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हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का जिक्र कुरआन पाक में
कुरआन पाक के रुश्द व हिदायत का पैगाम चूं कि इब्राहीमी मिल्लत का पैगाम है, इसलिए कुरआन पाक में जगह-जगह हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) का जिक्र किया गया है, जो मक्की-मदनी दोनों किस्म की सूरतों में मौजूद है, यानी 35 सूरतों की 63 आयतों में हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) का ज़िक्र मिलता है।
हजरत इब्राहीम के वालिद का नाम:
तारीख़ और तौरात दोनों हजरत इब्राहीम के वालिद का नाम ‘तारिख’ बताते हैं और कुरआन पाक के एतबार से हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के वालिद का नाम ‘आजर’ है। इस सिलसिले में उलेमा, तफ़्सीर लिखने वाले, मगरिबी मुश्तशरकों और तहक़ीक़ करने वालों ने बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी बहसें की हैं लेकिन इनमें अख्तियार की गई ठंडी ठंडी बातें हैं।
इसलिए कि कुरआन मजीद ने जब खोल-खोल कर आज़र को अब (इब्राहीम अलैहिस्सलाम का बाप) कहा है तो फिर अंसाब के उलेमा और बाइबल की तख्मिणी अटकलों से मुतास्सिर हो कर कुरआन मजीद की यक़ीनी ताबीर को मजाज़ कहने या इससे भी आगे बढ़कर कुरआन मजीद में कवाइद की बातें मानने पर कौन-सी शरई और हक़ीकी जरूरत मजबूर करती है। साफ़ और सीधा रास्ता यह है कि जो कुरआन मजीद में कहा गया उसको मान लिया जाए, चाहे वह नाम हो या लकब हो।
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और दूसरे अंबिया अलैहिमुस्सलाम:
हज़रत इब्राहीम के हालात के साथ उनके भतीजे हज़रत लूत अलैहिस्सलाम और उनके बेटों हज़रत इसमाइल अलैहिस्सलाम और हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम के वाकिआत भी वाबिस्ता हैं। इन तीनों पैग़म्बरों के तफ्सीली हालात इनके तज्किरों में बयान किए गए हैं, यहां सिर्फ़ हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के हालात के तहत कहीं कहीं जिक्र आएगा।
हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की अज़मत:
हजरत इब्राहीम की शान की इस अज़्मत के पेशेनज़र जो नबियों और रसूलों के दर्मियान उनको हासिल है कुरआन मजीद में उनके वाकिआत को अलग-अलग उस्लूब के साथ जगह-जगह बयान किया गया है।
एक जगह पर अगर थोड़े में जिक्र है, तो दूसरी जगह तफ़सील से तज़किरा किया गया है और कुछ जगहों पर उनकी शान और खूबी को सामने रखकर उनकी शख्सियत को नुमायां किया गया है।
तौरात यह बताती है कि हजरत इब्राहीम इराक के क़स्बा ‘उर’ के बाशिंदे थे और अहले फ़द्दान में से थे और उनकी क़ौम बुत-परस्त थी, जबकि इंजील में साफ लिखा है कि उनके वालिद नज्जारी का पेशा करते और अपनी काम के अलग-अलग कबीलों के लिए लकड़ी के बुत बनाते और बेचा करते थे।
मगर हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को शुरू ही से हक की बसीरत और रुश्द व हिदायत अता फ़रमाई और वे यह यक़ीन रखते थे कि बुत न देख सकते हैं न सुन सकते हैं और न किसी की पुकार का जवाव दे सकते हैं और न नफा व नुक्सान का उनसे कोई वास्ता है और न लकड़ी के खिलौनो और दूसरी बनी हुई चीज्ञों के और उनके बीच कोई फ़र्क और इम्तियाज़ है।
वे सुबह व शाम आंख से देखते थे कि इन बेजान मूर्तियों को मेरा बाप अपने हाथों से बनाता और गढ़ता रहता है और जिस तरह उसका दिल चाहता है नाक-कान आंखें गढ़ लेता है और फिर खरीदने वालों के हाथ बेच देता है, तो क्या ये खुदा हो सकते हैं या ख़ुदा-जैसे या खुदा के बराबर हो सकते हैं?
