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हज़रत यूनुस (अलै.) का ज़िक्र कुरआन मजीद में
कुरआन मजीद में हज़रत यूनुस (अलै.) का ज़िक्र छः सूरतों में किया गया है, सूरः निसा, अनआम, यूनुस, अस्साफ़्फ़ात, अंबिया और अल-कलम। इनमें से पहली चार सूरतों में नाम का ज़िक्र है और आख़िर की दो सूरतों में ‘जुन्नून’ और ‘साहिबुल हूत’ कहकर सिफ़त ज़ाहिर की गई है।
यह भी वाज़ेह रहे कि सूरः निसा और अनआम में नबियों की सूची में सिर्फ नाम का ज़िक्र है और बाकी सूरतों में वाक़ियों पर थोड़ी-सी रोशनी डाली गई है और हज़रत यूनुस (अलै.) की मुबारक ज़िंदगी के सिर्फ उसी पहलू को नुमायां किया गया है जो उनकी पैग़म्बराना जिंदगी से जुड़ा हुआ है और जिसमें रुश्द व हिदायत के अलग अलग गोशे सोचने-समझने की दावत देते हैं। कुरआन में आता है –
फिर क्यों ऐसा हुआ यूनुस की क़ौम की बस्ती के सिवा और कोई बस्ती न निकली कि (अज़ाब नाजिल होने से पहले) यक़ीन कर लेती और ईमान की बातों से फ़ायदा उठाती? यूनुस की क़ौम जब ईमान ले आई तो हमने रुसवाई का वह अज़ाब उन पर से टाल दिया जो दुनिया की ज़िंदगी में पेश आने वाला था और एक ख़ास मुद्दत तक ज़िंदगी के सर व सामान से फ़ायदा उठाने की मोहलत दे दी और जुन्नून (यूनुस) का मामला याद करो, जब ऐसा हुआ था कि वह (हक के रास्ते में) घबरा कर चला गया, फिर उसने ख़्याल किया कि हम उसको तंगी (आज़माइश) में नहीं डालेंगे, फिर (जब उसको आज़माइश की तंगी ने आ घेरा, तो) उसने (मछली के पेट में और दरिया की गहर अंधेरियों में पुकारा, ‘अल्लाह तेरे सिवा कोई माबूद नहीं! तेरे लिए हर की पाकी हो!‘ सच यह है कि मैंने अपने ऊपर बड़ा ही ज़ुल्म किया।
तब हमने उसकी दुआ कुबूल की और उसे ग़मगीनी से निजात दी और हम इसी ईमान वालों को निजात दिया करते हैं और बेशक यूनुस पैग़म्बरों में से (और वह वाक़िया याद करो) जबकि वह भरी हुई कश्ती की ओर भागा (और जब नाव वालों ने डूब जाने के डर से) कुरआ डाला, तो (दरिया में डाले जाने के लिए) उसका नाम निकला फिर निगल गई उसको मछली और वह (अल्लाह के नज़दीक क़ौम के पास से भाग आने पर) मलामत के काबिल था।
पस अगर यह बात न होती कि वह अल्लाह की पाकी बयान करने वालों में से था तो मछली के पेट में क़यामत तक रहता, फिर डाल दिया हमने उसको (मछली के पेट से निकाल कर) चटयल ज़मीन में और वह नातवां और बेहाल था और हमने उस पर साए के लिए एक बेल वाला पेड़ उगाया और हमने उसको एक लाख से ज़्यादा इंसानों की तरफ़ नबी बनाकर भेजा, पस वे ईमान ले आए। फिर हमने उसको एक मुद्दत (मौत के पैग़ाम) तक जिंदगी के सामान से नफ़ा उठाने का मौक़ा दिया।
पस अपने परवरदिगार के हुक्म की वजह से सब्र को काम में लाओ और मछली वाले (यूनुस) की तरह (बेसब्र) न हो जाओ, जबकि उसने (अल्लाह को) पुकारा और वह बहुत ग़मगीन था। अगर यह बात न होती कि उसके परवरदिगार के फ़ज़ल ने उसको (गोद में) ले लिया था, तो वह ज़रूर चटयल मैदान में मलामत का मारा होकर फेंक दिया जाता। पस उसके परवरदिगार ने उसको बरगज़ीदा किया और उसको नेकों में लिखा।
हज़रत यूनुस (अलै.) को सूरः अंबिया में ‘जुन्नून’ कहा गया है, इसलिए कि पुरानी अरबी जुबान में ‘नून’ मछली को कहते हैं और अल-कलम में ‘साहिबुलहूत’ से याद किया गया है क्योंकि ‘हूत’ भी मछली ही को कहते है –
और उन पर मछली का हादसा गुज़रा था, इसलिए ‘मछली वाला‘ उनका लक़ब हो गया।
नसब व ज़माना
बुख़ारी शरीफ़ की एक रिवायत में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) से साफ़-साफ़ रिवायत किया गया है कि मत्ता वालिद का नाम है और अहले किताब हज़रत यूनुस (अलै.) का नाम बोनाह और उनके वालिद का नाम अमती बताते हैं, जहां तक उनके ज़माने का ताल्लुक़ है तो हज़रत इमाम बुख़ारी रह० ने ‘किताबुल अंबिया’ में जो तर्तीब क़ायम की है, उसमें हज़रत यूनुस (अलै.) का ज़िक्र हज़रत मूसा (अलै.), हज़रत शुऐब (अलै.) और हज़रत दाऊद (अलै.) के दर्मियान किया है।
