इलयास (अलै.) का और तीसरे उस मशहूर व मारूफ़ नबी आख़िरुज़्ज़मा का, जिसके आने की शोहरत हमारे बीच इतनी है कि हम उसका नाम लेने की भी ज़रूरत नहीं समझते और सिर्फ़ उसकी तरफ इशारा कर देने से हर एक यहूदी उसको पहचान लेता है।

      तौरात इंजील, नबियों के सहीफे और यहूदियों की तारीख़ में और भी बहुत-सी गवाहियां मौजूद है कि जिनसे यह पता चलता है कि यहूदियों को ऐसे पैग़म्बर का इंतिजार था जो आख़िरी नबी होगा और हिजाज़ में भेजा जाएगा। इसी वजह से जब भी वे अपने मर्कज़ से बिखरे हैं तो उनकी एक माकूल तायदाद उसी के इन्तिज़ार में यसरिब में जा बसी।

हमेशा की ज़िल्लत और नुक़सान 

      पस कितनी बद-बख़्त व बदकिस्मत है वह जमाअत जिसने हज़रत ईसा (अलै.) की पैदाइश से लगभग 570 साल बाद तक इस इंतज़ार में गुज़ारे कि यसरिब की इस धरती पर जब अल्लाह तआला का वह पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हिजरत करके आएगा, तो हम उसकी पैरवी करके अपनी क़ौमी और मज़हबी बड़कप्पन और वक़ार (Prestige) को फिर एक बार हासिल करेंगे। यहां तक कि यसरिब के कबीले औसखज़रज के मुकाबले में भी उसी की मदद के इंतज़ारर में रहते थे।

      मगर जब वह सच्चा नबी आया और उसने मूसा और ईसा और तौरेत और इंजील की तस्दीक़ करते हुए उनको हक़ का पैग़ाम सुनाया तो सबसे पहले उन्होंने (यहूदियों) ने ही इनके ख़िलाफ़ बुग़्ज़ व अदावत ज़ाहिर की और उसकी आवाज़ पर कान न धरते हुए उसकी मुख़ालिफ़त को अपनी ज़िंदगी का मक़्सद बना लिया और नतीजे में हमेशा-हमेशा की ज़िल्लत और बदकिस्मती को मोल ले लिया।

      अल्लाह तआला ने तो शुरू ही में उनको तंबीह कर दी थी कि दो बार की सरकशी और उसके अंजाम के बाद हम तुमको एक मौका और इनायत करेंगे, पर अगर तुम उस वक़्त संभल गए और तुमने अल्लाह की फ्ररमाबरदारी का सबूत दिया और अल्लाह के पैग़म्बर की सदाक़त का इक़रार करके दीने हक़ को कुबूल कर लिया तो हम भी तुम्हारी पुरानी अज़्मत को वापस ले आएंगे और दीन व दुनिया की सआदत से तुम्हें नवाज़ेंगे, लेकिन अगर तुमने इस मौके को भी गंवा दिया और पैग़म्बर आख़िरुज़्ज़मा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुनिया के इकिलाबों की तारीख़ में अहम जगह रखते है।

      एक बार क़ाहिर बादशाह बनू कद नस्र (बख़्त नस्र) के हाथ से यह लगभग 104 क़ब्ल मसीह का वाक्क़िया है और दूसरी तैतूस रोमी के हाथों से और यह व मसीह के उठाए जाने से लगभग सत्तर साल बाद पेश आया और इन ही दो वाकियों में यहूद और यहूदी क़ौमियत और यहूदी मज़हब पर वह हो गुज़रा जिसकी इत्तिला पहले तौरेत (नबियों के सहीफ़ों) में दे दी गई और जिसकी तस्दीक के लिए कुरआन भी गवाही दे रहा है।

      इसलिए रद्द किए जाने के ख़ौफ़ के बगैर यह कहना सही है कि यहूदी बद-किरदारियों के नतीजे में जाबिर व क़ाहिर बादशाहों के हाथों उनकी तबाही व बर्बादी के जो दो सानहे पेश आए और जिनका ज़िक्र सूरःइसरा (बनी इसराईल) में है, वह बेशक बख़्त नस्र और तैतूस (Tatus) ही से ताल्लुक़ रखते हैं तो अब बिल्कुल ज़रूरी है कि इन हर दो वाक़ियों की तफ़्सील बयान करके यह दिखाया जाए कि उस ज़माने में यहूद की शरारतें और फ़साद भरी कारगुज़ारियां इस हद तक बढ़ गई थी कि उन दोनों तबाह कर देने वाले हादसों में उन पर जो कुछ गुज़रा, वह उनकी बदअमलियों ही का नतीजा था और अमल के नतीजे ही ने इन दो ताकतों की शक्लों में अपने को ज़ाहिर किया था। 