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने जब यह देखा कि क़ौम बुतपरस्ती, सितारापरस्ती और मज़ाहिर-परस्ती में ऐसी लगी हुई है कि खुदा-ए-बरतर की कुदरते मुतलका और उसके एक होने और समद होने का तसव्वुर भी उनके दिलों में बाकी न रहा और अल्लाह के एक होने के अक़ीदे से ज्यादा कोई ताज्जुब की बात नहीं रही, तब उसने अपनी हिम्मत चुस्त की और ज़ाते वाहिद के भरोसे पर उनके सामने दीने हक का पैग़ाम रखा और एलान किया –
“ऐ कौम! यह क्या है जो में देख रहा हूं कि तुम अपने हाथ से बनाए हुए बुतों की परस्तिश में लगे हुए हो। क्या तुम इस क़दर गफलत के ख्वाब में हो कि जिस बेजान लकड़ी को अपने हथियारों से गढ़ कर मूर्तियां तैयार करते हो, अगर वे मर्जी के मुताबिकं न बनें, तो उनको तोड़ कर दूसरे बना लेते हो, बना लेने के बाद फिर उन्हीं को पूजने और नफा-नुकसान का मालिक समझने लगते हो, तुम इस खुराफ़ात से बाज आ जाओ, अल्लाह की तौहीद के नज्म गाओ और उस एक हकीकी मालिक के सामने सरे नियाज झुकाओ जो मेरा, तुम्हारा और कुल कायनात का खालिक व मालिक है।”
मगर कौम ने उसकी आवाज पर बिल्कुल ध्यान न धरा और चूंकि हक़ सुनने वाले कान और हक़ देखने वाली निगाह से महरूम थी, इसलिए उसने जलीलुलकद्र पैग़म्बर की दावते हक़ का मजाक उड़ाया और ज्यादा से ज़्यादा तमरुद व सरकशी का मुजाहरा किया।
बाप को इस्लाम की दावत और बाप-बेटे का मुनाज़रा:
हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम देख रहे थे कि शिर्क का सबसे बड़ा मर्कज ख़ुद उनके अपने घर में क़ायम है और आज़र की बुतपरस्ती और बुतसाज़ी पूरी क़ौम के लिए एक धुरी बनी हुई है इसलिए फ़ितरत का तकाजा है कि हक की दावत और सच्चाई के पैग़ाम के फ़र्ज की अदाएगी की शुरूआत घर से ही होनी चाहिए, इसलिए हज़रत इब्राहीम ने सब से पहले अपने वालिद ‘आजर‘ ही को मुखातब किया और फ़रमाया –
“ऐ बाप! ख़ुदापरस्ती और मारफ़ते इलाही के लिए जो रास्ता तूने अपनाया है और जिसे आप बाप-दादा का पुराना रास्ता बताते हैं, यह गुमराही और बातिलपरस्ती का रास्ता है और सीधा रास्ता (राहे हक) सिर्फ वही है, जिसकी मैं दावत दे रहा हूं। ऐ बाप! तौहीद ही नजात का सरचश्मा है, न कि तेरे हाथ के बनाए गए बुतों की पूजा और इबादत। इस राह को छोड़कर हक़ और तौहीद के रास्ते को मजबूती के साथ अख्तियार कर, ताकि तुझको अल्लाह की रजा और दुनिया और आखिरत की सआदत हासिल हो।”
मगर अफ़सोस कि आज़र पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नसीहतों का बिल्कुल कोई असर नहीं हुआ, बल्कि हक कुबूल करने के बजाए आजर ने बेटे को धमकाना शुरू किया। कहने लगा कि इब्राहीम! अगर तू बुतों की बुराई से बाज़ न आएगा, तो मैं तुझको पत्थर मार-मारकर हलाक कर दूंगा।