हज़रत शाह अब्दुल कादिर (नव्वरल्लाहु मर्कदह) का क्रौल है कि हज़रत यूनुस (अलै.) हिज़कील के ज़माने के हैं, जबकि हाफ़िज़ इब्ने हजर फ़रमाते हैं कि हज़रत यूनुस (अलै.) के ज़माने का तय करना तारीखी एतबार से मुश्किल है। (हज़रत मौलाना हिफ़जुर्रहमान रह०) का ख्याल है कि हज़रत शाह अब्दुल कादिर रह० का क़ौल सही मालूम होता है। (वल्लाहु आलम)
दावत की जगह
इराक़ के मशहूर व मारूफ़ मक़ाम नैनवा के बाशिंदों की हिदायत के लिए वे ज़ाहिर हुए थे। नैनवा आशूरी हुकूमत की राजधानी था और मूसल के इलाक़े में मर्कज़ी शहर था। कुरआन में इस शहर की आबादी एक लाख से ज़्यादा बताई गई है।
वफ़ात
शाह अब्दुल क़ादिर नव्वरल्लाहु मरक़दहू फ़रमाते हैं कि यूनुस (अलै.) की वफ़ात इसी शहर में हुई जिसकी जानिब को भेजे गए, यानी नैनवा में और वहीं उनकी क़ब्र थी। शाह साहब का यह क्रौल सही है।
कुछ दूसरी बातें
हज़रत यूनुस (अलै.) की फ़ज़ीलत
सहीह हदीसों में नबी अकरम ने हज़रत यूनुस (अलै.) का भला ज़िक्र करते हुए उनकी अज़्मत व फ़जीलत का ख़ास ज़िक्र फ़रमाया है, चुनांचे बुखारी में नक़ल किया गया है –
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया, तुममें से कोई आदमी हरगिज़ यह न कहे कि मैं (यानी नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बेहतर हूं ‘यूनुस बिन मत्ता‘ से।
और हज़रत अबू हुरैरह (अलै.) से नक़ल किया गया है कि एक बार एक यहूदी सामान बेच रहा था कि किसी आदमी ने कुछ ख़रीद कर जो कीमत देनी चाही, वह उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ थी। वह कहने लगा, ख़ुदा की कसम! जिसने मूसा को अफ़ज़ल बशर बनाया, मैं इस क़ीमत पर अपनी चीज़ को नहीं बेचूंगा। एक अंसारी ने यह सुना तो गुस्से में यहूदी को एक तमांचा रसीद कर दिया और कहा, तू ऐसी बात कहता है, जबकि हमारे दर्मियान नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मौजूद हैं।
यहूदी फ़ौरन दरबारे रिसालत में हाज़िर हुआ और फ़रियाद करने लगा, अबुल क़ासिम! जबकि मैं आपके अहद और ज़िम्मे में हूं तो इस अंसारी ने मेरे मुंह पर तमांचा किस लिए मारा? नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अंसारी से वजह मालूम की और जब अंसारी ने वाक़िया सुनाया तो फिर आपका मुबारक चेहरा गुस्से से लाल हो गया और फ़रमाया, नबियों को एक दूसरे पर फ़ज़ीलत न दो, इसलिए कि जब पहला सूर फूंका जाएगा, तो ज़मीन व आसमान के अन्दर जो भी जानदार हैं, वे सब बेहाश हो जाएंगे, मगर जिनको अल्लाह अलग कर दे। इसके बाद दूसरा सूर फूंका जाएगा तो सबसे पहले जो आदमी होश में आएगा, वह मैं हूंगा, मगर ग़शी का मामला सूर के वाक़िए में महसूब हो गया है कि वह ग़शी से बचे रहे या वह मुझसे भी पहले होश में आ गए और मैं नहीं कहता कि कोई नबी भी यूनुस बिन मत्ता से अफ़ज़ल है।
इन रिवायतों से खुसूसियत के साथ हज़रत युनूस (अलै.) का जो ज़िक्र आया है तो इस पर उलेमा का इत्तिफ़ाक़ है कि वह सिर्फ इसीलिए कि जो भी हज़रत यूनुस (अलै.) के वाक़ियों को पढ़े, उसके दिल में ज़ाते अक़्दस के ताल्लुक़ से कोई ख़राब पहलू भी न आने पाए, पस ज़रूरी हुआ कि उनकी शान की अज़्मत को नुमायां करके तंकीस (खराबी निकालने) के इस डर को खत्म कर दिया जाए।
नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के फ़ज़ाइल
मगर इस जगह यह मसअला ज़रूर हल तलब हो जाता है कि दूसरी हदीस में हज़रत मूसा (अलै.) की फ़ज़ीलत के ताल्लुक़ से आपने जो तफ़्सील इदर्शाद फ़रमाई और ‘ला तफ़ज़्ज़लु बैनुल अंबिया’ (नबियों के दर्मियान एक दूसरे को फ़ज़ीलत न दो) फ़रमा कर नबियों के दर्मियान फ़ज़ीलत की ‘नहीं’ कर दी तो इस मसले की हक़ीक़त क्या है?