नतीजे

      1. अगरचे दुनिया ‘दारुल अमल‘ (अमल की जगह) है, दारुल-जज़ा (बदला पाने की जगह) नहीं, फिर भी अल्लाह तआला कभी-कभी दुनिया में भी मुजरिमों को उनके अमल के बदले में इस तरह कस दिया करते हैं कि ख़ुद उनको और उनके ज़माने के लोगों को यह मानना पड़ता है कि यह उनके जुर्मों की सज़ा है और उनकी तारीख़ी ज़िंदगी बाद में आने वालों के लिए नसीहत और सबक़ का सामान बन जाती है, ख़ास तौर से गुरूर (घमंड) और ज़ुल्म,ये दो ऐसे कड़े जुर्म और उम्मुल ख़बाइस (तमाम ख़राबियों की जड़) हैं कि घमंडी और ज़ालिम को आख़िरत की सज़ा के अलावा दुनिया में भी ज़रूर अपनी बदअमलियों का कुछ न कुछ ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है।

      फ़र्क सिर्फ इतना होता है कि एक शख्स के किब्र व जुल्म का बदला उस आदमी की ज़िंदगी से मुताल्लिक़ होता है और क़ौमी और इज्तिमाई किब्र व ज़ुल्म का बदला क़ौमी और इज्तिमाई ज़िंदगी से वाबस्ता हो जाता है, इसलिए पहले ज़िक्र किए गए मुद्दत में ज़्यादा अरसा नहीं होता, मगर दूसरे ज़िक्र की मुद्दत कभी इतनी लम्बी नज़र आती है कि मालूम क़ौम और जमाअत मायूसी की हद तक पहुंच जाती है और उसकी नज़र से यह प्वाइंट ओझल हो जाता है कि क़ौमों के उरूज व ज़वाल, इज़्ज़त व ज़िल्लत और कामयाबी और नाकामी की उम्र किसी एक शख्स की उम्र की तरह नहीं होती, बल्कि लम्बी होती है, फिर भी कुछ हालात में सबक़ के पहलुओं को नुमायां करने के लिए इस मुद्दत को कभी मुख्तसर भी कर दिया जाता है। चुनांचे यहूदियों की तारीख़ के वाक़िए और हालात इसकी ज़िंदा मिसाल हैं और है हज़ारों के सबक़ लेने की बात।

      2. हक़ का इंकार करने वाली और बातिल की परस्तार क़ौमों को अगर सबक़ हसिल करने के लिए दुनिया में किसी क़िस्म की सज़ा दी जाती या उनको अल्लाह के अज़ाब में पकड़ा जाता है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उन पर से आख़िरत का अज़ाब (जहन्नम का अज़ाब) टल जाता और माफ़ हो जाता है, बल्कि वह उसी तरह क़ायम रहता है जो अपने वक़्त पर होकर रहे।

      तर्जुमा- ‘और किया है हमने दोज़ख़ को काफ़िरों का क़ैदख़ाना। (78-8)

      3. अल्लाह तआला जब किसी क़ौम को उसकी बद-किरदारियों और उसके जुल्मों और फ़सादों की वजह से अज़ाब में मुब्तिला करता और अपने अमल के बदले के कानून को उन पर नाज़िल करना चाहता है तो अल्लाह की सुन्नत यह जारी है कि वह बद-अमलियों के बाद फ़ौरन ही ऐसा नहीं करता, बल्कि एक अर्से तक उसको मोहलत देता और हादियों और पैग़म्बरों की मारफ़त उनको तर्ग़ीब व तरतीब की राह से हिदायत पर लाने के तमाम मौक़े जुटाता है, ताकि अल्लाह की हुज्जत हर तरह तमाम हो जाए। पस अगर उसके बाद भी उनकी सरकशी और बग़ावत और ज़ुल्म व उदवान का तसलसुल उसी तरह क़ायम रहता है तो उसकी सख़्त पकड़’ अचानक मुजरिम क़ौम को इस तरह दबोच लेती है कि फिर अपने नतीजे को पहुंच कर रहता है और उनके सामने अल्लाह का यह फरमान मुशाहदे की शक्ल में ज़ाहिर हो जाता है।

      तर्जुमा – ‘बहुत जल्द ज़ालिम जान लेंगे कि किस तरह इंक़िलाब के तरीके के ज़रिए वे उलट दिए जाएंगे।’ (26:257)

To be continued …