हजरत इब्राहीम ने जब यह देखा कि मामला हद से आगे बढ़ गया और एक तरफ़ अगर बाप के एहतराम का मसला है तो दूसरी तरफ़ फ़र्ज़ की अदायगी हक़ की हिमायत और अल्लाह के हुक्म की इताअत का सवाल, तो उन्होंने सोचा और आखिर वही किया जो ऐसे ऊंचे इंसान और अल्लाह की जलीलुलक़द्र पैग़म्बर के शायाने शान था। उन्होंने बाप की सख़्ती का जवाब सख्ती से नहीं दिया। हक़ीर समझने और ज़लील करने का रवैया नहीं बरता बल्कि नहीं, लुत्फ़ व करम और अच्छे अख्लाक़ के साथ यह जवाब दिया:
“ऐ बाप! अगर मेरी बात का यही जवाब है तो आज से मेरा-तेरा सलाम है। मैं अल्लाह के सच्चे दीन और उसके पैग़ामे हक़ को नहीं छोड़ सकता और किसी हाल में बूतों की परस्तिश नहीं कर सकता। मैं आज तुझसे जुदा होता हूं, मगर ग़ायबाना बारगाहे इलाही में बख्शीस तलब करता रहूंगा, ताकि तुझको हिदायत नसीब हो और तू अल्लाह के अज़ाब से नजात पा जाए।”
क़ौम को इस्लाम की दावत और उससे मुनाज़रा:
बाप और बेटे के दर्मियान जब मेल की कोई शक्ल न बनी और आज़र ने किसी तरह इब्राहीम की रुश्द व हिदायत को कुबूल न किया, तो हज़रत इब्राहीम ने आज़र से जुदाई अख्तियार कर ली और अपनी हक़ की दावत और रिसालत के पैगाम को फैला दिया और अब सिर्फ आजर ही मुखातब न रहा बल्कि पूरी क़ौम को मुखातब बना लिया, मगर कौम अपने बाप-दादा के दीन को कब छोड़ने वाली थी।
उसने इब्राहीम की एक न सुनी और हक़ की दावत के सामने अपने बातिल माबूदों की तरह गूंगे, अंधे और बहरे बन गए और जब इब्राहीम ने ज्यादा जोर देकर पूछा कि यह तो बतलाओ कि जिनकी तुम पूजा करते हो, ये तुम्हें किसी किस्म का भी नफ़ा या नुक्सान पहुंचाते हैं, कहने लगे कि इन बातों के झगड़े में हम पड़ना नहीं चाहते? हम तो यह जानते हैं कि हमारे बाप-दादा यही करते चले आए हैं, इसलिए हम भी वही कर रहे हैं।
तब हज़रत इब्राहीम ने एक खास अन्दाज़ से ऐक ख़ुदा की हस्ती की तरफ़ तवज्जोह दिलाई और फ़रमाने लगे, मैं तो तुम्हारे इन सब बूतों को अपना दुश्मन जानता हूं, यानी मैं इनसे बे-खौफ़ व खतर होकर इनसे जंग का एलान करता हूं कि अगर यह मेरा कुछ बिगाड़ सकते हैं तो अपनी हसरत निकाल लें।
अलबत्ता मैं उस हस्ती को अपना मालिक समझता हूं जो तमाम जहानों का परवरदिगार है! जिसने मुझको पैदा किया और सीधा रास्ता दिखाया, जो मुझको खिलाता-पिलाता यानी रिज़्क़ देता है और जब में मरीज़ हो जाता हूं तो वह मुझको शिफ़ा बशता है और मेरी जिंदगी और मौत दोनों का मालिक है और यानी ख़ताकारी के वक्त जिससे यह लालच करता हूं कि वह कयामत के दिन मुझको बख्श दे और मैं उसके हुजूर में यह दुआ करता रहता हूं, ऐ परवरदिगार! तू मुझको सही फैसले की ताक़त अता फरमा और मुझको नेकों की सूची में दाखिल कर और मुझको जुबान की सच्चाई अता कर और जन्नते नईम के वारिसों में शामिल कर।
मगर आज़र और आज़र की कौम के दिल किसी तरह हक़ कुबूल करने के लिए नर्म न हुए और उनका इंकार हद से गुज़रता ही गया।
इंशा अल्लाह अगले पार्ट में हम क़ौम की सितारा परस्ती और क़ौम के नसीहत के लिए इब्राहिम अलैहिस्सलाम की बुतों से बगावत को तफ्सील में देखेंगे।