इसे और नुमायां करने के लिए यूँ समझना चाहिए कि एक तरफ़ कुरआन में इर्शाद है – ‘रसूलों में हमने कुछ को कुछ पर फ़ज़ीलत अता फ़रमाई‘ साथ ही नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया – ‘मैं बग़ैर किसी फक्र के कहता हूं कि मैं आदम की तमाम औलाद का सरदार हूं और आपने यह भी फ़रमाया, नबियों के दर्मियान अफ़ज़ल-गैर अफ़ज़ल का फ़र्क कायम न करो और न एक को दूसरे पर फ़जीलत दो।’
तो आपस में इनमें किस तरह मेल हो सकता है? इस मसअले का बहतरीन हल यह है कि बेशक नबियों और रसूलों के दर्मियान फ़ज़ाइल मौजूद हैं और उनके दर्मियान अफ़ज़ल और मफ़ज़ूल की निस्बत कायम है और यक़ीनी तौर पर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तमाम नबियों और रसूलों से अफ़ज़ल हैं, फिर ऊपर की रिवायतों में आपने जो नबियों के दर्मियान फ़जीलत देने से मना किया है, तो इसका मतलब यह है कि किसी नबी को दूसरे नबी पर इस तरह की फ़ज़ीलत देने से सख्ती से रोका गया है कि उस नबी की कमज़ोरी बताना ही तो अफज़ल नहीं है।
यानी यह नहीं होना चाहिए कि किसी पैग़म्बर की मुहब्बत के जोश में दूसरे नबियों का मुकाबला करते हुए ऐसी तारीफ की जाए कि जिससे किसी दूसरे पैग़म्बर में कमी या कमज़ोरी (नुक़्स) का पहलु निकलता हो, साथ ही ऐसे मौके पर फ़ज़ीलत की बहस से रोका गया जबकि यह लड़ाई-झगड़े की शक्ल इख़्तियार कर ले इसलिए कि ऐसी शर में एहतियात के बावजूद इंसान बेकाबू होकर दूसरे पैग़म्बर के बारे में ऐसी बातें कह जाएगा जो उनकी तौहीन और तंकीद (नुक़्स निकालना) की वजह बनती हैं और नतीजे में ईमान की जगह कुफ़्र लाज़िम हो जाता है।
चुनांचे जिस वाक़िये में आपने यह इर्शाद फ़रमाया था, वह इसी किस्म के लड़ाई-झगड़े का मौक़ा था। बाक्री नबियों के दर्मियान अल्लाह तआला ने कुछ खुसूसियतों के एतबार से जो दर्जों का फ़र्क क़ायम किया है और जिसके बारे में खुद यह फ़रमाया है–
‘तिलकर्रसूलु फ़ज़्ज़लना बाज़हुम अला बाज़’ तो यह मामला अपनाने लायक है न कि छोड़ने लायक़।’
कुछ सबक़, कुछ नसीहते
1. क़ौमों की रुश्द व हिदायत से मुताल्लिक़ यह ‘अल्लाह की सुन्नत‘ है कि जब वह नबी की दावत से मुंह मोड़कर सरकशी पर इसरार करने लगती और ज़ुल्म करती, ज़ुल्म ढाने को उसवा बना लेती है और नबी मायूस होकर उनको अज़ाब की ख़बर दे देता है, तो फिर उम्मत के लिए सिर्फ दो राहें बाकी रह जाती हैं, या अज़ाब आने से पहले ईमान ले आए और अज़ाब से बच जाए और या अल्लाह के अज़ाब का शिकार हो जाए और यह नामुमक़िन है कि नबी की अज़ाब की इत्तिला के बाद वे अज़ाब से पहले ईमान भी न लाएं और अज़ाब से भी बच जाएं।
क़ौमे नूह, क़ौमे सालेह, क़ौमे लूत, आद, समूद वगैरह इन सब पुराने नामों और पिछली कौमों का शानदार तमद्दुन (संस्कृति) ऊंची और शानदार तहज़ीब (सभ्यता), भारी-भरकम ताक़त और क़ुव्वत और फिर अल्लाह के अज़ाब से उनका फ़ना होकर बेनाम व निशान हो जाने की तारीख इस हक़ीक़त को खोल देती है।
2. पिछली क़ौमों में से क़ौमे यूनुस की मिसाल ऐसी है जिसने अज़ाब आने से पहले ईमान को कुबूल किया और वह अल्लाह की सच्ची मुती व फ़रमाबरदार बनकर अल्लाह के अज़ाब से बच गई, काश कि बाद में आने वाली नस्लें और कौमें यूनुस के नक्शे कदम पर चलकर उसी तरह अल्लाह के अज़ाब से बची रह सकतीं, मगर अफ़सोस कि ऐसा न हुआ।
3. नबियों का अल्लाह तआला के साथ मामला आम और ख़ास दोनों से जुदा रहता है और रहना भी चाहिए, इसलिए कि वे सीधे-सीधे अल्लाह से मुख़ातिब होने और बात करने का शरफ़ रखते हैं, इसलिए अल्लाह के अहकाम के मिसाल में लेने की वह ज़िम्मेदारी जो उनसे जुड़ी होती है, वह दूसरों के साथ नहीं होती पस उनका फ़र्ज़ है कि जो काम भी अंजाम दें, अल्लाह की वह्य की रोशनी में होना चाहिए, खास तौर से दीन की तब्लीग़ और हक के पैग़ाम से मुताल्लिक़ तमाम मामलों में अल्लाह की वह्य के इल्मुल यक़ीन ही पर उनका मामला लटका रहे।
यही वजह है कि जब वे किसी काम में जल्दी कर बैठते हैं या वह्य का इन्तिज़ार किए बग़ैर किसी कौल या अमल पर कदम उठाते हैं, तो भले ही वह बात कितनी ही मामूली क्यों न हो, उनकी अल्लाह तआला बहुत सख्त पकड़ करता और उनकी इस सुरतेहाल के लिए ऐसी सख्त ताबीर करता है कि सुनने वाले को महसूस होता है कि सच में उन्होंने कोई बहुत बड़ा जुर्म किया है, मगर साथ ही उसकी मदद भी शामिले हाल रही है
और वह तुरन्त तंबीह लेकर ग़लती माफ़ करने के लिए दुआ करते हैं और तौबा को काम का वसीला बनाते हैं जो बहुत जल्द अल्लाह के यहां मक़बूल हो जाती और उनकी इज़्ज़त व एहतराम में ज़्यादती की वजह बन जाती है।
कुरआन के बयान करने के तरीके में इस सच्चाई की बहुत ज़यादा अहमियत है और जो इस सच्चाई को नहीं जानता, उसके लिए इस किस्म के मौके ज़्यादा उलझनों की वजह बनते हैं, क्योंकि वह एक तरफ़ देखता है कि अल्लाह एक हस्ती को नबी और रसूल कहकर उसकी तारीफ़ कर रहा है और दूसरी ओर यह नज़र आता है कि गोया वह बहुत बड़ा जुर्म कर रहा है, तो वह हैरान और परेशान होकर या टेढ़ का शिकार हो कर रह जाता है या वस्वसों के अंधेरे मैदान में घिर जाता है इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि नबियों के हालात में हमेशा इस बात को सामने रखा जाए ताकि सीधे रास्ते से पांव न डगमगा जाएं।
4. इस्लाम की तालीम यह है कि अल्लाह के सच्चे नबी इस्लाम के अपने नबी हैं चाहे वे किसी दीन से ताल्लुक़ रखते हों और उन पर इसी तरह ईमान लाना ज़रूरी है जिस तरह नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लाना, इसलिए इसका यकीन रखते हुए नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तमाम नबियों और रसूलों के सरदार और अफ़ज़लुल-बशर हैं।
किसी नबी के मुकाबले में आपकी ऐसी तारीफ़ और बखान करने से सख़्ती से मना किया गया है जिससे किसी नबी की भी कोई कमज़ोरी सामने आती हो, जैसा कि आम तौर पर मीलाद की पाई जाने वाली मज्लिसों में इस अहम हक़ीक़त से ना आशना मीलाद-ख्वानों के शेर में यह मना किया गया तरीका पाया जाता है।नोट-हज़रत यूनुस (अलै.) के किस्से से मुताल्लिक कुरआनी आयतों की तफ़्सीर में तफ़्सीर लिखने वालों के इख़्तिलाफ़ जिसकी बुनियाद ज़्यादातर लुग़त और ग्रामर पर है, शामिल नहीं किए गए। (मुरत्तिब)
To be continued …